Monday, 15 September 2025

मेहर सिंह का तो बेगवाण पाना है

 लगभग दो दहाकों तक अफ़वाहें जोर पकड़तीं रहीं कि बहार पाना कुछ होता ही नहीं , यह बराह पाना है जबकि बरौना गाँव में कोई बराह पाना है ही नहीं , मेहर सिंह का तो बेगवाण पाना है ! और इन अफ़वाहों के साथ साथ जोर पकड़ा एक कवि की साहित्यिक हत्या करने की मुहिम ने ! इस मुहिम का चेहरा इतना घिनौना और कुरूप था , जिसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यह मुहिम सिर्फ़ एक कवि की ही हत्या नहीं कर रही थी , एक शहीद की शहादत को भी अपने घिनौने जातीय तत्वों का लबादा ओढ़ाकर दुनिया से ख़त्म कर देने की कोशिशें किए हुए थी ! कहा गया कि मेहर सिंह ना तो स्वतंत्रता सेनानी थे ना शहीद , वो ब्रिटिश फौज में दस्त लगकर मर गए थे , जबकि महान कवि फौजी मेहर सिंह के शहीद और स्वतंत्रता सेनानी होने के इतने सरकारी दस्तावेज मौजूद हैं कि असल में तो मायना कमेटी को वो पढ़ने ही नहीं आएँगे और पढ़ने बैठ भी गए तो कितने दिन लगा देंगे कुछ कह नहीं सकता ! अब आते हैं बाहर और बराह के मुद्दे पर ! गायक अक्सर शब्दों में हेरफेर करते हैं ! किसी भी कवि द्वारा रचित कोई किस्सा दो गायकों की आवाज में उठाकर देख लीजिए , शब्दों में बहुत फर्क देखने को मिल जाएगा ! जबकि मूल कवि ने इन दोनों ही गायकों से इतर कुछ अलग तीसरा ही शब्द लिखा होता है ! यह कोई नई बात नहीं , लेकिन जैसे ही यह मेहर सिंह जी की कविता के साथ हुआ तो बहुर्जातीय भेड़िए टूट पड़े कोटे और कनागत का माल समझकर ! अगर यह रागनी दयाचंद मायना की लिखी हुई होती तो कम से कम एक पुराना गायक तो बराह बोलता बाहर की जगह ! दयाचंद के बहुत ज़्यादा क्लोज रहे गायक ही बोल देते ! लेकिन नहीं , दयाचंद की छाप में ये रागनियाँ पूरी दुनिया में किसी ने नहीं सुनीं , बस राजकिशन पाले बाऊ ने सुनीं थीं और उन्होंने ईर्ष्यावश या पैसे के लोभ में छाप काट दी ! अब आते हैं बेगवाण पाने पर , वैसे तो मूल शब्द यही है , 1971 में यही शब्द हवासिंह बरौना के रजिस्टर में भी हुबहू दर्ज हुआ जिसकी मूल प्रति मशीन प्रिंटेड तारीख के साथ आज भी मौजूद है , इसके बाद जो ग्रंथावली छापी उसमें बाहर पाना ही लिखा गया ! लेकिन जब मूल पांडुलिपियों के आधार पर सम्पूर्ण ग्रंथावली आई तो उसमें मूल शब्द बेगवाण ही छापा गया , तो कजूसे पहुँच गए , कहने लगे मेहर सिंह कमेटी सबूत मिटा रही है , सबने बाहर ही गाया था लेकिन इन्होंने शब्द बदल दिया ! कोई इनसे पूछे कि अगर बाहर भी गाया है तो क्या ग़लत गाया है ? ये लोग बाहर को बराह एक गुच्छे के आधार पर बता रहे हैं और वो गुच्छा राजेंद्र बड़गूजर ने अपनी थर्ड क्लास किताब छापकटैया में भी दिया है ! शब्द उसमें भी बाहर ही छपा है लेकिन इन्होंने उसको पैन से काटकर बराह बना रखा है ! यह तो रिपब्लिक भारत चैनल वाला वही तर्क हो गया “क्या यादव ही यहूदी हैं” ? क्या ऑस्ट्रेलिया ही अस्त्रालय है ? क्या व्लादिमीर पुतिन ही बलदेवराम पूनिया है ? फिर दयाचंद मायना के नाम से गाने वाले आजकल के जमीरविहीन गायक इस रागनी की तोड़ वाली कली में दो बार छाप लगाते हैं ! दयाचंद का घर टोहूँ सूँ बसै बराह पाने महँ , राजी होके वर दयूँ करो दयाचंद कविताई ! किसी भी कवि की कोई भी रचना उठाकर लाइए जिसमें दो बार छाप लगी हो ! धरती के इतिहास में तो किसी कवि ने एक ही रचना में दो बार छाप लगाने की कारगुज़ारी की नहीं , मंगल या शनि पर ऐसा होता हो तो पता नहीं ! आज भी जब गाँव में बाहर से कोई आदमी किसी का पता पूछता है तो अमुक आदमी के पिता या कुनबे का नाम पहले लेता है ! यह ग्रामीण भारत का व्यवहार भी है और सभ्याचार भी ! इसीलिए मूल कविता में मेहर सिंह जी के पिता नंदा जाट का जिक्र है ! मेहर सिंह तो बच्चे थे , घर तो उनके पिता का था , भारत माता ढूँढने आएगी तो गांव में नंदा का घर पूछेगी ! और फिर किसी भी गांव विशेष से संबंधित शब्दों को बाहर के गायक याद नहीं रख पाते ! जैसे अंजना पवन की रागनी इसते सुथरे और भतेरे में तोड़ की कली में मूल लाइन है मेहर सिंह की गेल्याँ जा कै बिचल ज्यागी जाटां महँ , सिर पै ज्वारा गोड्डे टूट ज्याँ हुर आली की बाटाँ महँ ! हुर आली बरौने में खेत हैं , लेकिन दूसरे गाँव के गायक इसको याद नहीं रख पाते तो उन्होंने इसको दो दो कोस की बाट बना दिया ! ऐसे ही बाहर गाया क्योंकि बेगवान शब्द को बरौने वाले तो याद रख लें , बाहर वाले कब तक याद रखें ? उन्होंने बाहर कहना शुरू कर दिया क्योंकि शहीद कवि फौजी मेहर सिंह जी का घर बेगवान पाने के बिल्कुल बाहर स्थित है ! चाहे पुराना शजरा निकलवाकर देख लीजिए ! तो इसमें यादव-यहूदी , ऑस्ट्रेलिया-अस्त्रालय या बाहर-बराह के झूठ कैसे काम करेंगे , समझ नहीं आता ! गायक बरौना जाते तो मेहर सिंह का घर भी बाहरवाई देखते और पाने के बाहर गा देते ! लेकिन एक ऐसा गायक था जिसने हुबहू सही शब्द गाया ! सत्ते फ़रमानिया! पेश है एक 1978 की रिकॉर्डिंग सत्ते फरमाना की ! इनको शब्द बदलने के लिए किसने कहा था ? तब तक तो बरौना कमेटी भी नहीं बनी थी , ना मेहर सिंह पर कोई शोधार्थी ही शोध कर रहा था और सनी दहिया का तो जन्म भी नहीं हुआ था !




Saturday, 13 September 2025

बैटल ऑफ हांसी 13 सिंतबर 1192 AD

कुत्तुब्बुद्दीन ऐबक बनाम दादावीर चौधरी जाटवान मलिक जी गठआळा (गठवाला)

सन् 1192 ई० में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली के सम्राट् पृथ्वीराज चौहान को तराइन के स्थान पर युद्ध में हरा दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। मोहम्मद गौरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का शासन सौंप दिया और स्वयं गजनी लौट गया । कुतुबुदीन ऐबक ने आम जनता पर तरह तरह के कर लगा दिए और अत्याचार करने शरू कर दिए जाटो को ये अत्याचारी अधर्मी नया शासक सहन नही हुआ और उन्होंने खाप-यौधेय दादावीर जाटवान मलिक जी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। जाट इतिहास पृ० 714-715 पर ठा० देशराज ने दादावीर जाटवान के विषय में लिखा है कि इसी समय हांसी के पास दीपालपुर में गठवालों ने अपने नेता दादावीर जाटवान मलिक के साथ कुतुबुदीन ऐबक के सेनापति नुसुरतुदीन को हांसी में घेर लिया और मार दिया। गठवाले उसे भगाकर अपने स्वतन्त्र राज्य की राजधानी, हांसी को बनाना चाहते थे। इस खबर को सुन कर कुतुबुद्दीन पूरी सेना लेकर एक ही रात में 12 फसरंग (ध्यान रहे 1 फसरंग 12 km के बराबर होती हैं ) का सफर करके अपने सेनापति का बदला लेने के लिए हांसी पहुंचा
(“हसन निजामी जो कुताबुदीन के दरबारी लेखक थे जो अपनी किताब तुमुल सिमिर / Taju-l Ma-asir में pp 218 पे लिखते हैं जिसका इंग्लिश अनुवाद :- " When the 3rd day of honoured month of Ramazan, 588 H ( according to today that is 13th of September 1192 AD ), the season of mercy and pardon, arrived, fresh intelligence was received at the auspicious Court, that the accursed Jatwan, having admitted the pride of Satan into his brain, and placed the cup of chieftainship and obstinacy upon his head, had raised his hand in fight against Nusratu-d din, the Commander, under the fort of Hansi, with an army animated by one spirit." Digressions upon spears, the heat of the season, night, the new moonday , and the sun. — Kutbu-d din mounted his horse, and " marched during one night twelve parasangs.") ”
तो दादावीर जाटवान मलिक ने संख्याबल और हथियारों की कमी को देखते हुए छापामार युद्ध कौशल का प्रयोग किया, धीरे धीरे कुतुबुदीन को अपने चक्रव्यूह खानक की पहाड़ियों (जिस आजकल डाडम या तोशाम की पहाड़िया कहा जाता हैं) जिसमे संख्याबल महत्वहीन हो गया दोनों सेनाये 3 दिन 3 रात तक अपना अपना युद्ध कौशल दिखाती रही खुद Taju-l Ma-asir /तुमुल सिमिर के मुस्लिम लेखक हसन निजामी आगे लिखते हैं “The armies attacked each other " like two hills of steel, and the field of battle became tulip-dyed with the blood of the warriors." — The swords, daggers, spears, and maces struck hard. - The locals were completely defeated, and their leader Jatwan slain but he showed tremendous bravery.”
युद्ध बहुत घमासान हुआ जैसे दो पहाड़ आपस में टकरा गए हों। धरती रक्त से लाल हो गई थी। बड़े जोर के हमले होते थे |जाट थोड़े थे पर फिर भी वो खूब लड़े| सुल्तान स्वयं घबरा गया। जाटवान ने उसको निकट आकर नीचे उतरकर लड़ने को ललकारा। किन्तु सुल्तान ने इस बात को स्वीकार न किया। जाटवान ने अपने चुने हुए साथियों के साथ हमारे गोल में घुसकर उन्हें तितर-बितर करने की चेष्टा की और मारा गया |
एक अत्याचारी की खिलाफ पहली तलवार उठाने वाला योद्धा दुर्भाग्य से तीसरे दिन, रात को युद्ध में शहीद गया| बेशक हार हुई पर गुलाम वंश यह मुस्लिम बादशाह युद्ध में हुई इस अप्रत्याशित क्षति को देखकर बोला कि “अगर मैं इस यौद्धा को संधि करके बहका लेता तो अपने साम्राज्य का बहुत विस्तार कर सकता था” और दिल्ली को राजधानी बनाने का विचार त्याग कर लाहौर चला गया| जाटवान के बलिदान होने पर गठवालों ने हांसी को छोड़ दिया और दूसरे स्थान पर आकर गोहाना के पास आहुलाना, छिछड़ाना आदि गांव बसाये। वीर जाटवान के बेटे हुलेराम ने संवत् 1264 (सन् 1207 ई०) में ये गांव बसाये| जाटवान मलिक के मारे जाने के बाद शाही सेना ने भयंकर तबाही मचाई जिससे गठवालो का यह गढ़ टूट गया, हजारों परिवारों को दूर जा कर बसना पड़ा। इसके बाद मलिक जाट अलग अलग दिशाओं में विभक्त हो कर उत्तरी भारत में फ़ैल गया। एक शाखा गोहाना, सोनीपत, पानीपत,रोहतक के आस पास फ़ैल गई। काफी संख्या में मलिक यमुना पार कर शामली, बडोत,मुज्जफर नगर,मेरठ तक बस गए, एक शाखा बीकानेर नागौर में जा बसी जिन्हें अब गिटाला, गथाला, गाट, घिटाला नाम से भाषा भेद के कारण जाना जाता है, इसी तरह एक शाखा बहादुरगढ़,दिल्ली,नोएडा,गाजियाबाद तक गई।वर्तमान में यदि सीमाओं को हटा कर बात की जाए तो गठवाला को 640 गांव का सबसे बड़ा खेड़ा भी कहा गया है, आज गठवाला गौत को मलिक के अलावा 12 से ज्यादा नामों से जाना जा सकता है।
दादा वीर जाटवान मलिक अपने हजारों साथियों के साथ बलिदान हुए और अपने वीरतापूर्ण जीवन के साहस एवं शौर्य से उन्होंने अपने पूर्वजों को गौरवान्वित किया जो सदा ही आने वाली नस्लो के लिए प्रेरणापुंज की तरह काम करता रहेंगा। यह बात शत-प्रतिशत सही है कि जिस कौम का इतिहास लिपिबद्ध नहीं होता, वह मृतप्राय हो जाती है। उसका स्वाभिमान और गौरव नष्ट हो जाता है। आज सर्वखाप के समाजों में गौरव और स्वाभिमान की भावना पैदा करने के लिए अति आवश्यक है कि ऐसे यौधेयों-यौधेयाओं की गौरवगाथाओं को लिपिबद्ध कर प्रचारित किया जाए, जिन्होंने अपनी अणख व् धरती हेतु और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए सर्वशः बलिदान कर दिया ताकि आने वाली संतान संरक्षित और गौरव का अनुभव कर सके।
लेखक: बेगपाल मलिक
संदर्भग्रन्थ / रेफ्फेरेंस :-
1. The history of India : as told by its own historians. Sir H. M. Elliot Edited by John Dowson, 1867 Volume II/V. Taju-l Maasir of Hasan Nizami
2. Qanungo, Kalika Ranjan (2017). History Of The Jats: A Contribution To The History Of Northern India. Gyan Books. ISBN 978-93-5128-513-7.pp 16 ,17
3. Said, Hakim Mohammad (1990). Road to Pakistan: 712-1858. Hamdard Foundation Pakistan. ISBN 978-969-412-140-6.
4. Jain, Meenakshi (2011-01-01). THE INDIA THEY SAW (VOL-2): Bestseller Book by Meenakshi Jain: THE INDIA THEY SAW (VOL-2). Prabhat Prakashan. p. 240. ISBN 978-81-8430-107-6.
5. Elliot, Sir Henry Miers (1869). The History of India, as Told by Its Own Historians: The Muhammadean Period; the Posthumous Papers of H. M. Elliot. Akbar Badauni. Susil Gupta (India) Private. pp. 71–72.
6. Habibullah, Abul Barkat Muhammud (1961). The Foundation of Muslim Rule in India: A History of the Establishment and Progress of the Turkish Sultanate of Delhi, 1206-1290 A.D. Central Book Depot. p. 62.
7. A Comprehensive History of India: The Delhi Sultanat (A.D. 1206-1526), ed. by Mohammad Habib and Khaliq Ahmad Nizami. People's Publishing House. 1970. p. 171.
8. James tod (1920). Annals and Antiquities of Rajasthan: Or The Central and Western Rajput States of India. H. Milford, Oxford University Press. p. 1164.
9. Rose, Horace Arthur (1999). A Glossary of the Tribes and Castes of the Punjab and North-West Frontier Province. Low Price Publications. p. 359. ISBN 978-81-7536-152-2.
10. Srivastava, Ashirbadi Lal (1953). The Sultanate of Delhi: Including the Arab Invasion of Sindh, 711-1526
11. जाट वीरो का इतिहास – दलीप सिंह अहलावत pp 273
12. A.K. Majumdar (1956). Chaulukyas of Gujarat. Bharatiya Vidya Bhavan. OCLC 4413150. Pp 144
13. R. B. Singh (1964). History of the Chāhamānas. N. Kishore. OCLC 11038728.pp 213
14. Rima Hooja (2006). A History of Rajasthan. ISBN 9788129108906.pp 291
15. S.H. Hodivala (1979). Studies in Indo-Muslim History: A Critical Commentary on Elliot and Dowson's History of India as Told by Its Own Historians. Pp 179
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Thursday, 11 September 2025

हरियाणा में दो ही पढ़े-लिखे आदमी हैं: एक मैं (संत हरद्वारी लाल) और दूसरा स्वरूप सिंह!

 #चौधरी_हरद्वारी_लाल

संत हरद्वारी लाल का जन्म 10 सितम्बर 1910 को हरियाणा के झज्जर ज़िले के छारा गाँव (तत्कालीन पंजाब प्रांत) में हुआ। बचपन से ही मेधावी और तेजस्वी रहे हरद्वारी लाल ने उच्च शिक्षा दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज और पंजाब विश्वविद्यालय से प्राप्त की। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने राजनीति और अकादमिक दोनों क्षेत्रों में अपनी गहरी छाप छोड़ी। वे शिक्षा जगत में उस दौर के प्रेरक व्यक्तित्व बने, जिन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय (1959–1962) और महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय (1977–1983) के उपकुलपति (Vice-Chancellor) के रूप में उत्कृष्ट सेवाएँ दीं।
राजनीतिक जीवन में हरद्वारी लाल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े और पंजाब व हरियाणा विधानसभाओं में विधायक रहे। उन्हें हरियाणा सरकार में मंत्री पद की जिम्मेदारियाँ भी सौंपी गईं, विशेषकर शिक्षा विभाग से उनका गहरा जुड़ाव रहा। बाद में वे दो बार लोकसभा सांसद चुने गए—1962 में बहादुरगढ़ (तत्कालीन पंजाब) से और 1984 में रोहतक (हरियाणा) से। राजनीति के मंच पर वे उस दौर की चर्चित “लाल तिकड़ी”—चौधरी बंसीलाल , चौधरी देवीलाल और चौधरी भजनलाल—के मज़बूत प्रतिद्वंद्वी माने जाते थे।
व्यक्तित्व की दृष्टि से संत हरद्वारी लाल अपने साफ़गोई भरे वक्तव्यों, स्पष्टवादिता और हास्यपूर्ण व्यंग्य के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें “कहने में सीधे और काटने में न हिचकने वाले” नेता के रूप में जाना जाता था। उनका एक बेहद मशहूर कथन हरियाणा की राजनीति में आज भी गूंजता है—“हरियाणा में दो ही पढ़े-लिखे आदमी हैं: एक मैं और दूसरा स्वरूप सिंह। लेकिन स्वरूप सिंह आधा है, इसलिए यहाँ कुल डेढ़ पढ़ा-लिखा आदमी है।” यह जुमला उनके आत्मविश्वास, चुटीलेपन और बौद्धिक श्रेष्ठता का प्रतीक बन गया।
हालाँकि उनकी राजनीतिक यात्रा विवादों से अछूती नहीं रही, लेकिन उनकी लोकप्रियता और प्रभावशाली छवि फिर भी बरकरार रही।
उनकी जन्म जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि। - Ashok Dalal



Wednesday, 10 September 2025

नेपाल में जो कुछ हो रहा है वह अचानक हुई घटना‌ नहीं है!

 हामी नेपाल:-


नेपाल में जो कुछ हो रहा है वह अचानक हुई घटना‌ नहीं है, यह नेपाल में जातिगत संघर्ष का परिणाम है , नेपाल सरकार द्वारा सोशल मीडिया पर प्रतिबंध तो बस "ट्रिगर प्वाइंट" था।


दरअसल यह सारा मामला तो जातियों के संघर्ष का था जो ब्राह्मण और गुरुंग+मद्धेशिया के बीच का संघर्ष के रूप में परिणित हुआ है। आज के मौजूदा कत्लेआम और प्रधानमत्री "खड्ग प्रसाद शर्मा ओली" के तख्ता पलट की पटकथा एक लंबे संघर्ष का ही परिणाम है , क्योंकि गुरुंग जनजाति और मद्धेशिया जाति नेपाल को पुनः "हिन्दू राष्ट्र" बनाने के आह्वान के विरुद्ध जनजाति नेता "सुदन गुरुंग" और "बालेन शाह" के नेतृत्व में कई साल से संगठित हो रहीं थीं...


आपको याद होगा कि भारत के विभिन्न मीडिया हाउस में नेपाल में "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" के समकक्ष या प्रेरित संगठन "हिंदू स्वयंसेवक संघ" (HSS) के उभार की खबरें प्रसारित की जा रहीं थीं जो नेपाल में हिंदुओं "हिंदू संस्कृति", हिन्दू एकता, उग्र राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्र को बढ़ावा देने का काम करता है इसीलिए HSS को नेपाल का RSS कहा जाता है। ब्राह्मण प्रधानमंत्री केपी ओली उस HSS के समर्थन में थे।


HSS की स्थापना 1992 में हुई थी। यह नेपाल में RSS की विचारधारा को फैलाने के लिए शुरू किया गया, जब नेपाल आधिकारिक रूप से हिंदू राष्ट्र था और RSS के स्वयंसेवकों ने इसकी शुरुआत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नेपाल में HSS का ठीक वही पैटर्न रहा है जैसे भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मगर HSS का दुर्भाग्य यह कि नेपाल में मुसलमान 5.09% ही हैं जो पूरे नेपाल में ना फैलकर नेपाल कज तराई क्षेत्र जैसे रौतहट, पर्सा, बारा, बांके में ही रहते हैं। दूसरे यह कि नेपाल में कभी मुग़ल शासक नहीं रहे जिससे इतिहास को तोड़-मरोड़कर नेपाली लोगों को सांप्रदायिक ज़हर परोसा जा सके, तीसरे पाकिस्तान से उसका दूर दूर तक संबंध नहीं।


अर्थात भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सफलता के तीनों शस्त्र नेपाल में नहीं जिससे वह वहां सांप्रदायिक दंगे करा सके‌ मगर HSS हिंदू पहचान को मजबूत करने, धर्मांतरण को रोकने और सनातन धर्म की रक्षा के साथ साथ "हिंदू राष्ट्र" के लिए वहां काम कर रहा है और नेपाल को हिंदू राष्ट्र के रूप में बहाल करने की मांग करता रहा है।


2008 में नेपाल के धर्मनिरपेक्ष घोषित होने के बाद HSS और ऐक्टिव हुआ और यह यह हिंदू त्योहारों, जैसे दशहरा और विजयादशमी, का आयोजन करके वहां अपना एजेंडा चलाने लगा।


नेपाल लंबे समय तक एक हिन्दू राजतंत्र था और 1768 से लेकर 2008 तक नेपाल एक हिन्दू राज्य रहा। 2008 में नेपाल ने राजशाही को समाप्त करके नेपाल को लोकतांत्रिक गणराज्य (Federal Democratic Republic of Nepal) बनाया गया और उसी समय नेपाल ने अपने संविधान में धर्मनिरपेक्ष राज्य होने की घोषणा की।


HSS इसी के विरुद्ध नेपाल में काम पर वैसे ही लगा हुआ है जैसे भारत में RSS...और गुरुंग जाति  के सुदन गुरुंग इसके सामानांतर "हामी नेपाल" संगठन बनाकर आंदोलन करने लगे।


गुरुंग जाति मुख्य रूप से बौद्ध धर्म या बौद्ध-हिंदू मिश्रित परंपराओं का पालन करते हैं और वह हिंदू वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते। नेपाल में यह मात्र 14% नहीं 2% हैं....और यह जाति समुदाय पूर्वी नेपाल और भारतीय सीमा के निकट रहता है।


इसी गुरुंग जाति के 36 वर्षीय युवा "सुदन गुरुंग" नेपाल के एक प्रमुख युवा कार्यकर्ता‌ उद्यमी और गैर-सरकारी संगठन NGO "हामी नेपाल" के संस्थापक हैं , इसकी स्थापना उन्होंने 2020 में की। सुदन गुरुंग को युवाओं की आवाज के रूप में जाना जाता है। वह युवा पीढ़ी के मुद्दों, जैसे बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पर फोकस करते रहें हैं।


यह संगठन नेपाल के युवाओं की आवाज बनने के लिए भ्रष्टाचार, नेपोटिज्म अर्थात भाई-भतीजावाद और "नेपो किड्स" अर्थात नेता परिवारों के विशेषाधिकार के खिलाफ जागरूकता फैलाने‌ लगे।


एक‌ तरफ HSS दूसरी तरफ़ "हामी नेपाल"...


"हामी नेपाल" को साथ मिला वहां के प्रमुख उद्योगपति दीपक भट्टा का जो इन्फिनिटी होल्डिंग्स के मालिक‌ हैं, शंकर ग्रुप के साहिल अग्रवाल और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित और प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक डॉ. संदुक रुइत का और आंदोलन ने गति पकड़ ली और "ट्रिगर प्वाइंट" मिला नेपाल में सरकार द्वारा 4 सितंबर, 2025 को फेसबुक , व्हाट्सएप, ट्विटर, यूट्यूब सहित 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाना है।


सरकार का तर्क था कि इन प्लेटफॉर्म्स ने नेपाल के नियामक प्राधिकरण के साथ रजिस्ट्रेशन नहीं कराया। प्रतिबंध से युवाओं की कमाई बंद होने का खतरा महसूस हुआ और इसका व्यापक विरोध शुरू हुआ।


ऐसी संभावना है कि यह अमेरिका की एजेंसी CIA के दख़ल से ही शुरू हुआ क्योंकि डॉ. संदुक रुइत को नेपाल में CIA का एजेंट ही कहा जाता है।


आंदोलन ने गति पकड़ी, तमाम मंत्री और प्रधानमंत्री ने इस्तीफा दिया , CIA का एजेंडा सफ़ल हुआ, उसकी तमाम कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने वाली सरकार अपने अंजाम तक पहुंच गई।


9 सितंबर 2025 को सुदन गुरुंग ने आंदोलन से पीछे हटने का ऐलान किया जिसका काठमांडू के मेयर बालेन शाह ने विरोध किया और इसी कारण #BoycottHamiNepal और #BackOffHamiNepal ट्रेंड करने लगा इसके बाद "हामी नेपाल" अचानक इस आंदोलन से पीछे हट गई।


अब इसके बाद 9 सितंबर से यह आंदोलन काठमांडू के मेयर बालेनद्र शाह के नेतृत्व में चला गया।


बालेंद्र शाह को प्यार से उनके समर्थक "बालेन" कहते हैं बालेन शाह नेपाल के एक प्रमुख युवा नेता, रैपर, इंजीनियर और राजनीतिक हस्ती हैं और "जेन-जेड क्रांति" (Gen-Z protests) के बैनर तले नेपाल के मौजूदा आंदोलन का नेतृत्व करने लगे।


35 वर्षीय बालेन शाह काठमांडू में एक "न्यूार बौद्ध" परिवार से आते हैं, न्यूार समुदाय नेपाल की एक प्रमुख स्वदेशी जनजाति है, जो काठमांडू घाटी में रहती है। बालेन एक सफल रैपर और गीतकार हैं। उन्होंने नेपाली हिप-हॉप सीन में अपनी पहचान बनाई, जहां वे सामाजिक मुद्दों जैसे भ्रष्टाचार, युवा बेरोजगारी और सांस्कृतिक पहचान पर गाने गाते हैं। सोशल मीडिया पर वह एक स्टार हैं, जहां उनके वीडियो और लिरिक्स वायरल होते रहे।


2022 के स्थानीय चुनावों में बालेन शाह ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में काठमांडू मेयर का चुनाव लड़ा और नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार को हराकर जीत हासिल की। वह 32 वर्ष की आयु में काठमांडू के सबसे युवा मेयर बने। उनकी जीत को युवा विद्रोह का प्रतीक माना गया, क्योंकि उन्होंने पारंपरिक दलों के खिलाफ वोट मांगे।


बालेन शाह को HSS और भारत का कट्टर विरोधी माना जाता है। उन्होंने नेपाली संस्कृति की रक्षा के लिए काठमांडू में भारतीय फिल्मों और टीवी शो पर प्रतिबंध लगाया।


इसके अतिरिक्त वह अपने कार्यालय में "ग्रेटर नेपाल" का नक्शा लगाते हैं, जिसमें सिक्किम, उत्तराखंड और अन्य भारतीय क्षेत्र शामिल थे, जो भारत-नेपाल सीमा विवाद से जुड़ा माना गया। बालेन शाह को अमेरिका का मोहरा कहा जाता है और अमेरिकी राजदूत डीन आर. थॉम्पसन से उनके गहरे संबंध रहें हैं।


नेपाल सरकार द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाने के बाद शुरू हुए युवा आंदोलन में "हामी नेपाल" के पीछे हटने के कारण "बालेन शाह" ने प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया और काठमांडू में सड़कों पर उतरे और छात्रों के साथ खड़े दिखे।


उन्हें अब नेपाल के अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें HSS पर प्रतिबंध लगाने की संभावना जताई जा रही है। मतलब कि भारत का एक और पड़ोसी उसका दुश्मन होने जा रहा है, और प्रधानमंत्री बस नेपाली में ट्वीट कर रहे हैं...


हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले मंत्री की हत्या कर दी गई, गोली चलाने का आदेश देने वाले की हत्या कर दी गई, पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी को ज़िंदा जला दिया गया....ऊपर से तुर्रा यह कि सहिष्णु हैं और शांति के पुजारी हैं "शांति दूत" हैं....


कुल मिलाकर नेपाल की मौजूदा स्थिति की जड़ कहां है समझ लीजिए , नेपाली बहुत जल्दी समझ गये...



Tuesday, 9 September 2025

फंडी और मुस्लिम बारे जो दादा-नाना ने बताया; पंजाब बाढ़ में वह चरितार्थ होता दिखा!

दादा-नाना से जब भी सामाजिकता बारे जिक्र हुए, इस पहलू पर हमेशा यही सुना-सीखा कि मुसीबत में फंडी व् मुस्लिम में मुस्लिम साथ खड़ा हो जाएगा परन्तु फंडी नहीं; चाहे तुम्हारे ऊपर मौत ही क्यों ना आन खड़ी होवे! मुस्लिम जहाँ मदद को दौड़ेगा; फंडी गिद्ध की भांति नजर गड़ाए खड़ा देखेगा कि कब मरा व् इसका बचा-खुचा मैंने कब्जाया; इस स्तर का नीच व् चांडाल होता है फंडी! सर छोटूराम के काल से जो यह लिगेसी बनी थी, उसको संभाले रखना; यही संदेश रहे उनके, चाहे परोक्ष रूप से कहे या प्रत्यक्ष!


देखो जरा मेवात से ले मुज़फ्फरनगर तक के गामों से मुस्लिम भाईयों के हजूम-के-हजूम कैसे जोश से पंजाब बाढ़ पीड़ितों के लिए रशद के लश्कर-रिसाले ले के पहुंच रहे हैं! ऐसा हुळीया सा चढ़ा आता है इनकी मदद का कि कई बार सोचने लगता हूँ कि पंजाब की मदद में जाट-जट्ट अभी तक ज्यादा पड़े, अन्य साथी बिरादरियां या मेव-मुस्लिम भाई!

कोई कह रहा है यह किसान आंदोलन का असर है, कोई कह रहा है यह जुलाई 2023 में जो जाट व् खापें मेवात के पक्ष में फंडियों को छिंटक, फंडियों के आगे दीवार बन के उतरी उसका असर है; परन्तु जिसका भी असर है, है बहुत सुखद व् आत्मीय!

फंडी कौन होता है: धर्म-जाति के नाम पे आपको अपना कह के फंड-पाखंड रच के तुम्हारा ब्रैनवॉश कर तुम्हें मानसिक व् आर्थिक तौर पर पंगु व् गुलाम बनाने की सोच रखने वाला; चाहे जिस किसी बिरादरी से आता हो! जैसे आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता; ऐसे ही इसकी भी कोई जाति नहीं होती!

जय यौधेय! - फूल मलिक

बाढ़ तो हर साल बिहार-बंगाल-झारखंड-ओडिसा में भी आती है; परन्तु वहां तो नहीं देखे मदद करने को ऐसे टूट के पड़ने वाले कभी, जैसे यहाँ पंजाब में देखे?

कल एक सवाल देखा था: बाढ़ तो हर साल बिहार-बंगाल-झारखंड-ओडिसा में भी आती है; परन्तु वहां तो नहीं देखे मदद करने को ऐसे टूट के पड़ने वाले कभी, जैसे यहाँ पंजाब में देखे?


जवाव: सामंती बनाम उदारवादी जमींदारी में छिपा है! सामंती वर्णवाद पर खड़ी की गई व्यवस्था है, जबकि उदारवादी जमींदारी सीरी-साझी वर्किंग व् किसानी-जजमानी कल्चर पर खड़ी हुई हैं? कभी सुने हैं क्या ये सीरी-साझी व् किसानी-जजमानी वर्किंग कल्चर शब्द बिहार-बंगाल-झारखंड-ओडिसा इन राज्यों में? बस यही वजह है कि वहां हर साल बाढ़ चढ़ने का पता होते हुए भी कभी इंतज़ामात क्यों ना हुए और पंजाब के साथ जहाँ-जहाँ तक (हरयाणा-वेस्ट यूपी, दिल्ली, उत्तरी राजस्थान) उदारवादी जमींदारी है वहां से बाढ़ सहायता की सुनामी क्यों उठी हुई है!


यह वर्किंग कल्चर ही बासिंदों की ऐसी साईकी (psyche) बनाता है कि किसी को कहने की जरूरत ही नहीं, बंदे खुद ही उठ चलते हैं जो बने वह सहायत ले कर| 


सप्ताब (पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी-दिल्ली-उत्तरी राजस्थान यानि मिसललैंड + खापलैंड) बेल्ट्स में भी जिनको उदारवादी जमींदारी व् सामंती जमींदारी के वर्किंग कल्चर का नहीं पता; वह पता करें; भेद स्वत: समझ आ जाएगा| बस इतना बता दूँ कि यह उदारवादी जमींदारा कल्चर या तो सप्ताब में मिलता है या यूरोप के देशों में; ऐसी ग्लोबल psyche है यह!


जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 8 September 2025

नटविधा आ जावै परन्तु जटविधा आणी ओखी!

सार: जुलाई 2023 के हो सकने वाले मेवात-दंगों को रोकने के लिए जो जाट व् खापों को कोसते थे; वही फंडी आज उसी मेवात का पंजाब-हरयाणा की बाढ़ में मदद का जलवा देख के सकते में हैं! जाट-जट्ट-जट ही नहीं तमाम खाप-खेड़ा-खेत फिलॉसोफी की बिरादरियाँ जुटी खड़ी हैं, चाहे रोड़ हों, गुज्जर, यादव, दलित या ओबीसी भाईचारा! 


विस्तार: फंडियों और अंधभक्तों ने इसीलिए तो मेवात व् मेवातियों को बदनाम रखा था कि इनकी अच्छाई समाज के सामने ना आ पाए, यह बदनामी ऐसे ही थी जैसे खापों को हॉनर-किलिंग के नाम पे बदनाम करके, खापों के शहरी तबके को ग्रामीण तबके से पाड़ने के टैंट्रमों की होती थी! यह तो पंजाब की बाढ़ में मेवात से टूट-के-पड़ी बाढ़-सहायता की बाढ़ ने मेवात को मानवता का सिरमौर बना के दिखाया; तब लोगों ने जाना कि क्यों वह जाट और खाप चौधरी सही थे, जो जुलाई 2023 में इन फंडियों के आगे अड़ ये मेवात जलाने के मंसूबों से उल्टे मोड़े थे! तब खापों व् जाटों को अपने मेवाती भाईयों के साथ खड़ा होने पे गालियां देने वाले उन्हीं फंडियों व् अंधभक्तों को आज काटो तो खून नहीं! और जिनका साथ नहीं देने पे यह जाट व् खापों को कोस रहे थे, जरा यह उनके एक ही दर के कुवाड़ ही खुलवा के दिखा देवें; गैर-धर्मी छोड़ो; अपने ही धर्म वालों की मदद हेतु खुलवा के दिखा दें|


खाप-खेड़ा-खेत का दर्शनशास्त्र इतना भी सहज नहीं जो तुम्हारे जैसे टटपुँजियों को इतना सरलता से पल्ले पड़ जाए; भले कितने पोथे व् स्वघोषित ज्ञान के बरोटे बांधे हांड जाओ; यह जाट-जट्ट-जट विधा इतनी आसान नहीं समझनी! वह कहावत यु ही नहीं चलती कि, "नटविधा आ जावै परन्तु जटविधा आणी ओखी"! सर छोटूराम के जमाने की वह लिगेसी जो उन्होंने पेशावर से पलवल तक जोड़ी थी; उसको आज भी कायम रखने, उसके विश्वास को दृढ रखने के इस मेवाती-अदा-ओ-अंदाज ने दुनिया लूट ली!


बाकी इस बाढ़ के काल में जाट-जट्ट-जट ही नहीं तमाम खाप-खेड़ा-खेत फिलॉसोफी की बिरादरियाँ जुटी खड़ी हैं, चाहे रोड़ हों, गुज्जर, यादव, दलित या ओबीसी भाईचारा! 


जय यौधेय! - फूल मलिक

प्रकृति का मौसम विभाग है टिटहरी या टिटूड़ी

🦆
इसके आगे तो वैज्ञानिक भी फैल हैं 👇पहले ही बता दिया था कैसा रहेगा मानसून ⚠️
इस बार टिटहरी ने कई जगह छत पर अंडे दिये, सोशल मीडिया पर बहुत से फोटो ऐसे दिखे जिनमें इस पक्षी ने ऊंचाई पर अंडे दिए थे। जैसे कि।खेत में बने मकान की छत पर 🤷
👉 टिटहरी ने 4 अंडे दिये हो तो समझो 4 महीने बारिश होगी।
👉 टिटहरी ने ऊँचाई वाली जमीन पर अंडे दिये तो समझो बहुत अच्छी बारिश के आसार है इस बार। जो कि सच भी साबित हुआ है ☑️
👉 अगर टिटहरी ने छत पर अंडे दे दिये है तो समझो पानी से तबाही होगी,, कई राज्य बाढ़ की चपेट में है।
👉 कभी आप टिटहरी को कुरुक्षेत्र के अलावा देश मे मृत नही देख सकते
👉 टिटहरी जिस खेत मे अंडे देती है वो खेत कभी खाली नही रहता, अच्छी फसल होती है।
👉 जिस वर्ष टिटहरी अंडे न दे या जमीन में नीचे गड्ढे में अंडे दे तो समझ लो अकाल पड़ेगा या कम बारिश होगी इस साल।
प्रकृति इनसे है, ये प्रकृति के पोषक हैं। जब विज्ञान नही था तब ये थे, प्रभु ने इसलिए इन्हें बनाया। हम खो रहे है और भूगत रहे है। इनको इग्नोर करके , जैसे हिमाचल में बाढ़ आई कुत्ते ने आगाह किया था, जिन्दगी भी बचाई थी 🐕 कुछ लोग अब ज्ञान देंगे साइंस (वैज्ञानिक) युग का तो भाई ऐसा भी हुआ है मौसम विभाग (वैज्ञानिकों) ने भारी बारिश 🌧️ का अलर्ट ⚠️ जारी किया और उस दौरान बूंद तक नहीं पड़ी।

Sunday, 7 September 2025

गर्व है कि मैं ऐसी अणखी-अल्हड़ कल्चर-किनशिप-कौम से आता हूँ!

 गर्व है कि मैं ऐसी अणखी-अल्हड़ कल्चर-किनशिप-कौम से आता हूँ:


पंजाब बाढ़ पर जो एक्का सप्ताब (पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी- उत्तरी राजस्थान यानि मिसललैंड + खापलैंड) ने दिखाया है; कुदरत ते रब दोनों सदके में खड़े लखांदे ने!

क्या मूळे-मेवाती, क्या बांगरू-बागड़ी-खादरी-नरदकी-देसाळी-अहीराळी-ब्रजाळी-पुआदे-दोआबी गाह-के-गेर दी पंजाब को जाने वाले सड़कें; अपनी राहत-सामग्री के लंगर-लश्करों से!

रोको-रोको, थाम्बो-थाम्बो की आवाज लग गई आने कि अभी ब्रेक लगाओ; पहले जो आ गई, वह खपा ली जाए! ऐसे में यह सलंगित नजारा व् गाना; इस पूरे सैलाब को क्या खूब बखां करता है; दोनों के लिए ही, जो बाढ़ में फंसे हैं व् जो राहत-सामग्री पहुंचा रहे हैं:

ओ शेरा ऊठ जरा ते, फिर ओ ही जलवा दिखा अपणा!
बड़ी बेताब है दुनिया, तेरी परवाज देखण नूं!
जे मुद्दा हौंद दा होया, ता तीरां वांग टकरांगे,
असि बैठे नहीं हा, सिर ते उड़ते बाज देखण नूं!
जमाना रुक गया तेरा, ओ ही अंदाज देखण नूं!

जय यौधेय! - फूल मलिक



Wednesday, 3 September 2025

यहाँ के गामों में कोई भिखारी नहीं मिलेगा, कोई भूखा-नंगा सोता नहीं मिलेगा!

यह हद से ज्यादा माइग्रेशन आने के बाद का तो पता नहीं क्या हाल है, परन्तु इससे पहले यानि एक दशक पहले तक की ही ले लो; मिसललैंड+ खापलैंड यानि सप्ताब (पंजाब + दोआब - यमुना-गंगा वाला दोआब) बारे यह कहावत मशहूर रही है कि, "यहाँ के गामों में कोई भिखारी नहीं मिलेगा, कोई भूखा-नंगा सोता नहीं मिलेगा"! यह क्यों रही है इसकी बानगी देखनी है तो अभी पंजाब में आई बाढ़ के चलते, मदद को टूट के पड़े पूरे खापलैंड (उत्तरी राजस्थान से ले धुर लखीमपुर-खीरी से होते हुए पंजाब तक आ जाओ) के एक-एक गाम की बानगी देख लो! पांच एक साल के गैप में दूसरी बार यह झटका देखने को मिल रहा है, किसान आंदोलन में देखा था या अब देख रहे हो!


और इस जज्बे के पीछे जो फिलॉसोफी यानि दर्शनशास्त्र है वह कहाँ से आता है? सिख बाहुल्य इलाकों यानि मिसललैंड में "बाबा नानक की लंगर परम्परा से" व् खापलैंड पर दादा नगर खेड़ों/ दादा नगर भय्यों/ बाबा नगर भूमियों की मूर्तिरहित मर्द-पुजारी-रहित धोक-ज्योत की परम्परा वाले धामों के सिद्धांत में बसते उस सिद्धांत से जो सदियों से इन खेड़ों के पुरखों ने यह कहते हुए स्थापित किया कि, "इतनी न्यूनतम मानवता हर किसी ने पुगानी है कि गाम-नगर-खेड़े/खेड़ी में बसने वाला कोई भी शख्स भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए"!

इन्हीं दो परम्पराओं के चलते सप्ताब बारे यह कहावत चलती आती है कि, "यहाँ के गामों में कोई भिखारी नहीं मिलेगा, कोई भूखा-नंगा सोता नहीं मिलेगा"!

विशेष: दादा नगर खेड़ा वह कांसेप्ट है जिसे खापलैंड की सभी मूल जातियां व् धर्म धोकते हैं!

जय बाबा नानक जी! जय दादे नगर खेड़े/भय्या/भूमिया!

जय यौधेय! - फूल मलिक

अंग्रेज सर की उपाधि उसी को देते थे जो उनका सरपरस्त होता था? ये गलतफहमी आज दूर हो जाएगी!

अंग्रेज सर की उपाधि उसी को देते थे जो उनका सरपरस्त होता था? ये गलतफहमी आज दूर हो जाएगी:


सन् 1941 में विश्व युद्ध के कारण भारत के बाजारों के हालात काफी खराब हो गए थे। जमाखोरी के कारण सभी वस्तुओं के भाव बढ़ गए थे और मजदूरी कम होने के कारण मजदूरों की हालत काफी खराब हो गई थी। इस स्थिति से निपटने के लिए भारत सरकार ने सभी प्रांतों के प्रतिनिधियों की बैठक बुलाई। इस बैठक में चौधरी साहब ने पंजाब की तरफ से भाग लिया और स्थिति से निपटने के लिए ठोस सुझाव दिए।


खाद्यान्नों की गंभीरता को देखते हुए सन् 1943 में भारत ने 'खाद्यान्न नीति समिति' का गठन किया। पंजाब को छोड़कर अन्य प्रान्तों में अन्न का इतना संकट हो गया था कि भारत सरकार अन्न का नियंत्रण एवं राशनिंग करने पर आमादा थी, लेकिन, चौधरी छोटूराम इसका पुरजोर विरोध कर रहे थे।


चौधरी साहब ने पंजाब के किसानों को प्रेरित करना आरंभ कर दिया कि यदि सरकार गेहूं पर नियंत्रण करती है, तो वे अपना गेहूं मंडियों में न बेचें और अच्छे मूल्य पर बेचने के लिए घरों में रखे रहें।


चौधरी साहब के इस प्रचार को सरकार ने एक प्रकार का विद्रोह माना और सन् 1943 में खाद्यान्न कांफ्रेंस बुलाई, जिसमें उन्हें भी बुलाया गया। इस कांफ्रेंस में चौधरी साहब ने गेहूं के नियंत्रित मूल्य को 6 रुपये मन से बढ़कर 10 रुपये प्रति मन करने पर जोर दिया।


यह सुनकर लॉर्ड वेवल ने कहा कि जब भारत के दूसरे प्रान्तों के मंत्री इस प्रस्ताव से सहमत हैं कि गेहूं का मूल्य 6 रुपये मन हो, तो आपको क्याआपत्ति है? इस पर चौधरी साहब बोले कि इन प्रान्तों के पास गेहूं है कहां? इनमें से कई प्रान्त तो गेहूं लेने वाले हैं। केवल पंजाब ऐसा प्रांत है, जो गेहूं देने वाला है। जब हमारे किसान अन्य चीज महंगे दामों पर खरीद रहे हैं, तो गेहूं को 6 रुपये प्रति मन के हिसाब से नहीं दे सकते। वायसरॉय एक प्रांत के मंत्री से ऐसी विद्रोहात्मक उत्तर की आशा नहीं रखते थे। अतः वे उत्तेजित होकर गुस्से में बोले कि वे किसान की कोई मदद नहीं कर सकते।


वायसरॉय वेवल का ऐसा कटु उत्तर सुनकर चौधरी छोटूराम छाती तानकर बोले- "फिर तो, किसान का गेहूं भी 10 रुपये प्रति मन से कम नहीं बिक सकता।"


वायसराय चौधरी साहब के इस उत्तर से बेहद नाराज हो गए और बैठक समाप्त हो गई। बताते हैं कि चौधरी साहब ने यहां तक कह दिया कि यदि सरकार 6 रुपये प्रति मन गेहूं खरीदने पर अडिग रही, तो वे पंजाब के किसानों को कहकर गेहूं की खड़ी फसल में आग लगवा देंगे, लेकिन, गेहूं को 6 रुपये प्रति मन नहीं बचेंगे।


चौधरी छोटूराम के गेहूं के मूल्य के प्रति कठोर रुख को देखकर भारत सरकार परेशानी में पड़ गई। अंग्रेज अधिकारियों ने खाद्यान्न के मूल्यों के संकट के लिए चौधरी साहब को उत्तरदायी ठहराना शुरु कर दिया।


चौधरी साहब के इस कठोर रवैया की प्रतिक्रिया इंग्लैंड में भी हुई और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पंजाब मंत्रिमंडल से निकालने पर जोर दिया, चाहे इससे पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार का पतन हो जाए और पंजाब में धारा 93 लगानी पड़े।


चौधरी छोटूराम को पंजाब मंत्रिमंडल से निकालने की इस मांग से पंजाब के राज्यपाल ग्लेंसी बहुत चिंतित हुए और उन्होंने चौधरी साहब को मंत्रिमंडल में बने रहने की प्रासंगिकता बताते हुए भारत के वायसरॉय को पत्र लिखकर बताया कि चौधरी छोटूराम का गेहूं के मूल्य के बारे में कठोर रवैया इसलिए है कि अन्य राज्यों में पंजाब की अपेक्षा गेहूं के भाव ज्यादा है। यही नहीं, उत्तर प्रदेश और बंगाल में खाद्यान्नों को महंगें दामों में बेचकर भारी मुनाफा कमाया जा रहा है। यदि ऐसा भेदभाव रहा, तो पंजाब का किसान संकट की स्थिति उत्पन्न कर सकता है और पंजाब मंत्रिमंडल ब्रिटिश सरकार को कठिनाई में डाल सकता है।


राज्यपाल ग्लेंसी का वायसराय को लिखा पत्र समयानुकूल एवं प्रासंगिक था, क्योंकि, द्वितीय विश्व युद्ध में गेहूं के उत्पादक पंजाब के किसान के फौजीबेटे मोर्चे पर युद्ध लड़ रहे थे। अतः इस मौके पर किसानों को नाराज करने से भारत में अंग्रेजी राज्य के लिए संकट पैदा हो सकता था। यह सोचकर सरकार ने चौधरी छोटूराम के द्वारा मांगे गए गेहूं के मूल्य में भी 1 रुपया ज्यादा बढ़ाकर गेहूं का मूल पंजाब में 11 रुपये प्रति मन निश्चित कर दिया और इस प्रकार ब्रिटिश सरकार लाचार होकर धरतीपुत्र चौधरी छोटूराम के सामने झुकने पर मजबूर हो गई।


असल में अंग्रेज सर की उपाधि उसको भी देते थे जिसमें दम होता था और ये दम किसानों ने चौधरी साहब को दिया था - By Dharmendra Kawanri from book of Dr. Santram Deswal ji



Tuesday, 2 September 2025

SYL के भूतो, इस फ्यूज्ड मुद्दे के टेस्टिंग टूल मत बना करो!

पहली बात, यह आ भी गई तो ऐसी "मोरी-बंद" आएगी कि इसका 80-90% पानी एनसीआर (दिल्ली-गुड़गामा-फरीदाबाद) की वेलफेयर सोसाइटी वालों को, इंडस्ट्री वालों को व् बहुत सा इन्हीं शहरी क्षेत्रों का धरती का वाटर-लेवल सुधारने के नाम पे शहरी-धरती में डाल-डाल के बर्बाद कर दिया जाया करेगा; और बचा हुआ 10-20% यमुना में जा के गेर दिया जाएगा; थारे पल्ले आवेगी खाली इसकी पाछली धार; वह भी नाम-मात्र तुम्हें बहलाने को! इसलिए इसका जिसको असली फायदा होना है, यह भूत उनके लिए छोड़ दो, यानि एनसीआर के शहरियों के लिए! वहां बवाल काटो व् उनको निकालो बाहर कि लाएं खोद के इसको!


ऐसी बोळी-ख्यल्लो हैं ये इस मुद्दे को उठाने वाले, 99% को तो यही ना पता मिले कि "मोरी-बंद" क्या बला होवै! 


खैर, चाहे किसी के गाम-खेतों की दशकों की सेम ना गई हो आज तक भी, उन्नें भी टेस्ट करने लग जाते हैं कि SYL चाहिए? आहो चाहिए, पर उन गामां की सेम उतारने वाली चाहिए!


सबसे बड़ी बात, यह शुद्ध पावर-पॉलिटिक्स का मुद्दा है, तमाम नेताओं-पार्टियों के लिए; असलियत में यह आनी होती तो हर किसी की स्टेट-सेण्टर दोनों जगह कई-कई सरकारें आई और गई और अभी चल भी रही है| तुम्हें क्या लगता है इतना सब कुछ हाथ में होते हुए भी, यह मुद्दा पब्लिक के लिए कुछ करने का बचता है क्या? सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर्स तक आए पड़े हैं; तो इतना सब होने के बाद भी इसको तुम खोद के लाओगे या कोर्ट-कानून-सरकार को लाना है? और हरयाणा-पंजाब का बच्चा-बच्चा इस बारे जान चुका है, वह भी उन एरियाज का जहाँ तुम इसके जरिए कुछ रस चाहते हो कि यह भिड़ें और तुम्हें रस आवे! कोनी रह रह्या इस तिल में तेल!


आखिरी बात, किसान आंदोलन के वक्त ही इसको टेस्ट कर-कर बावले हो लिए थम; तभी इसकी फूंक लिकड़ गई थी और थम इसको अब बाढ़ के वक्त टेस्ट करने चले हो; आराम दो कुछ अपने सड़ांधले दिमाग व् सोच को! यह हरयाणा-पंजाब तो यूँ ही आपस में मदद करेंगे, व् एक कठ हुए चलेंगे!


जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 1 September 2025

चौधरी छोटूराम और जमीन!

कम पढ़ाई बहुत खतरनाक बात होती है, इसी के कारण चौधरी छोटूराम को समझने में कई भाई भूल कर जाते हैं हकीकत ये है कि चौधरी साहब नहीं होते तो आज जाट, अहीर, गुजर, राजपूत, रोड़, माली, गौड़ ब्राह्मण, चौहान, जांगडा के पास एक कनाल जमीन भी नहीं होती.

पंजाब भूमि हस्तांतरण पर रोक
पंजाब में भूमि के हस्तांतरण को रोकने के लिए चौधरी छोटूराम ने दस जातियों को 'वैधानिक कृषक जनजाति' की श्रेणी में रखवाया। इन जातियों में अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत, रोड़, माली, बिलोच, मुगल, सैयद, पठान जातियां थी।
इन जातियों के लोगों की जमीन गैरजमींदार नहीं खरीद सकता था। 'रहन' पर रखी जमीन की अवधि भी 20 वर्ष से अधिक नहीं हो सकती थी। जाहिर है कि इस वैधानिक कृषक जनजाति कानून से किसान जातियों को न केवल राहत मिली, बल्कि, अत्यधिक लाभ भी हुआ। यदि यह कानून नहीं बनाया जाता, तो इन जातियों के किसानों की भूमि गैरजमींदार खरीद लेते और ये कृषक जातियां भूमि-विहीन हो जाती।
सुरक्षित जाति कानून
सन् 1925 में चौधरी छोटूराम ने निजी प्रयास करके गौड़ ब्राह्मण, चौहान, जांगड़ा और कुरैशी जातियों को भी भूमि हस्तांतरण के संबंध में सुरक्षित जातियां घोषित करवा दिया, जिससे इन जातियों के लोगों को भी इस कानून के अंतर्गत सुरक्षा मिल गई और उनके द्वारा साहूकारों से लिए गए कर्ज के बदले में उनकी जमीन साहूकारों के हाथों में जाने से बच गई, वरना, वे कृषक जमीन रहित होकर दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर हो जाते।