Friday, 31 January 2020

जड़ों से कटे ओ जट्टा, सुण वेल्ही वे!

मुझे लाग नहीं तेरे धन-धरती-डेरे-मंडेरे दी,
मैनूं बस इत्ता दस्स के दुनियाँ तैनूं तेरे पुर्ख्यां वांगु अज वी "जाट-देवता" दसदी ए?
भले जल्दी-बल्दी मजबूरी-मतलब च ही बिगोंदी हो, के दुनियाँ तैनूं अज व् "जाट जी" लिखदी ए?

जे नहीं ते, बह्मां च ना जी;
तेरे पुर्ख्यां दे वेडे उजड़े समझ,
जे चाहिदी परसां वांगु कठ्ठी खाट,
ते उन्हां खेड़यां दी मिट्टी च झाँक!

समझ कि ओह अनख तू पीछे छड्ड आई
जेडी तेरे शहरां वाले कोठी-चौक-चुबारयां संग ना आई
ओ अनख जेहड़ी तेरे पेक्क्यां दी हवेलियाँ च चढ़ी मोरनियाँ वांगु लहरां मारदी सी
जा मुड़ उन नगर खेड़यां दी गोहरें और ला उस अनख नूं संग|

नहीं ता जट्टा, बैरी तेरी वट्ट लग वढ़ लेउँ;
कल्चर दे कलरां उधारे नहीं ओ फब्दे जांदी दुनियाँ लग,
एह तो जनमां दी विरासत होंदी ए, जड़-जोड़ ते जुड़े ही मिले,
फुल्ले भगत वांगु ना रुळ, तेरी वखरी अनख वे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 24 January 2020

सौदा-ए-कुछ नी!

आखिर यह बात बार-बार क्यों कहलवाई जा रही है नारनौंद विधायक गौतम जी से? वैसे तो यह बात हर हरयाणवी उसमें भी हरयाणवी बाह्मण व् जाट को तो खासतौर से पकड़ने की जरूरत है|

गौतम जी का शुरू में एक प्रेस-कांफ्रेंस में दर्द झलका, चलो अच्छी बात थी झलका के हुए निफराम| परन्तु बार-बार यह सिलसिला सा ही क्यों बनता जा रहा है? और अबकी बार तो उस पार्टी के विधायकों के बीच बैठकर यह बात कही गई जिन्होनें गौतम जी को टिकट ही नहीं दी और शायद वह पार्टी काफी वक्त से छोड़ी हुई है उन द्वारा? एक तरफ आप शिकायत करते हो कि, "खोपर, और उसका बाबू, इलेक्शन रिजल्ट आते ही गुड़गाम्मा अम्बिएंस मॉल में बीजेपी से जा मिले"? और आप क्या कर रहे हो, उसी बीजेपी के विधायकों के बीच बैठ कर "सौदा-ए-कुछ नी" टाइप की बयानबाजी आगे-से-आगे बढ़ाये जा रहे हैं?

मुश्किल से तो जाट-बाह्मण-दलित-मुस्लिम-सिख व् बहुत से अन्य समुदायों ने एक हो के वोट किये थे अबकी बार की विधानसभा चुनावों में| उसमें भी आम जाट व् बाह्मण का स्पेशल जिक्र इसलिए क्योंकि भड़कने वाला बाह्मण है और जिसपे भड़का हुआ है वह जाट है| आम हरयाणवी जाट व् हरयाणवी बाह्मण के विचारने की बात है कि तुम्हारी यह एकता किसको सबसे ज्यादा अखरी होगी? निःसंदेह गौतम जी जिनके साथ बैठ के इन बयानबाजियों को दोहरा रहे हैं उनको तो कन्फर्म रड़की होगी?

मसा सी बिल्ली के भागों खटटर जैसों की फरसा काण्ड वाली "तेरा गला काट दूंगा" जैसी बदबुद्धि टाइप बदजुबानी के चलते जाट-बाह्मण एक हो के वोट किये थे अन्यथा तो इनको एक ही कौन कर ले और अब इस एकता की जरूरत हेतु पैदा हुई संवेदनशीलता पर क्या यह रोज-रोज के ऐसे बयान पानी नहीं फेर रहे? हो ली जा ली, दुष्यंत के इतना काबू की बात होती तो उसने खुद के गेल ही शपथ दिलवा देनी थी गौतम जी को मंत्री की| परन्तु ऐसा हो जाता तो जाट-बाह्मण एकता और मजबूत होती जो कि बीजेपी-आरएसएस कभी नहीं चाहेंगे| कोई बेशक अभिमन्यु का नाम आगे अड़ाए कि वह नहीं बनने दे रहा| ऐसे नाम तो कवच की भाँति होते हैं आगे अड़ाने को असली वजह बीजेपी-आरएसएस नहीं चाहती थी कि गौतम जी के मंत्री बनने से हरयाणवी जाट-बाह्मणों में मधुरता और बढ़े व् यह और एक होते चले जाएँ|

और ऐसा नहीं होने देने वाले माइंडस किसके और कितके? कुछ गुजराती और बाकी उन्हीं महाराष्ट्री पेशवा चितपावनियों के जो कुछ मेरे हरयाणवी बाह्मण मित्रों की बनिस्पद हरयाणवी बाह्मण को तो बाह्मणों शामिल भी नहीं मानते| बल्कि हरयाणवी मंदरों तक में हरयाणवी बाह्मण को नहीं बैठने दे रहे पुजारियों की पोस्टों पर|
चलो खैर पुजारी पोस्ट इतना बड़ा मसला ना भी हो, क्योंकि पुजारी तो मुश्किल से 10% बाह्मण बेशक बनता हो अन्यथा तो 90% हरयाणवी बाह्मण तो आज भी किसान है, हाळी-पाळी है| और इस 90% का फायदा तभी हो सके है जब किसान हित की योजनाएं बनें| अन्यथा तो देख लो गामों में जा के जितना भी बाह्मण किसान है उसके घरों की हालत किसी जाट-यादव-राजपूत-गुज्जर-सैनी आदि किसान से कोई ज्यादा अच्छी ना मिलनी| दर्द इन 90% को भी है क्योंकि जब से यह सरकार आई है सिर्फ नॉन-बाह्मण किसानों के ही ब्योंत नहीं घटे अपितु इन 90% बाह्मण किसानों के भी घटे हैं|

इसलिए आशा की जाए कि अब यह व्यर्थ का खुद के सुवाद लेने-देने टाइप सिलसिला बंद होवे| वरना खट्टर जैसे फिर सुवाद लेंगे थारे वह "हरयाणवी कंधे से ऊपर-नीचे वाला" ब्यान बोल-बिगो के| समझिये कि कहीं आपको कोई खिलहा तो नहीं रहा? मानता हूँ हरयाणवी जीन्स में अपने सुवाद खुद लेने टाइप की घाव खुद कुरेदने की नकारात्मकता होती है परन्तु हद इतनी भी नहीं हो जानी चाहिए कि "सूत-ना-पूणी और जुलाहे गेल लठ्ठमलठ्ठा" वाली लगने लगे|

विशेष: मुझे देखने को मिलता है कि फंडी-पाखंडियों के भन्डेफोड करने वाली मेरी पोस्टों के चलते लोग यह परसेप्शन बना लेते हैं कि यह तो एक खास समुदाय के खिलाफ है| हाँ, मैं हूँ उस ख़ास समुदाय के खिलाफ जो धर्म के नाम पर समाज में समाज को तोड़ने - बिखेरने - दिमागों में भय भरने - भाई-भाई में घर की घर में हेय-घृणा भरने के फंड-पाखंड-प्रपंच रचते हैं परन्तु किसी जाति के नहीं| और फंडी की कोई जाति नहीं होती वह कहीं भी मिल सकता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 23 January 2020

समुदाय विशेषों में जमीनों बारे गलत धारणा भरने-भरवाने वाले फंडियों के लिए!

गलत धारणा क्या?: 'तुम, तुम्हारे पुरखे पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनकी जमीनों पर मजदूरी करते आये हो तो इसलिए तुमको भी जमीनों में हक मिलने चाहियें|'

अगर हम इन्हीं कारिस्तानियों पर आ गए और तुम्हारे जैसे यह जहरबुझी जुबानों वाले जहर फ़ैलाने लगे तो ना कोई फैक्ट्रियों-दुकानों का मालिक बचेगा और ना कोई मंदिर-डेरों का| क्योंकि फैक्टरियों में हिस्से बारे हर मजदूर को हम तुम्हारा ही लॉजिक पकड़ाएंगे कि 'तुम, तुम्हारे पुरखे पीढ़ी-दर-पीढ़ी फैक्ट्रियों-दुकानों में मजदूरी करते आये हो तो इसलिए तुमको भी फैक्टरियों-कंपनियों-दुकानों में हक मिलने चाहियें|' और मंदिर-डेरे तो हैं ही 100% दानकर्ताओं की प्रॉपर्टी तो उनमें से तो आंदोलन चला के कभी भी हिस्सेदारी क्लेम कर लो|

इसलिए हे फंडियों, इतने भी स्याणे नहीं हो जितने समझते हो| तुम्हारी स्यानपत तभी तक चलती है जब तक जमीनों वाले खामोश हैं| जिस दिन धुन में उत्तर आये लोगों के दर-दरवाजों पर भीख मांगने को भी तरसोगे तुम| टिक के खा लो राजी-रजा से जो भी समाज खिला रहा है| जमीनों वाले किसान हैं, वह फसल उगाना जानते हैं तो उससे बेहतर उसको काटना जानते हैं और तुम्हारे जैसे खरपतवार को तो हा-के काटते हैं|

और जिनको जमीन वालों के खिलाफ भड़का रहे हो उनको तो जमीन वाले व् जमीन वालों के पुरखे काम के बदले पैसा-अनाज-तूड़ा आदि रुपी दिहाड़ी भी देते आये हैं, अकबर तक के जमानों से जमीनों के टैक्स भरने के रिकार्ड्स इंडिया से ले लन्दन तक की ब्रिटिश लाइब्रेरीज के आर्काइज में पड़े हैं| तुम अपनी सोचो कि तुम कैसे मलकियतें साबित करोगे, उन ठिकानों की जहाँ बैठ तुम्हें ऐसी वाहियातें सूझती हैं?

"खुद की जीरो इन्वेस्टमेंट, लोगों से 100% दान-रुपी इन्वेस्टमेंट के मॉडल चला के गुजारे करने वालो; "जिनके घर शीशों के होते हैं, वह दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते"| याद रखना, तुम अगर जमीनों के अन्यायकारी बंटवारों की बात उठाओगे तो फैक्ट्रियों व् मंदिर-डेरों की प्रॉपर्टी-आमदनी के बंटवारे भी हो सकते हैं| और जैसा कि ऊपर बताया, जमीनों से पहले फैक्ट्री-मंदरों-दुकानों के बंटवारे बाँटने बनेंगे तुम्हारे ही लॉजिक पर चले तो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आज़ाद हिन्द फ़ौज के तीसरे कमांडर (फाउंडर नहीं) रहे नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी को उनकी जन्मजयंती (23-01-1897) पर शत-शत नमन!

जिस "आज़ाद हिन्द सरकार" की यह फ़ौज थी, उसकी स्थापना स्थापना 1 दिसंबर 1915 को नोबेल पुरस्कार नॉमिनी मुरसन नरेश राजा महेंद्र प्रताप ठेनुवा जी ने काबुल में की थी| राजा जी इसके प्रथम राष्ट्रपति थे, बरकतुल्ला खान प्रधानमंत्री व् सरदार मोहन सिंह इस सरकार की आर्मी यानि "आज़ाद हिन्द फ़ौज" के प्रथम कमांडर थे| दूसरे कमांडर रास बिहारी बोस बने व् उनके बाद तीसरे कमांडर बने नेता जी सुभाषचंद्र बोस| इस सरकार को 31 देशों का समर्थन प्राप्त था|

जब फरवरी 2016 में 35 बनाम 1 वालों द्वारा जाट बनाम नॉन-जाट छिड़वाया गया, वह भी स्वधर्म वालों की स्टेट-सेण्टर दोनों जगह सरकार होते हुए तो कुलमुलाहट हुई जानने की कि यह जाट ऐसी क्या बड़ी तौब हैं या रहे हैं जो 35 बनाम 1 में इनका ही नाम आया, बाकी 35 को छोड़कर| तो तथ्यों को सही से खोजना शुरू किया| तब जाकर बहुत से तथ्यों में से एक ऐतिहासिक तथ्य जो करेक्ट किया गया वह यह कि नेता जी प्रथम नहीं अपितु तीसरे कमांडर थे आज़ाद हिन्द फ़ौज के जो आज़ाद हिन्द सरकार की डिफेंस विंग थी, जिस सरकार के जिसके संस्थापक व्  राष्ट्रपति जाट राजा महेंद्र प्रताप जी हुए| किसी ने सही कहा है कि "जाट जितना दबया जायेगा वह उतना ही बढ़ेगा"| भला हो इस 35 बनाम 1 वालों का वरना हम तो यही पढ़ते आये थे कि "आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना किसने करी" और जवाब बताया जाता रहा नेता जी ने| इसीलिए जाट भोला है उसको नार्मल परिस्तिथियों में फर्क ही नहीं पड़ता कि उसके किये का क्रेडिट किसको दिया जा रहा है या कौन आपस में बाँट रहे हैं|

हाँ, मगर इससे नेता जी का बलिदान किसी भी तरीके से अंश मात्र भी कम नहीं हो जाता| उन जैसा देशभक्त सदियों में एक होता है| नेता जी को उनके जन्मदिवस पर पुन: शत-शत नमन|

और यह इस बंगाली बाबू का जलवा व् इनको हरयाणवियों द्वारा (विशाल हरयाणा) निश्छल गले से लगाने की तासीर थी जिसकी वजह से हरयाणवी लोग अपने अच्छे-खासे हरयाणवी पहनावे को "बंगाली कुरता-पजामा" कहने लगे| वरना बंगाली कुरता कटे गले का होता है व् हरयाणवी कुरता कॉलर वाला, बंगाल में कुर्ते के नीचे धोती पहनते हैं जबकि हरयाणवी में पजामा| करेक्ट कर लीजिये इस फैक्ट को भी कि बंगाली में कुरता-पायजामा नाम की कोई ड्रेस नहीं होती| हम हरयाणवी इसको बंगाली कुरता-पायजामा बोलते हैं तो सिर्फ इस बंगाली बाबू को अपना सम्मान दिखाने को|

लेकिन यह प्यार यह निश्छलता उन बेशर्मों को इतनी सहजता से समझ नहीं आती जो रोजी-रोटी से ले छत तक के आसरे को आ जमते हैं विशाल हरयाणा में परन्तु बोलने के नाम पर इनके मुंह से हरयाणवियों की बुराइयाँ ही मिलती हैं| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Sunday, 19 January 2020

जिंद की सर्वजाट सर्वखाप महापंचायत में सबकुछ नकली भी नहीं था!


जो पंचायती व खाप वाले वहाँ थे उनमें से खासकर खाप वाले, पिछले 4 साल लगातार केसवार युवाओं के साथ खड़े थे| हर 10-15 दिन बाद पंचकूला CBI कोर्ट में जो तारीख लगती थी उनके आने जाने के लिए भाड़ा किराया, बस की व्यवस्था तक इन खाप वालों ने ही कर रखी थी| तारीख भुगतने जाने पर खाने की व्यवस्था भी खाप वाले ही करते थे| एक-एक पीड़ित युवक घर को 30 लाख से ले 60 लाख रूपये तक की आर्थिक मदद जुटवाने वाले खाप चौधरी ही रहे हैं| इस कलेक्शन का ऑडिट करवा कर, इंटरनेट पर पब्लिक में डालने वाला मैं खुद हूँ| मई 2017 तक लगभग 12 करोड़ 90 लाख की मदद का पूरा ब्यौरा खापलैंड की वेबसाइट के इस लिंक से देखें - http://www.khapland.in/khaplogy/jsrkt-donation-report/ |

और यह कदम मैंने, सुरेश देशवाल जी व् कई अन्यों ने तब उठाया था जब ठगपाल हर दूसरे-तीसरे दिन खुद समाज से उगाहे चंदे का हिसाब देने की बजाये लेता और तब-जब खापों के चंदे के हिसाब पर ऊँगली उठा देता या अपनी गैंग से उठवाता था| मखा, सब कुछ ऊट जागी पर दीखते-दिखाते ईमानदार व् समाज को निश्छलता से समर्पित चौधरियों पर ऊँगली नहीं उटेगी| आजतक ठगपाल के हिसाब की ऐसी रिपोर्ट आनी बाकी है जैसे खापों ने दी पाई-पाई की|

सरकार ने तो धेला तक नहीं दिया या दिया तो "ऊँट के मुंह में जीरे समान" उधर, ठगपाल कालिख इन बच्चों के नाम पर समाज से मिला सारा पैसा हड़प संस्थान बना गया| ऐसा संस्थान जिसमें बलिदान हुए बच्चों के परिवारों के नाम 1% भी शेयर नहीं शायद| सबसे पहला निशाना तो इसको बनाओ| यह वही ठगपाल है जिससे एक जना बिना अपनों से विचार-विमर्श के दिशा-निर्देश लेता हुआ पाया गया था प्रकाश कमेटी की ऑडियो रिपोर्ट्स में| दो बंदों से भी बात करके काम करता तो सुझाव यही आता कि यही तो तुम्हारे संगठन को मिटाने के लिए उतारा गया है और तुम इसी से दिशा-निर्देश लेने चले हो? बाद में हुआ ना साबित, फंसा के उस भाई को खुद हुआ फरार, झाड़ गया पल्ला|

हाँ, दूसरा निशाना जिंद वाली महापंचायत के सिर्फ वह पंचायती हो सकते हैं जो पूरे समाज को दोषी घोषित कर जुरमाना लगाने चले थे| शुक्र है कि बाद में यह प्रस्ताव रद्द कर दिया गया, अन्यथा सारे मीडिया ने जाट समाज की ऐसी भद्द पीट देनी थी कि संगवानी भारी हो जाती| पता लगा किसी को कि कौन महारथी था जिसने ऐसा विचार दिया था पंचायत में और किसके दिमाग से दिया था?

इसके अलावा एक नंबर का काम हुआ है जिंद महापंचायत में| 72 परिवारों को राहत मिली, कैप्टेन साहब की आगे की राजनीति का स्कोप|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 16 January 2020

राजनीति व् धर्मनीति वालों का नहीं अपितु शुद्ध समाजनीति बनाने वालों का मंच रही हैं खापें और इसको यही रखा जाना चाहिए!

जब तक खाप पंचायतों में भागीदारी व् फैसलों से राजनीति व् राजनैतिक लोग साइड नहीं रखे जायेंगे, इनके फैसलों पर ऐसे ही मिलीजुली प्रतिक्रियाएं आती रहेंगी जैसे जिंद (जींद) वाली सर्वजाट सर्वखाप महापंचायत के फैसले बारे आई हैं| फैसला सुखद था, 72 परिवारों को रिलैक्स दे गया व् कप्तान साहब की राजनीति के जिन्दा रहने का स्कोप दे गया; तो उस हिसाब से तो पंचायत का फैसला सरमाथे| बाकी नारनौंद की जनता बेहतर न्याय करेगी, इस फैसले को देरी से आया, लठ आई में यानि इलेक्शन की हार से पोलिटिकल करियर खत्म होने की नौबत से बचने के चलते करवाया मानेगी या कैसे| क्योंकि वक्त पर आया व् अपने विवेक से आया फैसला ही सही फैसला होता है, देरी से आये व् कई इलेक्शन की हार जैसी कई वजहें डेवेलोप होने के बाद आये फैसले पर लोग सवाल करेंगे ही, आप-हम उनके मुंह बंद नहीं कर सकते|

और ऐसा होना भी नहीं चाहिए| क्योंकि खाप कोई अधिनायकवाद की थ्योरी पर चलने वाली संस्था नहीं है कि आका ने जो बोल दिया उसके बाद उस पर विचारों के आदान-प्रदान होने की गुंजाईस ही ना हो| ठेठ गणतांत्रिक डेमोक्रेटिक प्रणाली की संस्था हैं खाप तो इन पर ओपिनियन एक्सचेंज चलने आम है| व्यक्तिगत तौर पर बाकी सब बातों का स्वागत योग्य पंचायत थी कल की सिर्फ एक पूरे समाज को दोषी मानने व् दंड लगाने वाले पॉइंट को छोड़कर| यह पॉइंट जानकर ऐसा लगा कि जैसे खाप की नहीं अपितु राजकुमार सैनी - अश्वनी चोपड़ा - रोशलाल आर्य - मनोहरलाल खट्टर - मनीष ग्रोवर जैसों की पंचायत थी जो शुरू से ही पूरे जाट समाज को दोषी मानते आये हैं| इसीलिए यह कहकर बात शुरू की कि एमएलए-विभिन्न पोलिटिकल पार्टी बियरर्स का 21 सदस्यों की फैसला लेने वाली कमेटी में या उनके अड़गड़े क्या काम?

और काम था तो फिर कम-से-कम सभी पोलिटिकल पार्टीज वालों को ही लेते; असल तो खाप के मूल स्वरूप के अनुसार पोलिटिकल व् धार्मिक प्रतिनिधियों का खाप से कोई लेना देना ही नहीं होता आया| पॉलिटिक्स व् धर्म को खापों की बीमारी ताऊ देवीलाल के ज़माने में शुरू हुई थी, इसका अंत होना चाहिए व् खाप के फैसले शुद्ध रूप से सामाजिक लोगों की कमेटियों द्वारा ही होनी चाहियें; ऐसे लोग जो ना राजनीति में हों और ना धर्मनीति में; वह सिर्फ समाजनीति में हों|

क्या आरएसएस दखल देने देती है उसकी ही पोलिटिकल विंग बीजेपी को उसके फैसलों में, खापों से यह कांसेप्ट आरएसएस सीख गई परन्तु खुद खाप वाले पता नहीं कब वापिस आएंगे अपने पुरखों के इस नियम पर| इस पर बहस कीजिये जितनी हो सके अन्यथा यूँ तो खाप का मूल रूप ही बिगाड़ कर रख देंगे पोलिटिकल व् धर्मनीति वाले लोग; शुद्ध सामाजिक लोग फिर कहाँ अपनी सामाजिक समता व् न्यायप्रियता का मान धरवाएँगे? कहाँ उनकी चौधर बचेगी जो अगर असेंबली-पार्लियामेंट में बैठने वाले राजनेता व् मंदिर-मठ-डेरों में बैठने वाले बाबे "खाप-पंचायत" रूप सामाजिक मंचों पर भी कब्जा कर लेंगे तो आन जमेंगे तो? तीनों को अपनी-अपनी मर्यादा में रहकर चलना चाहिए|

और बहस करते वक्त "ये यौद्धेय", "वो यौद्धेय", "गंदे यौद्धेय", "बतड़ंगे यौद्धेय", "फद्दू यौद्धेय" आदि-आदि लिखने वालों की तरफ ध्यान ना देवें| यह शब्दों व् हावभावों के खेल से लोगों की "अटेंशन सीकर" लोग होते हैं| इनकी परवाह नहीं करनी है| इनको क्या पता कि कल जो पंचायत हुई इसकी नींव कहाँ-कितनी गहरी व् किस प्रेरणा से निकली हैं; किसकी फैलाई जागरूकता से निकली हैं| यौद्धेय वह मशाल हैं जो जिसको स्पष्ट दिख जाएँ फिर उनके साथ ही होता चला जाए| हमें अपना लोहा पता है और बहुत ही अच्छे से पता है| इनको भी पता है तभी इनकी जुबानों पर "यौद्धेय" ही रहते हैं|

ऐसे लोगों से राय नहीं चाहिए जो सामाजिक फंक्शन्स में चेहरा चमकाने को ये बड़ी-बड़ी अमाउंटस के चंदे बोल के आते हैं और बाद में देने के नाम पर टाँय-टाँय फुस्स| गाम वाले जब कहते हैं कि बोला हुआ चंदा इनसे आप लेते हो या हम भंडा फोड़ें ऐसों का सोशल मीडिया पर तो मेरे जैसे ही आगे अड़ के इनकी इज्जत बचाते हैं, वह हैं यौद्धेय| और ज्यादा कहूँगा तो खामखा रुसवाई हो जाएगी, बस इतना समझ ले ऐ नादाँ हम तो दूर रहकर भी तेरी इज्जत दबाये-बचाये चले जाते हैं और तुम हमारे ही कैडर को जब देखो ऑडियो-वीडियो में निशाना बनाये जाते हो? कुछ तो अपनी एथिक्स को भी जगा लो? इतने भी अनएथिकल ना लगे थे तुम जितने दिखाने को आमादा हुए रहते हो?

और हाँ, क्योंकि यौद्धेय अधिनायकवाद नहीं है कि यहाँ एक ने जो कह दिया वही फाइनल है| यौद्धेय दुनियाँ के सबसे पुराने डेमोक्रेट्स हैं यहाँ छोटे से छोटा वर्कर, बड़े से बड़े कार्यकर्त्ता को उसकी गलती बताने का माद्दा व् अधिकार दोनों रखता है| इसलिए हमारी बहसें भी ओपन सोशल मीडिया पर होती हैं| इन बहसों को देखकर ऐसे लोग यह ना समझें कि यौद्धेय तो फुस्स हुए| वहाँ से तो यौद्धेयों की सोच शुरू होती है जहाँ इन जैसों की इन व् इनके आकाओं के निर्देश समेत वाली सोच खत्म होती है| अरे किसी व्यक्तिविशेष से समस्या है तो व्यक्तिविशेष से मुखातिब होवें, पूरे यौद्धेय-गण को बदनाम मत करें|

इनको तो इतना भी भान नहीं रहता अपनी "अटेंशन सीकिंग" की आदत के चलते कि कल जिस खाप की पंचायत में बैठने में इतना गर्व महसूस करके बातें लिखी-बोली-बताई जा रही थी उन खापों का मूल हैं यौद्धेय| रै रलदू, उनको आर्यसमाजी स्वामी भगवान देव आर्य की "हरयाणे के वीर यौद्धेय" नामक पुस्तक पकड़ा दे, थोड़ा ज्ञान ले लेंगे यौद्धेय पर बोलने से पहले| वरना "अर्धज्ञान कचरे की पेटी" की भाँति यूँ ही फद्दू यौद्धेय, झगड़ालू यौद्धेय, बद्तमीज यौद्धेय बड़बड़ाते रहेंगे| इनको बोलो कि पढ़ो इस किताब को जो अगर इसमें सिवाए "खापों के यौद्धेयों" के दूसरा कोई विषय भी मिल जाए तो|

यौद्धेय वो हस्ती हैं जो कभी मरते नहीं, मारने के बाद भी नहीं मरते| वह तब भी खड़े होते हैं जब सर्वब्रह्मज्ञानियों के ज्ञान व् अस्त्र-शस्त्र तक भी खत्म हो जाते हैं| खेलनी-मेलणी माता नहीं हैं, हाड़फोड़ खसरा सैं यौद्धेय|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Saturday, 11 January 2020

नगर खेड़े दी खैर वे साइयाँ, नगर खेड़े दी खैर; मुक्क जां सबतों बैर वे साइयाँ मुक्क जां सबतों बैर!


पंजाबी भाषा में "दादा नगर खेड़े" पर बहुत ही आध्यात्मिक व् रोमांचित करने वाला गाना आया है कंवर ग्रेवाल जी दा:

शीर्षक है: "नगर खेड़े दी खैर वे साइयाँ, नगर खेड़े दी खैर; मुक्क जां सबतों बैर वे साइयाँ मुक्क जां सबतों बैर" - तुस्सी वी सुनो from youtube video link given at the end of this post.|

इसमें दर्जनों ऐसे शब्द हैं जो सिर्फ पंजाबी, हरयाणवी या उर्दू भाषा में मिलते हैं परन्तु हिंदी में नहीं मिलते| हिंदी भी अच्छी भाषा है परन्तु वह भी सीखिए-जानिये यानि हरयाणवी जिसको हरयाणवी ग्रामीण तो आज भी बोलता है| मेरे जैसे सरफिरे एनआरआई हरयाणवी तो जब भी कोई हरयाणवी मिलता है तो बात ही सिर्फ हरयाणवी में होती हैं| फिर नहीं याद रहती हिंदी, इंग्लिश या फ्रेंच|

फंडी का एक फंडा होता है अपने एजेंडा को फैलाने का कि अपनी बात झूठ हो या सच उसको फ़ैलाने व् स्थापित करने हेतु अगर 100 बार भी बोलना पड़े तो बोलते-फैलाते रहो जब तक कि वह अंतत: सच की तरह स्थापित ना हो जाए जनमानस में| और इसके मोटिवेशन के लिए यह जो नेरेटिव रखते हैं उसको कहते हैं कि, "100 बार बोलने से तो झूठ भी सच हो जाता है"| यही तो फंडा है इनका माय्थोलॉजीज को सत्य की तरह स्थापित करवाने का पब्लिक में; वरना देख लो माइथोलॉजी के नाम पर इन्होनें जितना भी स्थापित किया है आजतक उसके जो अगर 95% के कहीं कोई आर्कियोलॉजिकल से ले विभिन्न गज़ेटियर तक में जिक्रे भी मिल जाएँ तो|

मुझे इनकी यह सनक अच्छी लगती है परन्तु झूठ को सच सत्यापित करवाने हेतु की अपेक्षा इसके विपरीत सत्य को जिन्दा जिलाये रखने हेतु| इसलिए दादा नगर खेड़ों जैसी वास्तविक चीजों को जिन्दा रखने हेतु, पुरखों की कल्चरल किनशिप को बनाये रखने हेतु फैलवाइये/फैलाईये| वह 100 बार झूठ फैलाते नहीं थकते आप 5-10 बार अपनी औलादों-पीढ़ियों को पुरखों की यह मान-मान्यताओं वाली सच्चाई नहीं बता सकते? कैसे दादा-दादी-नाना-नानी हो रे तुम आज वालो, जो पोता-पोती-दोहता-दोहतियों को तुम्हारे बाप-दादों-माँ-दादियों की यह चीजें ही पास नहीं कर सकते अगर? या तुम कुछ न्यारे ही उतरे हो धरती पर?

चलिए फैलाइये, सुनिए-सुनवाइये| वरन यह गाना तो ऐसा है कि ब्याह-शादियों से ले बैठकों तक में बैठकर सुबह-शाम सुनिए| धुन भी कितनी रूहानी बनाई है गायक व् उनकी टीम ने| आहा मेरा तो बारम्बार सुनकर भी जी नहीं भरा है, सुने ही जा रहा हूँ, "नगर खेड़े दी खैर वे साइयाँ, नगर खेड़े दी खैर; मुक्क जां सबतों बैर वे साइयाँ मुक्क जां सबतों बैर"|

रमेश चहल भाई को यह गाना भेजने के लिए ख़ास धन्यवाद|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

YouTube Link of the Song: https://www.youtube.com/watch?v=60wwmuViptk

Thursday, 9 January 2020

हरयाणवी उदारवादी जमींदारी की गजब की जेंडर न्यूट्रैलिटी एवं सेंसिटिविटी देखिये!


1) यहाँ गाम-नगरों के नाम खेड़े (ललित खेड़ा) हैं तो खेड़ी (शीला खेड़ी) भी हैं, गढ़ (बहादुरगढ़) हैं तो गढ़ी (राखीगढ़ी) भी हैं, कलां (खानपुर कलां) हैं तो खुर्द (उगालन खुर्द) भी हैं|
2) यहाँ "दादा नगर खेड़ा" पुल्लिंग शब्द के धाम को 100% औरतों की अगुवाई व् आधिपत्य में (कोई मर्द पुजारी सिस्टम नहीं) धोका जाता है तो परस-चुपाड़ स्त्रीलिंग शब्द की जगह में अधितकर मर्द बैठते हैं|
3) बंगालियों को जब विधवा विवाह आंदोलन चलाने की सूझी (राजाराम मोहनराय के वक्त), उससे युगों-युगों पहले से यहाँ विधवा विवाह भी होते थे और विधवा स्त्री को समाज के हर फंक्शन में बराबरी से भाग लेने का अधिकार रहा है; यह नहीं कि कई समाजों की तरह मनहूस मान कर कालकोठरियों या विधवाश्रमों में सड़ने को फेंक दी जाती हो|
4) 99% खेड़े-खेड़ी नॉन-पुरोहित जमात के बसाये हुए हैं; कभी कोई अपशकुन नहीं हुआ आजतक| यह उन बंदबुद्धियों के लिए जो हर बात पर टूने-टोटके-शोण-कसोण के लिए एक विशेष जमात को बुलाने की रयाँ-रयाँ लगाते रहते हैं|
5) 'देहल-धाणी की औलाद' का दादा नगर खेड़े बड़े बीरों का जो नियम है इसके अनुसार पिता के गौत की जगह माँ का गौत भी औलाद का गौत हो सकता है; पूरे विश्व में यह, सिर्फ इस सिस्टम में है|
6) सर्वखाप, खाप या पंचायत सब के सब स्त्रीलिंग शब्द हैं, कभी सोचा इस एंगल से? आखिर क्यों रखे गए थे यह शब्द स्त्रीलिंग में? क्या भावना थी उदारवादी जमींदारों की इसके पीछे?

गुस्ताखी माफ़: खेड़े-खेड़ी, गढ़-गढ़ी के कॉम्बिनेशंस की भाँति मंदिर-मंदिरी या मठ-मठी या डेरा-डेरी या अखाडा-अखाडी देखे-सुने आपने? यह विश्व के सबसे कटटर मर्दवाद के अड्डे हैं| और इसीलिए इनको हरयाणवी उदारवादी जमींदारी खटकती है, इनकी खाप खटकती है|

ऊपर के छह उदाहरणों जैसे और भी बहुतेरे उदाहरण हैं| मकसद बताने का यही है कि किसी भी टीवी सीरियल-फिल्म-एनजीओ-गोलबिंदीगैंग-कथावाचक या 35 बनाम 1 टाइप्स वाले नफरत व् सम्प्रदायवाद के कीड़ों से जेंडर न्यूट्रैलिटी या सेंसिटिविटी सीखने-सुनने से पहले अपने पुरखों के युगों-पुराने स्थापित व् सत्यापित इस सिस्टम को जान लें तो शायद ही आपका जी करेगा इनको सुनने तक को भी| वरन आपको इनकी 90% बातें सबसे बड़ा जाहिलपना व् गंवारपना लगेंगी, ना-काबीले-गौर लगेंगी| तो इससे पहले यह इनका जाहिलपना और गँवारपना आपमें ठूंसें, अपनी चीजों को खुद जानें व् समझें; उसके बाद इनके पास भी कुछ काम का लगे तो ग्रहण कर लेवें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 8 January 2020

क्या रूहानी रहबर था वो: देखा कोई उसके जैसा जो अंग्रेजी गुलामी के दौर में भी "भाखड़ा बाँध" जैसे प्रोजेक्ट बनाता था?

गाँधी देखे हों, नेहरू देखे हों, जिन्नाह देखे हों, श्यामाप्रसाद मुखर्जी देखें हों, सावरकर या गोलवलकर देखें हों? इनके पॉजिटिव कंट्रीब्यूशन पर कोई कटाक्ष नहीं है, बस जानना इतना है कि इन्होनें भी किसी ने सर छोटूराम के "भाखड़ा बाँध" जैसा कोई प्रोजेक्ट लगाया था क्या आज़ादी से पहले?

देखा-सुना-पढ़ा कोई दीनबंधु रहबर-ए-आज़म चौधरी सर छोटूराम जैसा दिग्दर्शी? इतना दिग्दर्शी कि उस दौर में वह "भाखड़ा बाँध" के रूप में ऐसा प्रोजेक्ट लगा गया जिसके बूते आज़ादी के 73 साल बाद आज भी पूरे उत्तरी भारत के हर जाति-धर्म के किसान के खेत सिंचित होते हैं; हर जाति-धर्म के घर-गाम-शहर को बिजली मिलती है, हर जाति-धर्म के व्यापारी के कारखाने-दुकान को बिजली-पानी मिलता है?

एक ऐसा वक्त जब नेहरू-जिन्नाह-गांधी-सावरकर-मुखर्जी आदि इस पर आपस में उलझे हुए थे कि हिन्दू-मुस्लिम को अलग देश देवें या नहीं, उसी वक्त समानांतर में जिंदगी की आखिरी साँस लेने से पहले "भाखड़ा बाँध" का प्रोजेक्ट पूरा होने की फाइल पर हस्ताक्षर करके गया था वह हुतात्मा| इन्हीं वजहों-नीति-नियतों के चलते 33 करोड़ देवी-देवते बनाने-घड़ने वाले भी जाटों को धरती के भगवान् यानि "जाट देवते" बोलते हैं|

वैसे तो हर जाति-धर्म वाला समझे इस बात को, परन्तु जाट खासकर जान ले कि, "यह जाट-देवता वाली छवि यूँ ही नहीं हासिल किये थे पुरखे"| उनकी क्या कूबत थी और आपकी-हमारी क्या कूबत है कभी सोच-विचार कीजियेगा| हमारे पुरखे सिर्फ वह नहीं थे जो आजकल के मीडिया, मूवी-टीवी सीरियल्स, गोल बिंदी गैंग या तथाकथित एनजीओ वाले दिखा सिर्फ अपनी भड़ास निकालते रहते हैं| कोई नहीं दिखायेगा आपको ऐसे लेखों के जरिये ऐसी बातें, सिवाय 10-20-100-50 मेरे जैसे सरफिरों के अलावा| भाखड़ा बाँध जैसे प्रोजेक्ट ही थे जिनके बूते दो-दो हरित-क्रांतियाँ पार पड़ी और सिर्फ जाट-जमींदार ही नहीं अपितु हर जाति-धर्म के जमींदारों के यहाँ हवेलियों पर मोरनियाँ चढ़ाने जितने ब्योंत हुए| आओ विचारें आज कि तुम्हारी-हमारी क्या तैयारियाँ हैं आगे की पीढ़ियों की हवेलियों पर मोरनियाँ चढ़वाने की?

आज 9 जनवरी है आज ही के दिन 1945 में उस उदारवादी जमींदारी की रूह ने आखिरी साँस ली थी| आईये निश्चय करें कि उलझे रहेंगे जिनको धर्म-जातियों की लड़ाईयों-दंगों में लड़ने-लड़वाने-बंटने-बँटवाने को खुद का व् सारे समाज का जीवन सडाना है, इनकी तो धुर-दिन से लाइन ही खराब है उन जमानों में भी इनको यही लावालुतरी आई और वही ढाक के तीन पात; बनिस्पद बेशर्मों की आज भी वही लाइन है| परन्तु हम और आप उस पुरखे की भाँति ऐसे प्रोजेक्ट्स पर नजर रखते हुए, उनको साकार करते चलें कि यूँ ही वह प्रोजेक्ट्स हमारे मरने के बाद 70-100 साल भी दुनियाँ-जहान की जरूरतें पूरी करते रहें जैसे आज "भाखड़ा बाँध" कर रहा है|

और तो क्या ही व्याख्या करूँ मैं उस साक्षात् जमींदार-मजदूरों के भगवान की| उसकी समाज सेवा के प्रति नेक-नियति व् दूरदर्शिता के क्या ही कहने| भले ही फिर वह जमींदार-मजदूर-व्यापार के 13 स्वर्णिम कानून बनाये हों उसके, जो आज तलक लगभग हूबहू रूप में हरयाणा-पंजाब-हिमचाल-दिल्ली तक में लागू हैं; भले ही आज़ादी से भी 10 साल पहले उसने पंजाब में वह आरक्षण लागू कर दिया था जो बाकी के भारत में आज़ादी के बाद लागू हुआ; भले ही उसने 25 साल निर्बाध यूनियनिस्ट सरकार यूनाइटेड पंजाब में चलाई की दास्ताँ हो; भले ही उसने यह सब अचीव करने के लिए समाज को धार्मिक आधार पर बांटने वाली ताकतों को ठेंगा दिखाया था,उसकी बानगी हो| उनके जीवन की सबसे बड़ी सीख यह भी है कि सर्वसमाज-देश का भला करना है तो धार्मिक-जातीय-वर्णीय ताकतों को साइड रखना होगा और ताक पर रख कर काम करने पड़ें तो वह भी करना होगा|

स्टेट से ले सेण्टर सरकारों से अनुरोध है कि भाखड़ा बाँध पर सर छोटूराम का स्टेचू लगवाया जाए| उनको "भारत-रत्न" से नवाजा जाए तो इसमें कोई अहसान करने वाली बात नहीं होगी अपितु पुरखों का देश-समाज पर कर्ज उतारने की बात होगी|

9 जनवरी 1945 सर छोटूराम निर्वाण दिवस विशेष व् 9 जनवरी 1858 राजा नाहर सिंह व् उनके 2 सेनापतियों के बलिदान दिवस पर उन हुतात्माओं को बारम्बार नमन|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Tuesday, 7 January 2020

सत्रहवाँ जाटरात्रा: 8 जनवरी - 'कूटनीतिक व् शांतिपूर्ण नेगोसिएशन हमेशा पे करती है, तुरंत (ऑन-दी-स्पॉट) ना करे, नजदीक या दूरस्थ भविष्य में जरूर करती है|

शीर्षक: 'कूटनीतिक व् शांतिपूर्ण नेगोसिएशन हमेशा पे करती है, तुरंत (ऑन-दी-स्पॉट) ना करे, नजदीक या दूरस्थ भविष्य में जरूर करती है|

आज के जाटरात्रे का संदर्भ: जब चितपावनी पेशवाओं व् मराठों ने ब्याही थी जाटों से अपनी 10000 के करीब बेटियाँ|

सत्रहवें जाटरात्रे मनाने को मनाने का थीम: "जाटों का ग्लोबल व् राष्ट्रीय डायस्पोरा (अनुवांशिक फैलाव)" व् ग्लोबल व् राष्ट्रीय हस्तियां|

क्या मंथन करें:
कूटनीतिक व् शांतिपूर्ण नेगोसिएशन हमेशा पे करती है: जाट इतिहास में जाट पुरखों की नेगोसिएशन कला, चतुर बुद्धि व् निर्भीकता की वजह से एक बार ऐसा हुआ है जब लगभग 10000 जाटों को एक साथ चितपावनी पेशवाओं व् मराठों ने अपनी लड़कियाँ ब्याह कर (यह हर जाट के लिए सम्मान की बात है, और इसको उसी उद्देश्य से लिया जा रहा है; जातिवाद के नाम पर हर चीज में उपहास व् तंज ढूंढने वाले कीड़े इस पोस्ट व् तथ्य दोनों को इग्नोर करें), उनको बड़े आदर व् सम्मान सहित अपना घर जमाई बनाया था| नासिक के आसपास "खाप बाईसी" बोल के जाटों के 40 गाम बसते हैं| जो जानता होगा उसको तो पढ़ते ही आईडिया आ गया होगा कि यह वाकया कैसे हुआ था?

वाक्या महाराजा सूरजमल जी वाला ही है| पानीपत की तीसरी लड़ाई से पहले पेशवाओं से अपनी बात मनवाने में बेशक महाराजा जी फ़ैल हुए परन्तु उसके रिटर्न्स मल्टीप्ल रहे| सबसे बड़ा रिटर्न यह कि पेशवाओं की चतुराई-छल-कपट से खुद व् खुद के साम्राज्य को बचा सके| दूसरा रिटर्न यह कि जब वीरता व् निर्भीकता साबित करने का सही वक्त आया तो अब्दाली से एक अंश भी खौफ ना खाते हुए, घायल पेशवाओं की ऐसे वक्त में मरहमपट्टियाँ करने आगे आये जिस वक्त में खुद पुणे के पेशवे फाख्ता हो गए थे, तितर-बितर थे; पुणे से कोई मदद ही नहीं पहुंची थी ऐसे दुबक के बैठा गया था वहाँ का मुख्य पेशवा; बाकी राजे-रजवाड़ों का मदद में आना तो छोड़ ही दो|

परन्तु अपनी नीति-नियत-नियम पर रहने का इन दोनों से भी जो सबसे बड़ा तीसरा जो फायदा जाटों को हुआ वह यह कि जब महाराजा सूरजमल जी ने लगभग पेशवाओं-मराठों को अब्दाली से 10000 जाट सेना की सुरक्षा में महाराष्ट्र छुड़वाया तो तब जा के बताते हैं कि चितपावनी पेशवे पसीजे थे और उनको अक्ल आई थी कि जाट गलत नहीं थे| उनकी मानी गई होती तो पानीपत में जीत होती| फिर भी उन्होंने अपनी यह गलती कुछ यूँ ठीक करी कि जाट सेना को वापिस नहीं जाने का अनुरोध किया, जाट सेना को कहा गया कि आप यहीं मराठवाड़ा में नासिक के पास बसों; हम आपको हमारी बेटियाँ ब्याहेंगे| इस अनुरोध को महाराजा सूरजमल जी ने भी स्वीकृति दी| और इस तरह जाटों से मराठवाड़ा की लगभग 10000 छोरियों के एक ही समय में बयाह हुए|

मुग़लों को छोरियाँ दी, इसको दी उसको दी; औरों के ही जिक्र करने पर मत लगे रहा करो| यह भी याद किया करो कि आपके पुरखों की विलक्षण बुद्धि व् नेक-नियत ने इस मामले में क्या कीर्तिमान स्थापित किया था|
तो यह है पुरखों की विलक्षण बुद्धि व् धैर्य का लोहा|

ऐसे ही किस्से और भी बहुत हैं, साल-दर-साल ऐसे किस्से और जोड़े जायेंगे| जिनको सिर्फ जाट ही नहीं अपितु अन्य सर्वसमाज भी जानेगा तो जाट के लिए आदर पैदा होगा|

गुस्ताखी माफ़: वैसे यह जो फरवरी 2016 का दंगा हुआ था वह भी चितपावनी पेशवाओं की अगुवाई वाले संगठन आरएसएस की पोलिटिकल विंग बीजेपी की स्टेट-सेण्टर में सरकार होते हुए, यह कहीं इसीलिए तो नहीं हुआ कि इनको यह भूल पड़ गई हो कि जाट तो तुम्हारे समधाने हैं, जमाई हैं; इन पर क्यों तुम जाट बनाम नॉन-जाट होने दे रहे हो? यह ऐसी-ऐसी बातें जमाना भूले नहीं इसीलिए जाटरात्रे मनाईये| इससे ना सिर्फ आपके पुरखे आपको आशीष देंगे अपितु सोहरे/सगारिये/थारे-म्हारे पुरखों के सुसराड़ियों की "फरवरी 2016" टाइप की बुरी नजर से भी जाट बचे रहेंगे| ऐसे-ऐसे उदाहरणों को जिन्दा रख कर ही "पुरखों की, कौम की किनशिप" को जिन्दा रखा जा सकता है|

न्यूं मान लो कि पानीपत मूवी में भी म्हारे पुरखों के सोहरे/सगारिये/सुसराड़ियों ने उनके जमाईयों की टाँग खिंचाई की; सुनी है इस फिल्म का डायरेक्टर आशुतोष गोवारीकर कर चितपावनि पेशवा मराठा खूम से ही है तो क्या हुआ अब रिश्तेदारों में तो इतना चलता है ना| परन्तु इस हल्की सी चुटकी में इतनी गंभीर बातें अपनी आगामी पीढ़ियों को बताना-बतलाना मत भूलियेगा| वरना वही बात यह सोहरे दूसरी फरवरी 2016 जैसी नजर फिर लगा देंगे|

नासिक, महाराष्ट्र में जाटों के राष्ट्रीय फैलाव बारे आज बताया, बाकी बताना ग्लोबल फैलाव बारे भी था परन्तु वक्त की कमी की वजह से फ़िलहाल इतना ही|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 4 January 2020

जाटरात्रे मनाने की जरूरत क्यों पड़ी?

कई साथियों का फीडबैक आया कि भाई जाटरात्रे मनाने की जरूरत क्यों पड़ी, जबकि जाट तो सर्वसमाज सर्वधर्म को साथ लेकर चलने वाली कौम रही है सदियों से?

भाई बस, यही अहसास ना सिर्फ जाट अपितु जाट बनाम नॉन-जाट व् 35 बनाम 1 रचने-रचवाने वालों को याद रहे कि जाट "सर्वसमाज सर्वधर्म को साथ लेकर चलने वाली कौम है" इसको मत बदनाम करो, इस पर मत बदनीयत रखो; इसीलिए हर साल 23 दिसंबर से 9 जनवरी तक 18 दिन जाटरात्रे मनाने का निश्चय हुआ है| 365-18= 347 दिन सालभर सभी जाति-धर्म-पंथ-स्टेटों वालों के तीज-त्योहारों-व्यवहारों में हंसी-ख़ुशी बढ़चढ़कर शामिल होता है जाट लेकिन फरवरी 2016 के बाद से 18 दिन सिर्फ अपने पुरखों के स्थापित व् सत्यापित किये सिद्धांतों-आध्यात्म्यों वाले तौर-तरीके भी याद किया करेगा जाट|

ताकि शहरी हो या ग्रामीण हर जाट को यह अहसास रहे कि "जाट देवता" कहलवाने के लिए अंधांधुंध धन-दौलत, शहरों-सेक्टरों-गांव में ऊँची कोठी-बंगले व् एमबीए-सीए-बीटेक-एमटेक आदि की डिग्रियां मात्र पर्याप्त नहीं अपितु वह तौर-तरीके-कस्टम्स-ट्रडिशन्स-सिद्धांत आदि, एक शब्द में कहूं तो "कौम की किनशिप" आपस में जानना-जनवाना भी इतना ही जरूरी है जिसके चलते आपके-हमारे पुरखे 95% तथाकथित अक्षरी अनपढ़ व् ग्रामीण होते हुए भी सर्वसमाज-सर्वधर्म से "जाट देवता" कहलवा लेते थे| आप शहरों-विदेशों तक आ लिए, परन्तु वह जाट देवता वाला जज्बा व बिसात साथ लेकर नहीं चल पाए, निसंदेह वह साथ रखते तो शहरी मार्किट का सबसे बड़ा कंस्यूमर बेस यानि जाट, उसी के सेक्टरों पर फरवरी 2016 में 35 बनाम 1 की भीड़ ना टूटती|

यह तो शुक्र कहूं दादा नगर खेड़ों का कि ऐन मौकों पर ग्रामीण जाटों के छोरों ने भर-भर ट्रेक्टर-ट्रॉलियां तुर्ताफूर्ति में इन सेक्टरों के चौक-चौराहों पर अड़ाए अन्यथा हमला काबू बेशक इनके बिना भी हो जाता परन्तु नुकसान कितना ज्यादा करके जाता इसका अंदाजा लगाना ही मुश्किल है| 19 फरवरी से 22 फरवरी 2016, 4 दिन-रात कॉल सेण्टर बन गया था मेरा घर फ्रांस में बैठे हुए भी, 4 दिन कोई काम नहीं किया था बस दिनरात सिर्फ जिंद की स्थिति रोहतक वालों को बता रहा था, सोनीपत की भिवानी वालों को, करनाल की गुड़गाम्मा वालों को, कैथल की झज्जर वालों को, दिल्ली-गाजियाबाद की फरीदाबाद वालों को, पंचकूला की हिसार वालों आदि को| वह चार दिन-रात परमानेंट छप चुके हैं जेहन में| और यह सब कौम को दोबारा ना देखना-झेलना पड़े, इसलिए जरूरी हैं जाटरात्रे मनाने|

एक ऐसी कौम जिसके बिना हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत का कोई भी पहलु पूरा नहीं हो सकता, जो इन शब्दों के मूल में बसती है; वह औरों को गले लगाते-लगाते खुद कब अपने आपको ही भूल गई इसका अहसास दिला गया फरवरी 2016| 90% गाम-खेड़े विशाल हरयाणा धरती के ऐसे हैं जिनके सदियों-शताब्दियों पहले जब यह गाम बसे होंगे तब इनकी नींव के पत्थर जाटों के पुरखों ने रखे हुए हैं और उसी जाट के खिलाफ यहाँ फरवरी 2016 में ऐसा शरणार्थी समझ लेने जैसा व्यवहार करने की कोशिश हुई, उसी के खिलाफ 35 बनाम 1 व् जाट बनाम नॉन-जाट? मखा कोई ना, जाट जब तक अनख पर नहीं लेता तब तक नहीं लेता; अब आगे 18 दिन तो जाट का इतना प्रचार रखेंगे कि आगामी जाट पीढ़ियां ऐसे किसी भी प्रोपगेंडा में नहीं फंसेगी|

अत:आगे वाली जाट पीढ़ियों पर फिर से फरवरी 2016 ना हों इसीलिए जाटरात्रे मनाना तय हुआ है| भले सिर्फ जाट ही मनावें परन्तु मनावें जरूर ताकि भविष्य में जाट के खिलाफ जाट बनाम नॉन-जाट रचने-रचवाने वालों को यह याद आता रहे कि जाट है कौन|

सनद रहे: जाटरात्रे किसी भी सूरत में किसी भी अन्य जाति या धर्म की आलोचना-तुलना अथवा चर्चा तक करने हेतु नहीं हैं| सर्वसमाज-सर्वधर्म के भाईचारे के सिद्धांत को पालते हुए व् सर्वोपरि रखते हुए "जाटरात्रे" भी मनाईये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 3 January 2020

तेरहवाँ जाटरात्रा - 4 जनवरी - "माइथोलॉजी अधूरा कल्चर है, उसके आगे का पूरा जाट-कल्चर जानना है तो सर्वखाप को पढ़िए"!


इस रात्रे का शीर्षक: "माइथोलॉजी अधूरा कल्चर है, उसके आगे का पूरा जाट-कल्चर जानना है तो सर्वखाप को पढ़िए"|

तेरहवें रात्रे को मनाने का थीम: "जाट अपने मूल स्वभाव यानि DNA की साइकोलॉजी-फिलॉसोफी-आइडियोलॉजी को पहले जाने, फिर उसी के आधार पर समाज से डील करे, नेगोसिएट करे| काबिले-गौर है कि जाट जब तक नेगोसिएट नहीं करता तब तक ही नुकसान में रहता है, वरना जब-जब जाट पुरखों ने नेगोसिएशन करी, सामने वाले से ना सिर्फ अपना सम्मानजनक बचाव कर पाए अपितु उसको उसकी बुद्धि का जायज स्थान भी आभास करवा पाए| दर्जनों ऐसे उदाहरणों में से दो ख़ास उदाहरण महाराजा सूरजमल सुजान व् सर छोटूराम के हैं| महाराजा जी ने ओपन टेबल पर नेगोशिएट किया तो सदाशिव राव भाऊ नामक चितपावनी पेशवा की चालाकी व् चालों से ना सिर्फ खुद को बचा पाए वरन भाऊ को पानीपत के मैदान में अपनी बुद्धि की परख भी भलीभांति हुई व् बाद में पेशवे ऐसे अहसान करके जाटलैंड से विदा किये जैसे कोई झुण्ड से बिछुड़े जानवर को उसकी माँ से मिलवाता है| सर छोटूराम तो इतने बड़े नेगोसिएटर थे कि एक साथ अंग्रेजों से ले सूदखोरों-कालाबाजारियों व् तीन-तीन धर्मों की कट्टर धार्मिक ताकतों को ऐसे खूँटे बाँध नचाया, जैसे मदारी बंदर नचाता है| ऐसे नेगोशिएट करते थे सर छोटूराम कि अंग्रेजों से गेहूं के 6 रूपये मण के भाव की जगह 11 रूपये मण का भाव लेकर उठते थे| अत: मंथन कीजिये कि आपका DNA माइथोलॉजी नहीं है अपितु फैक्टोलॉजी-ब्रोदरहुड-इंसानियत है जो सिर्फ और सिर्फ पुरखों की अनंतकाल से आजमाई हुई खापोलॉजी, दादा नगर खेड़ा व् उदारवादी जमींदारी से ही समझी जा सकती है"|

मंथन क्या करें?: माइथोलॉजी अधूरा कल्चर है, उसके आगे का पूरा जाट-कल्चर जानना है तो सर्वखाप को पढ़िए अर्थात खून-खूम-खूँट के आपसी झगड़े सुलझाने का माइथोलॉजियों का रास्ता घर उजड़वाने, झगड़े लगवाने व् अंत में आपस में मर-कटने की ओर ले जाता है| जबकि जाट का यह कल्चर रहा ही नहीं है कभी भी| जाट की सर्वखाप ने हमेशा शांति से परस-चुपाड़ों के चोंतरों (चबूतरों) पर बैठकर ना सिर्फ ऐसे झगड़े निबटवाये अपितु अंत में दोनों पक्षों के दिल भी मिलवाये| जाट की किसी भी खाप की मीटिंग/पंचायत का ऐसा रिकॉर्ड नहीं मिलेगा कि वह माइथोलॉजी की तरह झगड़ा/मसला नहीं सुलझा पाई तो सगे खूनों में ही युद्ध ठनवा के उठी हो| कोरी बकवास फिलॉसफी है यह माइथोलॉजी वाली, जो जाट के पंचायत कल्चर से कोसों-कोस मेल नहीं खाती|

जाट ही नहीं अपितु सर्वसमाज को आपके-हमारे घरों को झगड़ों में उलझाए रखने की फंडी की यह माइथोलॉजी वाली कूटनीति समझनी होगी| आपके-मेरे-हमारे घरों में झगड़े बने रहेंगे तो इन फंडियों के टूने-टोटकों की दुकानें चलते रहने का स्कोप बना रहेगा| यह कभी न्याय नहीं करते सिर्फ न्यायकारी बनने के फंड रचते हैं तभी यह फंडी कहलाते हैं| इसीलिए तो बड़ी-बड़ी मैथोलॉजिकल किताबों के लेखकों ने इनके हर किस्से का अंत युद्ध पर लाकर किया| तो आप अपना ज्ञान पूरा कीजिये व् माइथोलॉजियों के बाद का रास्ता जानने के लिए पुरखों के पास बैठकर सर्वखाप के ऐतिहासिक इतिहास, बड़ी-बड़ी पंचायतों के न्यायिक फैसले, समाजों-गामों को उजड़ने से बचाने के केसों (मामलों) की स्टडी कीजिये| दो-चार केस भी बुजुर्गों से समझ लिए तो पाओगे कि माइथोलॉजी वाकई में मिथ है, इसका प्रक्टिकलिटी से कोसों-कोस तक कोई वास्ता-नाता नहीं|

क्या कभी देखा है कि दो भाईयों या देवरानी-जेठानी में झगड़ा हुआ हो और वह दोनों पक्ष एक ही फंडी के पास अपना झगड़ा ले के गए हों? कभी नहीं मिलेगा ऐसा| दोनों अलग-अलग के पास जायेंगे और उनसे पूछा-पडवाने, टूने-टोटके से एक दूसरे का विनाश करवाने के तजाम करवाएंगे, अपने घर फूंकेंगे, दिमाग फूंकेंगे और फंडी बैठे मौज मारेंगे| इनमें न्यायकर्ता-पंचायती मान बैठने वाले से बड़ा निर्बुद्धि कोई नहीं धरती पर| जबकि खून-खूम-खूँट के 99% झगड़े ऐसे होते हैं कि एक बार पुरखों की भाँति पंचायत करके बैठ जाओ तो झगड़ा तुरतो-फुर्ती में रफा-दफा|

एक माइथोलॉजी वाले तो मात्र दो परिवारों का झगड़ा सुलटवाने में ही रंभा लिए थे, पाँच गाम तक पर डील नक्की नहीं करवा सके| जबकि आपके पुरखे तो 84-84, 360-360 गामों के मुकदमे बड़ी सरलता से सुलझाते आये सदियों से| मामले सुलटवाने बारे दिल्ली की लाठ-महरौली तो इतिहास में इतनी मशहूर हुई है कि "लाठ-महरौली सर्वखाप के चौधरियों को लाट-साहब" बोला जाता रहा है| वही लाट-साहब शब्द जिसपे बॉलीवुड में फिल्मों से ले गाने, डायलॉग्स तक बने हुए हैं व् आमजन में कहावत भी चलती है कि, "फलानि धकडी बात, तू के लाट-साहब लाग रह्या सै"| इन 23 दिसंबर से 9 जनवरी तक चलने वाले 18 जाटरात्रों में जानिये अपने पुरखों की इन बुलंदियों वाले ऐसे इतिहास को जो लिटरेचर-कल्चर में इतने सम्मान से इतने गहरा समाया हुआ कहलाया है|

इसको जानना क्यों जरूरी है?: अगर सर्वखाप को पढ़े बिना अकेले माइथोलॉजी के आधे ज्ञान वाला ही अपना कल्चर मान बैठोगे तो जो ऊपर बताया कि फंडियों की तो मौज होगी ही होगी साथ में कभी पुरखों का दिया भाईचारे व् कौमी-एकता का कांसेप्ट धरातल पर कायम नहीं रख पाएंगे हम| घरों में आपसी भेदभाव-न्याय-अन्याय के लिए आवाज तो उठाते रहेंगे| फंडी इतना ही चाहते हैं कि घरों में एक-दूसरे पर क्रांतिकारी-विद्रोही ही बने रहो परन्तु उसके आगे अपनी जटबुद्धि लगा के दिल ना मिलने-मिलाने पाओ, झगड़े-मनमुटाव ना सुलटा पाओ| सुलटाने के नाम पर इनके दरवाजे जाओ, इनको मनाओं| चढ़ावा चढ़ाओ और झगड़े का निबटारा भूल जाओ| यानि शांतिपूर्ण हल कभी नहीं निकाल पाओगे| घर की औरतें बहम-अहम्-पक्षपात-वाद-विवाद आदि के चलते घर के ही सदस्यों पर ऐसे आखें तराती व् दाड़ पीसती रहेंगी जैसे "जोहड़ के गोरे पर बैठे भैंसों के झुण्ड में दो झोटे (भैंसे) बिना बात ही सिर उठाये एक दूसरे को घूरते हुए नथूने फुला-फुला खुर्री काटते रहते हैं, व् कई बार तो सिर भी मेल लेते हैं|

सलंगित है "सर्वधर्म-सर्वजातीय-सर्वखाप महापंचायत का लीजेंड"| इसकी हर कड़ी की व्याख्या विस्तार से जाननी है तो मेरे इस लेख पर पढ़ें - http://www.nidanaheights.com/Panchayat.html

जय यौद्धेय! - फूल मलिक