Tuesday, 8 September 2015

मधुमक्खी बनाम घरेलु मक्खी!

(डंक मारने (परन्तु शहद देने वाले) वाले लोग बनाम घूं खाने वाले लोग)

सार: जाट आरक्षण व् अधिकारों मामले पे नीचे लिखे स्टाइल वाले एक घूं खाने वाले से तक्कलुस हो गई|

टाइटल से आप समझ ही गए होंगे, कि मधुमक्खी इंसान को साफ़ जगह पे काट के उसका खून ले जाती है जबकि घरेलू मक्खी या तो घाव पे बैठेगी या घूं यानी टट्टी पे| उड़ती आस्मां में दोनों हैं परन्तु एक डंक वाली है और दूसरी फंकी चरित्र है| एक समाज और प्रकृति की सुगंधित चीजों जैसे कि फूलों का रस बटोर शहद बना देती है तो दूसरी अच्छे से अच्छा यानी घी को भी छोड़ के घाव या घूं पे ही जा के बैठती है|

यही कहानी उन लोगों की होती है जो अपनी सभ्यता संस्कृति के खुद को जमाई समझते हैं खसम नहीं| यह लोग जिंदगी में कितने ही आगे पहुँच जावें परन्तु घरेलु मक्खी की तरह जा के बैठेंगे घर के कूड़े पे, घूं पे| इनको जिंदगी भर कभी अक्ल नहीं आती कि घूं पे बैठ के घूं ही उगलोगे जबकि अगर मधुमक्खी बनके घर बाहर अच्छी चीजों से योगदान ले के चलो तो समाज को शहद दे सकते हो| मेरी संस्कृति में यह कमी, वह कमी, इसमें कल्चर नहीं, सिर्फ वल्चर हैं, यह रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक है, इसका कुछ नहीं किया जा सकता, ऐसे लोग होते हैं जो सिर्फ मक्खी की तरह घाव पे बैठ उसको कुरेदने, उसको ले के समाज में भय और चिंता भरने के अलावा कुछ करने के नहीं होते|

अब घरेलु मक्खी की यह भी समस्या होती है कि वो भले ही घर में घी खुला रखा हो परन्तु उसपे कभी नहीं जाएगी, लिसलिसा-चिपचिपा गुड, कूड़ा अथवा इंसान का घाव खुला हो तो पहले झटके जा बैठेगी| और ऐसी मक्खियों और इनकी केटेगरी वाले लोगों के विधवा आलापों या हरयाणवी में कहूँ तो रंडी-रोणों (महिलावादी लोग-लुगाई मुझे माफ़ करें, परन्तु सामाजिक कहावतें हैं तो प्रयोग करूँगा ही) के सिवाय कुछ हासिल भी नहीं होता| इसलिए ऐसे लोगों से डरने की जरूरत नहीं, क्योंकि यह लोग उस बौराये हुए जमाई की भांति होते हैं कि जिसको सालियां बासी-खुस्सी (घूं तो नहीं कहूँगा) या खीर-दही के भळोखे में रूई गिटका देवें तो उसमें भी अपनी स्यानपत समझेंगे| इस केटेगरी के लोगों को 'रोड़े अटकाने वाले', 'कढ़ी बिगाड़', 'रायता फैलाऊ' या म्हारे हरयाणवी में कह्या करें 'होक्के में डीकडे तोड़ने वाले' भी कह देते हैं|

हुआ यूँ कि दो-तीन साल पहले एक मसहूर हरयाणवी टीवी चैनल के डायरेक्टर ने ताना मारा कि तुम हरयाणा और जाटों को ले के यह क्या उल-जुलूल भांडणे में लगे रहते हो, तुम्हारे लोग (खुद हरयाणवी होते हुए भी तुम्हारे बोल रहा है) तो इतने पिछड़े हुए हैं कि आज तक भी गाँव के कचरे से बाहर नहीं आये, मुंह से बोलने लग जावें तो जैसे पत्थर लगते हों| वही जनाब अभी पिछले ही महीने जाट आरक्षण पर मुझे एक जाटनी लड़की की पोस्ट दिखा के कहने लगे कि देखो तुमसे तो यह लड़की कितना अच्छा तर्क ले के आई है, "जाट में दलितों जैसे ना तो जातिसूचक सामाजिक सम्बोधन हैं और ना ही जाट गरीब-गंवार हैं, तो फिर जाट को आरक्षण किसलिए? तो मैंने कहा उस दिन जाटों को पिछड़ा और कचरे में धंसा हुआ बताने वाला, जाटों के पिछड़ेपन से इतनी अच्छी तरफ से वाकिफ इंसान भी उस लड़की को जवाब नहीं दे सका, ताज्जुब है| खैर कोई नहीं मुझसे सुनो और बताओ 'मोलड़' शब्द मुख्यत: किस जाति के लिए प्रयोग किये जाने वाला जातिसूचक शब्द है? थोड़ी देर को उसको सांस नहीं आया| मैंने कहा दो साले पहले तो बड़े कह रहे थे कि जाट गांव के कचरे में पड़े हैं, पिछड़े हुए हैं, क्यों नहीं दे दी थी यही दलीलें उस लड़की को समझाने और जाटों के साधनहीन, सुविधाहीन व् अवसरहीन वर्ग की परिस्थिति का सही आईना दिखाने हेतु?

अपनी बात को ऊपर रखने हेतु बोलता है कि जातिसूचक शब्द तो हर जाति में हैं जैसे बनियों के लिए 'किराड़', ब्राह्मणों के लिए 'ताता खाने वाले', 'लार टपकाने वाले', 'पोथी वाले' और हिन्दू अरोड़ा-खत्रियों के लिए 'रेफ़ुजी', 'झंगी' आदि| तो मैंने कहा तो जब सब जानते हो तो उसको जवाब क्यों नहीं दिया? अंत में यही कह के पीछा छुड़ा के भागा कि ठीक है आज के बाद मैं मेरे नाम में सरनेम की जगह 'मोलड़' शब्द प्रयोग करूँगा| वो दिन है और आज का दिन मुझे अभी तक इतंजार है कि वो कब इस शब्द को अपने नाम के साथ जोड़ेगा| खैर जाति और हरयाणवी भाई होने के साथ-साथ वो मेरा अच्छा शुभचिंतक, क्रिटिक और मित्र भी है इसलिए पब्लिक में नाम नहीं बताऊंगा|

एक बार अब्राहम लिंकन ने कहा था कि 'यह मत पूछो कि देश ने तुम्हारे लिए क्या किया, अपितु यह पूछो कि तुमने देश के लिए क्या किया?' यही बात मैं कौम के नाम पर कहता हूँ कि यह मत पूछो कि कौम ने तुम्हारे लिए क्या किया वरन यह पूछो कि तुमने कौम के लिए क्या किया?' इतना पक्का है कि तुम कौम के लिए कुछ करोगे तो देर-सवेर कौम तुमको जरूर पहचानेगी-जानेगी|

अत: घरेलू मक्खियों की तरह घूम फिर के, घर में रखे घी को भी छोड़ के, आस्मां में ऊँचे-से-ऊँचे उड़ने के बावजूद भी अंत में घूं (टट्टी) पे जा के बैठने वाले लोगों की फ़िक्र मत करो, फिक्र करो तो उन मधुमक्खियों की जो साफ़ जगह (वो भी भीं-भीं की वार्निंग दे के) पे काटती हैं परन्तु साथ ही समाज के अच्छे-अच्छे स्त्रोतों से रस जुटा के उसको शहद बना देती हैं| हालाँकि इस रास्ते में अणखद (कष्ट) बहुत हैं परन्तु मसला है कि आपको समाज में घी सामने होते हुए भी अपने लिए घूं खाने वाले की पहचान बनानी है या मधुमक्खी की तरह समाज-कौम की सकारात्मक चीजों को जोड़ उनसे शहद बना देने वाले की|

वैसे भी चिंता मत करना कि कितनी घरेलू मक्खियाँ घूं पे जा के बैठी हैं यानी समाज का शुभचिन्तक होने रुपी मुखौटा लिए कितने लोग आपको आपके समाज-संस्कृति का कचरा दिखा रहे हैं, भान रहे यह लीचड़ लोग सिर्फ उस कचरे को दिखाएंगे, उसी पे बैठ के अपना धंधा चलाएंगे परन्तु उसको खुद साफ़ कभी नहीं करेंगे; क्योंकि अटल सत्य है उन्होंने खुद ही उसको साफ़ कर दिया तो वो काहे पे बैठ के अपना रंडी-रोणा रोयेंगे? अपितु चिंता करना कि आपको शहद देने वाली मधुमक्खी काट ना ले, क्योंकि वो घरेलू मक्खी की तरह ना तो बार-बार अटैक करती है या बार-बार उड़ाने पर भी जिद्दी बालक की तरह वापिस आपके घाव पे आ के बैठने को आतुर रहती है, वह तो बस एक ही अटैक में अपना काम कर जाती है, थोबड़े पे काटे तो थोबड़ा सुजा जाती है| परन्तु समाज की अच्छे को जोड़ के शहद भी देती है| इसलिए किसी के साथ जुड़ने से पहले, उनके लोप-ललित निबंधों के प्रभाव में आने से पहले यह जानना और निर्धारित करना बहुत जरूरी हो जाता है कि वो घरेलु मक्खी है या मधुमक्खी|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 6 September 2015

दिल्ली के "अशोका रोड" का नाम और "सारनाथ से लिया राष्ट्रीय चिन्ह" आदि भी बदलने वाले हैं क्या?


हिन्दू धर्म की वाट लगाने की कहो या 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' मूवी वाले स्टाइल में 'कह के लूंगा' स्टाइल में सबसे ज्यादा किसी ने ली तो वो थे महात्मा बुद्ध और सम्राट अशोक।

औरंगजेब ने तो फिर भी सिर्फ वही मंदिर-मस्जिद तोड़े जहां धर्म-विरोधी कुकृत्य होते थे, परन्तु महात्मा बुद्ध के चलाये धर्म ने तो पूरा हिन्दू धर्म ही निगल लिया था और इस काम को प्रचार के माध्यम से अंजाम देने वाले थे सम्राट अशोक।

परन्तु जहां बुद्ध को हिन्दू धर्म का ना होते हुए भी, हिन्दू धर्म को छिन्नभिन्न-खण्डखण्ड करने वाला होने पर भी वही लोग जो औरंगजेब के नाम से रोड का नाम बदल रहे हैं, बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवाँ अवतार भी बोलते हैं और लिखते भी हैं। और सम्राट अशोक को तो भारत का सबसे महानतम सम्राट बताते आये ही हैं।

मैं अक्सर इसीलिए तो कहा करता हूँ कि या तो मुझे बुद्ध की उपासना करने दो या फिर बुद्ध को हिन्दू शास्त्रों में हिन्दू धर्म का नौवाँ अवतार लिखना-कहना छोड़ दो।

On one another current shock:

दिवंगत एम. एम. कलबुर्गी जैसे विचारक को अपने विचार व्यक्त करने की आज़ादी से ना सिर्फ रोकना अपितु उनकी हत्या कर देना, ठीक वैसे ही है जैसे मलाला यूसफज़ई को पढ़ने जाने से रोक के हेतु जान से मारने की कोशिश करना। भारत में जिस भी विचारधारा या लोगों ने यह किया है वो तालिबान और ISIS का भारतीय रूप हैं।

ऐसे पागल जानवरों की जगह या तो जेल है या फिर पागलखाना।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 25 August 2015

जमीन उसी जाति/समुदाय की हो जिसने उसका सदुपयोग किया हो, देशहित के लिए अन्न-उत्पादन में अद्वितीय भूमिका निभाई हो!

अगर "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" के फार्मूला से आरक्षण लागू करवाने का वक्त आ गया है तो इससे पहले यह अध्यन होना चाहिए कि 1934 में सर छोटूराम द्वारा लागू करवाये गए 'कर्जा मनसूखी' व् 'जमीनी मल्कियत' के तहत व् आज़ादी के बाद विभिन्न जन-कल्याण योजनाओं के तहत विभिन्न जातियों को दी गई जमीनों का किन-किन जातियों ने देश के कृषि उत्पादन हेतु उत्तम प्रयोग किया, किन-किन ने उसको बेच दिया (सरकारी व् पब्लिक प्रोजेक्टों के तहत भू-अधिग्रहण के अतिरिक्त)| 1934, 1947, 1980 और 2010 में किस जाति के पास कितने % जमीन की अदला-बदली हुई व् कितनी जमीन किसने किसको बेचीं व् किसने खरीदी| कब कितनी जमीनें किस-किस जाति को अलॉट हुई, उन्होंने उन जमीनों का क्या किया? आज किस जाति के पास कितनी जमीन है और क्या वह उसका देश के लिए अन्न-उत्पादन करने में अपेक्षित प्रयोग कर रही है कि नहीं|

ताकि इससे यह पता लगाया जा सके कि देश की सर्वोत्तम कृषक जाति कौनसी है? देश में जमीन को सबसे सजा-संवार के कौनसी जाति रखती है| और कौनसी ऐसी जातियां हैं जो इसको बेच के शहरों को पलायन कर चुकी हैं अथवा बेच के दूसरे कार्यों का रूख कर चुकी हैं|

क्योंकि मुझे पता है भारत में कुछ ऐसे हरामी जातियां और लोग बैठे हैं जो जब "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" की बात आएगी तो परम्परागत कृषक जातियों को ऊँगली करने हेतु आवाज उठाएंगे कि फिर तो सबकी ऐसी ही हिस्सेदारी जमीन में भी होनी चाहिए (चाहे बाप-दादा ने हल चला के ना देखा हो कभी)| 75-80 साल पहले जब सर छोटूराम ने यह फार्मूला सुझाया था तब से ले के अब तक इसको किसी ने नहीं उठाया, परन्तु अब जो लोग राज कर रहे हैं लाजिमी है वो देश में बवाल खड़ा करने को और आरक्षण को एक कभी ना सुलझने वाली परिस्थिति बनाने हेतु इसको देर-सवेर जरूर उठावेंगे|

और ऐसी आवाज उठने की परिस्थिति में कृषक समाज को फिर मंदिर और फैक्टरियों की प्रॉपर्टी और खजाना भी जिसकी जितनी संख्या के हिसाब से बंटवाने की आवाज उठवाने को तैयार रहना होगा|

मतलब यह है कि दो-चार जो देश की खुराफाती जातियां हैं वो अब इस पूरे आरक्षण के गेम को "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" के फार्मूला में उलझा के पूरा होच-पॉंच फैलाने वाली हैं|

विशेष: यह मेरी चेतना के अंदर की आवाज ने मुझे कहा है, यह सच होगा या नहीं होगा, कितना होगा और कितना नहीं होगा वो भविष्य के गर्भ में छिपा है| परन्तु इतना जरूर है कि अब अपनी योजनाएं इन हो सकने वाली परिस्थितियों को भी ध्यान में रख के बनावें| वैसे ऐसा हुआ तो परम्परागत कृषक जातियों का ही पलड़ा भारी रहने वाला है बशर्ते वो अपनी कूटनीति अच्छे से घड़ के चलें|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

कौन है पटेल आरक्षण आंदोलन का पर्दे के पीछे बैठा डायरेक्टर?

अरविन्द केजरीवाल जब गुजरात गए थे तो जो बंदा इनका ड्राइवर बन इनको गुजरात घुमाया था वो हार्दिक पटेल से हूबहू मेल खाता है| कहीं आम आदमी पार्टी की 2017 गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए तो भूमिका नहीं बंध रही, इस आंदोलन के जरिये?

हार्दिक पटेल, बीजेपी के नेता का बेटा है, पिता अच्छे-खासे बिजनेसमैन भी हैं| कहीं-कहीं से सुगभुगाहट आ रही है कि ब्राह्मण-बनिया की भी ओबीसी में आरक्षण हेतु लॉबिंग मजबूत करवाने को आरएसएस/बीजेपी का इस आंदोलन के पीछे हाथ है| क्योंकि रैली के दौरान कुछ ऐसे स्लोगन्स भी लहराते दिखे जो पटेल आंदोलन के खाके को बिलकुल सेट नहीं बैठते और ऐसे स्लोगन अक्सर आरएसएस वाले अथवा आरक्षण विरोधी तबका उठाये देखे जाते हैं|

समझ नहीं आ रहा केजरीवाल या बीजेपी, आखिर है कौन इस आंदोलन के पीछे| और कल को इससे वास्तविक हासिल किसको, क्या होना है| लोचा है, अभी कुछ ख़ास क्लियर नहीं, रुकते हैं थोड़े दिन और, परतें अपने-आप सामने आने लगेंगी|

क्योंकि मोदी की गृह-स्टेट में, स्टेट-सेंटर दोनों जगह उनकी अपनी सरकार होते हुए इतने कम समय में इतनी बड़ी जनसभा हो जाना, वो भी बिना इलेक्शन के वक्त, साफ़ संकेत देता है कि कठपुतली की बागडोर तो पर्दे के पीछे किसी और के ही हाथ में है|

देखें सलंगित फोटोज जिन्होनें मुझे यह नोट बनाने का कारण दिया|

फूल मलिक




 

जाट आरक्षण आंदोलन की राह के सात मुख्य रोड़े!

जाट और खाप विचारधारा को इन 'मैं' रुपी सात कारकों को दूर रख के चलना होगा:

1.पहला मैं है "क्षेत्रवाद": अर्थात मैं हरयाणवी जाट, मैं राजस्थानी जाट, मैं आर का जाट, मैं पार जाट का, मैं दिल्ली का जाट, मैं पंजाब का जाट, मैं बागड़ी जाट, मैं देशवाली जाट, मैं बाँगरू जाट या मैं खादर का जाट|

2.दूसरा मैं है "भाषवाद": मैं पंजाबी बोलने वाला जाट, मैं अंग्रेजी, हिंदी, हरयाणवी, राजस्थानी, ब्रज या खड़ी आदि बोली बोलने वाला जाट|

3.तीसरा मैं है "पार्टीवाद": मैं कांग्रेसी जाट, मैं भाजपाई जाट, मैं इनेलो का जाट, मैं रालोद का जाट, या मैं फलानि पार्टी का जाट| ध्यान रखना होगा कि हम किसी भी पार्टी से जुड़े हों, सबसे पहले और सर्वोपरि हमारे लिए जाट और खाप शब्द हो|

4.चौथा मैं है "स्टैंडर्डवाद": मैं अमीर जाट, मैं गरीब जाट, मैं अनपढ़ जाट, मैं पढ़ालिखा जाट, मैं रोजगार जाट, मैं बेरोजगार जाट, मैं शहरी जाट, मैं ग्रामीण जाट, मैं बिजनेसमैन जाट तू खेती करणीया जाट, या तू अनपढ़ जाट मैं पढ़ा लिखा जाट, तू गाम का जाट मैं शहरी जाट, तू बेरोजगार जाट मैं रोजगारी जाट आदि-आदि प्रकार के तमाम "स्टैंडर्डवादों" जाट और खाप शब्द के आगे भूलना होगा|

5.पांचवा मैं है "धर्मवाद": मैं हिन्दू जाट, मैं मुस्लिम जाट, मैं सिख जाट, मैं ईसाई जाट, मैं सच्चे-सौदे वाले का जाट, मैं आर्यसमाजी जाट आदि-आदि प्रकार के तमाम "धर्मवाद" के रोगों को काट, जाट और खाप पर जुड़ना होगा|

6.छटा कारक है "के बिगड़ै सै, देखी जागी": जाट समाज की सबसे बड़ी आत्मघाती परिकल्पना जो "जाटड़ा और काटड़ा अपने को ही मारे", और "जाट-जाट का दुश्मन और जाट की छत्तीस कौम दुश्मन" जैसी मानसिक प्रवृतियों का मूल है| जीवन में खुशियां कायम रखने के लिए जीवन के प्रति हल्का रवैय्या जरूरी होता है, परन्तु इतना भी हल्का नहीं होना चाहिए कि वो बेखबरी/अनभिज्ञता का सबब बन जाए| क्योंकि बेखबरी अनियमतताओं का ऐसा द्वार है जिसके हमें कमजोर कर देगा, तोड़ देगा|

7.जाट थोड़ी सी प्रसंसा पर ही पूरी भेलि लुटा देता है: कहा जाट जाता है कि जाट प्रसंसा का भूखा होता है| तो ऐसे में आंदोलन जब अपनी पीक यानी ऊंचाई पर होगा तो हमारी प्रशंसाओं के पल बांधे जायेंगे, हमारे साथ झूठी भीड़ जोड़ी जाएँगी और ऐसे ही तमाम तरह के हथकंडे| परन्तु हमें प्रतिबद्ध रहना होगा हमारे गोल पर, उससे कम हमें कुछ हासिल नहीं|

और आज के दिन कोई भी जाट आरक्षण नेता इन 7 कारकों को एड्रेस नहीं करता, यह है असली समस्या की रुट, अन्यथा जनता की दिशा नेता ही डिसाईड करता है, जनता नहीं!

जय योद्धेय! - फूल मलिक

जाटो 'मनुवाद' का वायरस निकाल बाहर करो, समाज में रिसीविंग एंड पे रहने से छुटकारा पाओ!

जाटों से एक निवेदन है कि मनुवादी विचारधारा को पालना छोड़ दो, वो क्या है कि जो इसको आपसे पलवाते हैं वो ना ही तो इससे निकलने का मार्ग बताते और ना ही इससे उत्तपन नकारात्मकता से पीछा छुड़वाने का तरीका बताते| जबकि वो यह मार्ग और तरीका दोनों जानते होते हैं इसलिए इस मनुवाद के जन्मदाता, पथपालक और प्रचारक होने के बावजूद भी वो कभी इसकी मार में नहीं आते|

जबकि 'मनुवाद' को मान आप लोगों के साथ "घणी स्याणी दो बै पोवै" वाली बन जाती है| क्योंकि जेनेटिकली और बायोलॉजिकली आप हो गणतांत्रिक व् लोकतान्त्रिक परम्परा को व्यवहारिक तौर पर मानने, जानने व् अपनाने वाले लोग| इसलिए आपको जेनेटिकली और बायोलॉजिकली जो आपके अंदर है उसी का प्रैक्टिकल करते रहना चाहिए, 'मनुवाद' का नहीं|

यह 'मनुवाद' पे चलने का ही परिणाम है कि जाट बनाम नॉन-जाट, दलित बनाम जाट और तमाम तरह का भारतीय तालिबान का ठीकरा आपके सर फूटता है यानी सबसे लोकतान्त्रिक होने पर भी इनका सॉफ्ट-टारगेट बने रहते हो| यह भी ताज्जुब की बात है कि जिनका बनाया मनुवाद आप चलाने की कोशिश करते हो (कोशिश इसलिए क्योंकि चलाना नहीं आता, आता तो मनुवादियों की तरह बच निकलते) वो ही आपको समाज के रिस्विंग एंड यानि सॉफ्ट टारगेट पे लेते हैं|

सॉफ्ट-टारगेट पे कैसे? इसके लिए समझें इस साइकोलॉजिकल थ्योरी को| क्योंकि आप जेनेटिकली लोकतान्त्रिक हैं और लोकतान्त्रिक जींस का स्वाभाव होता है कि जब वो किसी के साथ 'मनुवादी' तरीके का भेदभाव करता है तो फिर वो आत्मग्लानि से भर जाता है| जबकि जेनेटिकली जो 'मनुवादी' होता है वो इसको प्रैक्टिकली करते वक्त भी 'आत्मग्लानि' भाव से नहीं भरता| खैर, लॉजिक की बात यह है कि जो आत्मग्लानि से भर गया फिर वो उस बात को ले के अपना डिफेंस नहीं करता| और बस इसी आत्मग्लानि से पनपी साइकोलॉजी का मनुवादी फिर आपके ही ऊपर हमला करने के लिए प्रयोग करते हैं और आपको समाज के रिसीविंग एंड पे रख देते हैं क्योंकि उनको पता है आप आत्मग्लानि से भरे हो आपको या आपके विरुद्ध जितना बोलेंगे उसपे आप प्रतिक्रिया नहीं दोगे, चुपचाप सुनते जाओगे| बस यही रहस्य है कि क्यों जाट कौम सॉफ्ट-टारगेट बनती है| यानी ढेढ़ स्याणे बनके पहले तो 'मनुवाद' को ओढ़ लेते हो और फिर जब इससे निकलने, पीछा छुड़ाने या पल्ला झाड़ने की बारी आती है तो आत्मग्लानि में भर के घुटे बैठे रहते हो; और यही घुटे बैठे रहने के मौके का आपको सॉफ्ट टारगेट बनाने वाले लोग आपके विरुद्ध सिद्द्त से प्रयोग करते हैं|

इसलिए इससे छुटकारा पाने का एक ही तरीका है इनको छोडो और भगवान ने आपके अंदर जिस लोकतांत्रिकता व् गणतन्त्रिकता का सॉफ्टवेयर बाई-डिफ़ॉल्ट इनस्टॉल किया हुआ है उसी का प्रैक्टिकल करो| अब यार बाई-डिफ़ॉल्ट एंटीवायरस के ऊपर नकली एंटी-वायरस या अनजान एंटी-वायरस चढ़ाओगे तो सिस्टम का भट्ठा बैठेगा कि नहीं?

बस यही निचोड़ है, भारत में अपनी वंशानुगत व् बायोलॉजिकल एंटिटी कायम रखनी है तो इस 'मनुवाद' के वायरस को निकाल बाहर करो| मनुवाद में बहक दलितों से ऊँच-नीच, छूत-अछूत का व्यवहार छोड़ो|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 24 August 2015

राजनैतिक पार्टियां आरटीआई के तहत आएँगी या नहीं, यह जनमत संग्रह से तय होना चाहिए!


इसके ऊपर जनमत संग्रह होना चाहिए, पार्टियां नहीं अपितु जनता इस देश की बाप है| जनता को इस पर जनमत देने का अधिकार होना चाहिए कि राजनैतिक पार्टियां आरटीआई के दायरे में आएँगी अथवा नहीं| निसंदेह ऐसा मुद्दा आयरलैंड, ग्रीक, स्कॉटलैंड, अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में होता तो जनता इस पर निर्णय सुनाती|

देश के सुप्रीम कोर्ट से अपील है कि इस मुद्दे को जनता की कोर्ट में जनमत संग्रह के लिए भेज दिया जाना चाहिए|

Topic: Centre to SC: Parties can't be brought under RTI
Source: http://timesofindia.indiatimes.com/india/Centre-to-SC-Parties-cant-be-brought-under-RTI/articleshow/48653592.cms

फूल मलिक

नहीं जाट-नेता मात्र हस्ती थारी!

जो सर छोटूराम को कभी अंग्रेजों का पिठ्ठू तो कभी सिर्फ जाट नेता मात्र आंक के देखते हैं या जाट-नेता तक सीमित करने की कुचेष्टा रखते हैं और इस हेतु ऐसा प्रचार तक करते हैं, वो जरा इस कविता को पढ़ लेवें और पढ़ने पर बता भी देवें कि कौन गांधी, कौन नेहरू, कौन जिन्नाह और कौन आर.एस.एस. हुई जो आज़ादी से पहले खुद उनकी जातियों तक के लिए ऐसे कार्य कर गए जैसे मेरे रहबरे-आजम ने किये? आर.एस.एस. समर्थित तो आज सरकार भी है, जरा जो सर छोटूराम कर गए उसके छटाँक भी आम भारतीय के लिए करके दिखा देवें तो मैं आजीवन स्तुति करूँ:

सर चौधरी छोटूराम रहबरे-आज़म थे,
दो राष्ट्र सिद्धांत को जड़ से ही मिटाया था|
मुहम्मद अली-जिन्नाह का मुंह थोब उसको,
पंजाब से चलता कर बम्बई का रस्ता दिखाया था||

असहयोग आंदोलन पे गांधी को चेताया था,
किसान-मजदूर ही क्यों व्यापारी भी करे|
विदेशी व्यापार का बहिष्कार, यूँ फरमाये थे,
देख तेवर रहबर के गाँधी भी थर्राये थे||

किसानों को जमीन के मालिकाना हक मिले यूँ,
अंग्रेजों के आगे गोल - टेबल बढ़ाई थी|
अजगर को ही देवें किसानी स्टेटस परन्तु,
ब्राह्मण-सैनी-खाती-छिम्बी को भी मल्कियत दिलवाई थी||

हिन्दू औ मुसलमान मिलकर एक किये,
भाई-भाई का हृदय मिलन कराया था|
राष्ट्र का दुर्भाग्य रायबहादुर स्वर्ग गए,
मानवता शत्रुओं ने राष्ट्र बंटवाया था||

अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा,
यह कहावत वाकई में सिद्ध करके दिखाई थी|
पढ़ा ब्राह्मण समाज तोड़े, पढ़ा जाट समाज जोड़े,
जीती-जागती मिसाल इसकी बनाई थी||

'फुल्ले भगत' करे नमन मसीहा,
दलित-मजदूरों के हिमायतकारी,
करूँ सुनिश्चित आप कहलाएंगे रहबर सबके,
नहीं जाट-नेता मात्र हस्ती थारी!

लेखक: फूल मलिक

भारत में लठतंत्र के प्रकार!

1) स्वघोषित राष्ट्रवादी लठतंत्र: आरएसएस इसको देश में इसकी स्थापना के वक्त से चला रही है|

2) क्लब बाउंसर लठंतत्र: हर डांसिंग क्लब, बार क्लब, रेव पार्टी स्टेज पर बौन्सर्स होते हैं जिनको अति-विशिष्ट विषम परिस्थिति में लठ चलाने की भी इजाजत होती है|

3) लव-कपल बीटिंग लठतंत्र: राम सेना, शिव सेना, बजरंग दल, रणवीर सेना को अक्सर वैलंटाइन डे, चॉक्लेट डे, फ्रेंडशिप डे, रोज डे आदि-आदि डेज के वक्त लव-कपल्स को लात-मुक्के-लाठियों से भांजते हुए यह लोग इस तंत्र को बखूबी निभाते हुए देखे सुने जा सकते हैं|
 

4) बैंक ईएमआई उगाही लठतंत्र: इससे तो खैर बैंकों के लोन ना उतारने या किसी वजह से ना उतार पाने वाला हर सख़्श वाकिफ ही होगा|

5) मंदिर में दलित प्रवेश निषेध पालना लठतंत्र: उत्तरी भारत में शायद कम परन्तु पूर्वी-मध्य व् दक्षिण भारत में इसकी बड़ी सिद्दत से पालना होती है और जो दलित चेतावनी पर भी नहीं समझता तो उसको फिर लठ से समझाया जाता है|

लेकिन अगर कोई जाट अपने हक मांगने के लिए भी लठ उठा ले तो यह सारे के सारे चिल्लाने लगते हैं कि देखो 'जाट लठतंत्र चला रहे हैं| या तो यह लठतंत्र पे किसी और का कब्ज़ा ना हो जाए इसीलिए घबराने लग जाते हैं, या फिर जाट इनसे अच्छा लठबाज है यह इसलिए डरने लग जाते हैं पता नहीं क्या कारण है परन्तु जब जाट लठ उठता है तो फटती अच्छे-अच्छों की है| और ऐसे आजतक सिर्फ सुना था परन्तु जैसे ही हरयाणा के जाट ने पिछले हफ्ते ही लठ उठाने की कही तो (सिर्फ बात कही ही थी, उठाया नहीं था) यह पांचों केटेगरी वाले चिल्लाने लगे| क्या आरएसएस, क्या लव कपल को पीटने वाले, क्या क्लब-बार में बॉउन्सर्स रखने वाले, क्या बैंकों वाले और क्या मंदिरों वाले सब एकमुश्त त्राहि-माम् करते दिखे|

और कानतंत्र में रहद जमा देने वाला भांडतंत्र तो फिर इनके सुर-में-सुर मिलाने को हमेशा उकडू हुआ ही रहता है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 22 August 2015

हरयाणा का दलित, उसकी जमींदारी और उस जमींदारी का अल्पकालिक चरमोतकर्ष!

1980 और 1990 के दशक की बात है, उस वक्त की सरकारी योजनाओं के तहत हरयाणा के गाँवों के दलितों के कई समुदायों को 1.75 एकड़ (हरयाणवी में किल्ले) के हिसाब से मालिकाना हक वाली जमीनें मिली थी| मेरी निडाना नगरी (हिंदी में गाँव) जिला जींद हरयाणा में भी इस योजना के तहत करीब 48 दलित परिवारों को 1.75 एकड़ प्रति परिवार मालिकाना हक के तहत 84 एकड़ जमीन मिली थी|

जिसमें से तीन दलित परिवारों की करीब 5 एकड़ जमीनें तो मेरे पिता जी जब खेती किया करते थे और हम बच्चे हुआ करते थे तब करीब 20 सालों तक ठेके और हिस्से पर बोते रहे थे| यानी दलित एक जमींदार की भांति एक जाट को उसकी जमीन पट्टे पे कहो, हिस्से पे कहो, बाधे पे कहो या ठेके पे कहो, इसके तहत दिया करते थे और जाट उसको एक खेतिहर की तरह बोया करते थे| और दलित, जमींदार होने का अनुभव और आनंद दोनों उठाया करते थे|

यह पांच एकड़ जमीन हमारे खेतों से लगती थी जो कि आज भी यथावत वहीँ है| मैं जब विद्यार्थी होता था तो इन जमीनों में पानी भी लगाता था और इन पर ट्रेक्टर से खेत भी जोतता था| और दलित फसल पकने के वक्त आते और अगर हिस्से का कॉन्ट्रैक्ट होता तो अपना हिस्सा तुलवा कर या तो फसल ले जाते या कॉन्ट्रैक्ट अगर बाधे का होता तो उसके पैसे कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों के हिसाब से चुकाए जाते थे|

करीब 20 साल हमने यह जमीनें बोई, इसका जिक्र करना इसलिए जरूरी है क्योंकि कई दलित भाई कह देते हैं कि क्योंकि दलित जाटों-जमींदारों के कर्जदार होते थे इसलिए अपना कर्ज वसूलने को दलितों की जमीन हड़प ली या दलितों ने खुद ही जाटों को बेच दी| ऐसे भाइयों को कहना चाहूंगा कि 20 साल का वक्त कोई कम नहीं होता है 20 साल में आप 1.75 एकड़ जमीन की कमाई से अगर किसी का कर्जा था तो वो भी उतार सकते थे और नई कमाई से खेती करके 1.75 एकड़ को 4-5 या इससे भी ज्यादा बना सकते थे| परन्तु आप लोगों में से अधिकतर ने उस जमीन के ठेके का जो पैसा मिलता था उस पैसे से पहले अगर किसी का कर्ज था तो उसको चुकता करने की बजाय लैविश लाइफ का आनंद लेना बेहतर समझा, दारु-मीट-मांस में उड़ाना बेहतर समझा|

दो तीन दलित भाइयों को मैंने यह तर्क रखे तो आगे से उनके तर्क आये कि जाट-जमींदार के खेतों के बीच दलित के खेत पड़ें तो जाट उनको रास्ता ही ना देवें| उन भाइयों की जानकारी में रहना चाहिए कि अगर मेरे गाँव को औसत मान के चलूँ (मेरा गाँव 4500 की जनसंख्या का मध्यम आकार का गाँव है, जबकि हरयाणा में इससे छोटे और बड़े बहुत सारे गाँव हैं) जहां कि 84 एकड़ जमीन दलितों को मिली थी और जैसा कि पूरे हरयाणा में 6841 गाँव बताये जाते हैं तो ऐसे 574644 यानी पांच लाख च्वहतर हजार छ: सौ चवालीस एकड़ जमीन के तो दलित एक मुस्त मालिक बने थे| तो जरा आप लोग बताएँगे कि ऐसे कितने मामले हरयाणा में आये जहां जाट या अन्य जाति के जमींदारों दवारा अगर आपकी जमीन उनके खेतों के बीच पड़ी तो आपको रास्ता नहीं दिया गया? हालाँकि खुद जाट-जमींदारों के यहां दो भाइयों में आपस में सैंकड़ों मामले सुनने को मिलते हैं जब पता लगता है कि एक भाई ने दुसरे भाई को उसकी जमीन में से आने-जाने के लिए रास्ता नहीं दिया, बावजूद इसके आप जरा बताएं कि ऐसे कितने मामले हुए दलितों के केस में? और आपने क्या लगा लिया कि कोई जाट-जमींदार रास्ता ना देता और दलित चुप रहते?

खैर 1980-1990 के दशक में जो दलित जमींदार हो गए थे, (हाँ जमींदार ही कहूँगा क्योंकि जब 80% से ज्यादा का जाट 2 एकड़ या इससे भी कम का मालिक होते हुए भी जमींदार कहलाया जाता है तो इतने ही का मालिक दलित जमींदार क्यों नहीं कहा जायेगा?) तब से 2000-2010 आते-आते 75-80% के करीब ने अपनी जमीनें बेच दी (मेरे गाँव में तो 95% बेच चुके)| कारण ऊपर बताया कि बजाय अपनी किसानी दक्षता को सिद्ध करने का मौका हाथ में होते हुए, उन जमीनों को जाट-जमींदारों को हिस्से-बाधे पे दे दलित भाइयों ने उस हिस्से-बाधे की कमाई से लैविश लाइफ जीना ज्यादा पसंद किया| और ऐसे अपनी जमीनें बेचते गए|

और इस तरह दलितों की उस सुखदायी परन्तु अल्पकालिक जमींदारी का अंत हुआ जिसमें एक जाट-जमींदार उनकी जमीनों पे एक खेतिहर की तरह खेती करने लगे थे| इसलिए मेरा मानना है कि 1980-1990 से पहले के दलित तो यह कह सकते थे कि वो कभी जमीनों के मालिक नहीं रहे, परन्तु उसके बाद के दलित यह बात कैसे कह सकते हैं जबकि यह चीज भारतीय दस्तावेजों में कानूनी तौर से रिकार्डेड है और धरातलीय सच्चाई है?

यह एपिसोड ठीक 1926-34 वाले वक्त की तरह है| उस वक्त रहबरे-आजम-दीनबंधु सर छोटूराम जी के अटूट इरादों की वजह से उस वक्त के पंजाब प्रान्त के जाट-गुज्जर-अहीर-राजपूत किसानों समेत गौड़-ब्राह्मण, सैनी (माली), जांगड़ा (खाती) जातियों {इन तीनों जातियों को अंग्रेजों ने किसान मानने व् जमीनों के मालिकाना हक देने से मना कर दिया था, परन्तु सर छोटूराम ने उनकी सरकार के तमाम एम. एल. सी. (आज की भाषा में एम. एल. ए.) से हस्ताक्षर करवा इन जातियों को भी इस सूची में शामिल करवाया} को उन जमीनों के मालिकाना हक दिलवाये|

इन हस्ताक्षर करने वाली एम. एल. सी. में 34 जाट थे| वो भी आज के राजकुमार सैनी की भांति सोच लेते तो शायद आज सैनी समाज जाटों से मतभेद में ना उलझ उनकी जमीनों के मालिकाना हक के लिए ही लड़ रहा होता| कुछ नेता कितने स्वार्थी हो जाते हैं कि दो जातियों के आपसी प्रेम-प्यार और प्रतिबद्धता के इस अटूट लगाव भरे इतिहास को दांव पे रख, दोनों में जहर घोलने पे तुल जाते हैं, राजकुमार सैनी साहब इसी की जीती-जागती मिसाल हैं|

खैर, तो इन जातियों ने इन जमीनों की जोत को जोत-जोत के इनमें और जमीन जोड़ते गए और अब तक जमीनों को कायम रखा हुआ है| तब किसी जाट ने यह बहाना नहीं बनाया कि उसपे किसी साहूकार का कर्जदार था तो उसको कर्ज के ऐवज में मैंने जमीन दे दी या साहूकार ने छीन ली, जैसे कि मैंने दलित भाई जाटों पर यह इल्जाम लगाते सुने हैं|

दलित भाई भी चाहते तो ऐसे ही कर सकते थे| परन्तु आपने जो रास्ता चुना वो भी अपनी मर्जी से चुना|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा में पंच/सरंपच/नगर निकाय चुनाव और शैक्षणिक योग्यता!

मैं निडाना नगरी जिला जींद हरयाणा का सपूत हूँ| मेरे गाँव की "खाप-खेत-कीट पाठशाला" अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है| मेरे गाँव और गुहाँडों में एक-एक किसान ऐसा है जो फसलों के सैंकड़ों कीटों का बायोलॉजिकल ज्ञान से ले उनके गुण-चरित्र, फसलों में उनकी लाभ-हानि की सारी बातें आपको फिंगर-टिप्स पे बता देगा| एक हिसाब से चलती-फिरती डिक्शनरी हैं मेरे गाँव के किसान फसलों के कीटों की|

देश और राज्य के कृषि विभागों से ले तमाम जानी-मानी एग्रीकल्चर युनिवर्सिटियों के वैज्ञानिकों-प्रोफेसरों तक की आँखें शर्म से झुक जाती है (और वास्तविकता में झुकी भी हैं) जब वो इन किसानों के फसल कीट ज्ञान को देखते-सुनते और जांचते हैं तो| भारत की किसी भी एग्री-यूनिवर्सिटी में विरला ही कोई ऐसा वैज्ञानिक-प्रोफेसर होगा जो मुश्किल से दस कृषि कीटों पे आपको पेपर में पास होने लायक जानकारी भी लिख सके तो|

अमूमन ऐसा ही हाल सरकारी विभागों के कृषि कर्मचारियों और अफसरों का है, सिर्फ माननीय स्वर्गीय डॉक्टर सुरेंद्र दलाल जैसे प्रतिबद्ध व् कटिबद्ध अफसरों को छोड़ कर|

मेरे गाँव के किसानों के कीट ज्ञान बारे इतना तक दावा कर सकता हूँ कि अगर इन चारों के बीच यानी कृषि अफसरों, कृषि वैज्ञानिकों, कृषि प्रोफेसरों और कृषि-कीट-कमांडो यानी कृषकों के बीच, परीक्षा की भाषा हिंदी रखते हुए और इनमें जो किसान अनपढ़ है उसको लिखने के लिए एक हेल्पर देते हुए फसल कीट ज्ञान विषय पर एक परीक्षा करवा दी जावे तो यह किसान 80% से 90% अफसरों-वैज्ञानिकों और प्रोफेसरों से ज्यादा अंक अर्जित करेंगे|

तो क्या यह ज्ञान, ज्ञान नहीं, यह इतनी बड़ी समझ जो लाखों-लाख खर्च करके बनाये गए साइंटिस्ट-इंजीनियर-अफसरों को मात दे दे उनका ज्ञान सिर्फ इसलिए ज्ञान नहीं क्योंकि उनके ज्ञान पे किसी सरकार या कानून ने लाखों-लाख नहीं खर्चे? या तथाकथित स्वर्ण बुद्धिजीवियों में से किसी ने इसको इंटेलेक्ट की श्रेणी ही नहीं दी?
दूसरी बात जिंदगी में सिखाई जाती है कि पढाई के साथ कढ़ाई यानी मनुष्य का अनुभव बहुत जरूरी होता है| धीरू-भाई अम्बानी दसवीं पास भी नहीं थे परन्तु उनकी रखी नींव पे आज उनका वंश भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक व् राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप रखने वाला घराना कहलाता है| सचिन तेंदुलकर भी कोई बड़ी डिग्री नहीं रखते और ना रखती स्मृति ईरानी|

मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है कि किसान को अपनी नॉलेज को पहचान दिलवाने के लिए आंदोलन चलाना होगा तभी इन भीरु लोगों को यह समझ आएगी कि किसान तुमसे कितने बड़े ज्ञानी हैं| किसान को भी अपने इंटेलेक्ट पे लिटरेचर क्रिएट करना होगा, तभी यह लोग समझेंगे कि किसान कोई माँ के पेट से पैदा नहीं होता, तुम्हारी ही तरह पूरी जिंदगी खपानी पड़ती है एक किसान बुद्धिजीवी बनने में|

असल में गलती इनकी भी नहीं है, क्योंकि जब तक मनुवादी मति के लोग सरकारों में रहेंगे, यह किसी और के ज्ञान-अनुभव को स्थान देंगे ही नहीं| 

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 21 August 2015

राजकुमार सैनी साहब, जाट लठ उठा ले तो लठतंत्र और यह आर.एस.एस. जो 1925 से लाठी उठाये फिर रही; यह क्या?

वैसे तो जाट ने कभी किसी लठ वाले की चिंता नहीं की, फिर चाहे वह 1925 से कंधों पे लाठी रख बिना वजह यदाकदा गलियों में पैर पीटते आर.एस.एस. वाले हों या कोई और| परन्तु जैसे ही जाट ने जाट आरक्षण मामले पे लठ उठाने की बात कह दी तो राजकुमार सैनी, सांसद कुरुक्षेत्र उठ चले आये कि जाट तो लठतंत्र चलाते हैं| सैनी साहब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि यह आरएसएस 1925 से हाथों में लाठी ले जो चला रही है यह कौनसा तंत्र है?

बड़ी जल्दी याद आ गई आपको लठ की? 60 साल के करीब होने को हुए आप, परन्तु तब से ले के अब तक तो आपको कोई लठ/लाठी नहीं दिखी, एक जाट ने लठ उठाने की बात मात्र क्या कही कि आपकी भौहें भी खुली और हिया भी हिलने लगा?

और तो और तमाम शंकराचार्य तक लाठी हाथ में ले के चलते हैं, तमाम नागा साधु जैसी कतार तो त्रिशूल-भाले तक ले के चलती है, यह कौनसा तंत्र है राजकुमार सैनी जी, क्या बताने की कृपया करेंगे?

कमाल है राजकुमार सैनी साहब! जाट के लठ उठाने मात्र से इतना खौफ! खैर, इससे बैठे-बिठाए एक बात तो साबित हो जाती है कि आर.एस.एस. की लाठी से समाज के दिलों-दिमागों में कोई उबाल या उफान नहीं आ सकता, 90 साल से लगे हुए थे किसी ने इनके लठ नोट तक नहीं किये, पर जब जाट ने उठाने की घोषणा कर दी तो मात्र घोषणमात्र से ही कैसे रातों-रात लठतंत्र स्थापित हो गए|

आर.एस.एस. वालो सीखो कुछ जाटों से, एक बार राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद की कमान दो किसी जाट को फिर देखो कैसे आर.एस.एस. मार्का रातों-रात अनछुई बुलंदियों को छूता है| या फिर छोड़ दो इन लाठियों को, यह उन्हीं को फब्ती हैं जिनको भगवान ने इनका बाई-डिफ़ॉल्ट टैलेंट दिया है| आप लोग नब्बे साल लठ उठा के भी 'लठतंत्र' का मार्का नहीं पा सके और एक जाट हैं कि उठाया भी नहीं था सिर्फ उठाने की कहा ही था इतने में ही 'लठतंत्र' स्थापित|

वाह रे जाट क्या हस्ती है तेरी, अंगड़ाई लेने की भाषा में सिर्फ लठ उठाने की ही कही (अभी उठाया नहीं) और इतने में ही मीडिया हाउस से ले सांसद तक हिलने लगे| वो आर.एस.एस. और शंकराचार्यों की भाषा में क्या कहते हैं "शिवजी की तीसरी आँख का खुलना" यही ना? भाई जाट प्लीज सच्ची में मत उठाना, अपितु असहयोग आंदोलन चला लेना|

मैं वैसे ही थोड़े कहता हूँ कि लठ तो जाट का जन्मजात फिक्स्ड एसेट है इसको तो कभी भी आजमा लिया जायेगा, फ़िलहाल जरूरत इसकी नहीं, क्योंकि यह विदेशी लुटेरों और आक्रान्ताओं का जमाना नहीं है (वो अलग बात है कि आरएसएस को अभी तक ध्यान नहीं आया कि विदेशी लुटेरे और आक्रांता जा चुके तो तुम क्यों कन्धों पे लाठी टाँगे फिर रहे?)। खैर वो टांगें फिरें हमें उनसे क्या, हमें तो अपनी सदियों-सदियों पुरानी लोकतान्त्रिक व् गणतांत्रिक मर्यादा को कायम रखते हुए यह लड़ाई लड़नी चाहिए ताकि समाज ना बिखरे| और इसका एक सुयोग्य मार्ग है "बाजार व् धर्म से असहयोग आंदोलन"।

बाकी सैनी, साहब कभी आर.एस.एस. की लाठियों के खिलाफ भी आवाज बुलंद करो तो जान पड़े कि आप वाकई में लठतंत्र के कितने निष्पक्ष और सच्चे विरोधी हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"गलियों के राष्ट्रभक्तों" की सरकार में "बॉर्डर के राष्ट्रभक्तों" की होती दुर्गति। - OROP Row

वर्तमान सरकार को फौजियों की सुननी चाहिए और बात-बात पे "भारत माता की जय" के जयकारे लगाने वालों को भारत माता के प्रथम व् असली सपूत यानी फौजियों की मांग को पहली कलम से पूरी करना चाहिए। वर्ना भाई भारत माँ के प्रथम सपूतों का यह हाल और वो भी भारत माता की जय बोलने वालों के राज में देख के तो यही लगता है कि आप लोगों और आपके सरदार के लिए "भारत माता की जय" भी एक जुमला ही है सिर्फ।
इसी से पता चलता है कि आपको वास्तविक राष्ट्रभक्ति की यानी बॉर्डर की राष्ट्रभक्ति की कितनी तो समझ है और कितना उसके प्रति इज्जत और जज्बा!

आप लोगों को समझना चाहिए कि कच्छाधारी बन, हाथों में लठ ले गलियों में मार्चपास्ट करने से ही कोई राष्ट्रभक्त कहलाता तो आधी रात को हाथ में लाठी ले देश की गलियों में चौकीदारी करते हुए "जागते रहो!" का हल्कारा लगाने वाले चौकीदार सबसे बड़े राष्ट्रभक्त कहलाते।

फिर भी राष्ट्रभक्त की परिभाषा के कुछ नजदीक लगने जैसा दिखना है तो OROP पे सकारात्मक कदम ले के दिखा जा सकता है, वरना वही कि "भारत माता की जय" भी आप लोगों के लिए एक जुमला है, जनता ऐसा ही समझने लगेगी।

वैसे ताज्जुब की बात एक यह भी है कि असली लठमार्का यानी जाट जब लठ उठाते हैं तो आप लोग यह क्यों चिल्लाने लगते हैं कि जाटों को तो लठ के सिवाय दूसरी भाषा ही नहीं आती। तरोताजा उदाहरण जाट आरक्षण मामले में हरयाणा में जाटों द्वारा लठ उठाने की घोषणा करने के बाद आपके लोगों की तरफ से आ रहे बयानों में साफ़ देखा जा सकता है। जैसे खुद आप तो जब लाठियां ले कच्छों में परेड करते हैं तो वो लठ फूल बन जाते हैं। यह भी एक समझने वाली बात है कि जाट जब लठ उठाये तो लठैत और बिना किसी युद्ध घड़ी के एविं अंग्रेजों के जमाने के अंग्रेजों वाले कच्छे पहन आप लोग परेड करें तो राष्ट्रभक्त। शायद आपको भी पता है कि आप जो लठ उठाते हो वो बस सामने वाले को डराने के लिए, परन्तु लठमार्का यानी जाट जब लठ उठाता है तो वो जरूर किसी का भोभरा खोल के ही वापिस रखता है।

खैर यह तो लठ की बात चली तो बीच में जिक्र आ गया, मुख्य बात यही है कि राष्ट्रभक्त भाईयो अगर आप चाहते हो कि "भारत माता की जय" भी एक जुमला मात्र साबित ना हो जावे, तो आप सबसे विनती है कि भारत माता के असली व् प्रथम सपूत यानी हमारे सम्मानीय सैनिकों की OROP की मांग को अपनी सरकार से पूरी करवा दो।

वर्ना कहीं ऐसा ना हो कि यह "राष्ट्रभक्त और राष्ट्रभक्ति" शब्द भी जुमले कहलाये जानें लगें।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक