Tuesday, 25 August 2015

जमीन उसी जाति/समुदाय की हो जिसने उसका सदुपयोग किया हो, देशहित के लिए अन्न-उत्पादन में अद्वितीय भूमिका निभाई हो!

अगर "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" के फार्मूला से आरक्षण लागू करवाने का वक्त आ गया है तो इससे पहले यह अध्यन होना चाहिए कि 1934 में सर छोटूराम द्वारा लागू करवाये गए 'कर्जा मनसूखी' व् 'जमीनी मल्कियत' के तहत व् आज़ादी के बाद विभिन्न जन-कल्याण योजनाओं के तहत विभिन्न जातियों को दी गई जमीनों का किन-किन जातियों ने देश के कृषि उत्पादन हेतु उत्तम प्रयोग किया, किन-किन ने उसको बेच दिया (सरकारी व् पब्लिक प्रोजेक्टों के तहत भू-अधिग्रहण के अतिरिक्त)| 1934, 1947, 1980 और 2010 में किस जाति के पास कितने % जमीन की अदला-बदली हुई व् कितनी जमीन किसने किसको बेचीं व् किसने खरीदी| कब कितनी जमीनें किस-किस जाति को अलॉट हुई, उन्होंने उन जमीनों का क्या किया? आज किस जाति के पास कितनी जमीन है और क्या वह उसका देश के लिए अन्न-उत्पादन करने में अपेक्षित प्रयोग कर रही है कि नहीं|

ताकि इससे यह पता लगाया जा सके कि देश की सर्वोत्तम कृषक जाति कौनसी है? देश में जमीन को सबसे सजा-संवार के कौनसी जाति रखती है| और कौनसी ऐसी जातियां हैं जो इसको बेच के शहरों को पलायन कर चुकी हैं अथवा बेच के दूसरे कार्यों का रूख कर चुकी हैं|

क्योंकि मुझे पता है भारत में कुछ ऐसे हरामी जातियां और लोग बैठे हैं जो जब "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" की बात आएगी तो परम्परागत कृषक जातियों को ऊँगली करने हेतु आवाज उठाएंगे कि फिर तो सबकी ऐसी ही हिस्सेदारी जमीन में भी होनी चाहिए (चाहे बाप-दादा ने हल चला के ना देखा हो कभी)| 75-80 साल पहले जब सर छोटूराम ने यह फार्मूला सुझाया था तब से ले के अब तक इसको किसी ने नहीं उठाया, परन्तु अब जो लोग राज कर रहे हैं लाजिमी है वो देश में बवाल खड़ा करने को और आरक्षण को एक कभी ना सुलझने वाली परिस्थिति बनाने हेतु इसको देर-सवेर जरूर उठावेंगे|

और ऐसी आवाज उठने की परिस्थिति में कृषक समाज को फिर मंदिर और फैक्टरियों की प्रॉपर्टी और खजाना भी जिसकी जितनी संख्या के हिसाब से बंटवाने की आवाज उठवाने को तैयार रहना होगा|

मतलब यह है कि दो-चार जो देश की खुराफाती जातियां हैं वो अब इस पूरे आरक्षण के गेम को "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" के फार्मूला में उलझा के पूरा होच-पॉंच फैलाने वाली हैं|

विशेष: यह मेरी चेतना के अंदर की आवाज ने मुझे कहा है, यह सच होगा या नहीं होगा, कितना होगा और कितना नहीं होगा वो भविष्य के गर्भ में छिपा है| परन्तु इतना जरूर है कि अब अपनी योजनाएं इन हो सकने वाली परिस्थितियों को भी ध्यान में रख के बनावें| वैसे ऐसा हुआ तो परम्परागत कृषक जातियों का ही पलड़ा भारी रहने वाला है बशर्ते वो अपनी कूटनीति अच्छे से घड़ के चलें|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

कौन है पटेल आरक्षण आंदोलन का पर्दे के पीछे बैठा डायरेक्टर?

अरविन्द केजरीवाल जब गुजरात गए थे तो जो बंदा इनका ड्राइवर बन इनको गुजरात घुमाया था वो हार्दिक पटेल से हूबहू मेल खाता है| कहीं आम आदमी पार्टी की 2017 गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए तो भूमिका नहीं बंध रही, इस आंदोलन के जरिये?

हार्दिक पटेल, बीजेपी के नेता का बेटा है, पिता अच्छे-खासे बिजनेसमैन भी हैं| कहीं-कहीं से सुगभुगाहट आ रही है कि ब्राह्मण-बनिया की भी ओबीसी में आरक्षण हेतु लॉबिंग मजबूत करवाने को आरएसएस/बीजेपी का इस आंदोलन के पीछे हाथ है| क्योंकि रैली के दौरान कुछ ऐसे स्लोगन्स भी लहराते दिखे जो पटेल आंदोलन के खाके को बिलकुल सेट नहीं बैठते और ऐसे स्लोगन अक्सर आरएसएस वाले अथवा आरक्षण विरोधी तबका उठाये देखे जाते हैं|

समझ नहीं आ रहा केजरीवाल या बीजेपी, आखिर है कौन इस आंदोलन के पीछे| और कल को इससे वास्तविक हासिल किसको, क्या होना है| लोचा है, अभी कुछ ख़ास क्लियर नहीं, रुकते हैं थोड़े दिन और, परतें अपने-आप सामने आने लगेंगी|

क्योंकि मोदी की गृह-स्टेट में, स्टेट-सेंटर दोनों जगह उनकी अपनी सरकार होते हुए इतने कम समय में इतनी बड़ी जनसभा हो जाना, वो भी बिना इलेक्शन के वक्त, साफ़ संकेत देता है कि कठपुतली की बागडोर तो पर्दे के पीछे किसी और के ही हाथ में है|

देखें सलंगित फोटोज जिन्होनें मुझे यह नोट बनाने का कारण दिया|

फूल मलिक




 

जाट आरक्षण आंदोलन की राह के सात मुख्य रोड़े!

जाट और खाप विचारधारा को इन 'मैं' रुपी सात कारकों को दूर रख के चलना होगा:

1.पहला मैं है "क्षेत्रवाद": अर्थात मैं हरयाणवी जाट, मैं राजस्थानी जाट, मैं आर का जाट, मैं पार जाट का, मैं दिल्ली का जाट, मैं पंजाब का जाट, मैं बागड़ी जाट, मैं देशवाली जाट, मैं बाँगरू जाट या मैं खादर का जाट|

2.दूसरा मैं है "भाषवाद": मैं पंजाबी बोलने वाला जाट, मैं अंग्रेजी, हिंदी, हरयाणवी, राजस्थानी, ब्रज या खड़ी आदि बोली बोलने वाला जाट|

3.तीसरा मैं है "पार्टीवाद": मैं कांग्रेसी जाट, मैं भाजपाई जाट, मैं इनेलो का जाट, मैं रालोद का जाट, या मैं फलानि पार्टी का जाट| ध्यान रखना होगा कि हम किसी भी पार्टी से जुड़े हों, सबसे पहले और सर्वोपरि हमारे लिए जाट और खाप शब्द हो|

4.चौथा मैं है "स्टैंडर्डवाद": मैं अमीर जाट, मैं गरीब जाट, मैं अनपढ़ जाट, मैं पढ़ालिखा जाट, मैं रोजगार जाट, मैं बेरोजगार जाट, मैं शहरी जाट, मैं ग्रामीण जाट, मैं बिजनेसमैन जाट तू खेती करणीया जाट, या तू अनपढ़ जाट मैं पढ़ा लिखा जाट, तू गाम का जाट मैं शहरी जाट, तू बेरोजगार जाट मैं रोजगारी जाट आदि-आदि प्रकार के तमाम "स्टैंडर्डवादों" जाट और खाप शब्द के आगे भूलना होगा|

5.पांचवा मैं है "धर्मवाद": मैं हिन्दू जाट, मैं मुस्लिम जाट, मैं सिख जाट, मैं ईसाई जाट, मैं सच्चे-सौदे वाले का जाट, मैं आर्यसमाजी जाट आदि-आदि प्रकार के तमाम "धर्मवाद" के रोगों को काट, जाट और खाप पर जुड़ना होगा|

6.छटा कारक है "के बिगड़ै सै, देखी जागी": जाट समाज की सबसे बड़ी आत्मघाती परिकल्पना जो "जाटड़ा और काटड़ा अपने को ही मारे", और "जाट-जाट का दुश्मन और जाट की छत्तीस कौम दुश्मन" जैसी मानसिक प्रवृतियों का मूल है| जीवन में खुशियां कायम रखने के लिए जीवन के प्रति हल्का रवैय्या जरूरी होता है, परन्तु इतना भी हल्का नहीं होना चाहिए कि वो बेखबरी/अनभिज्ञता का सबब बन जाए| क्योंकि बेखबरी अनियमतताओं का ऐसा द्वार है जिसके हमें कमजोर कर देगा, तोड़ देगा|

7.जाट थोड़ी सी प्रसंसा पर ही पूरी भेलि लुटा देता है: कहा जाट जाता है कि जाट प्रसंसा का भूखा होता है| तो ऐसे में आंदोलन जब अपनी पीक यानी ऊंचाई पर होगा तो हमारी प्रशंसाओं के पल बांधे जायेंगे, हमारे साथ झूठी भीड़ जोड़ी जाएँगी और ऐसे ही तमाम तरह के हथकंडे| परन्तु हमें प्रतिबद्ध रहना होगा हमारे गोल पर, उससे कम हमें कुछ हासिल नहीं|

और आज के दिन कोई भी जाट आरक्षण नेता इन 7 कारकों को एड्रेस नहीं करता, यह है असली समस्या की रुट, अन्यथा जनता की दिशा नेता ही डिसाईड करता है, जनता नहीं!

जय योद्धेय! - फूल मलिक

जाटो 'मनुवाद' का वायरस निकाल बाहर करो, समाज में रिसीविंग एंड पे रहने से छुटकारा पाओ!

जाटों से एक निवेदन है कि मनुवादी विचारधारा को पालना छोड़ दो, वो क्या है कि जो इसको आपसे पलवाते हैं वो ना ही तो इससे निकलने का मार्ग बताते और ना ही इससे उत्तपन नकारात्मकता से पीछा छुड़वाने का तरीका बताते| जबकि वो यह मार्ग और तरीका दोनों जानते होते हैं इसलिए इस मनुवाद के जन्मदाता, पथपालक और प्रचारक होने के बावजूद भी वो कभी इसकी मार में नहीं आते|

जबकि 'मनुवाद' को मान आप लोगों के साथ "घणी स्याणी दो बै पोवै" वाली बन जाती है| क्योंकि जेनेटिकली और बायोलॉजिकली आप हो गणतांत्रिक व् लोकतान्त्रिक परम्परा को व्यवहारिक तौर पर मानने, जानने व् अपनाने वाले लोग| इसलिए आपको जेनेटिकली और बायोलॉजिकली जो आपके अंदर है उसी का प्रैक्टिकल करते रहना चाहिए, 'मनुवाद' का नहीं|

यह 'मनुवाद' पे चलने का ही परिणाम है कि जाट बनाम नॉन-जाट, दलित बनाम जाट और तमाम तरह का भारतीय तालिबान का ठीकरा आपके सर फूटता है यानी सबसे लोकतान्त्रिक होने पर भी इनका सॉफ्ट-टारगेट बने रहते हो| यह भी ताज्जुब की बात है कि जिनका बनाया मनुवाद आप चलाने की कोशिश करते हो (कोशिश इसलिए क्योंकि चलाना नहीं आता, आता तो मनुवादियों की तरह बच निकलते) वो ही आपको समाज के रिस्विंग एंड यानि सॉफ्ट टारगेट पे लेते हैं|

सॉफ्ट-टारगेट पे कैसे? इसके लिए समझें इस साइकोलॉजिकल थ्योरी को| क्योंकि आप जेनेटिकली लोकतान्त्रिक हैं और लोकतान्त्रिक जींस का स्वाभाव होता है कि जब वो किसी के साथ 'मनुवादी' तरीके का भेदभाव करता है तो फिर वो आत्मग्लानि से भर जाता है| जबकि जेनेटिकली जो 'मनुवादी' होता है वो इसको प्रैक्टिकली करते वक्त भी 'आत्मग्लानि' भाव से नहीं भरता| खैर, लॉजिक की बात यह है कि जो आत्मग्लानि से भर गया फिर वो उस बात को ले के अपना डिफेंस नहीं करता| और बस इसी आत्मग्लानि से पनपी साइकोलॉजी का मनुवादी फिर आपके ही ऊपर हमला करने के लिए प्रयोग करते हैं और आपको समाज के रिसीविंग एंड पे रख देते हैं क्योंकि उनको पता है आप आत्मग्लानि से भरे हो आपको या आपके विरुद्ध जितना बोलेंगे उसपे आप प्रतिक्रिया नहीं दोगे, चुपचाप सुनते जाओगे| बस यही रहस्य है कि क्यों जाट कौम सॉफ्ट-टारगेट बनती है| यानी ढेढ़ स्याणे बनके पहले तो 'मनुवाद' को ओढ़ लेते हो और फिर जब इससे निकलने, पीछा छुड़ाने या पल्ला झाड़ने की बारी आती है तो आत्मग्लानि में भर के घुटे बैठे रहते हो; और यही घुटे बैठे रहने के मौके का आपको सॉफ्ट टारगेट बनाने वाले लोग आपके विरुद्ध सिद्द्त से प्रयोग करते हैं|

इसलिए इससे छुटकारा पाने का एक ही तरीका है इनको छोडो और भगवान ने आपके अंदर जिस लोकतांत्रिकता व् गणतन्त्रिकता का सॉफ्टवेयर बाई-डिफ़ॉल्ट इनस्टॉल किया हुआ है उसी का प्रैक्टिकल करो| अब यार बाई-डिफ़ॉल्ट एंटीवायरस के ऊपर नकली एंटी-वायरस या अनजान एंटी-वायरस चढ़ाओगे तो सिस्टम का भट्ठा बैठेगा कि नहीं?

बस यही निचोड़ है, भारत में अपनी वंशानुगत व् बायोलॉजिकल एंटिटी कायम रखनी है तो इस 'मनुवाद' के वायरस को निकाल बाहर करो| मनुवाद में बहक दलितों से ऊँच-नीच, छूत-अछूत का व्यवहार छोड़ो|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 24 August 2015

राजनैतिक पार्टियां आरटीआई के तहत आएँगी या नहीं, यह जनमत संग्रह से तय होना चाहिए!


इसके ऊपर जनमत संग्रह होना चाहिए, पार्टियां नहीं अपितु जनता इस देश की बाप है| जनता को इस पर जनमत देने का अधिकार होना चाहिए कि राजनैतिक पार्टियां आरटीआई के दायरे में आएँगी अथवा नहीं| निसंदेह ऐसा मुद्दा आयरलैंड, ग्रीक, स्कॉटलैंड, अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में होता तो जनता इस पर निर्णय सुनाती|

देश के सुप्रीम कोर्ट से अपील है कि इस मुद्दे को जनता की कोर्ट में जनमत संग्रह के लिए भेज दिया जाना चाहिए|

Topic: Centre to SC: Parties can't be brought under RTI
Source: http://timesofindia.indiatimes.com/india/Centre-to-SC-Parties-cant-be-brought-under-RTI/articleshow/48653592.cms

फूल मलिक

नहीं जाट-नेता मात्र हस्ती थारी!

जो सर छोटूराम को कभी अंग्रेजों का पिठ्ठू तो कभी सिर्फ जाट नेता मात्र आंक के देखते हैं या जाट-नेता तक सीमित करने की कुचेष्टा रखते हैं और इस हेतु ऐसा प्रचार तक करते हैं, वो जरा इस कविता को पढ़ लेवें और पढ़ने पर बता भी देवें कि कौन गांधी, कौन नेहरू, कौन जिन्नाह और कौन आर.एस.एस. हुई जो आज़ादी से पहले खुद उनकी जातियों तक के लिए ऐसे कार्य कर गए जैसे मेरे रहबरे-आजम ने किये? आर.एस.एस. समर्थित तो आज सरकार भी है, जरा जो सर छोटूराम कर गए उसके छटाँक भी आम भारतीय के लिए करके दिखा देवें तो मैं आजीवन स्तुति करूँ:

सर चौधरी छोटूराम रहबरे-आज़म थे,
दो राष्ट्र सिद्धांत को जड़ से ही मिटाया था|
मुहम्मद अली-जिन्नाह का मुंह थोब उसको,
पंजाब से चलता कर बम्बई का रस्ता दिखाया था||

असहयोग आंदोलन पे गांधी को चेताया था,
किसान-मजदूर ही क्यों व्यापारी भी करे|
विदेशी व्यापार का बहिष्कार, यूँ फरमाये थे,
देख तेवर रहबर के गाँधी भी थर्राये थे||

किसानों को जमीन के मालिकाना हक मिले यूँ,
अंग्रेजों के आगे गोल - टेबल बढ़ाई थी|
अजगर को ही देवें किसानी स्टेटस परन्तु,
ब्राह्मण-सैनी-खाती-छिम्बी को भी मल्कियत दिलवाई थी||

हिन्दू औ मुसलमान मिलकर एक किये,
भाई-भाई का हृदय मिलन कराया था|
राष्ट्र का दुर्भाग्य रायबहादुर स्वर्ग गए,
मानवता शत्रुओं ने राष्ट्र बंटवाया था||

अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा,
यह कहावत वाकई में सिद्ध करके दिखाई थी|
पढ़ा ब्राह्मण समाज तोड़े, पढ़ा जाट समाज जोड़े,
जीती-जागती मिसाल इसकी बनाई थी||

'फुल्ले भगत' करे नमन मसीहा,
दलित-मजदूरों के हिमायतकारी,
करूँ सुनिश्चित आप कहलाएंगे रहबर सबके,
नहीं जाट-नेता मात्र हस्ती थारी!

लेखक: फूल मलिक

भारत में लठतंत्र के प्रकार!

1) स्वघोषित राष्ट्रवादी लठतंत्र: आरएसएस इसको देश में इसकी स्थापना के वक्त से चला रही है|

2) क्लब बाउंसर लठंतत्र: हर डांसिंग क्लब, बार क्लब, रेव पार्टी स्टेज पर बौन्सर्स होते हैं जिनको अति-विशिष्ट विषम परिस्थिति में लठ चलाने की भी इजाजत होती है|

3) लव-कपल बीटिंग लठतंत्र: राम सेना, शिव सेना, बजरंग दल, रणवीर सेना को अक्सर वैलंटाइन डे, चॉक्लेट डे, फ्रेंडशिप डे, रोज डे आदि-आदि डेज के वक्त लव-कपल्स को लात-मुक्के-लाठियों से भांजते हुए यह लोग इस तंत्र को बखूबी निभाते हुए देखे सुने जा सकते हैं|
 

4) बैंक ईएमआई उगाही लठतंत्र: इससे तो खैर बैंकों के लोन ना उतारने या किसी वजह से ना उतार पाने वाला हर सख़्श वाकिफ ही होगा|

5) मंदिर में दलित प्रवेश निषेध पालना लठतंत्र: उत्तरी भारत में शायद कम परन्तु पूर्वी-मध्य व् दक्षिण भारत में इसकी बड़ी सिद्दत से पालना होती है और जो दलित चेतावनी पर भी नहीं समझता तो उसको फिर लठ से समझाया जाता है|

लेकिन अगर कोई जाट अपने हक मांगने के लिए भी लठ उठा ले तो यह सारे के सारे चिल्लाने लगते हैं कि देखो 'जाट लठतंत्र चला रहे हैं| या तो यह लठतंत्र पे किसी और का कब्ज़ा ना हो जाए इसीलिए घबराने लग जाते हैं, या फिर जाट इनसे अच्छा लठबाज है यह इसलिए डरने लग जाते हैं पता नहीं क्या कारण है परन्तु जब जाट लठ उठता है तो फटती अच्छे-अच्छों की है| और ऐसे आजतक सिर्फ सुना था परन्तु जैसे ही हरयाणा के जाट ने पिछले हफ्ते ही लठ उठाने की कही तो (सिर्फ बात कही ही थी, उठाया नहीं था) यह पांचों केटेगरी वाले चिल्लाने लगे| क्या आरएसएस, क्या लव कपल को पीटने वाले, क्या क्लब-बार में बॉउन्सर्स रखने वाले, क्या बैंकों वाले और क्या मंदिरों वाले सब एकमुश्त त्राहि-माम् करते दिखे|

और कानतंत्र में रहद जमा देने वाला भांडतंत्र तो फिर इनके सुर-में-सुर मिलाने को हमेशा उकडू हुआ ही रहता है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 22 August 2015

हरयाणा का दलित, उसकी जमींदारी और उस जमींदारी का अल्पकालिक चरमोतकर्ष!

1980 और 1990 के दशक की बात है, उस वक्त की सरकारी योजनाओं के तहत हरयाणा के गाँवों के दलितों के कई समुदायों को 1.75 एकड़ (हरयाणवी में किल्ले) के हिसाब से मालिकाना हक वाली जमीनें मिली थी| मेरी निडाना नगरी (हिंदी में गाँव) जिला जींद हरयाणा में भी इस योजना के तहत करीब 48 दलित परिवारों को 1.75 एकड़ प्रति परिवार मालिकाना हक के तहत 84 एकड़ जमीन मिली थी|

जिसमें से तीन दलित परिवारों की करीब 5 एकड़ जमीनें तो मेरे पिता जी जब खेती किया करते थे और हम बच्चे हुआ करते थे तब करीब 20 सालों तक ठेके और हिस्से पर बोते रहे थे| यानी दलित एक जमींदार की भांति एक जाट को उसकी जमीन पट्टे पे कहो, हिस्से पे कहो, बाधे पे कहो या ठेके पे कहो, इसके तहत दिया करते थे और जाट उसको एक खेतिहर की तरह बोया करते थे| और दलित, जमींदार होने का अनुभव और आनंद दोनों उठाया करते थे|

यह पांच एकड़ जमीन हमारे खेतों से लगती थी जो कि आज भी यथावत वहीँ है| मैं जब विद्यार्थी होता था तो इन जमीनों में पानी भी लगाता था और इन पर ट्रेक्टर से खेत भी जोतता था| और दलित फसल पकने के वक्त आते और अगर हिस्से का कॉन्ट्रैक्ट होता तो अपना हिस्सा तुलवा कर या तो फसल ले जाते या कॉन्ट्रैक्ट अगर बाधे का होता तो उसके पैसे कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों के हिसाब से चुकाए जाते थे|

करीब 20 साल हमने यह जमीनें बोई, इसका जिक्र करना इसलिए जरूरी है क्योंकि कई दलित भाई कह देते हैं कि क्योंकि दलित जाटों-जमींदारों के कर्जदार होते थे इसलिए अपना कर्ज वसूलने को दलितों की जमीन हड़प ली या दलितों ने खुद ही जाटों को बेच दी| ऐसे भाइयों को कहना चाहूंगा कि 20 साल का वक्त कोई कम नहीं होता है 20 साल में आप 1.75 एकड़ जमीन की कमाई से अगर किसी का कर्जा था तो वो भी उतार सकते थे और नई कमाई से खेती करके 1.75 एकड़ को 4-5 या इससे भी ज्यादा बना सकते थे| परन्तु आप लोगों में से अधिकतर ने उस जमीन के ठेके का जो पैसा मिलता था उस पैसे से पहले अगर किसी का कर्ज था तो उसको चुकता करने की बजाय लैविश लाइफ का आनंद लेना बेहतर समझा, दारु-मीट-मांस में उड़ाना बेहतर समझा|

दो तीन दलित भाइयों को मैंने यह तर्क रखे तो आगे से उनके तर्क आये कि जाट-जमींदार के खेतों के बीच दलित के खेत पड़ें तो जाट उनको रास्ता ही ना देवें| उन भाइयों की जानकारी में रहना चाहिए कि अगर मेरे गाँव को औसत मान के चलूँ (मेरा गाँव 4500 की जनसंख्या का मध्यम आकार का गाँव है, जबकि हरयाणा में इससे छोटे और बड़े बहुत सारे गाँव हैं) जहां कि 84 एकड़ जमीन दलितों को मिली थी और जैसा कि पूरे हरयाणा में 6841 गाँव बताये जाते हैं तो ऐसे 574644 यानी पांच लाख च्वहतर हजार छ: सौ चवालीस एकड़ जमीन के तो दलित एक मुस्त मालिक बने थे| तो जरा आप लोग बताएँगे कि ऐसे कितने मामले हरयाणा में आये जहां जाट या अन्य जाति के जमींदारों दवारा अगर आपकी जमीन उनके खेतों के बीच पड़ी तो आपको रास्ता नहीं दिया गया? हालाँकि खुद जाट-जमींदारों के यहां दो भाइयों में आपस में सैंकड़ों मामले सुनने को मिलते हैं जब पता लगता है कि एक भाई ने दुसरे भाई को उसकी जमीन में से आने-जाने के लिए रास्ता नहीं दिया, बावजूद इसके आप जरा बताएं कि ऐसे कितने मामले हुए दलितों के केस में? और आपने क्या लगा लिया कि कोई जाट-जमींदार रास्ता ना देता और दलित चुप रहते?

खैर 1980-1990 के दशक में जो दलित जमींदार हो गए थे, (हाँ जमींदार ही कहूँगा क्योंकि जब 80% से ज्यादा का जाट 2 एकड़ या इससे भी कम का मालिक होते हुए भी जमींदार कहलाया जाता है तो इतने ही का मालिक दलित जमींदार क्यों नहीं कहा जायेगा?) तब से 2000-2010 आते-आते 75-80% के करीब ने अपनी जमीनें बेच दी (मेरे गाँव में तो 95% बेच चुके)| कारण ऊपर बताया कि बजाय अपनी किसानी दक्षता को सिद्ध करने का मौका हाथ में होते हुए, उन जमीनों को जाट-जमींदारों को हिस्से-बाधे पे दे दलित भाइयों ने उस हिस्से-बाधे की कमाई से लैविश लाइफ जीना ज्यादा पसंद किया| और ऐसे अपनी जमीनें बेचते गए|

और इस तरह दलितों की उस सुखदायी परन्तु अल्पकालिक जमींदारी का अंत हुआ जिसमें एक जाट-जमींदार उनकी जमीनों पे एक खेतिहर की तरह खेती करने लगे थे| इसलिए मेरा मानना है कि 1980-1990 से पहले के दलित तो यह कह सकते थे कि वो कभी जमीनों के मालिक नहीं रहे, परन्तु उसके बाद के दलित यह बात कैसे कह सकते हैं जबकि यह चीज भारतीय दस्तावेजों में कानूनी तौर से रिकार्डेड है और धरातलीय सच्चाई है?

यह एपिसोड ठीक 1926-34 वाले वक्त की तरह है| उस वक्त रहबरे-आजम-दीनबंधु सर छोटूराम जी के अटूट इरादों की वजह से उस वक्त के पंजाब प्रान्त के जाट-गुज्जर-अहीर-राजपूत किसानों समेत गौड़-ब्राह्मण, सैनी (माली), जांगड़ा (खाती) जातियों {इन तीनों जातियों को अंग्रेजों ने किसान मानने व् जमीनों के मालिकाना हक देने से मना कर दिया था, परन्तु सर छोटूराम ने उनकी सरकार के तमाम एम. एल. सी. (आज की भाषा में एम. एल. ए.) से हस्ताक्षर करवा इन जातियों को भी इस सूची में शामिल करवाया} को उन जमीनों के मालिकाना हक दिलवाये|

इन हस्ताक्षर करने वाली एम. एल. सी. में 34 जाट थे| वो भी आज के राजकुमार सैनी की भांति सोच लेते तो शायद आज सैनी समाज जाटों से मतभेद में ना उलझ उनकी जमीनों के मालिकाना हक के लिए ही लड़ रहा होता| कुछ नेता कितने स्वार्थी हो जाते हैं कि दो जातियों के आपसी प्रेम-प्यार और प्रतिबद्धता के इस अटूट लगाव भरे इतिहास को दांव पे रख, दोनों में जहर घोलने पे तुल जाते हैं, राजकुमार सैनी साहब इसी की जीती-जागती मिसाल हैं|

खैर, तो इन जातियों ने इन जमीनों की जोत को जोत-जोत के इनमें और जमीन जोड़ते गए और अब तक जमीनों को कायम रखा हुआ है| तब किसी जाट ने यह बहाना नहीं बनाया कि उसपे किसी साहूकार का कर्जदार था तो उसको कर्ज के ऐवज में मैंने जमीन दे दी या साहूकार ने छीन ली, जैसे कि मैंने दलित भाई जाटों पर यह इल्जाम लगाते सुने हैं|

दलित भाई भी चाहते तो ऐसे ही कर सकते थे| परन्तु आपने जो रास्ता चुना वो भी अपनी मर्जी से चुना|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा में पंच/सरंपच/नगर निकाय चुनाव और शैक्षणिक योग्यता!

मैं निडाना नगरी जिला जींद हरयाणा का सपूत हूँ| मेरे गाँव की "खाप-खेत-कीट पाठशाला" अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है| मेरे गाँव और गुहाँडों में एक-एक किसान ऐसा है जो फसलों के सैंकड़ों कीटों का बायोलॉजिकल ज्ञान से ले उनके गुण-चरित्र, फसलों में उनकी लाभ-हानि की सारी बातें आपको फिंगर-टिप्स पे बता देगा| एक हिसाब से चलती-फिरती डिक्शनरी हैं मेरे गाँव के किसान फसलों के कीटों की|

देश और राज्य के कृषि विभागों से ले तमाम जानी-मानी एग्रीकल्चर युनिवर्सिटियों के वैज्ञानिकों-प्रोफेसरों तक की आँखें शर्म से झुक जाती है (और वास्तविकता में झुकी भी हैं) जब वो इन किसानों के फसल कीट ज्ञान को देखते-सुनते और जांचते हैं तो| भारत की किसी भी एग्री-यूनिवर्सिटी में विरला ही कोई ऐसा वैज्ञानिक-प्रोफेसर होगा जो मुश्किल से दस कृषि कीटों पे आपको पेपर में पास होने लायक जानकारी भी लिख सके तो|

अमूमन ऐसा ही हाल सरकारी विभागों के कृषि कर्मचारियों और अफसरों का है, सिर्फ माननीय स्वर्गीय डॉक्टर सुरेंद्र दलाल जैसे प्रतिबद्ध व् कटिबद्ध अफसरों को छोड़ कर|

मेरे गाँव के किसानों के कीट ज्ञान बारे इतना तक दावा कर सकता हूँ कि अगर इन चारों के बीच यानी कृषि अफसरों, कृषि वैज्ञानिकों, कृषि प्रोफेसरों और कृषि-कीट-कमांडो यानी कृषकों के बीच, परीक्षा की भाषा हिंदी रखते हुए और इनमें जो किसान अनपढ़ है उसको लिखने के लिए एक हेल्पर देते हुए फसल कीट ज्ञान विषय पर एक परीक्षा करवा दी जावे तो यह किसान 80% से 90% अफसरों-वैज्ञानिकों और प्रोफेसरों से ज्यादा अंक अर्जित करेंगे|

तो क्या यह ज्ञान, ज्ञान नहीं, यह इतनी बड़ी समझ जो लाखों-लाख खर्च करके बनाये गए साइंटिस्ट-इंजीनियर-अफसरों को मात दे दे उनका ज्ञान सिर्फ इसलिए ज्ञान नहीं क्योंकि उनके ज्ञान पे किसी सरकार या कानून ने लाखों-लाख नहीं खर्चे? या तथाकथित स्वर्ण बुद्धिजीवियों में से किसी ने इसको इंटेलेक्ट की श्रेणी ही नहीं दी?
दूसरी बात जिंदगी में सिखाई जाती है कि पढाई के साथ कढ़ाई यानी मनुष्य का अनुभव बहुत जरूरी होता है| धीरू-भाई अम्बानी दसवीं पास भी नहीं थे परन्तु उनकी रखी नींव पे आज उनका वंश भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक व् राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप रखने वाला घराना कहलाता है| सचिन तेंदुलकर भी कोई बड़ी डिग्री नहीं रखते और ना रखती स्मृति ईरानी|

मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है कि किसान को अपनी नॉलेज को पहचान दिलवाने के लिए आंदोलन चलाना होगा तभी इन भीरु लोगों को यह समझ आएगी कि किसान तुमसे कितने बड़े ज्ञानी हैं| किसान को भी अपने इंटेलेक्ट पे लिटरेचर क्रिएट करना होगा, तभी यह लोग समझेंगे कि किसान कोई माँ के पेट से पैदा नहीं होता, तुम्हारी ही तरह पूरी जिंदगी खपानी पड़ती है एक किसान बुद्धिजीवी बनने में|

असल में गलती इनकी भी नहीं है, क्योंकि जब तक मनुवादी मति के लोग सरकारों में रहेंगे, यह किसी और के ज्ञान-अनुभव को स्थान देंगे ही नहीं| 

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 21 August 2015

राजकुमार सैनी साहब, जाट लठ उठा ले तो लठतंत्र और यह आर.एस.एस. जो 1925 से लाठी उठाये फिर रही; यह क्या?

वैसे तो जाट ने कभी किसी लठ वाले की चिंता नहीं की, फिर चाहे वह 1925 से कंधों पे लाठी रख बिना वजह यदाकदा गलियों में पैर पीटते आर.एस.एस. वाले हों या कोई और| परन्तु जैसे ही जाट ने जाट आरक्षण मामले पे लठ उठाने की बात कह दी तो राजकुमार सैनी, सांसद कुरुक्षेत्र उठ चले आये कि जाट तो लठतंत्र चलाते हैं| सैनी साहब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि यह आरएसएस 1925 से हाथों में लाठी ले जो चला रही है यह कौनसा तंत्र है?

बड़ी जल्दी याद आ गई आपको लठ की? 60 साल के करीब होने को हुए आप, परन्तु तब से ले के अब तक तो आपको कोई लठ/लाठी नहीं दिखी, एक जाट ने लठ उठाने की बात मात्र क्या कही कि आपकी भौहें भी खुली और हिया भी हिलने लगा?

और तो और तमाम शंकराचार्य तक लाठी हाथ में ले के चलते हैं, तमाम नागा साधु जैसी कतार तो त्रिशूल-भाले तक ले के चलती है, यह कौनसा तंत्र है राजकुमार सैनी जी, क्या बताने की कृपया करेंगे?

कमाल है राजकुमार सैनी साहब! जाट के लठ उठाने मात्र से इतना खौफ! खैर, इससे बैठे-बिठाए एक बात तो साबित हो जाती है कि आर.एस.एस. की लाठी से समाज के दिलों-दिमागों में कोई उबाल या उफान नहीं आ सकता, 90 साल से लगे हुए थे किसी ने इनके लठ नोट तक नहीं किये, पर जब जाट ने उठाने की घोषणा कर दी तो मात्र घोषणमात्र से ही कैसे रातों-रात लठतंत्र स्थापित हो गए|

आर.एस.एस. वालो सीखो कुछ जाटों से, एक बार राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद की कमान दो किसी जाट को फिर देखो कैसे आर.एस.एस. मार्का रातों-रात अनछुई बुलंदियों को छूता है| या फिर छोड़ दो इन लाठियों को, यह उन्हीं को फब्ती हैं जिनको भगवान ने इनका बाई-डिफ़ॉल्ट टैलेंट दिया है| आप लोग नब्बे साल लठ उठा के भी 'लठतंत्र' का मार्का नहीं पा सके और एक जाट हैं कि उठाया भी नहीं था सिर्फ उठाने की कहा ही था इतने में ही 'लठतंत्र' स्थापित|

वाह रे जाट क्या हस्ती है तेरी, अंगड़ाई लेने की भाषा में सिर्फ लठ उठाने की ही कही (अभी उठाया नहीं) और इतने में ही मीडिया हाउस से ले सांसद तक हिलने लगे| वो आर.एस.एस. और शंकराचार्यों की भाषा में क्या कहते हैं "शिवजी की तीसरी आँख का खुलना" यही ना? भाई जाट प्लीज सच्ची में मत उठाना, अपितु असहयोग आंदोलन चला लेना|

मैं वैसे ही थोड़े कहता हूँ कि लठ तो जाट का जन्मजात फिक्स्ड एसेट है इसको तो कभी भी आजमा लिया जायेगा, फ़िलहाल जरूरत इसकी नहीं, क्योंकि यह विदेशी लुटेरों और आक्रान्ताओं का जमाना नहीं है (वो अलग बात है कि आरएसएस को अभी तक ध्यान नहीं आया कि विदेशी लुटेरे और आक्रांता जा चुके तो तुम क्यों कन्धों पे लाठी टाँगे फिर रहे?)। खैर वो टांगें फिरें हमें उनसे क्या, हमें तो अपनी सदियों-सदियों पुरानी लोकतान्त्रिक व् गणतांत्रिक मर्यादा को कायम रखते हुए यह लड़ाई लड़नी चाहिए ताकि समाज ना बिखरे| और इसका एक सुयोग्य मार्ग है "बाजार व् धर्म से असहयोग आंदोलन"।

बाकी सैनी, साहब कभी आर.एस.एस. की लाठियों के खिलाफ भी आवाज बुलंद करो तो जान पड़े कि आप वाकई में लठतंत्र के कितने निष्पक्ष और सच्चे विरोधी हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"गलियों के राष्ट्रभक्तों" की सरकार में "बॉर्डर के राष्ट्रभक्तों" की होती दुर्गति। - OROP Row

वर्तमान सरकार को फौजियों की सुननी चाहिए और बात-बात पे "भारत माता की जय" के जयकारे लगाने वालों को भारत माता के प्रथम व् असली सपूत यानी फौजियों की मांग को पहली कलम से पूरी करना चाहिए। वर्ना भाई भारत माँ के प्रथम सपूतों का यह हाल और वो भी भारत माता की जय बोलने वालों के राज में देख के तो यही लगता है कि आप लोगों और आपके सरदार के लिए "भारत माता की जय" भी एक जुमला ही है सिर्फ।
इसी से पता चलता है कि आपको वास्तविक राष्ट्रभक्ति की यानी बॉर्डर की राष्ट्रभक्ति की कितनी तो समझ है और कितना उसके प्रति इज्जत और जज्बा!

आप लोगों को समझना चाहिए कि कच्छाधारी बन, हाथों में लठ ले गलियों में मार्चपास्ट करने से ही कोई राष्ट्रभक्त कहलाता तो आधी रात को हाथ में लाठी ले देश की गलियों में चौकीदारी करते हुए "जागते रहो!" का हल्कारा लगाने वाले चौकीदार सबसे बड़े राष्ट्रभक्त कहलाते।

फिर भी राष्ट्रभक्त की परिभाषा के कुछ नजदीक लगने जैसा दिखना है तो OROP पे सकारात्मक कदम ले के दिखा जा सकता है, वरना वही कि "भारत माता की जय" भी आप लोगों के लिए एक जुमला है, जनता ऐसा ही समझने लगेगी।

वैसे ताज्जुब की बात एक यह भी है कि असली लठमार्का यानी जाट जब लठ उठाते हैं तो आप लोग यह क्यों चिल्लाने लगते हैं कि जाटों को तो लठ के सिवाय दूसरी भाषा ही नहीं आती। तरोताजा उदाहरण जाट आरक्षण मामले में हरयाणा में जाटों द्वारा लठ उठाने की घोषणा करने के बाद आपके लोगों की तरफ से आ रहे बयानों में साफ़ देखा जा सकता है। जैसे खुद आप तो जब लाठियां ले कच्छों में परेड करते हैं तो वो लठ फूल बन जाते हैं। यह भी एक समझने वाली बात है कि जाट जब लठ उठाये तो लठैत और बिना किसी युद्ध घड़ी के एविं अंग्रेजों के जमाने के अंग्रेजों वाले कच्छे पहन आप लोग परेड करें तो राष्ट्रभक्त। शायद आपको भी पता है कि आप जो लठ उठाते हो वो बस सामने वाले को डराने के लिए, परन्तु लठमार्का यानी जाट जब लठ उठाता है तो वो जरूर किसी का भोभरा खोल के ही वापिस रखता है।

खैर यह तो लठ की बात चली तो बीच में जिक्र आ गया, मुख्य बात यही है कि राष्ट्रभक्त भाईयो अगर आप चाहते हो कि "भारत माता की जय" भी एक जुमला मात्र साबित ना हो जावे, तो आप सबसे विनती है कि भारत माता के असली व् प्रथम सपूत यानी हमारे सम्मानीय सैनिकों की OROP की मांग को अपनी सरकार से पूरी करवा दो।

वर्ना कहीं ऐसा ना हो कि यह "राष्ट्रभक्त और राष्ट्रभक्ति" शब्द भी जुमले कहलाये जानें लगें।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बालक मरवाने हैं तो इनके मरवाओ, अपनों को क्यों मरवाते हो?

जाट आरक्षण हेतु जाटों द्वारा असहयोग आंदोलन चला देने से जब जाट समाज इनकी कोई चीज नहीं हेजेगा, जब इनका कोई सामान ही जाट नहीं खरीदेंगे, इनकी दुकानों में चूहे कूदेंगे, बड़ी-बड़ी ट्रेक्टर से ले एक छोटी सी साइकिल तक की मशीनों को इनके शोरूमों में खड़े-खड़े जंग लगेंगे तो खुद ना जा के सरकार से कहेंगे की भाई बालक भूखे मर लिए सें, सामान दुकान-गोदाम-शोरूमों में पड़े-पड़े सड़ लिए सैं, दिवाला पिटन नैं आ लिया सै, भतेरे सांग रचा लिए सैं राजकुमार सैनी जैसों को इनके आगे अड़ा के, इब राजकुमार को भी पीछे खींचों और दे दो जाटों को आरक्षण, और जो कुछ और मांगते हों तो वो भी दे दो|

यह है एक-दो महीने भी अगर जाट ने स्वर्ण व्यापारी की दूकान से अगर सामान ना खरीदने के असहयोग का जादू, ताकत और मिलने वाला नतीजा| जाटों को जो चाहिए वो अगर घर बैठे वो भी हरयाणवी स्टाइल वाला फूफा कह के ना दे के जावें तो!

हमें लठ दे के अपने बालकों को इनके आगे खड़े करने की जरूरत नहीं अपितु इनकी कूटनीति का ऐसा जवाब दो कि इनके घरों में 'असहयोग आंदोलन' के जरिये खाने के लाले पढ़ें और ये खुद सरकार को जाटों की मांग मानने का डंडा देवें|

Jai Yoddhey! - Phool Malik

Thursday, 20 August 2015

जाट आरक्षण के रहनुमा लठ से पहले अपनी कंस्यूमर पावर की ताकत को समझें!

जब से अखबारों में टीवियों पे जाटों के बालकों को जाट आरक्षण हेतु हाथों में लठ उठाये देखा है तब से समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि अगर कल को खुदा-ना-खास्ता सरकार इनकी ना सुने और इनपे बल प्रयोग कर दे और उससे क्षुब्ध-संसप्त यह बच्चे 1984 वाले पंजाब आतंकवाद की तरह उसी राह पर चल निकले तो उसका कौन जिम्मेदार होगा? मतलब एक पूरी की पूरी पीढ़ी खराब हो सकती है, यह इतना बड़ा रिस्क है|

आईये समझें कि लठ के बल के आंदोलन की जगह व्यापारियों से सामान ना खरीदने का एक से तीन महीने के लिए असहयोग आंदोलन जाट चला लेवें तो यह आपका कितना बड़ा कूटनीतिक हथियार हो सकता है, जो इतने ही की आपकी बचत तो करवाएगा ही करवाएगा, आपके भाड़े-तोड़े भी बचवायेगा और जिनकी इतने की खरीद नहीं होगी उनकी जब बैलेंस सीटें हिलेंगी तो वो खुद हमारे साथ आ के सरकारों को कहेंगे कि जाटों को आरक्षण दो| साथ नहीं आएंगे तो अंदर-खाते सरकारों पे दबाव डालेंगे| इसलिए आईये जन्मजात भगवान से विरासत में प्राप्त लठ की ताकत (जाट का फिक्स्ड एसेट) को तो बाद में भी कभी भी आजमाया जा सकता है परन्तु उससे भी बड़ी ताकत जो आज हमारे हाथ में है उसका गणित क्या कहता है, उसे समझें|

आईआईएम (IIM) कलकत्ता और अहमदाबाद की दो रिसर्च स्टडीज के अनुसार वर्तमान में औसतन 36600 ट्रैक्टर्स हरयाणा में, 46200 पंजाब में, 112800 ट्रैक्टर्स यू. पी. में और 44400 ट्रैक्टर्स राजस्थान में सालाना बिक रहे हैं| अगर हरयाणा और पंजाब में 70% व् यू. पी. और राजस्थान में 50% ट्रैक्टर्स अकेले जाट किसान खरीदता है तो इन चार राज्यों में कुल 136560 ट्रैक्टर्स एक साल में अकेले जाट खरीद देते हैं| औसतन एक नए ट्रेक्टर की कीमत अगर 4 लाख रूपये ले के चला जाए तो यह 54624000000 यानी 5462.4 करोड़ रूपये बैठती अर्थात अकेला जाट (हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई व् तमाम धर्मों का) व्यापारियों को 5462.4 करोड़ रूपये की तो सालाना इन चार राज्यों में सिर्फ ट्रेक्टर मार्किट देता है यानी यह उसकी कंस्यूमर पावर है| महीने के हिसाब से देखो तो एक महीने में 455.2 करोड़ रूपये की ट्रेक्टर मार्किट बैठती है यह|

अब अगर इसी प्रकार कार, मोटरसाइकिल, फ्रिज, ऐ.सी., वाशिंग मशीन, इन्वर्टर, ज्वैलरी की मात्र जाट की इन चार राज्यों में खरीद कैलकुलेट की जाए तो आप सोचें कि कितने हजार अरब रूपये में बैठेगी|

इस प्रकार अगर इस फार्मूला पे चल के 50% सफलता भी अर्जित कर ली जाए तो कितना बड़ा दबाव सरकार पर होगा और वो हमारा नहीं अपितु व्यापारियों का होगा| इससे राजकुमार सैनी जैसे जो हथियार हमारे विरोधियों ने हमपे तान रखे हैं वो भी स्वत: धत्ता हो जायेंगे|

और विरोधियों द्वारा ओबीसी को जाट के खिलाफ खड़ा करने की काट हेतु, ओबीसी भाईयों को भी यह कह के विश्वास में लेना होगा कि हमें ओबीसी में आ जाने दो, फिर नारा उठाएंगे, "जाट ने बांधी गाँठ, पिछड़ा मांगे सौ में साठ!" फिर चाहे आप लोग अपनी जनसंख्या के अनुसार साठ आगे छांट कर लेना|

इसलिए मेरी कौम के सारे जाट-आरक्षण रहनुमाओं से अनुरोध है कि आप एक बार इस पर विचार करें| और तीन से पांच महीने की टाइम विंडो रख के उन्हीं युवकों को जिनको कि आप लठ हाथ में दे 28 सितम्बर को दिल्ली कूच करने के लिए तैयार कर रहे हैं, उनको दो महीने यह ट्रेनिंग देने में लगवाये और तीसरे महीने इस आंदोलन को घर बैठे खड़ा किया जावे तो इससे हमारी ना सिर्फ आवाज सुनी जाएगी अपितु लठ उठाने से जो समाज का नुक्सान होगा वो भी बचेगा और गणतांत्रिक व् लोकतान्त्रिक प्रणाली को समाज में कायम रखने का जो रुतबा जाट का रहा है वो भी कायम रहेगा|

फिलहाल यही कह सकता हूँ कि अपने जाट समाज के नवयुवा का साथ ले के उसको ऐसी दिशा देवें जिसमें हमें चारों-खाने फायदा होवे और दुश्मन चारों-खाने चित होवे| सिर्फ जो चाहिए वो नवयुवा जाटों को आप लोगों की रजामंदी, मार्गदर्शन और आशीर्वाद| ऐसी नहीं कि आने वाले वक्तों में हमारी ही नवयुवा पीढ़ी हमको दोष देवे|

क्योंकि सत्ता में आते ही जिस प्रकार का इस सरकार का रवैया जाटों के प्रति रहा है उससे साफ़-स्पष्ट है कि ना सिर्फ आंदोलन को कुचला जायेगा वरन जाट युवा को इस हद तक तोड़ा जायेगा कि वो पंजाब वाले 1984 के आतंकवाद की राह पे चल निकले और अगर ऐसा हुआ तो ना सिर्फ सरकार अपितु आप भी बराबर के जिम्मेदार और जवाबदेह होंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 19 August 2015

राजकुमार सैनी जी जरा याद करो उस जाट को जिसने आपकी जाति को किसान जाति घोषित करवाया था!


दोस्तों! इस तथ्य को आगे शेयर करना (खासकर हर जाट और ओबीसी में एकता चाहने वाला हर नुमाइंदा यह जरूर करे) ताकि राजकुमार सैनी जैसे सांसदो को याद दिलाया जा सके कि मंडी-फंडी के हाथों की कठपुतली बन जिन जाटों के वो आज दुश्मन बने खड़े हैं, उन्हीं जाटों की वजह से आज उनकी जाति किसानी व् माली जाती कहलाती है|

वैसे उम्मीद यह थी कि इतने बड़े राजनेता को यह बात जरूर पता होगी, परन्तु फिर भी जिस भी वजह से वो इसको छुपाते हैं या वाकई में जानते ही नहीं हैं तो मैं यहां रखे दे रहा हूँ|
यह ऐतिहासिक तथ्य ऐसे है:

आदरणीय कर्नल मेहर सिंह दहिया ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ बताते हैं हैं कि बात सन 1926 के बाद की है| देश में रिफार्म्ज एक्ट (reforms act) लागु हो चुके थे| किसान कर्जा मनसूखी कानून बनने जा रहा था। उस समय की "हिन्दू महासभा" जैसी पार्टियों के नुमयानादे कर्जा मनसूखी कानून नहीं लागु करना चाहते थे|

अंग्रेज भी सिर्फ जाटों को ही किसान मानते थे| चाहे जाट सरदार हो, हिन्दू हो या मुसलमान सिर्फ उन्हें ही जमीदारों के कानून इन्तकाले अराजी (जमींदार/किसान स्टेटस) में रखना चाहते थे। परन्तु रहबरे-आजम सर छोटूराम जी के प्रयासों से गौड़-ब्राहमण, सैनी (माली) और जांगडे (खाती) किसानों को भी इस कानून की सुरक्षित जातियों में शामिल करवाया गया|

अत: राजकुमार सैनी जी आप ध्यान दें तब किसी जाट ने इसका विरोध नहीं किया था कि क्यों ब्राह्मण-सैनी-जांगडों की जमीनों को सुरक्षित कर रहे हो| सर छोटूराम की बदौलत कर्जा मनसूखी कानून 1934 के अनुसार इन जाति के किसानों का कर्जा भी माफ़ हो गया|

इसमें एक रोचक बात यह कि इस कर्जा कानून से माफ़ी में इन जातियों को शामिल करने वाले बिल पर जो तब पंजाब कॉन्सिल लाहौर में पेश किया गया था, उस पर 32 जाट विधायको तब (m.l.c.) के हस्ताक्षर थे।

जबकि खुद मंडी-फंडियों की पार्टी जो तब हिन्दू महासभा कहलाती थी इस बिल के विरोध में थी| एक जाट के कारण ही आज आप किसान हैं, जमींदार हैं अन्यथा आपकी जमीनों का मालिक कोई साहूकार होता|

और आज उन्हीं मंडी-फंडियों के बहकावे में आ आप जाटो के विरोधी बने खड़े हैं| पार्टी भी तो वही है सिर्फ नाम ही तो बदला है 'हिन्दू महासभा पार्टी' से हटा के|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

खुशखबरी! तथाकथित ऊँची जातियों में जिसे नौकरी नहीं मिली उनके हिस्से का C और D grade slot खाली है!


ये तथाकथित स्वर्ण जातियां आरक्षण को ले के इतना हो-हल्ला क्यों कर रही हैं जबकि C और D grade की नौकरियों में इनकी representation नदारद है| इनमें से जिसे नौकरी नहीं मिलने की शिकायत है वह लोग अपने हिस्से का C और D grade slot तो भर लेवें पहले, फिर बाकी की बात करें| A और B grade में तो आप लोग अपनी जनसंख्या के अनुपात में वैसे ही मल्टीप्ल टाइम्स ओवरफ्लो में हैं, जरा अपने हिस्से का C और D ग्रेड का स्लॉट भी तो भरें|

आखिर उन नौकरियों में भी तो टैलेंट चाहिए होता है कि नहीं? अचम्भा है कि टैलेंट का दम्भ भरने वाले ही अपने हिस्से का C और D grade slot भरने को कभी इतने उतावले नहीं दीखते जितना कि टैलेंट-टैलेंट की वायलेंट छाती पीटते हैं|

वैसे भी भारतीय सविंधान की फंडामेंटल धाराओं के अनुसार आरक्षण किसी को आर्थिक तौर पर ऊपर उठाने हेतु नहीं है, वरन एक जाति-सम्प्रदाय की रिप्रजेंटेशन सुनिश्चित करने हेतु है| तो करिये ना अपनी रिप्रजेंटेशन को C और D केटेगरी में पूरा, किसने रोका है आपको टैलेंट दिखाने से?

या फिर टैलेंट के ऊपर मनुवाद का सुरक्षा कवच ढाँपे हुए हो, कि बस जो मनु ने हमारे लिए कह दिया वो ही हमारा टैलेंट, बाकियों का और बाकी का टैलेंट इर्रेलेवांट (irrelevant)|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 18 August 2015

'हनुमान जी' का 'बाला जी' नाम व् उनको 'जाट की संतान' कैसे और कब से कहा जाने लगा!

मशहूर कवि, लेखक, विचारक व् जाट इतिहास के ज्ञाता सरदार प्रताप सिंह फौजदार बताते हैं कि सं 1025 में सोमनाथ मंदिर के पुजारियों और महंतों के डरावों और उसकी सेना मंदिर में घुसी तो अंधी हो जाएगी जैसे झूठे भयों को धत्ता बता जब महमूद गजनवी सोमनाथ के मंदिर का खजाना करीब 1700 ऊंटों पर लूट के अरब की ओर लौट चला तो सिंध क्षेत्र के जाटों ने "चौधरी बाला जी जाट महाराज" की अगुवाई वाली खापसेना से उस पर चढ़ाई कर उसका लूटा हुआ अधिकतर खजाना लूट लिया और उसको लगभग खाली हाथों अरब की ओर भागना पड़ा। और इस प्रकार देश का खजाना देश से बाहर ना जाने दे, बाला जी जाट ने देश की शान को कायम रखा था।

इस लड़ाई के बाद "चौधरी बाला जी जाट महाराज" व् उनकी सेना की इतनी वाहवाही हुई थी कि वो एक महानायक के रूप में बनकर उभरे। और सबकी जुबान पर "बाला जी" नाम चढ़ता गया। जिसको देख पुरजिरयों-महंतों-संतों ने सोचा कि यही मौका है इस नाम को हाईजैक करके इसके साथ रामायण पुराण के चरित्र हनुमान को जोड़ दो। प्रथम शंकराचार्य के जमाने आठवीं सदी में रामायण और महाभारत लिखवाई गई तब से और "बाला जी जाट" के काल के बीच "बाला" शब्द का कहीं भी महिमामयी वर्णन नहीं मिलता| यहां तक कि हनुमान के चरित्र का उद्भव कही जाने वाली रामायण और महाभारत में भी इस शब्द का कहीं भी वर्णन नहीं है।

यहां ध्यान रहे कि मैं सैंकड़ों पंडितों-पुजारियों-साधुओं से पूछ चुका हूँ कि आंठवीं सदी से पुरानी रामायण या महाभारत की कॉपी कहाँ रखी गई या किसके पास मिलेगी तो किसी की तरफ से आजतक हाँ में जवाब नहीं आया कि फलाने महानुभाव के पास फलानि जगह मिलेगी।

आगे बढ़ता हूँ, जनता में बाला जी जाट महाराज की असीम भगवान समतुल्य प्रसिद्धि बढ़ती देख और अपने रोजगार का एक और सुअवसर इसमें पा व् अपनी मानव-रचित रामायण के किरदार को वास्तविक रूप में सिद्ध करने हेतु धर्म के लोगों ने हनुमान के किरदार को दूसरा नाम दिया "बाला जी"। आखिर काम भी तो बाला जी जाट ने संकटमोचन वाला ही किया था। जब महमूद गजनवी को कोई नहीं रोक पाया तो तब अवतारे थे धरती के वास्तविक बाला जी।

परन्तु दुःख तब होता है जब हनुमान के नाम तले बाला जी जाट की कोई गाथा नहीं सुनाई जाती। और हनुमान जाट थे यह तब से ही प्रचारित करवाया गया ताकि लोग असली बाला जी जाट के नाम पर उनके फ़ॉनेटिक चरित्र हनुमान को स्थान दे देवें। जबकि वास्तविकता यह है कि हनुमान के चरित्र को वास्तविक बाला जी जाट से जोड़ा गया था, इस उम्मीद के साथ कि दो-चार सदी बाद के जाटों को यह लगता रहे कि हनुमान ही बाला जी जाट हैं।

और वही हुआ। परन्तु धर्म के लोग इनकी ही बुनी चाल में फंस गए और इससे कभी नहीं छूट पाये। और वो था बालाजी जाट का जाटपुत्र होना हनुमान जी के साथ जोड़ा था, वो सदियाँ बीत जाने पर भी लोक-किदवंतियों में आजतक भी ज्यों-का-त्यों कायम रहा और है। इससे भी मुझे यह बात कहने का बल मिला कि बालाजी जाट वास्तव में हुए थे और ग्यारहवीं सदी में महमूद गजनवी को सबक सिखाने को जाट-देह धार अवतारे थे।
परन्तु मंदिरों में आज तक भी यह छुपाया जाता है कि बाला जी वास्तव में हुए थे और यह वास्तविक बाला जी जाट का नाम है, हनुमान का नहीं।

परन्तु इससे एक ख़ुशी जरूर है कि हनुमान के बहाने ही सही परन्तु उन बाला जी जाट को खापलैंड के हर अखाड़े, पूरे भारत और यहां तक कि विश्व तक के कौनों-कौनों में पूजा जाता है, फिर भले ही उनके रूप को बंदर का रूप दिया हो वो भी बावजूद ग्यारहवीं सदी का मानवदेह का किरदार होने के।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 17 August 2015

सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों की सरपरस्ती में जंतरमंतर पर पिटते ऑफिसियल राष्ट्रभक्त!

13 सितम्बर 2013 में पीएम कैंडिडेट घोषित होते ही मोदी ने रेवाड़ी (हरयाणा) में 15 सितंबर 2013 को पहली चुनावी रैली "सैनिक सम्मान" के नाम से आयोजित करी और OROP पर बोले कि आते ही सर्वप्रथम इस कार्य को करेंगे। जाहिर सी बात है पीएम कैंडिडेट के नाते सबसे पहली रैली में सबसे पहला वचन भी सैनिकों के लिए दिया तो सबसे पहले पूरा भी यही होना चाहिए था।

परन्तु अब हो क्या रहा है वो जंतरमंतर पर पिछले 65 दिन से धरने पर बैठे सैनिकों की बानगी हम सबको दिख ही रहा है।

कहने को तो बहुत कुछ है इस मुद्दे पर, 5-6 पन्ने तो आराम से लिख सकता हूँ, परन्तु ज्यादा सार्थक जो कहना रहेगा वो यही है कि अभी कल ही पाकिस्तान की तरफ से गोलीबारी हुई है। तो क्यों ना इन सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों की एक छोटी सी परीक्षा हो जाए और ऑफिसियल राष्ट्रभक्तों यानी हमारे सैनिकों की जगह इनको मोर्चा संभालने दिया जाए? नितिन गडकरी, अमित शाह जैसों के तो पेट में ही 100-200 गोली तो यूँ ही पेट पे हाथ फेरते-फेरते ही खप जाएँगी दुश्मन की।

यह सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों को समझना चाहिए कि जिनकी सुरक्षा के साये तले तुम्हारी सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्ति चलती है, उनको इतना बेइज्जत मत होने दो, उनको उनका हक़ दिलवा दो। वह कोई कांग्रेस या आप के लोग नहीं हैं कि जिनकी ना सुनने की घुट्टी पिए बैठे हो| वो इस देश के सैनिक हैं, उनकी आत्मा को तो दुखाने से बख़्श दो।

वो कोई रामबिलास शर्मा वाले अस्थाई टीचर भी नहीं हैं जिनको आते ही एक कलम में पक्का करने के लिखित वादे करने के बाद भी लाठियों के अलावा कुछ ना मिला, वो इस देश के सैनिक (ऑफिसियल राष्ट्रभक्त) हैं। कम से कम उनको तो आम जनता मत समझो।

वैसे भी पीएम साहब को तो एक छोटे से आईडिया से 10-15 हजार करोड़ से ले 27 हजार करोड़ तो यूँ चुटकियों में निकाल लेने आते हैं (यह मैं नहीं कह रहा उनका 2 दिन पहले का लाल किले की मीनार से दिया भाषण कह रहा) तो क्या देश के ऑफिसियल राष्ट्रभक्तों के लिए उनकी तिजोरी में एक 8-10 हजार करोड़ रुपया नहीं?

अरे जब कहीं जनधन योजना तो कहीं गैस-सब्सिडियों से पैसा उगाह के व्यापारियों को दिया जा सकता है तो सैनिकों के मामले में तो जनता से झूठ बोलने की भी जरूरत नहीं। एक बार घोषणा करवा दो कि भारत का हर BPL घर महीने के 20 रूपये, हर मिड्ल क्लास घर 100 रूपये और हर वेल एस्टैब्लिशड घर 500 रुपए OROP के लिए दिया करेगा तो, देखो देश के 34 करोड़ घर, यह 8-10  हजार करोड़ रुपया तो हंसी-हंसी दे देंगे। बदले में ऐसी ही कोई छोटी-मोटी जनधन जैसी बीमा योजना दे देना जनता को।

पर शायद उसके लिए एक सैनिक (ऑफिसियल राष्ट्रभक्त) की देश के लिए क्या कीमत होती है यह समझना पड़ता है| और उसको समझने के लिए शायद सेल्फ-स्टाइल राष्ट्रभक्ति और ऑफिसियल राष्ट्रभक्ति में कितना दिन-रात का अंतर होता है यह समझना और महसूस करना जरूरी होता है। लगता है पीएम साहब ने सेल्फ-स्टाइल राष्ट्रभक्तों को ही ऑफिसियल राष्ट्रभक्त बनाने की वाकई में सोच ली है|

अगर ऐसा हुआ तो फिर कोई बाला जाट जी ही आ के बचाये सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों की आँखों आगे महमूद गजनवी द्वारा होती सोमनाथ की लूट से सोमनाथ को, या फिर कोई रामलाल खोखर ही मार गिराये सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों द्वारा माफ़ कर दिए मोहम्मद गौरी को, या फिर कोई जोगराज गुज्जर और हरवीर गुलिया जाट ही मार भगाने आएगा तैमूर लंग को, या फिर कोई गॉड गोकुला ही जा औरंगजेब की नाक में दम करे उसके लगाए जजिया कर की त्रासदी से त्राहि-त्राहि करते सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों को।

खैर पीएम साहब आपको दर्द होता हो या ना होता हो, हम आमजनता से हमारे सैनिकों की यह दुर्दशा नहीं देखी जाती जो आपकी सरकार उनकी कर रही है। वो हमारा सम्मान-घमंड-अभिमान और विश्वास हैं, उस विश्वास को ऐसे तार-तार बेइज्जत करके मत तोड़िये।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thats why they are called as andhbhakta!

His highness prince of Abu Dhabi ji, his highness prince of Dubai ji, wo bhi ek baar nahin repeatedly baar-baar. Kaash agar aise kisi Congress ya AAP waale ne bola hota to o ho tauba-tauba, andhbhakton ne kya haay-tauba macha deni thi!

Aur ispe bhi agar kisi congressi ya aapiye ne, "islam ko shanti aur sadbhavna ka prateek" bata diya hota jaisa ki Modi sahab Abu Dhabi Mosque ki visitor diary mein likh diye hain; to kya sakshi, kya prachi aur kya adityanath, sabne ne unko Pakistan jao ke jhande dikha diye hote ab tak to. thats why they are called as andhbhakta.

मैं तो उस तांत्रिक को ढूंढ रहा हूँ जो इतनी तगड़ी भभूत बना के अंधभक्तों को चटवाता है।

Phool Malik

चलो अहले सनम अब हम तो सफर पे निकलते हैं!

चलो अहले सनम अब हम तो सफर पे निकलते हैं,
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

एक जीवन बिना सोहबत-ओ-रूह तेरी जिया,
जहर आधे पे पलने की ठेकेदारी का पिया!...
अब उन ठेकेदारों की गिरफ्त से निकल, जीवन-शिखर को चलते हैं!
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!


बलात्कारियों ने ज्यूँ बरपाई हो क्रूरता,
उस भय की भयानक कंदराओं में सिसकता!
जोड़ उन चेतना के चिथड़ों को, अब कंधों पे उठा के चलते हैं।
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

तू कहाँ इस दुनियां की भीड़ में ऐ जीस्त,
चल कफ़न की सफेदी में ढलते हैं!
हौसलाये-उल्फ़त के ढहते मक़ामों की गर्द से उभरते हैं!
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

डर की जंजीरों को तोड़ के उल्फ़त से उससे मिल,
चल ख़्वाबों के जख़ीरों से कश्ती के तार बुनते हैं।
यूँ टुकर न देख, यकीं कर चल 'फुल्ले-भगत' उसकी पनाह में चलते हैं।
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

चलो अहले सनम अब हम तो सफर पे निकलते हैं,
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

फूल मलिक

भगतों के हृदय-विच्छेदन हुए!

भगतों के हृदय-विच्छेदन हुए,
छाती पे सांपन लेटन हुए!

सरदार ने मारी ऐसी पलटी,
मस्जिद से शेयर कर दी सेल्फ़ी।...
हर भगत कराह रहा ऐसे,
जैसे गधा दुलत्ती देतन रहे!
भगतों के हृदय-विच्छेदन हुए,
छाती पे सांपन लेटन हुए!


'तेल-जिहाद' लानन को गए थे,
हमने मथ्था टिकाने को कब कहे थे?
कांग्रेस-राज में स्वीकार मंदिर की,
तोहार उपलब्धि बतलावन के ना रहे।
भगतों के हृदय-विच्छेदन हुए,
छाती पे सांपन लेटन हुए!

सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रवादिता,
भोंदुओं को बहकाने की लिम्का।
मुस्लिम को शांति और सद्भावना,
वाला बता एक ही मुंह में पी गए!
भगतों के हृदय-विच्छेदन हुए,
छाती पे सांपन लेटन हुए!

मोहब्बत को तिजारत बना डाला,
हमारे विश्वास की होली जला डाला,
अटल तो सिर्फ बिरयानी खिलाये,
अडवाणी जर्रा रोये, तुम तो उन्हीं के होए।
भगतों के हृदय-विच्छेदन हुए,
छाती पे सांपन लेटन हुए!

हम तो से रूठे सनम,
तोहार दिए घात ने लूटे सनम|
फुल्ले-भगत ने लतियाये क्या,
घाव अब तो को दिखाएँ भी का .... मियाँ
भगतों के हृदय-विच्छेदन हुए,
छाती पे सांपन लेटन हुए!

Phool Malik

मुस्लिम मंदिर-गुरुद्वारा जाते भी और बनवाते भी!

जो अंधभगत यह कहते हैं कि मुस्लिम कभी मंदिर-गुरुद्वारा नहीं चढ़ते तो तुम क्यों उनकी मस्जिद जाओ। खैर मस्जिद ना जाने का फरमान तो भगतों का सरदार ही नहीं मानता, हम तो फिर ठहरे धार्मिक सेक्युलर (जातीय सेक्युलर नहीं)|

पहले तो मुझे भी झिझक होती थी परन्तु अब जब भगतों के सरदार तक खुद मस्जिद में जा के सेल्फ़ी शेयर करते हैं तो कोई शेख गुरुद्वारा विजिट करे तो उसको शेयर करना तो पॉजिटिव बात होनी चाहिए। सही कहा ना भगतगणों और गणिकाओं?

सऊदी में 2 मंदिर पहले से और तीसरा कांग्रेस रिजाइम में पास होने (जिसका ठीकरा भांड मीडिया मोदी विजिट पे फोड़ रहा है) से भी स्पष्ट है कि मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में मंदिर भी होते और नए भी बन सकते। भगतो now update yourself।

https://www.youtube.com/watch?v=zSYiLROPZtQ

Sunday, 16 August 2015

भगतो, भागो-दौड़ो "तेल-जिहाद" आया!

विगत लोकसभा इलेक्शन से पहले की बात हैं, जब मोदी जी को पीएम कैंडिडेट घोषित किया-किया था| मैंने तभी कह दिया था कि अटल ने तो सिर्फ मुसर्रफ को आगरा में बिरयानी खिलाई थी, आडवाणी जिन्नाह की मजार पे जा के रोया था, इसको देखना यह अगर मस्जिद-मस्जिद माथा टेकता ना फिरे तो| आज मेरी वह दूरदृष्टि सच हुई|

अब कोई यह मत कह देना कि बिज़नेस डील्स के लिए ऐसा करना होता है, क्योंकि इन जनाब से पहले भी बहुत पीएम ने विजिट किये हैं अरब देश, पर मस्जिद पे धक्के खाता कोई नई फिरा। सिर्फ ऑफिसियल मीटिंग्स अटेंड करी और वापिस।

इनको फिरना पड़ रहा है क्योंकि जो यह इंडिया में माइनॉरिटी के साथ करते हैं, उसको कम्पेन्सेट जो करना है, वरना शेख लोग इनकी इंडिया में की जा रही हरकतों को देख इनको घास भी ना डालें।

आखिर ऐसी "थूक के चाटने वाली" हरकतें करते ही क्यों हैं जो अगर जिसका विरोध किया जाए तो फिर उसके बिना काम ही नहीं चला सको?

Phool Malik

Modji at Moqsue in Abu-Dhabi: http://www.deccanchronicle.com/150816/nation-current-affairs/article/narendra-modi-arrives-uae-discuss-terror-trade-top-leaders

बोलो, "जय भैंस-माता की!"

मौत के सौदागर तो भैंस का दूध पीने वाले ही होते हैं, नहीं यकीन हो तो देख लो यमराज तक को अपनी पीठ पे टाँगे घूमते हैं। पर क्या मजाल जो यमराज खुद उसके प्राण ले ले तो?

गाय को तो भरे झुण्ड से शेर भी उठा ले जाता है, और क्या गौमाता और सांड-बाबू (सांड-पिता) सब खड़े-खड़े टुकर-टुकर बस देखते ही रह जाते हैं। जबकि क्या मजाल उसी शेर की जो वो भैंसों के झुण्ड में घुसने की भी हिम्मत तक भी जुटा पाता हो। यह होता है भैंस के दूध का दम, ताकत, गुण और गट्स।

अब भाई पादने के लिए भी नौकर रखने वालों की गौमाता पूजना चाहोगे या जो दुश्मन की बैंड बजा दे वो वाली "भैंसमाता!"? वैसे एक बात और बता दूँ, भैंस का दूध पीने वालों की बुद्धि तो गाय का दूध पीने वालों की पकड़ तक में नहीं आती, उदाहरण देख लो महाराजा सूरजमल, सर छोटूराम, सरदार भगत सिंह आदि-आदि! एड़ी-से-चोटी तक का जोर लगाया इनको झुकाने वालों ने, परन्तु इनको झुकाते-झुकाते खुद झुक गए इनको ना ही तो झुका पाये और ना ही रोक पाये।

सर छोटूराम का नाम सुनते ही मंडी-फंडी तमाम तरह के षड्यंत्रकारियों की आज भी पेंट सरकने लगती है। महाराजा सूरजमल का नाम सुनते ही दिमाग की ताकत का दम भरने वालों की नशें फटने लगती हैं। देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के राग अलापने वालों की भगत सिंह का नाम सुनते ही सांस घुटने लगती है।

अत: यमराज के साथ चल के जो गाय के भी प्राण लेने चला आये, बोलो उस भैंसमाता के सपूत झोटे (भैंसे) की जय!

फिर से बोलो, जोर से बोलो, अरे: प्रेम से बोलो, "जय भैंस-माता की!"

अरे भगतो! तुम भी बोलो, क्या हुआ जो गुण गाय के गाते हो, परन्तु तुम में से 95% दूध तो भैंस का ही पीते हो, तो इसी नाते बोल दो, बोलो, "जय भैंस माता की!"

विशेष: यह पोस्ट गाय के महत्व को कम आंक के दिखाने हेतु नहीं है, मैं खुद गाय और सांड का बहुत आदर करता हूँ और बचपन से इनको तहे-दिल से मानता आया हूँ। आज भी जब भी घर जाता हूँ तो पहले गौशाला में गायों को गुड़ खिला के जाता हूँ, परन्तु किसी साले के कहे से मैं ऐसा करूँ, मेरी जूती की नोंक पे। दूसरा इस पोस्ट का मकसद भैंस के दूध के दिमागी और शारीरिक ताकत दोनों वाले गुण बताना भी था।

Jai Yauddheya! - Phool Malik

Saturday, 15 August 2015

अंग्रेजों के कच्छों वाली राष्ट्रभक्ति आप लोगों को ही मुबारक!


भाई आर.एस.एस. वालो मेरे को कन्विंस करने हेतु मेरे से तब तक आपकी राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रवादिता की बातें निरर्थक हैं, जब तक आप अंग्रेजों के खाकी कच्छों से बाहर नहीं आते|

यह नहीं हो सकता कि आप लोग एक तरफ तो राष्ट्रभक्ति के राग अलापो और दूसरी तरफ आप द्वारा ही दुश्मन नंबर वन ठहराए गए अंग्रेजों के कच्छे पहन के घूमो|

सच कहूँ तो मैं इन कच्छों को महाराजा सूरजमल, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, राणा सांगा, राजा नाहर सिंह, महाराजा जवाहर सिंह, महाराजा रणजीत सिंह और तमाम उन खापों के यौद्धेयों जिन्होनें मुग़लों से ले अंग्रेजों तक के दाँत खट्टे किये और नाकों चने चबवाए, इन सब देशी देशभक्तों का घोर अपमान समझता हूँ| इन महान यौद्धा-यौद्धेयों ने अंग्रेजों के कच्छे पहन के नहीं, अपितु धोतियाँ पहन के जंगें जीती थी, देशभक्ति से ले राष्ट्रभक्तियां कायम की थी| अत: ऐसी अंग्रेजों के कच्छों वाली राष्ट्रभक्ति आप लोगों को ही मुबारक|

मुझे समझने के लिए आपका धन्यवाद!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा सीएम मनोहर लाल खट्टर ने जाट-आरक्षण मामले पर कहा, "कोर्ट का फैंसला मानेंगे!"

तो जनाब फिर सरकार भी कोर्ट ही चला लेंगें, आपकी क्या जरूरत है?

याद रखिये सीएम साहब कोर्ट और सरकार दोनों जनता के निर्देश पे चलते हैं, दुनियां में कहीं नहीं ऐसा जहां समाज कोर्ट और सरकार के निर्देश से चलता हो। कृपया बाज आएं अपनी इस 'टोटेलिटेरियनिज़्म' की राजनीति से।

कोर्टों से फैसले लागू और समाज के हक-हलूल पे कानून बनवाने के लिए ही सरकारें चुनी जाती हैं। जैसे UPA-2 ने कोर्ट में अडिग पैरवी करी तो जाट आरक्षण कोर्ट को भी मानना पड़ा, आपकी सरकार NDA-2 ने नहीं की तो रद्द हुआ।

अपनी इच्छाशक्ति की रिक्तता को कोर्ट के लबादे से मत ढाँपिये, इससे अच्छा भले ही दो टूक शब्दों में ना कर दीजिये।

हम जानते हैं कि आप इसमें रोड़ा अटका के उस दिन की तारीख को आगे खिसका रहे हैं, जिस दिन यह नारा उठेगा कि: "जाटों ने बाँधी गाँठ, पिछड़ा मांगे सौ में साठ!"

आज सिर्फ इतना फर्क है कि जाट-आरक्षण रद्द नहीं होता तो जाट तमाम ओबीसी समाज को एक कर सरकारी, गैर-सरकारी तमाम तरह की नौकरियों में अपनी संख्या के अनुपात के अनुसार आरक्षण के आंदोलन को जाट आगे बढ़ा रहा होता। खैर जनाब यह होनी तो एक दिन हो के रहे|

वैसे खट्टर साहब, सुप्रीम कोर्ट ने तो एसवाईएल का पानी लाने का हुक्म दे रखा है हरयाणा के पक्ष में, तो फिर कब ला रहे हैं?

जय यौद्धेय! - फूल कुमार

Friday, 14 August 2015

बाबा साहेब आंबेडकर को धीमी मौत मारा गया था, गोली की मौत नहीं!


डॉक्टर आंबेडकर का कत्ल धीमी-मौत की साजिस के तहत उनकी दूसरी पत्नी (जो कि एक स्वर्ण जाति की महिला व् पेशे से डॉक्टर थी) के हाथों करवाया गया था|

जो नादान जाट इन गलतफमियों में आ जाते हैं या खुद नादानी में ऐसा कहने वालों को सच मान उसका प्रचार करने लग जाते हैं कि बाबा साहेब को जाट महाराजा बच्चू सिंह ने संसद में गोली मारी थी, वो यह लेख पढ़ें|
और अपने ही हाथों जाट और दलित के बीच खाई बनाने वाले इन दुष्प्रचारों से बचें, इनको आगे फैलाने से बचें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


 

Leave the temporal recommendation of religion with time and carry only with the eternal recommendations, this is what Babar edged!


When Babar came to India, he came with eight thousand soldiers and camped outside Rana Sanga’s Kingdom. Rana Sanga had a hundred thousand soldiers.

Rana Sanga called his astrologer one day before the battle and asked him what will happen in the battle? The astrologer said, “You will be victorious Sir”. Rana Sanga sent this message to Babar. Babar replied, “I would like to meet the astrologer personally. Can you send him over?” Rana Sanga sent his astrologer to Babar's camp. Babar asked him, “What will happen in the war tomorrow?” The astrologer said, “You will lose, Sir”.

Babar took out his sword and beheaded the astrologer, and pointing to the astrologer's dead body told his eight thousand soldiers, “A man who cannot tell his own future, how can he tell my future? Let us finish them”. And this army of eight thousand people defeated our army of a hundred thousand people. Another reason why Babar won was that Babar understood that the Indian mind is a mind that has not been able to distinguish the eternal truths in a scripture from the temporal sayings.

The eternal recommendation in the Geeta says that once in a while, when it is required, the good should stand up and snuff out the bad. In other words, you should resist evil and also be prepared to take arms to annihilate it when required. This is an eternal truth. The Geeta also says that the cow should be worshipped as a Goddess. This recommendation is temporal. It must have arisen from the socio-economic importance of cows in the period when the Geeta was written - so it should have expired when its utility was up. Babar understood that the temporal sayings which should have been discarded are also continuing as eternal truths.

The Mughals invaded India as they knew that Hindus are still stuck up with the temporal recommendations of their scriptures. So they led the charge of their armies with herds of cows. They tied calves to the foreheads of their charging elephants. And the Hindu archers laid down their bows and arrows! The Mughals converted the battle grounds in to cattle grounds and laughed their way to victory.

आखिर कब समझेगा सनातन धर्म एक औरत की आज़ादी को!


हिन्दू नागा बाबा से लेकर दिगंबर जैन साधू तक सब नंगे घूमते हैं! एक राधे माँ उर्फ़ सुखविंदर कौर ने मिनी स्कर्ट क्या पहन ली इन सनातन धर्मियों की लंगोट ढीली होकर गिरने लगी !

आखिर कब समझेगा सनातन धर्म एक औरत की आज़ादी को, औरत को पीरियड चल रहे हैं तो वो मंदिर नहीं जा सकती, परन्तु दलित महिला के नाम पर वही औरत उसी मंदिर में देवदासी बनाई जा सकती है। दलित पुरुष इनके लिए अछूत हो जाता है परन्तु दलित महिला (देवदासी) के साथ सोने में भी इनको कोई परहेज नहीं।

वैसे पीरियड के वक्त औरत को मंदिर में चढ़ने से रोकने वाला यह धर्म-पुरुष बताये मुझे कि औरत का कम से कम पता तो होता है कि उसको पीरियड कब आते हैं, परन्तु तुम्हारा कब मूड बन जाए या बना होता है कोई पता है क्या या मंदिर में धागा बाँध के चढ़ते हो?

Jai Yauddhey! - Phool Malik

मेरी आज़ादी के जश्न में अभी कुछ देर है!


1) बाकी के तमाम तरह के उत्पादनकर्ताओं की भांति जिस दिन किसान भी अपनी फसल का विक्रय मूल्य खुद तय करेगा, उस दिन मेरी आज़ादी का जश्न होगा।

2) जिस दिन 'काम कोई छोटा नहीं होता!' की पंक्ति को व्यवहारिकता में लाते हुए एक थानेदार, एक जमादार, एक मजदूर, एक डॉक्टर, एक इंजीनियर, एक टीचर, एक पुजारी, एक सिक्योरिटी गार्ड, एक मैनेजर आदि सबकी सैलरी स्लॉट्स उनके अनुभव के स्तर के हिसाब से बराबर व् कार्य (ड्यूटी) करने के होवर्स बराबर और ओवर ड्यूटी पर ओवर चार्ज सबको मिलेंगे, उस दिन मेरी आज़ादी का जश्न होगा।

3) जिस दिन देश से जातिय सेक्युलरवाद खत्म होगा, उस दिन मेरी आज़ादी का जश्न होगा।

4) जिस दिन किसान के ज्ञान को भी ज्ञान कहा जायेगा, उस दिन मेरी आज़ादी का जश्न होगा।

5) जिस दिन देश में जज न्याय करने की अपेक्षा सोशल ज्यूरी के जरिये "बिना तारीख-पे-तारीख" का न्याय करवाएंगे, उस दिन मेरी आज़ादी का जश्न होगा।

6) जिस दिन देश में आईएएस, आईपीएस जैसे एक्साम्स एंट्री लेवल भर्ती के नहीं अपितु अफसर लेवल प्रमोशन के लिए होंगे और एंट्री सबकी एक फ्रेशर वाले न्यूनतम स्तर से होगी, उस दिन मेरी आज़ादी का जश्न होगा।

7) जिस दिन देश से टोटेलिटेरियनिज्म (अधिनायकवाद) का पलायन होगा, उस दिन मेरी आज़ादी का जश्न होगा।

बचपन से ले अभी बीते सालों तक आज़ादी का अनुभव होता था, अब तो सब ऐसा लगता है जैसे देश फिर से मानवता की पिशाचिनी ताकतों के चंगुल में आ चुका है। आज जो है यह एक किसान की आज़ादी नहीं है, मजदूर की नहीं है, दलित की नहीं है।

फिर भी गौरे अंग्रेजों के हाथों से काले अंग्रेजों के हाथों सत्ता आने की तारीख की आप सभी को, .......... क्या बोलूँ शुभकामना या बदकिस्मती?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 13 August 2015

अपनी सभ्यता-संस्कृति के खसम बनो, जमाई नहीं!


आजकल यह मेरे प्रोफाइल की कवर-फोटो की पंच लाइन है| कई दोस्तों ने पूछा है कि भाई "खसम बनो, जमाई नहीं" से क्या मतलब? आप सबके सवाल का जवाब यह है|

हरयाणवी में 'खसम' पति व् घर-खेत के मालिक को कहते हैं| कहावत भी है कि 'खेती खसम सेती!' यह यही वाला खसम है| जमाई का अर्थ तो आप सब जानते ही हैं और इस संदर्भ में भी यही अर्थ है|

तो जैसे जमाई घर में आता है हालाँकि वो घर होता तो उसका भी है, वो उस घर का सदस्य भी है परन्तु घर में उसका किरदार नखरे दिखाने का, आवभगत करवाने का और घर की हर इस-उस बात में सिर्फ नुक्श निकालने का होता है| घर में उसके अनुसार कुछ करने की कहो तो वो करेगा भी नहीं और उसको ऐसा कहना उसकी इज्जत में गुस्ताखी माना जाता है| यानि घर में ले दे के कुछ करना भी है तो घर मालिक यानी खसम ही करेगा, क्योंकि वो समझता है कि वो इसका मालिक है, जिम्मेदार है|

हरयाणवी संस्कृति व् सभ्यता रुपी घर का भी यही हाल है, हर कोई इसका बेटा-बेटी यानी खसम होते हुए भी 95 % मामलों में सब इसके जमाई बने हुए हैं| नुक्श हजार निकालते हों परन्तु जब उसको ठीक करने या उसके निकाले हुए नुक्श को ही ठीक करने की कह दो तो बगलें झाँकनेँ लगते हैं| और इसीलिए "हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत" इसी के बेटे-बेटियों द्वारा सौतेली बना दी गई है|

इसके कारण कुछ भी हों, परन्तु इसको वही संभाल सकता है जो अपने आपको इसका खसम मानता हो, इसको अपना कहने में गर्व व् इसके उत्थान में अपना हित देखता हो| 5 एक प्रतिशत लोग हैं जो इसको ले के सजग और सचेत हैं, वर्ना बाकी 95% तो जाट बनाम नॉन-जाट जैसे राजनैतिक प्रपंचों में आपस में ही उलझे खड़े हैं|

इस चीज का किसी को भान नहीं कि असीमित शरणार्थियों के बीच जैसे मुंबई के मराठों ने अपनी सभ्यता-संस्कृति नहीं रुलने व् खोने दी, ऐसे ही हम हरयाणवी मूलरूप से हमारी दिल्ली-एनसीआर में आ रहे इतने गैर-हरयाणवी शरणार्थियों के बीच अपनी हरयाणवी सभ्यता व् संस्कृति को कैसे चलायमान व् औचित्यमान बनाये रखें|

बस इन्हीं बातों को करने की प्रेरणा हेतु है यह पंच लाइन निर्मित की है कि "अपनी सभ्यता-संस्कृति के खसम बनो, जमाई नहीं!" आप इसके जमाई नहीं हैं, खसम हैं; इसके जमाई तो यह शरणार्थी हैं जो अपना घर व् पेट भरेंगे और कल को हुआ तो यहां खुद की ही संस्कृति फैलाएंगे| इनमें से यह कोई नहीं देखेगा कि हरयाणा-दिल्ली-एनसीआर ने मुझे रोजगार से ले छत तक दी है, इसलिए इसकी सभ्यता-संस्कृति बारे मैं भी कुछ करूँ| वो अंत में हम खसमों को ही करना है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

यू.एन.ओ. में अमरीका-रूस-चीन द्वारा भारत की स्थाई सदस्यता का विरोध करने की याद में!


तर्ज: चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है ……

उचक-के उचक-के रात-दिन सेल्फ़ी खिँचाना याद है,
हमको अब तक ओबामा को वो चाय पिलाना याद है|

तेरी एस्कोर्टिंग को वो मेरा एयरपोर्ट तक दौड़े आना याद है,
और मेरी चमची पे तेरा वो मेरी पीठ थपथपाना याद है|
कैमरों से छुप के हमने तुमको जो बना के पिलाई थी चाय,
कमबख्त कैमरे वालों को अब तक वो ठिकाना याद है||

उचक-के उचक-के रात-दिन सेल्फ़ी खिँचाना याद है,
हमको अब तक ओबामा को वो चाय पिलाना याद है|

ठरकी बुड्ढों की निशानी काले चश्मे लगा, स्टाइल में आना याद है,
चीन के बुतों से उन चश्मों के पीछे से, वो नयन-मट्का याद है|
वो तेरा न्योते पे नंगे-पाँव जाना, लिल्लाह मुहब्बत का तराना,
अहमदाबाद के बागों में जिंगपिंग को पिंघाना फक्त याद है||

उचक-के उचक-के रात-दिन सेल्फ़ी खिँचाना याद है,
हमको अब तक ओबामा को वो चाय पिलाना याद है|

अहले-कहल रसिया (रूस) में वो रास रचाना याद है,
पुतिन की बैठक में मेंडकी ज्यूँ नाल ठुकवाना याद है|
तेरा झल्ला के सर, सेल्फ़ी के आगे वो स्माइली लाना,
और आज जो तीनों ने सुनाया, वो दुखद गाना याद है||

उचक-के उचक-के रात-दिन सेल्फ़ी खिँचाना याद है,
हमको अब तक ओबामा को वो चाय पिलाना याद है|

कुछ अहले वतन की भों पड़ी हो तो सुनो पीएम साहेब,
जनता को आपके वो सुभानल्ला जुमले सुनाना याद है|
15 लखिया फ़साना, छ्प्पनी सीना वो 1 के बदले 10 सर लाना याद है,
राज चलाना नहीं चाय पिलाना, अब तो समझो बस यही फरियाद है||

उचक-के उचक-के रात-दिन सेल्फ़ी खिँचाना याद है,
हमको अब तक ओबामा को वो चाय पिलाना याद है|

विशेष: हरयाणा में काला चश्मा ठरकी बुड्ढों की निशानी है| कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाली आशिकमारों का अचूक हथियार, साला कोई झक मार के भी नहीं पकड़ सकता कि ताऊ देख किस ओर रहा होता है|

लेखक: फूल कुमार मलिक

हरयाणा के दलित एक बार बाकी के भारत में घूम के आवें, अगर वापिस आकर हरयाणा की धरती को ना चूमें तो!

जाट बनाम नॉन-जाट राजनीति में पड़ जाटों को एकमुश्त बुरा समझ लेने वाले दलित भाई एक बार हरयाणा उर्फ़ खापलैंड उर्फ़ जाटलैंड के बाहर के दलितों की हालत देख के आवें, दावा करता हूँ आप वापिस आ के चूमोगे अपने हरयाणा की धरती को|

मैं दावे से कह सकता हूँ कि बाकी के भारत की अपेक्षा हरयाणा में आप सबसे बेहतर स्थिति में हैं, फिर चाहे वो आपकी आर्थिक स्थिति हो अथवा सामाजिक|

कुछ ऐसी बातें जो एक दलित को सिर्फ हरयाणा (खापलैंड) पर ही मिलेंगी बाकी के भारत में नहीं:

1) जाट ने आपको सीरी-साझी यानी पार्टनर की संस्कृति दी है, जबकि बाकी के भारत में नौकर-मालिक की संस्कृति है|

2) जाटलैंड पे दलितों के यहां जाटों की हवेलियों को टक्कर देती हवेलियां तक रही हैं, भले ही कम (इक्का-दुक्का) हों परन्तु बाकी के भारत में हवेली तो क्या, आपके मकानों जैसे तो बहुतेरे साहूकारों तक के मकान नहीं|

3) जाटलैंड पे आंध्रा-तेलंगाना-महाराष्ट्र-कर्नाटक की भांति किसी मंदिर में अगर दलित की बेटी देवदासी बनके नहीं बैठती तो इन मंदिरों वालों पर इन जाटों की मानवीय सभ्यता के प्रभाव की वजह से|

4) केरल-तमिलनाडु में आज भी ऐसे इलाके हैं जहां दलित की औरतों को वक्षस्थल तक ढंकने की आज़ादी नहीं, लेकिन हरयाणा में सदियों से रही है| और यह रही है इन्हीं जाटों और खापों के वर्चस्व की वजह से वर्ना धर्माधीस यहां भी दलित औरत द्वारा उसके वक्ष ढंकने पे बंदिश लगा दें|

5) जाटलैंड पर सिर्फ दलित है, बिहार-उड़ीसा-छत्तीसगढ़ की भांति महादलित नहीं है| और अगर ऐसा है तो सिर्फ आपके और इन धर्म वालों के बीच जाट-रुपी सामाजिक सुरक्षा कवच की वजह से|

6) बाकी के भारत में जहाँ दलितों को झोपड़ियां तक नसीब नहीं, वहीँ जाटलैंड पर दलित भी जमानों से पक्की ईंटों के मकानों में रहते आये हैं|

7) बाकी के भारत में जहां दलित आज भी बेगार करता है, वहीं जाटलैंड पे जमानों से बही-खातों वाले लिखित सीरी-साझी कॉन्ट्रैक्ट के तहत काम करता आया है|

8) छत्तीस बिरादरी की बेटी (दलित की भी) को अगर बेटी मानने का विधान किसी ने दिया तो किन्हीं धर्म वालों नहीं अपितु इन्हीं जाटों और खापों ने दिया है|

9) नए रिश्ते होने पे अगर हरयाणा की धरती पे आज भी गाँव की छत्तीस बिरादरी की बेटी (दलित की भी) की मान करके आई जाती है तो इसी जाटलैंड पे, बाकी भारत पे कहीं नहीं|

10) गरीब-अमीर (दलित-स्वर्ण) के मध्य आर्थिक गैप (अंतर) अगर पूरे भारत में सबसे कम कहीं है तो वो इसी जाटलैंड पे और इन्हीं जाटों की सोशल इंजीनियरिंग की वजह से|

इसके साथ ही मैं यह भी मानता हूँ कि जाट-दलित के बहुत झगड़े रहते हैं, बहुत बार जाट खुद धर्मवालों की बनाई जाति-पाति व्यवस्था में पड़ आपसे छूट-अछूत तक का व्यवहार करते हैं| इसपे जाटों को इतना ही कहना चाहूंगा कि यह धर्मवालों के पाखंडों के आधार पर दलितों से व्यवहार करना छोड़ दो, वरना एक तरफ आप धर्मवालों के पाखंड भी शिरोधार्य करते हैं और दूसरी तरफ यही धर्मवाले बदले में आपको जाट बनाम नॉन-जाट की लड़ाई में उलझा के आपकी सभ्यता-संस्कृति और आपको खत्म करने को उतारू रहते हैं|

सच मानिए जिस दिन जाट धर्म की बनाई इस जाति व् वर्ण व्यवस्था के आधार पर व्यवहार करना छोड़ देगा उस दिन धर्मवालों की अक्ल अपने आप ठिकाने लग जाएगी| क्योंकि जब धर्म देखता है कि समाज की सबसे ताकतवर जाति तुम्हारी हर उल-जुलूल बकवास को समाज में लागु कर रही है तो इससे उनके हौंसले बढ़ते हैं और साथ ही उनका डर भी बढ़ता है कि कहीं यह ताकतवर जाति तुम्हारी चीजों को लागू करना ना छोड़ देवे इसलिए इसको ही समाज से उलझा दो, और यह जाट बनाम नॉन-जाट इसके सिवाय कुछ भी नहीं| अपने पुरखों की स्वछँदता को पहचानों और इनकी उल-जुलूल हरकतों को भाव देना बंद करो| यह भाव देना ही इनका मोल है, यह मोल खत्म कर दो, इनके उल-जुलूल फंड-पाखंड स्वत: अपनी मौत मर जायेंगे|

धर्मवाले नहीं चाहते हैं कि जाट, दलित और इनके बीच किसी भी प्रकार का कवच बनके खड़े हों, क्योंकि जब तक यह लोग किसी दलित की बेटी को देवदासी ना बना देवें, उसके वक्षस्थल को बिना वस्त्र का ना देखें, तब तक इनको अपनी सभ्यता का भान ही नहीं होता| और जाटों की बनाई सभ्यता इनकी आँखों में इसीलिए किसी सूल की तरह चुभती है क्योंकि जाट सभ्यता इनको मानवता के पाश में बांध के रखती है|

मानता हूँ अवैध संबंध और बलात्कार हरयाणा में भी होते हैं, परन्तु अगर इनकी देवदासी अथवा वक्षस्थल को खुला रखने जैसी सामाजिक व् धार्मिक मान्यताओं को यहां फैलने से रोकने वाला जाट अगर आपके मार्ग से आपने स्वत: ही इस जाट बनाम नॉन-जाट के जहर के पाश में चढ़, हटा दिया तो फिर क्या देवदासी और क्या महादलित, सब हरयाणा की धरती पर उतार दिए जायेंगे|

होंगे जाट लाख गुना बुरे, परन्तु उनसे तो लाख गुना अच्छे हैं जो धर्म और सभ्यता के नाम पर दलितों की बहु-बेटियों को देवदासी बनाने और बिना वस्त्र रखने की वकालत करते आये हैं| सीधी सी बात है जाट अगर छाज है तो यह लोग छलनी, यानी छाज तो बोलै छालनी भी क्या बोले जिसमें बाहत्तर छेद| फैसला आपके हाथों में है कि आपको हरयाणा की धरती पर छाज बुलवाना है या छलनी|

मानता हूँ कि जाट बिगड़ते हैं तो कई जगहों पर लड़ते भी हैं परन्तु दलित भाइयों इसका मतलब यह तो नहीं हो सकता कि आप ऊपर बताये 10 बिन्दुओं के तहत साक्षात इस जाट रुपी सुरक्षा कवच को हटा के आपको आदिवासी श्रेणी में जा खड़ा करने वालों के मंसूबों को कामयाब होने दोगे? याद रखिये जाट तो अकेले भी अपनी सभ्यता को कायम रख सकता है और रखता आया है परन्तु अगर आप इस जाट-बनाम-नॉन-जाट के चक्रव्यूह में फंस जाट रुपी कवच को बीच से हटा दोगे तो समझो अपने हाथों हरयाणा में दलित से महादलित बनने के मार्ग प्रसस्त कर रहे हो|

अगर हमारे हरयाणा को हम जैसा था उससे भी बेहतर बनाना और देखना चाहते हैं तो जाट और दलित दोनों को यह बातें समझनी होंगी| आखिर हरयाणवी सभ्यता ना तो अकेले जाट की है, ना अकेले दलित की, ना अकेले ओबीसी की या किसी अन्य जाति की| और अगर देवदासी, बिना वस्त्र के वक्षस्थल वाली महिला, महादलित, नौकर-मालिक की संस्कृति हरयाणवी सभ्यता में नहीं हैं तो आपको भान रहे कि यह चीजें कायम रहें और इसको कायम रखने की जिम्मेदारी अकेले जाट की नहीं है, आपकी और हर हरयाणवी जाति की है| वरना वही बात जाट तो मर-पड़ के इस जाट बनाम नॉन-जाट के वक्त से खुद को उभार भी लेगा, परन्तु फिर आप और उनके बीच जाट सभ्यता जैसा मानवता को पालने और पलवाने वाला सुरक्षा कवच नहीं होगा|

इसलिए व्यक्तिगत अथवा छोटे-मोटे झगड़ों को इतना मत बनाओ कि पौराणिक व् काल्पनिक ग्रन्थ महाभारत का चीरहरण अध्याय सही में हो जाए, अर्थात एक दिन जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फ़ैलाने वाले दुःशासन हमारी हरयाणवी सभ्यता रुपी द्रोपदी का बीच चौराहे चीरहरण कर रहे हों और फिर बेचारी को बचाने हेतु कोई कृष्ण भी नसीब ना हो, क्योंकि कृष्ण जाट बनाम नॉन-जाट और जाट बनाम दलित में जो उलझे होंगे।

Ref: How devadasis were oppressed in southern India over centuries, despite the tradition declared illegal across India in 1988. The National Commission of Women recently estimated that around 48,358 devadasis are being forced into prostitution, with temples distancing themselves conveniently from their plight.

Source: http://www.dailyo.in/politics/radhe-maa-godwoman-mini-skirt-yosored/story/1/5621.html

जय योद्धेय! - जय हरयाणा! - जय दादा खेड़ा! - फूल मलिक

Wednesday, 12 August 2015

धर्म-देश पर राज करना है इसलिए पढ़ो!


जमींदारों-किसानों को अपने बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करने हेतु यह नहीं कहना चाहिए कि खेती बुरा या कठिन काम है, इसमें कुछ नहीं रखा इसलिए पढ़ो, अपितु यह कहके पढ़ने को प्रेरित करना चाहिए कि आपको हर धर्म-जाति सम्प्रदाय के लोगों पर राज करना है इसलिए पढ़ो|

कार्य तो कोई भी ऐसा नहीं होता जो कठिन ना हो अथवा जिसका कोई बुरा पहलु ना हो| कहते हैं कि आप जो भी कार्य करते हैं उसका आदर करना सबसे पहले जरूरी होता है, इसलिए अपने ही कार्य को बुरा बता कर किसान अपने बच्चों में अपनी छवि तो खराब करते-ही-करते हैं साथ ही उनके अंदर असंतुष्टि और हीन भाव भी भर देते हैं|

जय योद्धेय!- फूल मलिक

पादने हेतु टांग उठाने को भी जिसे नौकर चाहिए ऐसे तथाकथित राष्ट्रभक्तों से देश-धर्म की सुरक्षा नहीं हुई कभी और ना ही आगे होगी!


सांतवीं कक्षा में मेरे हिंदी अध्यापक होते श्री नारायण दत्त शर्मा, वैसे तो बड़े कड़क और खडूस होते थे, हम सब विधार्थी उनसे ही सबसे ज्यादा डरते थे| परन्तु जब वो मूड में होते थे तो चुटकुले भी धांसू सुनाते थे| एक बार चुटकुला सुनाया कि एक दुकानदार शरीर से इतना भारी था कि उसको पाद आता तो अपनी पाद की गैस को रास्ता देने हेतु खुद की टाँग भी नहीं उठा सकता था| ऐसे में उसने क्या किया कि रामू नाम का नौकर रख लिया| और जब भी उसको पाद आता उसको पुकारता, "हैड डामु, कित मैडगा; टांग ठा दे पादुन्गा!" और हम खूब जोर से हंसा करदे, यहां तक कि कई बार उनको इसी चुटकुले को फिर से सुनाने को कहा करते थे क्योंकि जब वो "हैड डामु" बोलते तो उनके मुंह के एक्सप्रेशन डबल कॉमेडी फ्लेवर देते|

हालाँकि उस ज़माने में जब यह चुटकुला सुनाया गया था, चुटकुले की भावना से ही सुनाया था गुरु जी ने, परन्तु आज के हालात में यह सटीक बैठा हुआ है|

तो भाईयो यें जितने भी आज कल नए-नए राष्ट्रवादी बने फिरें सें ना, अधिकतर इसी केटेगरी के हैं| इनको तो खुद दूसरे का सहारा चाहिए, यें किसके दुश्मन के मैदान लड़ेंगे या मोर्चे लेंगे| मुज़फ्फरनगर की ढाळ, 'ला के बण में आग दमालो की ढाळ दूर जा खड़े होंगे|' और मुड़ के संभालेंगे भी नहीं कि किन राह्यां तुम जिए और किन हलातां तुम्हारे घर वाले| खाम्खा थारी इसी-तिसी करनी है इन्होनें और वो भी न्याम-श्याम (फ्री-फोकट में)।
सोमनाथ का मंदिर लूटा तब इनसे कुछ हुआ हो तो आज होगा| यें सिर्फ दो काम कर सकें हैं, एक तो थारे को भिड़ा देंगे, दूसरा थारे को बीच-मैदान अकेला छोड़ भाग खड़े होंगे|

समझ जाओ और दुश्मन पिछाण के संभल जाओ| और फिर भी ना रहा जाता तो कम से कम फ्री में तो जूती ना तुड़वाओ, वरना थारे से तो वो रामू भी स्याणा कहलावेगा जो इनको पद्वाने हेतु भी सर्विस चार्ज करता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

समाज में भाईचारा है पर बहनचारा क्यों नहीं?


(Why its only brotherhood found and no sisterhood?)

टाइटल को हिंदी के साथ अंग्रेजी में इसलिए लिखा क्योंकि भारत के बाहर के विश्व में भी ब्रदरहुड ही है, सिस्टरहुड कहीं नहीं|

अपनी जिंदगी, अनुभव, शिक्षा और समाजशास्त्र से जितना सीखा और समझा उससे यही समझ आया कि एक औरत का दूसरी औरत के प्रति इतना तगड़ा और कट्टर कहा और अनकहा दोनों तरह का कम्पटीशन और जलन होती है कि एक दूसरी को या दूसरी के वंश जेनेटिकली तक ना तो ग्रो होते देख सकती और ना ग्रो होने में मदद कर सकती|

जेनेटिक वर्चस्व (genetic supermacy) की लड़ाई औरतों की सबसे बड़ी कट्टरता है: हमारे समाज में एक कहावत है कि औरत को पोते/पोतियों से दोहते/दोहतियां ज्यादा प्रिय होते हैं| इसकी मिलीझूली वजहें हैं|

एक वजह है उसका अपने खुद के जीन्स के प्रति घमंड व् अटूट लगाव| यानि दादी को पोते और दोहते अथवा पोती और दोहती में चॉइस (choice) दी जावे तो पोते/पोती को कम चाव से इसलिए पालेगी अथवा ध्यान रखेगी क्योंकि वो दूसरी औरत यानी उसकी बहु का जीन्स (jeans) हैं उसका खुद का नहीं; वह भी बावजूद इसके कि उस पोते/पोती में उसके बेटे के भी जीन्स होते हैं| पर जीन्स के मामले में औरत इतनी खुदगर्ज होती है कि बहु बीच में आ गई तो बस, वो पोते/पोती को बहु का होने की वजह से कभी नहीं चाहेगी कि वो उसके खुद के जीन्स यानि उसके बेटे/बेटी से सफल अथवा अधिक तेज के बनें| और अगर खुदा-ना-खास्ता बहु ऐसी आ गई जिससे उसकी पटती नहीं तो बस फिर तो गए काम से, क्या मजाल दादी पोते/पोती को हाथ भी लगा ले तो|

इसलिए घर में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि नई दुल्हन आते ही अपनी पर्सनल स्पेस (personal space) पा सके हालाँकि सामाजिक और पारिवारिक एकता और सहिष्णुता कायम रखने के लिए परिवार के सब सदस्यों में भावनात्मक से ले कारोबारी/आर्थिक रिश्ते बंधे और बने रहने चाहियें|

दूसरी वजह दोहते/दोहती की तरफ लभने की यह होती है क्योंकि वो उसकी खुद की बेटी के जने होते हैं| बेटी कितनी ही ऊत हो पर उसके बच्चों को वो पोते/पोती से बढ़कर स्नेह भी देती है और ध्यान भी रखती है, और वो भी बिना कहे|

जेनेटिक वर्चस्व के अलावा साइकोलॉजिकल फैक्टर्स (psychological factors) तो हर कोई जानता ही है कि क्यों दुनियां में ब्रदरहुड उर्फ़ भाईचारे की टक्कर में सिस्टरहुड उर्फ़ बहनचारा नहीं पनपा| फिर भी दौड़ती हुई नजर से लिख देता हूँ इसकी वजहें भी:

1) औरत के पेट में बात नहीं पचती यह तो हम सब जानते ही हैं, जो कि भाईचारा निभाने का सबसे अहम गुण होता है|

2) औरत को दूसरी औरत का श्रृंगार तक हजम नहीं होता, वो उसमें भी उससे कम्पटीशन और जलन करती है| ....... आदि-आदि।

और औरत की यह सिस्टरहुड स्थापित ना करना, समाज का मेल-डोमिनेंट (male-dominant) बनना और पुरुषों का मेल-डोमिनेन्स कायम रहने का बहुत बड़ा कारण बनता है|

हल्के नोट पर: इसीलिए भारत में महिलावादी संगठन अथवा गोल बिंदी गैंग कितनी ही कोशिशें कर लेवें, जब तक वो सिस्टरहुड यानी बहनचारे को स्थापित नहीं करेंगी, पुरुषचारे ओह नो आई मीन (oh no, i mean) भाईचारे का बाल भी बांका नहीं कर सकती|

विशेष: हालाँकि अपवाद समाज और प्रकृति का नियम रहा है, इसलिए कोई औरत दादी के रोल में भी ऐसा किरदार निभा जाती हैं कि मिशालें कायम कर देती हैं, परन्तु वह मिशालें ऊंट के मुंह में जीरे बराबर ही रहती आई हैं| इसलिए इस पोस्ट को मेजोरिटी बनाम माइनॉरिटी (majority versus minority) के पहलु से ही पढ़ा जाये और समझा जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Tuesday, 11 August 2015

पंचायती (निर्णायक) होने के गुण भैंस के दूध से आते हैं गाय के से नहीं!

भैंस के दूध में गर्मी तो है परन्तु एकता भी तो है, जोहड़ों-तालाबों के अंदर अथवा वहीं बाहर गोरों पर बैठी भैंसों के झुण्ड में किसी पर अगर झुण्ड से बाहर की भैंस/भैंसा अथवा अन्य जानवर हमला कर दे तो झुण्ड की बाकी सारी भैंसे एकजुट हो जिसपे हमला हुआ उसके पीछे खड़ी हो जाती हैं।

जबकि गाय के झुण्ड पर ऐसा हो जाए तो वो कभी एकजुट नहीं होती, या तो खड़ी-खड़ी जुगाली करती रहेंगी अथवा छँट के दूर चली जाएँगी। गाय के झुण्ड में दो सांड अगर लड़ाई करने लग जाएँ तो बाकी सबको कोई फर्क नहीं पड़ता, बैठे-बैठे जुगाली करते रहेंगे या खड़े-खड़े देखते रहेंगे। वहीँ दो भैंसे लड़ रहे होंगे तो बाकी भैंसे भी ग्रुपिंग करके अपने-अपने पक्ष के पीछे लग जाते हैं।

गाय का दूध पीने वाले या इसको पीने की वकालत करने वाले यह बात अच्छे से जानते होते हैं, और इसीलिए वो चाहते हैं कि लोग गाय का दूध पीवें ताकि उनमें ऐसे गुण आवें कि उनके अगल-बगल कोई झगड़ा अथवा अन्याय हो रहा है तो वो चुप रहें। इसीलिए इनको भैंसों से सख्त नफरत है क्योंकि भैंस का दूध अपराध के खिलाफ खड़ा होना व् एकजुट होने के जीन्स मानव शरीर में पोषित करता है, जिससे यह लोग डरते हैं।

भैंस के दूध में गाय के दूध से चार गुना ज्यादा वसा होता है जिससे इंसान के शरीर में ज्यादा गर्मी बनती है। अगर इस गर्मी मात्र को सही दिशा में रखा जाए तो भैंस के दूध का कोई अन्य साइड इफ़ेक्ट नहीं। वहीँ गाय का दूध भीरु बनाता है, और इसीलिए जंगल में शेर का सर्वप्रिय भोजन अथवा शिकार गाय ही होती है भैंस नहीं।

हालाँकि सही है कि भैंस न्यूट्रल नहीं रह सकती, गाय रह सकती है। परन्तु नूट्रलिटी इंसानी सभ्यता के लिए सही होती है अथवा नहीं, इसका अवलोकन होना चाहिए| क्योंकि बगल में अपराध हो रहा हो और आप न्यूट्रल रहें यह भी तो कोई सही नहीं बताता। वो कहते हैं ना कि अपराधी सिर्फ वो नहीं जो अपराध करता है अपितु वो भी है जो अपराध देख मूक बना रहता है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 10 August 2015

हरयाणा व् खापलैंड के दलित उन पर हिन्दुवाद के कसते सिकंजे को समझें!


आज आरएसएस जाट को बाकी हरयाणवी समाज और जातियों से काट के अलग-थलग करने का जो गेम चल रही है, यह कल को दलितों पर अत्याचार ढाने की भूमिका बन रही है|

आरएसएस जानती है कि वो कितनी ही ताकतवर क्यों ना हो जाए परन्तु ना ही तो जाट को धमका सकती है और ना ही उससे खुला मुकाबला कर सकती है| इसलिए जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्री रथ पे सवार है और जाट को उसी की जाटलैंड पे सबसे अलग-थलग करने हेतु दीमक की भांति लगी है| और अब तो आलम यह है कि उस दीमक का खोदा हुआ समाज को थोथा करने का वो घुण राजकुमार सैनी और अटाली-भगाना जैसे एपिसोड के माध्यम से दिखने भी लगा है| वरना ऐसी क्या वजह कि नॉन-जाट सरकार होते हुए भी दलितों को भगाना की जमीन नहीं मिली अभी तक|

मानता हूँ कि दलितों को मेरी बात अटपटी लगेगी क्योंकि जाट और दलित के बीच के वास्तविक अथवा प्रोपेगेटेड झगड़ों की वजह से पिछले कई वर्षों से दोनों में खाई बढ़ी हुई है| परन्तु दलित को साथ ही यह भी याद रखना होगा कि जाट, आरएसएस की शक्ल में छुपे शूद्र और अछूत की सोच रखने वाले हिंदूवादियों और दलित के बीच में एक कवच की भांति रहा है| अगर आपका यह कवच बीच से हट गया तो मुझे अंदेशा है कि दलित को जाटलैंड के बहार के भारत पे उसकी जो हालत है उस रास्ते पे डाल दिया जावे|

दलित चाहे लाख गुस्सा हों जाट से, परन्तु आप एक बार जाटलैंड के बाहर (जहां पर जाट का नहीं अपितु इन जैसी ही ताकतों और विचारधाराओं का एकमुश्त राज है) के भारत के दलित की हालत देख के आवें, अगर आ के अपने हरयाणा और जाटलैंड को चूमें ना तो|

हालाँकि मैं यह भी जानता हूँ कि आप बाबा साहेब आंबेडकर के शिष्य हैं और हिंदूवादियों की मंशाओं से बहुत हद तक वाकिफ हैं परन्तु ज्यों-ज्यों जाट रुपी यह कवच आप और हिंदूवादियों के बीच से हटता कहो या कमजोर पड़ता जा रहा है, मुझे आप पर किसी दूरगामी अनहोनी का अंदेशा बढ़ता/पड़ता दिख रहा है

जाट को भी अब यह ग्रन्थ-शास्त्रों के प्रोपेगैंडों में आ खुद को उच्च जाति का समझ दलित से अपने मन-मुटाव या उंच-नीच के भेद छोड़ अपनी शुद्ध खाप व् दादा खेड़ा परम्परा पर आना होगा| वरना इस चक्र में जो दुर्गति आपकी बनी हुई है वो वक्त के साथ और गहरी होने वाली है| क्योंकि जिनकी किताबों से उंच-नीच की शिक्षा ले आप दलितों से उंच-नीच का भेदभाव करते हैं फिर उन्हीं किताबों वाले आपको मीडिया में समाज का खलनायक बना के परोसते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

भगाना कांड से संबंधित धर्म-परिवर्तन मामले में जाटों को कुछ भी कहने से बच, चुप रहना चाहिए!


हालाँकि धरातल की सच्चाई तो धरातल पे विद्यमान ही जानें, परन्तु जहां तक सुनने में आया है उससे पता लगा है कि 300 गज के प्लाट (जगह कम-ज्यादा भी होती तो भी यही विचार रखता) की जगह को लेकर जाट और दलितों में विवाद चल रहा है|

हर कोई जानता है कि प्रसाशन और सरकार अपनी पर आये तो उस टुकड़े को एक कलम लिखते खाली करवा दे| हालाँकि वो जमीन है वास्तव में पंचायती या किसी की खस्मानी यह एक अलग पहलु रहेगा, परन्तु दो भाईयों में झगड़ा हो जाए जितनी जमीन के टुकड़े पर जाट और दलितों के पूरे समाजों को मीडिया और सामाजिक परिवेश में झगड़े को बढ़ावा देने की यह साजिश कोरी जातिगत राजनीति को बढ़ावा देने के अलावा कुछ भी नहीं|

पिछली सरकार होती तो कोई यह भी इल्जाम लगा देता कि जाटों की सरकार है इसलिए नहीं दिलवा रही, परन्तु अब तो ऐसा भी नहीं है तो फिर यह चुहलबाजी क्यों? जिस एक कलम से जाटों का आरक्षण मिट सकता है उससे एक 300 गज का प्लाट खाली ना होवे, क्या ऐसा हो सकता है भला?

तो खाली क्यों नहीं हो रहा? इसका मतलब साफ़ है इस सरकार को दलित से कोई लेना-देना नहीं, उसको तो बस दलित से भिड़ाए रख के जाट की दुर्गति तो रखनी ही रखनी है साथ ही दलितों को यह सोचने पे मजबूर करना है कि तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन हम नहीं अपितु जाट हैं|

ऐसी विकट स्थिति में सोशल मीडिया और अन्य तमाम जगहों पर बैठे जाट युवा और बुद्धिजियों से इतनी ही अपेक्षा है कि अब जब इन दलित परिवारों ने धर्म-परिवर्तन कर लिया है तो आप चुप रहें| कोई कुछ ना बोले, कोई बयान ना देवे| वो गाँव में रहें या ना रहें इसपे कोई पंचायत ना करें और कोई फरमान ना निकालें| यदि ऐसा कोई फरमान निकलना भी है तो हिंदूवादियों को खुद निकालने देवें|

करने दो हिन्दू सरकार को इसका फैसला अपने आप| मैं तो इस मौके को जाटों के लिए ऐसा मौका देखता हूँ जब हिन्दू एकता और बराबरी के ढोल पीटने वालों की अपने आप ही पोल पिट रही है| तो जाट ऐसे स्वंय चल के आये मौके को समझें और दलित और तथाकथित हिंदूवादियों को होने देवें आमने सामने|

मैं यह नहीं कहता कि जाट और दलित में मनमुटाव नहीं, बहुत हैं परन्तु इन तथाकथित हिंदूवादियों का भी तो पता लगे कि यह दलित के कितने अपने हैं|

मेरा तो यहां तक संदेह है कि अभी काफी कुछ दिनों से सब कुछ शांत चल रहा था| यह शांति इन हिंदूवादियों से बर्दास्त नहीं हो रही थी| इस बात की जाँच होनी या करनी चाहिए कि कहीं जाट और दलित की खाई को और चौड़ा करने के लिए इन परिवारों को मुस्लिम बनाने का सगुफा भी इन हिंदूवादियों का ही ना हो| और उनका मुस्लिम बन जाने का इल्जाम और वजह अब यह जाट को बनाने का एजेंडा लिए चले आये हों|

दुश्मन अपने आप निरौला दिख रहा है उसको दलित को दिखने दें, आप अपनी बयानबाजी या फैसले कर दलित-जाट दोनों के दुश्मन को फिर से आपके ही पीछे छुप के बन्दूक चलने का मौका ना देवें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"घुन्नों ने खो दिए गाम और ऊत्तों के नाम बदनाम" की एक मिशाल यह भी!!

"My Country My Life" पुस्तक में इसके लेखक लालकृष्ण आडवाणी खुद लिखते हैं कि 1984 के सिख कत्ले-आम कराने से इंदिरा गांधी तो झिझक रही थी, उसको हमने (यानी बीजेपी और आरएसएस) ने ही प्रेरणा दी थी उस कत्ले-आम हेतु आगे बढ़ने की|

कत्ल करने वाला और कत्ल की प्रेरणा देने वाला दोनों बराबर के दोषी होते हैं| सो 1984 का पाप हुआ था तो उस पाप वास्ते अकेली कांग्रेसी दोषी नहीं, बीजेपी और आरएसएस भी उतनी ही दोषी है| इस कत्लेआम पर इंदिरा को दुर्गामाता का ख़िताब देने वाले बीजेपी और आरएसएस के लोग थे| सिखों के कत्लेआम पे लड्डू बांटनें वाले भी यही लोग थे| अडवाणी खुद इन बातों को उनकी इस पुस्तक में लिखते हैं तो इसलिए कोई मुझे झूठा भी नहीं कह सकता|

इसलिए कांग्रेस को खूनी पंजा कहने वाले ऐसा कह के खुद की करतूत से जनता का ध्यान हटाते हैं बस|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 9 August 2015

अमेरिका में जज न्याय नहीं करते, अपितु पंचायती करते हैं; जज सिर्फ प्रेक्षक का काम करते हैं!

वीकेंड पे भारत के समकक्ष विभिन्न देशों में न्यायपालिका कैसे कार्य करती है इस बारे इंटरनेट सर्फिंग कर रहा था और संयोग हुआ कि साथ ही अमेरिका से मेरे एक अजीज मित्र भरत ठाकरान से भी वॉइस चैट हो रही थी। इस पोस्ट के टाइटल के हिसाब से जो कुछ इंटरनेट पे सर्च करके पढ़ा तो उसका प्रैक्टिकल रिफरेन्स पाने हेतु उनसे बात की। उनकी और इंटरनेट की सर्च का निष्कर्ष अमेरिका और भारत की न्याय-प्रणाली में क्या समरूप है और क्या भिन्न, उसके इस प्रकार तथ्य सामने आये:

1) अमेरिका के किसी भी गांव या शहर में जब भी कोई विवाद या अपराधिक मामला सामने आता है तो उसको जिला कोर्ट में पेश किया जाता है जहाँ दोनों पक्षों के वकीलों को एक जज की निगरानी में मामले की प्रकार के अनुसार आमजन में से 11 लोगों का ट्रिब्यूनल यानी जुडिशियल बॉडी चुननी होती है। इन चुने हुए 11 लोगों को दोनों वकील एकांत में इंटरव्यू करते हैं और जो सही नहीं लगता उसको निकाल के उसकी जगह उसी शहर-गांव का कोई दूसरा सदस्य लिया जाता है। दोनों वकीलों के पास इन 11 में से किसी को निकालने या रखने के 3 तक चांस होते हैं।

इसके समरूप भारत में क्या है: भड़कना और बोहें मत चढ़ाना परन्तु इससे मिलती-जुलती या इसके नजदीक लगती प्रक्रिया है खाप पंचायतों की। फर्क सिर्फ इतना है कि भारत में खाप की प्रक्रिया को वकील और जज से नहीं जोड़ा गया है। अमेरिका में जहां वकील और जज केस की स्थानीय लोकेशन के 11 सामाजिक लोगों का ट्रिब्यूनल चुनते हैं, वहीँ खाप में यह काम उस विशेष खाप पंचायत का प्रेजिडेंट करता है और वो 11 की जगह 5 सामाजिक लोगों को पंचायत में ही पब्लिक की उपस्थिति में चुनता है। अमेरिका में इस बॉडी में से किसी सदस्य को बदलने के जहां 3 चांस होते हैं, वहीं खाप में पब्लिक उपस्थिति में पूछा जाता है कि इनमें से किसी नाम पे किसी पक्ष को आपत्ति है तो कहें। कोई आपत्ति आती है तो उस सदस्य को बदल के उसपे फिर पब्लिक राय ले के आगे की कार्यवाही शुरू की जाती है। ध्यान रहे यहां मैं खाप के आदर्श विधान की बात बता रहा हूँ, उनकी नहीं जो खापों की आड़ या उनको बदनाम करने हेतु उनके नाम से पंचायतें बुला लेते हैं या मीडिया में दिखा देते हैं। ऐसे लोगों पर खापों को निगरानी रखनी चाहिए। और एक बात यह प्रोसेस पूरे भारत में और कहीं की भी गांव-नगर-सोसाइटी पंचायतों में नहीं है, सिर्फ खाप पंचायतों में है।

2) पूरे मामले को यह 11 लोग सुनते हैं, जज और वकील सिर्फ यह सुनिश्चित करते हैं कि सारी कार्यवाही अमेरिकन कानूनी धाराओं के अनुसार हुई है। दोनों पक्षों को सुनने के बाद यह 11 सदस्यीय टीम ही न्याय करती है, जिसको फिर जज दोनों पक्षों को पढ़ के सुनाता है। अगर किसी भी पक्ष को निर्णय पसंद नहीं आया तो उसपे अपील लगती है| जज को लगे कि और सबूत व् तथ्य चाहियें तो जज उसी 11 सदस्यीय पैनल को पुलिस की सहायता से सब जरूरी सबूत उपलब्ध करवाता है और फिर से पंचायत बैठती है और नए या छूट गए तथ्यों की उपस्थिति व् रौशनी में फिर से केस सुना जाता है। इसमें कोई तारीख-पे-तारीख सिस्टम नहीं होता क्योंकि जज और वकीलों पर प्रेशर रहता है कि 11 सदस्यीय ट्रिब्यूनल के वक्त बरबादी के साथ-साथ न्याय में देरी ना हो।

खाप-पंचायतों में इसके जैसा क्या है: 5 सदस्यीय पंचायती मंडल दोनों पक्षों और उनके गवाहों को सुनने के बाद, पंचायत के प्रेजिडेंट को अपना फैसला सौंपता है, जिसको प्रेजिडेंट पंचायत में बैठी पब्लिक व् दोनों पक्षों को सुनाता है। अगर दोनों पक्ष फैसले से संतुष्ट हुए तो 'ग्राम-खेड़ा' की जय बोल के पंचायत उठ जाती है अन्यथा दूसरी सुनवाई हेतु खाप-पंचायत उसी गाँव/शहर/लोकेशन पे ठहरी रहती है और अपनी निगरानी में छूटे हुए या अभी तक सामने नहीं आये तथ्यों को खोजवाती है अथवा ढुँढवाती है। और फिर नए पर्याप्त तथ्य जुटाने पर पहले वाली प्रक्रिया दोहराई जाती है और यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक दोनों पक्ष संतुष्ट ना हों। अमेरिकन लॉ और कोर्ट की तरह खाप पंचायत के यहां भी कोई तारीख-पे-तारीख नहीं होती। एक बार किसी मुद्दे पर खाप पंचायत बैठ गई तो खाप का आदर्श विधान कहता है कि वो फैसला करके ही वहां से उठेगी, फिर फैसला करने में कितनी ही सिट्टिंग्स क्यों ना लग जावें।

3) भारत भी अमेरिका की तर्ज पर खाप पंचायतों के फार्मूला को जज व् वकील से जोड़ ले तो हम भी 'फेडरल स्टेट' बन जावें: इसकी जरूरत व् महत्वता को समझने के लिए हमें अमेरिकी प्रोसेस के फायदे देखने होंगे:

3.1) "न्याय में देरी, न्याय को ना" क्योंकि अमेरिका की कानून व्यवस्था ने सामाजिक पंचायत और कानूनी पंचायत को ऊपर बताये तरीके से जोड़ रखा है, इसलिए वहाँ इसकी नौबत नहीं आती। जबकि भारत में एक-एक मुकदमा 20-20 साल चलता रहता है।

3.2) "कोई-तारीख-पे-तारीख" नहीं, हर फैसले को खाप-पंचायतों की तरह निबटाता है अमेरिका| यानी एक बार ट्रिब्यूनल बैठ गया तो बैठ गया, फिर लगातार उस मुकदमे की सुनवाई चलेगी, देरी हुई तो ट्रिब्यूनल के सदस्य प्रेशर देंगे। एक अध्यन के अनुसार आज भारत में 3 करोड़ से अधिक मामले सिर्फ इस 'तारीख-पे-तारीख' की बला की वजह से लटके पड़े हैं।

3.3) सामाजिक लोगों की भागीदारी होने से रिश्वतखोरी और गवाहों के तोड़ने-मरोड़ने की गुंजाइस कम रहती है क्योंकि ट्रिब्यूनल के सारे सदस्य स्थानीय होते हैं और वो अधिकतर मामलों में दोनों पक्षों के लोगों को निजी स्तर तक जानते होते हैं।

3.4) वकील-जज नियंत्रण में रह के और अपनी जिम्मेदारी समझ के कार्य करते हैं।

3.5) जनता-जनार्धन का राज चलता है, यानी वकील और जज न्याय नहीं करते वो न्याय करवाने वाले होते हैं, न्याय करती है सामाजिक जनता की पंचायत।

लेकिन जब हमारा देश आज़ाद हुआ तो किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि न्याय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए। अधिकतर मामलों में जज ना ही तो दोनों पक्षों को जानता होता है, और ना ही उनकी भाषा बोलता-समझता होता है। सामाजिक ट्रिब्यूनल की अनुपस्थिति में फिर रिश्वतखोरी और गवाह तोड़ने-मरोड़ने का जो खेल चलता है वो तो हर भारतीय जानता ही है।

और भारतीय परिवेश में मैं इसका सबसे बड़ा दोषी मानता हूँ हमारे यहां की जातीय-व्यवस्था को। खापों में तो फिर भी प्राचीनकाल से सब जातियों की भागीदारी रही है (हालाँकि आज मीडिया और एंटी-खाप लोग इसको जाति विशेष की बता, जाति और वर्ण व्यस्था बनाने वाले लोगों से ध्यान हटाना चाहते हैं, ताकि समाज में लिखित तौर पर जाति-पाति फ़ैलाने का उनका घुन्नापन ढंका रहे और खाप उनके फैलाये इस जहर को हजम करने हेतु सॉफ्ट-टारगेट बानी रहें) परन्तु जाति-पाति को लिखित तौर पर बनाने वाले समुदायों से आने वाले न्यायपालिका में भी इसको कायम रखना चाहते हैं और इस मार्ग में वो खाप जैसी संस्थाओं को सबसे बड़ा रोड़ा पाते हैं इसीलिए एकमुश्त इन पर जहर उगलते और उगलवाते हैं। परन्तु यह उनसे ज्यादा खापों की नाकामी है जो ऐसे सॉफ्ट-टार्गेटों से बचने हेतु कोई भी शील्ड व कवच नहीं रखते या बनाते।

इसलिए अगर हमको हमारे लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार लोकतान्त्रिक न्याय चाहिए जो यह गुलामों वाली न्यायप्रणाली को बदल खाप पंचायतों जैसी व्यवस्था में जरूरी सुधार डाल इसको अमेरिका के पैटर्न पे जज-वकील व्यवस्था के साथ जोड़ना होगा। न्यायपालिका को न्याय करने वाली नहीं अपितु करवाने वाली बनना होगा।

As per Mrs. Urmy Malik, resident of Canada, "Similar jury trials procedures prevails in Canadian judicial system also." She further adds, "In serious criminal cases, accused has the choice to be tried by single judge or jury. 12 members are selected from the community from different backgrounds. They find the facts and give their verdict separately. .The trail judge cannot ignore verdict made in majority. And you are right less or more they work like panchâyat.

As per Mrs. Krishna Chaudhary, resident of Australia "यहँ भी ऐसा ही है आम नागरिक की भी जूरी duty लगती है एक बार मेरी भी आई थी|"

Source: http://www.uscourts.gov/services-forms/jury-service/types-juries

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जींद शहर के 'श्री दादा नगर खेड़ा' से परिचय!


शहर के मशहूर 'सफीदों गेट' (जहाँ से जींद-सफीदों रोड का उद्भव होता है) से नई सब्जी मंडी की तरफ करीब 100 मीटर चलने पर बाईं और स्थित हैं जींद शहर के 'श्री दादा नगर खेड़ा'। ठीक यहीं पर सड़क के बीचों-बीच एक छोटा-सा डिवाइडिंग पार्क है, जहाँ से मुख्य सड़क नरवाना की ओर 90 डिग्री पर बाएं मुड़ जाती है और एक सीधी नई सब्जी मंडी को जाती है; इसी लैंडस्केप के सफीदों-गेट की तरफ वाले छोर के बिलकुल बाईं ओर इसी सड़क के मुहाने पर है यह धाम। धाम पे ऊपर लिखा भी हुआ है 'दादा खेड़ा'।

बिल्कुल अपने ट्रेडिशनल प्रारूप में सफेद रंग का वर्गाकार कमरे के ऊपर गोल-गुंबद वाला (जैसा कि खापलैंड के हर गाँव में पाया जाता है) धाम 'श्री दादा नगर खेड़ा' उपस्थित है जींद शहर के केंद्र में।

बहुत लेख पढ़े, किसी में मिलता है कि जींद जयंती नगरी है, किसी जयंती देवी का बसाया हुआ है। कोई लेखक इसको पांडवों से जोड़ता है तो कोई किसी से। परन्तु खापलैंड के शहर में खापलैंड की परम्परा से बसाये जाने वाले नगर-ग्राम की इतनी बड़ी निशानी होते हुए भी कोई यह कहते नहीं दिखा कि जींद भी पहले ऐसे ही तो बसाया गया था जैसे एक आम हरयाणवी गांव या नगर बसता है। और शहर के ऐतिहासिक और सबसे पुराने हिस्से में 'दादा खेड़ा' का होना इस बात को प्रमाणित करता है कि जींद को बसाने वाले सबसे पहले यहाँ बसे और हरयाणवी परम्परा के अनुसार बसासत की नींव हेतु सबसे पहले यहाँ 'दादा खेड़ा' स्थापित किये गए और फिर इनके इर्दगिर्द जींद बसा।

मैं नेटिव हरयाणवी दोस्तों से अनुरोध करूँगा कि अगर आप शहर आ गए हैं और यहां बस गए हैं तो अपने गाँव ना जा सकने की परिस्थिति में किसी और जगह पूजा-पाठ करने की बजाये अपनी शुद्ध परम्परा के अनुसार इस धाम पर पूजा करें। ताकि हमारी संस्कृति शहर में रहते हुए भी यूँ की यूँ फलीभूत होती रहे। होती रहे क्या, हमारे पुरखों ने बिना किसी झिझक फलीभूत रखी हुई थी; यह तो हम ही पता नहीं ऐसे क्या छद्म-मानव हुए हैं कि इसको अपना कहने और इसको प्रमोट करने में झिझकते देखे जाते हैं।

साथ ही खापलैंड के अन्य शहरों में रहने वाले नेटिव हरयाणवियों से अनुरोध करूँगा कि आप भी अपने-अपने शहरों में इस धाम को ढूंढ कर जनता को जरूर चिन्हित करवावें। मुझे दृढ विश्वास है कि जींद की ही तरह खापलैंड के बाकी शहर भी 'दादा खेड़ा' परम्परा पर ही बसे हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक