Wednesday, 12 November 2025

सीठणे

मामा की लड़की की शादी को दस साल ही हुए हैं। तब तक भी शादी का मतलब सिर्फ जीमने-जूठने तक नहीं होता था,शादी में शामिल होने वाले सभी रिश्तेदार, परिवार जब तक लड़की के फेरे और विदा नहीं हो जाती, तब तक वहीं डटे रहते थे। बहन और जीजा जी बड़े अफसर हैं, फिर भी मेरी और बहन की जिद्द थी कि पहले वाली शादियों की तरह अंगूठा फेरे लेंगे। यानि अंगूठे से जितना सरका जा सकता है सिर्फ उतना, बिल्कुल कीड़ी चाल। और उसने यही किया। हमारे यहाँ तब तक सीठणों का रिवाज था, माँ ने गाया-


हळवैं हळवैं चाल म्हारी लाडो
तनै हाँसेंगी सवेलड़ियां।
तावळी तावळी चाल बेस्सां का दिन छिपण न हो रह्या सै।

फेरों का माहौल बड़ा खूबसूरत होता था। हँसी-मजाक का वह रंग खत्म ही हो चुका।

शादी में फेरों की रस्म ही बेहद खास होती हैं और बाकि सब चोंचलों ने उसे ही हल्का कर दिया। फेरे देखने का चाव ना बारातियों को रहा और ना लड़की के रिश्तेदारों को। सबकुछ स्टेज तक सिमट गया। सारा धूम धड़ाका स्टेज तक रह गया । फेरों की रस्मों- गीतों, सीठणों का कोई महत्व नहीं रहा।
हम बचपन में बारात और फेरे देखने दूर तक जाते थे। फेरों पर वे सीठणे और लड़की का मामा गोदी उठाकर लाता तो गीत गाया जाता था....

गढ़ छोड़ रुक्मण बाहर आई.... फेरों पै फूल बखेरिए....

इतने सुंदर गीतों के बीच का आगमन अब खत्म हो चुका है। पता नहीं कोई मिस करता भी है या नहीं पर मेरे कानों में मेरी माँ, चाची, ताई,बुआ, मौसी, नानी, मामियों की आवाज गूंजती हैं।

सारे तो नहीं, कुछ सीठणे समेट कर लाई हूँ।

जोहड़ां पै आई काई दादा हो
समधी की भाजी लुगाई दादा हो
कन्या न दे परणां।

पीपळ म्हं बोल्या तीतर दादा हो
समधी का हाल्लै से भीतर दादा हो
कन्या नै दे परणा।

कैरां कै लाग्गे टींड दादा हो
समधी के फस गया लींड दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

नीमां कै लाग्गी निंबोळी दादा हो
समधी की लुट गई न्योळी दादा हो
कन्या न दे परणा।

आंगण म्हं पड़या फरड़ा दादा हो
समधी का चाल्लै सै धरड़ा दादा हो
कन्या न दे परणा।

छोरियाँ नै कात्या सूत दादा हो
समधी का उंघै सै पूत दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

बाहरणे कै आग्गै गाड्डी दादा हो
बंदड़ी सै बंदड़े तै ठाड्डी दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

बाहरणे म्हं टंग रही कात्तर दादा हो
बंदड़ी सै बंदड़े तै चात्तर दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

म्हारी छयान पै गोसा दादा हो
बंदड़ा सै बंदड़ी तै ओछा दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

म्हारै चार बिलाईए थे दो गौरी दो सांवळे
एक बिलाईया खेत गया जिज्जै कै मुंह नै छेत गया
एक बिलाईया ऊत गया, जीजै कै मुंह म्ह मूत गया
एक बिलाईया ऊँघै था जीजै कै मुंह नै चूंघै था।

बंदड़े की बेबे रंग भरी जी, खड़ी बुरज कै जी ओंट
गादड़ चुंबे ले गया जी कोए लोबां पड़गी पेट
ए बड़वे ज्यान के जी रा।

पैंटां लाए माँग कैं जीजा हो, बुरसट ल्याए जी चोर
घड़ियां मेरे बीर की चलदे की ल्यांगे खोस
ए जीजा ज्यान ले जी रा।

चार चखूंटा चौंतरा जीजा हो, चौंतरे पै बैठा जी मोर
मोर बिचारा के करै, तेरी बेल न लेगे चोर
ओ जा कैं टोह लियो जीजा हो।

दो खरबूजे रस के भरे जीजा हो, उनकी रांधू जी खीर
आज्या जीजा जीम ले, तेरै खोंसड़े मारूं तीन
हे जीजा जान के प्यारे जी।

कोरा घड़वा नीर का जीजा हो, उसका ठंडा नीर
ब्याहे- ब्याहे पी लियो, थारा रांड्यां का ना सीर
हे बुरा मत मानियो जी।

मूळी बरगा उजळा जीजा हो, गाजर बरगा जी लाल
कुत्यां बरगा भौंकणा जी, थारी गधड़यां बरगी चाल
हे बुरा मत मानियो जीजा हो।

पैंटा के पहरणा जीजा हो, टांग भचीड़ी जां, हो जी रा हो
थाम धोती बांधो पान की थारे कच्छे चमकदे जां, हो जीजा लाडले जी हो।

जैसा थारा रंग हो जीजा हो, वैसी ए उड़द की जी दाळ
दाळ हो तो धो लिए, तेरा रंग ना धोया जा
हो जीजा लाडला हो।

सुनीता करोथवाल




Tuesday, 11 November 2025

औरंगज़ेब के शासनकाल में बृज क्षेत्र के जाटों द्वारा किये गये विद्रोह का मूल कारण औरंगज़ेब की कृषि नीतियाँ थीं!

 सिंथिया टैलबॉट और इरफ़ान हबीब दोनों इस मत पर सहमत हैं कि औरंगज़ेब के शासनकाल में बृज क्षेत्र के जाटों द्वारा किये गये विद्रोह का मूल कारण औरंगज़ेब की कृषि नीतियाँ थीं, न कि उसकी धार्मिक नीतियाँ। वे आगे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि मुग़ल काल तक जाटों का हिन्दूकरण ही नहीं हुआ था, अतः यह कथन सर्वथा भ्रामक होगा कि जाट औरंगज़ेब द्वारा हिन्दुओं के दमन के विरुद्ध उठ खड़े हुए, जैसा कि सर यदुनाथ सरकार ने दावा किया था।


परन्तु भरतपुर रियासत की स्थापना के पश्चात् जाटों का द्रुत गति से हिन्दूकरण प्रारम्भ हुआ। भरतपुर रियासत के राजाओं ने मथुरा के मन्दिरों, ब्राह्मणों एवं वैष्णवों को संरक्षण प्रदान करना आरम्भ किया तथा स्वयं को हिन्दू धर्म एवं हिन्दू समाज का हितैषी प्रमाणित करने का प्रयास किया। इतना ही नहीं, उन्होंने बयाना क्षेत्र के पुराने सामन्तों की वंशावलियाँ भी अंगीकार कर लीं और स्वयं को श्रीकृष्ण अथवा लक्ष्मण का वंशज घोषित करने लगे।


चूँकि ब्रिटिश काल के आरम्भ तक पंजाब क्षेत्र के जाटों का हिन्दूकरण अत्यन्त सीमित था, अतः वे 1881 की जनगणना के पश्चात् तीव्र गति से मुस्लिम और ईसाई बनने लगे। 1881 से 1921 के मध्य, मात्र चालीस वर्षों में, पंजाब के 80% से अधिक जाट मुस्लिम और सिख बन गये। अब ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह प्रवृत्ति हरियाणा और जाँगल क्षेत्रों में भी विस्तारित होगी। इसी परिप्रेक्ष्य में आर्य समाज ने इस प्रवृत्ति को रोकने का सुनियोजित प्रयास आरम्भ किया।


आर्य समाज ने हरियाणा और जाँगल क्षेत्रों के जाटों को यह विश्वास दिलाया कि वे ही आर्यों की वास्तविक सन्तान हैं तथा वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करना उनका धार्मिक कर्तव्य है। जाटों में प्रचलित 'लेविरेट विवाह' (देवर विवाह) प्रथा को वैदिक परम्परा की निरन्तरता के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसके अतिरिक्त, आर्य समाज ने जाटों को वैदिक क्षत्रिय घोषित किया, यद्यपि आर्य समाज जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था का खण्डन भी करता रहा।


अतः जब 1921 की जनगणना प्रारम्भ हुई, तो जाट राजाओं, सामन्तों और नेताओं ने जाटों को जनगणना प्रतिवेदन में क्षत्रिय वर्ण में सम्मिलित कराने हेतु व्यापक लामबन्दी आरम्भ की। इसी क्रम में जाटों ने वर्ष 1925 में पुष्कर में एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन को आर्य समाज और हिन्दू महासभा, दोनों ने अपना संरक्षण प्रदान किया, ताकि जाटों का उपयोग उत्तर-पश्चिम भारत के मुसलमानों के विरुद्ध किया जा सके।


रॉबर्ट स्टर्न अपनी पुस्तक The Cat and the Lion में लिखते हैं कि राजपूताना क्षेत्र के जाटों की आर्थिक स्थिति राजपूतों के समकक्ष थी। वे शेखावाटी आन्दोलन पर लिखते हैं कि आर्थिक कारणों की आड़ में इस आन्दोलन का वास्तविक उद्देश्य हिन्दू समाज के भीतर जाटों द्वारा अपनी स्थिति को राजपूतों के समकक्ष स्थापित करना था। इस आन्दोलन को पटियाला, फ़रीदकोट, नाभा, जींद, भरतपुर आदि रियासतों के राजाओं तथा पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के जाट जागीरदारों का समर्थन प्राप्त था।


इस प्रकार 1950 तक आते-आते हिन्दू समाज के भीतर जाटों की सामाजिक स्थिति राजपूतों के समकक्ष मानी जाने लगी। 1950 के पश्चात् जाटों ने कॉंग्रेस शासन का पर्याप्त लाभ उठाया और अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ की। हरित क्रान्ति के पश्चात् जाटों की आर्थिक स्थिति में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ। अब जाट नेता पुराने राजपूत सामन्तों की भाँति व्यवहार करने लगे। यही कारण था कि मण्डल आयोग ने जाटों को सामान्य वर्ग में सम्मिलित किया।


परन्तु 1998 में भैरों सिंह शेखावत ने जाटों को कॉंग्रेस से पृथक् करने के उद्देश्य से अपने जाट समर्थकों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण की माँग करने हेतु तैयार किया, जिसका नेतृत्व राजस्थान के पूर्व पुलिस महानिदेशक ज्ञान प्रकाश पिलानिया को सौंपा गया। अगले ही वर्ष केन्द्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने राजस्थान के जाटों को ओबीसी आरक्षण प्रदान कर दिया। इस आरक्षण आन्दोलन के दौरान जो जाट नेता उभरे, वे सभी भारतीय जनता पार्टी से प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने लगे तथा जाटों को कॉंग्रेस पार्टी के प्रति उत्तेजित करने लगे।

शिवत्व बेनीवाल

Tuesday, 4 November 2025

बहुत से गैर जाट एक काल्पनिक कहानी बताते हैं की अकबर और जहांगीर ने पंजाब में जाट लड़कियों से शादी की और बदले में ज़मीन दी

बहुत से गैर जाट एक काल्पनिक कहानी बताते हैं की अकबर और जहांगीर ने पंजाब में जाट लड़कियों से शादी की और बदले में ज़मीन दी।ओर बिना किसी रिसर्च ओर काबिलियत के लिखे गए आंकड़ों को साझा करते है।


वैसे तो मैं लिखित इतिहास को मनगढ़ंत ही मानता हूं क्योंकि यह लगभग पूरी तरह लेखक की पसंदगी पर डिपेंड करता है। DNA की लड़ियां इतिहास को संशोधित कर रही है। फिर भी ऑथेंटिक रिसर्च करने वालो का डेटा ओर उनकी काबिलियत साझा कर रहा हूं।जिस से मेरे अपने लोग इसकी वेल्यू को समझे।

हॉरेस आर्थर रोज़ (सहयोगी एडवर्ड डगलस मैक्लैगन)की किताब A Glossary of the Tribes and Castes of the Punjab and North‑West Frontier Province में इसे बिना सर पैर मनघडंत बताया है।

Horace Arthur Rose (1867–1933)
ब्रिटिश सिविल सर्वेंट और एथ्नोलॉजिस्ट (Ethnologist) थे।

उन्होंने भारत में Punjab Civil Service में कार्य किया।
वे District Officer और बाद में Superintendent of Ethnography for Punjab के पद पर रहे।

ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पंजाब और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (North-West Frontier Province) की जातियों, जनजातियों और समुदायों का वर्गीकरण करने का काम सौंपा था। इसी अध्ययन के आधार पर यह महान ग्रंथ तैयार हुआ।

उन्होंने Sir Denzil Ibbetson और Edward Maclagan के साथ मिलकर यह पुस्तक संकलित की।
यह पुस्तक 1911 में प्रकाशित हुई थी (तीन खंडों में)।

Edward Douglas Maclagan (1864–1952)
वे एक ब्रिटिश प्रशासक और इतिहासकार थे।उन्होंने Indian Civil Service (ICS) में काम किया।बाद में वे Governor of the Punjab (1919–1924) बने।

उन्होंने भारतीय समाज की जनगणना (Census of India) के कार्य में भी योगदान दिया।इस पुस्तक में उन्होंने प्रशासनिक और सांख्यिकीय आंकड़ों के संकलन में सहयोग किया।

यह पुस्तक भारत की जातियों (Castes) और जनजातियों (Tribes) पर ब्रिटिश राज के दौरान की सबसे महत्वपूर्ण और विस्तृत कृति है।
इसमें पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, दिल्ली और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (अब पाकिस्तान का खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्र) के समुदायों का विस्तृत वर्णन है।

इसमें निम्न शामिल हैं:

प्रत्येक जाति/जनजाति की उत्पत्ति
उनके सामाजिक और आर्थिक कार्य
सांस्कृतिक परंपराएं, रीति-रिवाज, पहनावा
धार्मिक मान्यताएं और लोककथाएं
19वीं–20वीं सदी के प्रारंभिक सामाजिक ढांचे का विवरण
वास्तविक जट्ट - Dinesh Behniwal





Thursday, 30 October 2025

जाटों ने सिंध और पश्चिमी पंजाब से उत्तर की ओर आकर

 इतिहासकार David E. Ludden के अनुसार, जाटों ने सिंध और पश्चिमी पंजाब से उत्तर की ओर आकर, 11वीं से 16वीं शताब्दी में सूखे स्थानों को खेती योग्य बनाया और कृषिप्रधान जमीन पर अपना कब्ज़ा बनाया।

यह दर्शाता है कि जाटों ने कठोर प्राकृतिक व सामाजिक परिस्थितियों में टिकने की ताकत दिखाई और कृषि में सक्रिय भूमिका निभाई।
H.A. ROSE “भूमि-स्वामी और स्वतंत्र कृषक के रूप में कोई भी जाति जाट की बराबरी नहीं कर सकती। जाट स्वयं को ‘ज़मींदार’ अर्थात ‘भूमि का पालनकर्ता’ कहता है।”
लड़ाकू क्षमता और सामुदायिक संगठन
ब्रिटिश स्रोत बताते हैं कि जाटों को ‘‘मार्शल रेस’’ (martial race) के रूप में वर्गीकृत किया गया — अर्थात् लड़ाकू क्षमता,लड़ाई में किसी अपने को मौत के सामने छोड़कर कभी भी पीठ न दिखाना। दुर्गम इलाकों में सक्रियता और सेना-भर्ती में उनका प्रमुख स्थान था।
C. A. Bayly का विश्लेषण यह दिखाता है कि जाटों की राजनीतिक शक्ति निर्माण में उनकी "peasant-warrior groups" के रूप में उदय-प्रक्रिया महत्वपूर्ण रही।
जाटों ने सिर्फ गाँव-खेती तक सीमित न रहकर सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक रूप से सक्रिय भूमिका निभाई।
अनेक शोध बताते हैं कि जाट-समुदाय ने अलग-अलग धर्मों (हिंदू, सिख, मुस्लिम) में अपना हिस्सा लिया। जिसने उन्हें विभिन्न सामाजिक-धार्मिक परिवेशों में अनुकूल बनने की क्षमता दी।
यह गुण जाट समुदाय के सामाजिक-लचीलेपन और सामुदायिक सहिष्णुता को चिन्हित करता है।
बेली बताते हैं कि जाट समुदाय ऐसा था जहाँ ब्राह्मण बहुत कम थे, और पुरुष जाट अपनी मेहनत और बेहतर पारिवारिक व्यवस्था के चलते अपनी जेनेटिक श्रृंखला से अच्छी जीवनसाथी पाता था।
जाटों की सक्रियता जाति-भेदों की बारीक गिनती के बजाय एक तरह की “कुल-राष्ट्रीयता (tribal nationalism)” से प्रेरित थी, जाट अच्छी फसल,अच्छे दूध,अच्छे वंश के लिए किसी ईश्वर से अधिक अपनी मेहनत और खुद पर भरोसा रखता था। इसीलिए जाट की भूमिका ब्राह्मणवादी हिन्दू राज्य CONTEXT में स्पष्ट नहीं थी।
James Tod— Annals and Antiquities of Rajasthan “The Zott or Jat tribe — this very original race…”
एरिक स्टोक्स “जाटों की सीधी खेती-स्वामित्व प्रणाली में किसी किरायेदार (tenant) वर्ग का अस्तित्व नहीं था।”
स्टोक्स बताते हैं कि जाटों के खेत-प्रबंधन में “मालिक-किसान” की परंपरा थी, जहाँ वे खुद खेती करते थे।किसी और पर निर्भर नहीं रहते थे। यह उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता और श्रम-सम्मान का संकेत है।
भविष्य में जाट को खेत के साथ कंप्यूटर में भी महारत हासिल करनी होगी।
खेल के साथ नए इन्वेंशन में भी आगे बढ़ना होगा।
एजुकेशन को डॉक्टर्स,वैज्ञानिक,इन्वेस्टर्स बनने के लिए बहुत सीरियस लेना होगा।
DNA की वैल्यू को समझते हुए जेनेटिक श्रृंखला का ख्याल रखना होगा।
वास्तविक जट्ट

Saturday, 18 October 2025

राजनीति का अपना आर्थिक दर्शन भी होना चाहिए।

गांधी का ग्राम स्वराज, नेहरू का औद्योगीकरण, मनमोहन का "ईज आफ बिजनेस" माडल वही आर्थिक दर्शन है।

दर्शन पूरा होने मे वक्त लगता है, एक्शन मे नही ...कोई महज सात साल की सत्ता मे पूरी कौम की आर्थिकी बदल दे, ये चमत्कार बस रामवृक्ष पाल के बस मे था।
जिन्हे कोई रहबरे आजम कहता, कोई दीन बंधु ...
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अंग्रेज उन्हे सर छोटूराम कहते।
9 जनवरी 1945 को रोहतक रेल्वे स्टेशन पर उनकी देह उतारी गई। 4 किलोमीटर उनका जनाजा चला। हजारो किसान बिलखते, क्या हिंदू, क्या मुसलमान, क्या सिख ...
सब उन्हे सलाम देने आए थे। किसान टोकनियों मे भरकर घी लाए थे। पंजाब के सदर खिज्र हयात खान भी कंधा दे रहे थे।
पंजाब तब सचमुच पंचनद प्रदेश था। इसमे भारतीय पंजाब, पाकिस्तानी पंजाब, हिमाचल प्रदेष और हरियाणा शामिल थे। देश का सबसे बड़ा सूबा, जमीन सोना उगलती..
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पर किसानों के लिए नहीं।
छोटूराम के पिता भी किसान थे। थोड़े पैसों के पास महाजन के पास गए, जिसने उन्हे बेइज्जत किया। छोटे पुत्र, छोटू ने वो मंजर देखा, और जेहन मे जज्ब कर लिया।
झज्झर मे पैदा हुए छोटूराम, रोहतक मे पढे, फिर दिल्ली सेंट स्टीफेंस काॅलेज मे। इस महंगे कालेज मे उनका खर्च, जाटो के भामाशाह- सेठ छज्जूराम ने उठाया।
आगे वकालत पढ़ी। प्रेक्टिस भी करते, स्कूल मे पढाते। तब पंजाब उथल पुथल मे था, देश की चेतना जाग रही थी। छोटूराम कांग्रेस के जिला प्रेसीडेट रहे। किसानों के भले के मुद्दे उठाते, अखबार निकालते।
असहयोग आंदोलन मे भाग लिया, पर जब गांधी ने आंदोलन रोक दिया, वे निराश हो गये।
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वे किसानी, ऋणग्रस्तता पर काम करते रहे। फिर 1923 मे सिंकंदर हयात खान के साथ मिलकर जमीदारां लीग बनाई जो किसान हित मे लडती।
यह लीग ही, यूनियनिस्ट पार्टी बनी। इसका आधार जाट थे - जो हिंदू थे, मुसलमान भी, और सिख भी। पंजाब कांग्रेस मे लाला लाजपतराय के अलावे बड़ा नाम नही था।
कांग्रेस ने इलेक्शन लड़ा नही, छोटूराम और कई साथी चुनकर असेम्बली मे आए। उन्हें कई महत्वपूर्ण कानून बनवाने का श्रेय दिया जाता है।
इनमें से एक पंजाब रिलीफ इंडेब्टनेस 1934 और दूसरा द पंजाब डेब्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट 1936 था। इन कानूनों में कर्ज का निपटारा किए जाने, उसके ब्याज और किसानों के मूलभूत अधिकारों से जुड़े हुए प्रावधान थे।
कर्जा माफी अधिनियम. 1934 कानून को भी पारित करवाया। उन्हे अंग्रेेज भी सम्मान देते। 1936 मे उन्हे नाइटहुड मिली।
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जब 1937 मे चुनाव हुए, यूनियनिस्ट पार्टी जीत गई। सिंकदर हयात मुख्यमंत्री बने, छोटूराम रेवेन्यू मंत्री।
1938 में साहूकार रजिस्ट्रेशन एक्ट, गिरवी जमीनों की मुफ्त वापसी एक्ट 1938, कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम. 1938, व्यवसाय श्रमिक अधिनियम- 1940 आए।
ये दशा बदलने वाले कानून थे।
किसानों की गिरवी रखी जमीनें लौटाई गई। ऐसे कर्ज जिसका दोगुना मूल्य वसूला जा चुका हो, खत्म कराये।
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मशहूर किस्सा है, कि एक किसान लाहौर हाइकोर्ट गया। वो कर्ज चुकाने मे अक्षम था। कुर्की होनी थी।
अर्जी लिखी कि कम से कम मेरे बैल और झोपड़ी को नीलाम न किया जाए। जज शादीलाल ने उपहास किया, कहा कानून मे ऐसा नही है। हां, एक छोटूराम नाम का आदमी है, वही ऐसे उल-जलूल कानून बनवाता है। उसके पास जाओ।
किसान सर छोटूराम के पास आया। छोटूराम ने डेब्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट बनाया, कि जीवन के न्यूनतम साधनो को कर्ज वसूली के लिए नीलाम करना बैन हो गया।
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दूसरा किस्सा जिन्ना से भिड़ने का है।
एक समय मे यूनियनिस्ट और जिन्ना मे अच्छे रिश्ते थे। बल्कि लीग को पैर रखने की जगह, जिन्ना-सिंकदर पैक्ट से मिली। पर 44-45 मे जिन्ना जहर उगलने लगे, पंजाब को अपने भावी पाकिस्तान का अभिन्न हिस्सा बताने लगे।
मुस्लिमों से सीधे अपील करने लगे। सर छोटूराम ने जिन्ना को हड़का दिया। कहा- 24 घण्टे मे पंजाब छोड़ दे, नही तो गिरफ्तार कर लूंगा। जिन्ना सर पर पांव रखकर भागे, और छोटूराम के देहावसान के बाद ही पंजाब जाने की हिम्मत जुटा सके।
भारत का दुर्भाग्य है, अगर छोटूराम कुछ बरस जी जाते, तो शायद पंजाब की शक्ल कुछ और होती।
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आज जो किसानों का दम है, गुरूर है, जो ट्रेक्टर और रेंज रोवर है, जिससे आप जलते है, वो छोटूराम की देन है।
पंजाब का मंड़ी स्ट्रक्चर देश भर मे पहला है, यूनिक है। हरित क्रांति ने उपज और भी प्रदेश मे बढाई, फसल का दाम तो पंजाब की मंड़ी देती है। वह कर्ज भी देती है, सड़के भी बनवाती है।
सच है कि कुछ दशको मे वहां भी समस्याऐं पनपी, जो माॅडल छोटूराम का था, कारगर है, जनोन्मुख है, ताकतवर है।
जहां 10 साल से बैठे लोग, कुछ करने सीखने के लिए 2047 तक वक्त मांग रहे है, वहा छोटूराम महज 7 साल मंत्री रहकर इतिहास बना गए।
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राजनीति का अपना आर्थिक दर्शन होना चाहिए। मौजूदा सरकार का भी है, जिसे वह,अपने खास साथियों के हक मे उतारने को बेताब है।
लेकिन सर छोटूराम का माॅडल रोड़ा बना हुआ है।
देश ने उनके जैसा दूरदर्शी नेतृत्व कम देखा। उस दौर मे हर राज्य मे एक छोटूराम होता, तो आज देश भर के किसान के गले मे आवाज होती। रहबरे आजम छोटूराम आज जीवित होते ...
तो लोहे की कीलो पर चलकर इस तानाशाही को ललकार रहे होते।

Friday, 17 October 2025

IPS पूरण कुमार व् ASI संदीप लाठर आत्महत्या मामलों से 180° घूमती हरयाणे की राजनीति!

निचोड़: फरवरी 2016 से ले आज तक साढ़े नौ साल जिस 1 से नफरत-भय-द्वेष की राजनीति से चाक्की चलाई, आज उसी 1 की गोदी चढ़ने को आतुर हुए फिरते हैं! जिसको भविष्य की राजनीति करनी है, उनको आगे की दिशा दिखा गया यह दोहरा आत्महत्याकाण्ड!


हिसार सुशीला कांड हो, जिंद का जितेंद्र पहल कांड हो आदि-आदि; यह ऐसे ही हत्याकांड रहे जैसा "IPS पूरण कुमार व् ASI संदीप लाठर आत्महत्या मामलों" वाला; बस फर्क है तो सिर्फ इतना कि पहले वालों में सिर्फ नेता-अफसरी नेक्सस व् गैंगों की लड़ाई थी; जबकि अब वाले में नेता-अफसरी नेक्सस व् गैंगों के साथ-साथ नेता-अफसरी नेक्सस में घुस चुके वर्णवाद व् जातिवाद अहम्-दंभ साफ़ सामने आए हैं और हत्याकांडों की बजाए अब वाले आत्महत्या के मामले बने| जिनके कि विश्लेषण से सोशल मीडिया की वाल्स अंटी पड़ी हैं| परन्तु इन्होनें हरयाणा की गाम-गली-मोहल्ले की राजनीति इतनी प्रभावित नहीं की थी; जितनी यह दो आत्महत्याएँ कर रही हैं| आईए जानें कैसे:


1) हरयाणा में फरवरी 2016 से "तथाकथित 35 बनाम 1" में "तथाकथित 35" के झंडबदार बने हुओं के मुंह से नकाब उतर गए जब पता चला कि नायब सिंह सैनी को इतनी भी पावर नहीं कि वह एक चपड़ासी की भी बदली कर सके| "तथाकथित 35" इसलिए कहा क्योंकि हकीकत में 35 में भी कई जातियां तो मेजोरिटी में इनके साथ नहीं| और जो-जो इनके साथ हैं वो ऐसे हैं जिन्होनें धक्के से शूद्रता अपने ऊपर ओढ़ी हुई है| तभी तो बोलता कोई नहीं, इतना बड़ा पटाक्षेप होने के बाद भी; परन्तु भीतर-ही-भीतर सदमा सभी को लगा हुआ है| 

2) विधानसभा चुनाव 2024 में दलित से अलग कर DSC बना तो लिया, परन्तु एक DSC IPS पूरण कुमार द्वारा आत्महत्या करने पर इन "तथाकथित 35" के झंडबदार बने हुओं का कैसा पर्दफ़ाश हुआ; इसको देख के खुद DSC वाले सकते में हैं| क्योंकि इतने वर्णवादी तो वह भी नहीं जितना उनपे वर्णवाद का जनक होने के नाते इल्जाम लगता है; जितना "तथाकथित 35 के झंडबदार" निकले| 

3) हरयाणे में जब 1 वाले सीएम हुआ करते थे, तो इल्जाम लगते थे सारे असफर इनके व् बला-बला; जबकि हकीकत में ऐसा कभी नहीं रहा कि 1 वाले उनकी जनसंख्या अनुपात से सवाई भी ज्यादा रहे हों, A व् B ग्रेड जॉब्स में तो जनसंख्या अनुपात तक भी नहीं हुए कभी| परन्तु हो-हल्ला ऐसा रहता था कि जैसे 100% पोस्ट्स पर 1 वाले ही बैठे हैं| 

4) हरयाणा में फरवरी 2016 से "तथाकथित 35 बनाम 1" में "तथाकथित 35" के झंडबदार, IPS पूरण कुमार पर रीझने की अपेक्षा 1 वाला जो ASI आत्महत्या कर गया, उस पर टूट के रीझे हुए हैं, खुद सुपर-सीएम तक घोषणाएं कर रहा है, रोहतक में आ के खुद उपस्थित हो रहा है? मतलब लगभग साढ़े-नौ साल जिस 1 के खिलाफ "तथाकथित 35" में भर-भर नफरत-द्वेष-भय-भ्रम भर व् आगजनी कर-कर के सत्ता पाई; आज उसी 1 की गोदी में आने को आतुर हो रहे? तो फिर इन "तथाकथित 35" वालों का क्या होगा; जिनको पिछले 9 साले से फद्दू बनाए हुए थे? मतलब जब लगा कि कहीं DSC-दलित-ओबीसी इन "तथाकथित 35 के झंडबदारों की हकीकत जान" इनपे टूट न पड़े तो लगे 1 की गोदी चढ़ने? 


1 वालों समेत तमाम इनके इस घेरे मारे हुए "तथाकथित 35" में जो आज भी इनसे दूर हैं, वह सभी बचना इनसे; बूढ़े इसलिए इनको 'उघाड़े' कहा करते! तब सिर्फ सुनते थे, इस केस से प्रैक्टिकल भी देख ही लिया होगा? बल्कि अब मौका है गाम-गाम गली-गली इनकी फैलाई नफरत-द्वेष-भय-भ्रम के तमाम जालों, बहम, बवालों का पटाक्षेप कर अपने हरयाणे को वापिस इसकी सही वाली राजनैतिक लाइन पर लाने का! और ये तमाम विपक्षी पार्टियां कर लो अपने कैडर को एक्टिव ग्राउंड पे अभी से; वरना भूल जाओ 2029 भी अगर यूँ हाथ-पे-हाथ धरे बैठे रहे व् इलेक्शन से तीन महीने पहले मात्र आ के एक्टिव हुए तो! और जो-जो अभी एक्टिव हैं, वह जरा अपनी राजनैतिक दशा व् दिशा का आंकलन करके चलो; अन्यथा कोई फायदा नहीं अगर उन्हीं की subsidiary की लाइन वाली बातों के साथ ग्राउंड पे रहना है तो; फिर थारा किते कोई बट्टा-खात्ता नहीं! और एक काम यह भी हो कि तुम्हारे बारे जो-जो भरमजाल फैलाए गए हैं, उनके खुद को स्पष्टीकरण तैयार कर, पब्लिक में लटका दो; ताकि तुम्हारे विरुद्ध तुम्हारी पीठ-पीछे 'कान-फुंकाई' करने वाली गैंग डिफ्यूज की जा सके! अन्यथा कोई रास्ता नहीं!


जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 12 October 2025

कन्ना-खच्चर-कुल्लर-कतूर = खेल अब खुलता जाएगा:

 कन्ना-खच्चर-कुल्लर-कतूर = खेल अब खुलता जाएगा:


इतना ही कहूंगा कि सर छोटूराम के जमाने में जो था, इनका वही दर्शन आज है; घोर मनुवादी मानसिकता, उसमें भी यह सभी के सभी शुद्रमति केटेगरी से ज्यादा कुछ सौदा नहीं! बस 10-11 साल 35 बनाम 1 वाले मसले में 1 की बुराई करके ही भले बन पाए हैं ये! अब जब असली आमना-सामना हुआ है इनकी मानसिकता में छिपी वर्णवादिता का तो इनके साथ खुद को तथाकथित 35 में काउंट करने वाले दलित-ओबीसी भाई भी सकते में हैं| हाँ, हैं कुछ 1 वाले भी, परन्तु आइडियोलॉजिकली नहीं, अपने बच्चों की नौकरियों व् कारोबारों के लालच में; वरना जो समाज तीसरी बार भी लगातार विधानसभा में 78% तक इनके विरुद्ध वोट किया हो तो वह तो इनसे स्याणा ही गिना होना चाहिए!


चोखा, ये तथाकथित एक वाले सीएम थे तब इतना repression तो कोई-से ने भी नहीं किया था कि IPS ADGP स्तर वालों को आत्महत्याएं करनी पड़ी हों! अभी भी अक्ल को हाथ मारो; या स्थिति जब वही आर्थिक-तंगी वाली हो जाएगी, जब यह तुम्हें इतना आर्थिक तौर लूटते हुए जमीन-जायदाद तक हाथ भरते थे तो सर छोटूराम ने आ के इनसे पिंड छुड़वाए थे; तब अक्ल को हाथ मारोगे?


कुछ सौदा ना है इनका; पैसा तो वेश्या व् भड़वे के पास भी होता है; इतना भर बना लेने से रुतबा-साख-इज्जतें समाज में कायम रहती तो यह दोनों सबसे ज्यादा इज्जतदार होते; वही हालत है इन कन्ना-खच्चर-कुल्लर-कतूरों की! या फिर सर छोटूराम को मानना व् अपना कहना छोड़ दो!

Saturday, 4 October 2025

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमें !!!

 नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमें !!!

यह गीत गाते, और दोमुहें झंडे को सलामी देते सेल्फसेवको को आपने अक्सर देखा है।
उनकी फिलॉसफी, दर्शन, कपड़े, टोपी, लाठी, कहां कहां से Control C और Control V करी गयी, ये तो मैं एक पूर्वर्वती पोस्ट में बता चुका हूँ।
इस सलामी का सोर्स बताना भूल गया था।
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तो दोस्तो, इस सलामी को दरअसल जोगिस्ट सलाम (Zogist Salute) कहते है।
इसे 1920 के दशक में अल्बानिया के मुस्लिम राजा, अहमद जोगू (Ahmet Zhogu) ने अविष्कार किया था।
जोगिस्ट सलाम एक सैन्य अभिवादन है। जिसमें दाहिना हाथ हृदय के पास रखा जाता है।कोहनी छाती के स्तर पर मुड़ी होती है, खुली हथेली नीचे की ओर होती है।
यह सबसे पहले जोगू की पर्सनल सिक्युरिटी वालो ने शुरू किया। इसके बाद यह रॉयल अल्बेनियाई सेना में भी यह सैल्यूट शुरु हुआ। आम अलबेनियन जनता भी सावर्जनिक स्थलों पर राजा के प्रति निष्ठा प्रदर्शन के लिए इनका उपयोग करती।
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आगे यह सलाम लैटिन अमेरिका के सैन्य बलों में, नेताओ- नागरिकों ने अपनाया। भारत मे अंग्रेजो की रॉयल सीक्रेट सर्विस (RSS) ने भी यह सैल्यूट अपना लिया।
बाद में जब उन्होंने अपना हिंदी नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रखा, तो जोगिस्ट सेल्यूट को 1925 के बाद अपना लिया। इसे वे संघ प्रणाम कहते हैं।
इसका विशेष प्रयोग, शपथ ग्रहण या अभिवादन के दौरान होता है। शाखाओं में सभी सेल्फसेवक, इसी मुद्रा में "नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे..." गाकर शपथ लेते हैं।
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जोगिस्ट सलाम, आज भी अल्बानिया में लोकतन्त्र विरोधी, राजतंत्र वादियों द्वारा उपयोग किया जाता है।
RSS के संदर्भ में भी, कुछ इतिहासकारों जैसे क्रिस्टोफ जाफरलोट का मानना है कि 1920-30 के दशक में यूरोपीय राष्ट्रवादी आंदोलनों, विशेष रूप से फासीवादी संगठनों, का प्रभाव RSS की सैन्य-जैसी प्रथाओं, जैसे वर्दी, परेड और प्रणाम आदि पर पड़ा।
हालांकि RSS के समर्थक इस बात से इनकार करते हैं कि उनका प्रणाम नाजी या फासीवादी सलाम से प्रेरित है।
उनका कहना है कि यह भारतीय संस्कृति और हिंदुत्व से जुड़ा है, जो राष्ट्र के प्रति निष्ठा और सेवा का प्रतीक है।
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RSS भी इसे सनातन का हिस्सा मानता है। इस मुद्रा में, नरहरि नारायण भिड़े नामक कवि हृदय सेल्फसेवक की रचना गाई जाती है।
1939 में यह रचना पहले तो मराठी में लिखी गयी थी। मगर बाद में इसे ट्रांसलेट करके संस्कृत बनाया गया। ताकि कमअक्ल सदस्यों को यह बड़ी पुरानी, औऱ शास्त्रीय प्रार्थना होने का आभास दे।
Manish Reborn
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