Sunday, 28 February 2021

क्या किसान को लस्सी भी 50 रूपये प्रति लीटर नहीं कर देनी चाहिए, यूँ फ्री में पिलाने की बजाए?

ये टैक्स-भरते हैं, टैक्स-भरते हैं चिल्लाने वालों को बता दो कि जितने का तुम टैक्स भरते हो (95% बड़े-बड़े टैक्स चोर भी तुम ही पाए जाते हो) साल में इतने की तो किसान लस्सी पीला देता है फ्री की, गन्ने चूसा देता है फ्री के; वह भी बिना जाति-वर्ण-धर्म देखे| गाम-कस्बों-शहरों के सरकारी स्कूलों के मास्टर-मास्टरनियों, पीएचसी, आंगनवाड़ी, पुलिस थानों से ले शहरों तक में पूछ लो और खुद में झांक लो मुकाबला करेंगे किसान का| मिनिमम वेज एक्ट व् MRP अपने हाथ में रख के तो टैक्स कोई भी भर दे, किसान की तरह MSP लो और फिर दिखाओ भर के टैक्स| बावजूद MSP पे फसल बेचने के पेट्रोल-डीजल से ले बाजार के तमाम उत्पाद व् सर्विसेज पे बराबर से टैक्स किसान भी देता है| तुम जरा एक महीने फ्री की मांगी लस्सी की बजाये खरीद के पी के देख लो, अंदाजा लग जाएगा किसान की इंसानियत व् जिंदादिली का|

किसानों से अपील: दूध ही 100 रूपये प्रति लीटर मत करो, लस्सी भी 50 रूपये प्रति लीटर कर दो| ये शहर तो शहर, गामों तक में किसान के प्रति जलन-अकड़-हेय-हीनता रखने वालों के दीद्दे बाहर आ जायेंगे, इतने मात्र ही प्रोफेशनलिज्म दिखाने से| लेकिन सिर्फ उनके लिए जो किसान के साथ नहीं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 25 February 2021

जब तक फंडी के साथ "फंडी बनाम नॉन-फंडी" नहीं करोगे, यह सेल्हे से राह नहीं देने के!

फंडी को सबसे ज्यादा घमंड है कि यह "इस बनाम उस" की लड़ाई-फूट कभी भी करवा सकता है| जब तक इसके साथ आप फंडी बनाम नॉन-फंडी नहीं करोगे, यह बाज नहीं आने वाला| यह तुम्हारी "जियो और जीने दो" की थ्योरी को "आगला शर्मांदा भीतर बड़ गया, बेशर्म जाने मेरे से डर गया" मान के तुम्हें कायर मानते रहेंगे और समाज को यूँ ही "सिंगा माट्टी उठाये" फिरेंगे|

कोई ओबीसी या दलित ऐसा नहीं जिसका किसान के साथ फंडी से कहीं कई गुणा ज्यादा व्यवहारिक-इंसानियत-समानता-रोजगारी का रिश्ता नहीं| तो फिर ऐसा क्या है कि फंडी वर्णवाद नाम की दुनिया की सबसे जहरीली अलगाववाद, मानसिक आतंकवाद व् नश्लवाद की थ्योरी पर सवार हो कर इन्हीं ओबीसी व् दलित को शूद्र, छूत-अछूत बता कर इनकी नीचतम दर्जे की हंसी उड़ाता है और फिर भी किसान को इनसे अलग करने में कामयाब हो जाता है?
इसकी सबसे बड़ी वजह है किसान की "जियो और जीने दो" की नीति का मानवता पर समरूप से लागू करना| बस इसमें इतना सुधार करना होगा कि तुम फंडी के साथ फंडी बनाम नॉन-फंडी कर सको| इनको ही समाज के अछूत जिस दिन बना दोगे, शूद्र जिस दिन बना दोगे; तो जंग जीती मानियो| और यह सम्भव भी है, तुम्हारे पुरखों ने किया है; बस उनका इतिहास पढ़ लो, उनके सिद्धांत समझ लो|
और उन्होंने तो इस स्तर तक का किया है कि इन तथाकथित स्वघोषित उच्च वर्गों की औरतें तुम्हारे पुरखों के यहाँ रसोई के रोटी-टूका-बर्तन-भांडे के काम करके जाती रही हैं| हालाँकि ऐसा काम आधुनिक भाषा वाली "MAID" भी करती हैं और करना बुरा भी नहीं| परन्तु इन हद से मुंह-ऊँचे घमंडियों को चिढ़ाने व् इनका पिछोका जताये रखने को ऐसी बातें शीर्ष पर रखना बेहद जरूरी है; तभी यह बेशर्म औकात में आ बगलें झाँकने लायक होते हैं| पहचानों अपने पुरखों की थ्योरियों की शक्तियों को|
हद है इनके उघाड़ेपन की, 85 दिन होने को आये, 90% इन्हीं के धर्म का किसान दिल्ली धरनों पर बैठा है और इनके कानों जूं नहीं रेंग रही? च्योड़-च्योड़ रिफळ-रिफळ ये झाड़ उगा लिए छातियों पे, कदे भाईचारे के ओहडे तो कदे फलानि-धकडी भक्ति के ओहडे; उखाड़ने होंगे ये वक्त रहते|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 24 February 2021

चाचा सरदार अजीत सिंह जी की सोच-आंदोलन-क्रांति की ऊंचाई व् गूँज!

चाचा सरदार अजीत सिंह जी बारे बचपन से जानते पढ़ते आए, वह व् सरदार करतार सिंह सराभा, शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह की प्रेरणा थे यह भी जानते-बताते आये| परन्तु वह कितने बड़े हुतात्मा थे, उनके किसानी योगदान का, उनकी सोच का कद कितना व्यापक था; इसका आभास इस किसान अंदोलन ने ही करवाया|


अब से पहले 20वीं सदी में किसान के उत्थान की शुरुवात सर छोटूराम से ही मानते थे परन्तु अब यह सरदार अजीत सिंह जी के 1907 के किसान आंदोलन के वक्त से पुख्ता हुआ करेगी| क्या-क्या इतिहास-विरासतें ना दे के जायेगा यह किसान आंदोलन| ताज्जुब है कि इस 1907 के इतने विश्वविख्यात किसान आंदोलन बारे कभी स्कूली किताबों में पढ़ने को नहीं मिला| इतना भयंकर आंदोलन और उनसे इतना भय कि अंग्रेजों ने उनको 38 साल के लिए देश-निकाला ही दे दिया था| जानबूझकर नहीं पढ़ाया गया क्या? हाँ, शायद इसीलिए; क्योंकि ऐसे इतिहास पढ़ाए जायेंगे तो कोप-कल्पित कथाओं को इतिहास के नाम पर कौन सुनेगा फिर?

फंडी ना पढ़ाए, परन्तु आप सुनिश्चित कर लीजिये यह लिगेसी यह किनशिप अपनी पीढ़ियों को पास करने की| शायद तथाकथित संघ-शाखाओं वाले जो जैसे राष्ट्रवाद का कॉपीराइट अपने नाम ही लिखवा बैठे हों; आशंका है कि उन तक की शाखाओं में यह किस्से पढ़ाए-बताए जाते हों| ना स्कूलों में ना शाखाओं तो फिर कैसे पास की जाए यह लिगेसी? अपनी बैठकें बनाईये, अपने निर्देशन की लाइब्रेरियां बनाईये; उनको सम्पूर्ण किसानी इतिहास की सच्ची व् वास्तविक लिगेसी व् किनशिप पास करने के सिस्टम बनाईये|

वैसे सरदार अजीत सिंह जी (23/02/1881 से 15/08/1947 तक) व् सर राय रिछपाल उर्फ़ सर छोटूराम (24/11/1881 से 09/01/1945 तक) एक ही साल में जन्मे थे; दोनों की मृत्यु भी आज़ादी से ऐन पहले हो गई और दोनों को ही अंग्रेजों ने देश निकाला दिया था| चाचा अजित सिंह को 38 साल विदेश में ईरान रहना पड़ा जबकि सर छोटूराम का देश निकाला जनता के दबाव में वापिस लेना पड़ा था| सोचिये अगर यह दोनों आज़ादी के बाद 2 - 4 साल और जिन्दा रह जाते तो किसानी के लिए और क्या-क्या ना कर जाते| यही इन पुरखों से मेल खाते जूनून की निरन्तरता चाहिए होगी हमारे आज के किसान अग्गुओं में; तभी टस-से-मस होंगे ये फंडी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Tuesday, 23 February 2021

जमींदारी परिवेश के शहरों में बसे लोगों को कृषि बिलों के नुकसान!

सुनने में आ रहा है कि यह लोग इन बिलों को किसी नए business model अथवा proposal अथवा opportunity की तरह ज्यादा ले रहे हैं, व् कुछ तो इनको ले कर अति-उत्साहित हैं, ज्यादा ही आशान्वित हैं| इनको लगता है कि गाम में किसी को ठेके-हिस्से-बाधे पे जमीन देने की बजाए, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पे बड़े मुनाफे पे, बड़ी कॉन्ट्रैक्ट अमाउंट पे कॉर्पोरेट वालों को देंगे व् शहर में बैठे-बैठे ज्यादा मुनाफा कमाएंगे, "हींग-लगे न फिटकरी, रंग चोखे का चोखा स्टाइल" में बिजनेसमैन बनेंगे|
अगर ऐसा सोचे हुए हैं, वह भी इन बिलों को ना ढंग से पढ़े-समझे तो समझिये गाम वालों से पहले आप लोगों की जमीनें सबसे पहले कुर्क होने तक पहुंचेंगी| वजह बिलों में है वह पढ़ लीजियेगा| फार्म बिल्स का कॉन्ट्रैक्ट क्लॉज़ कहता है कि
1) कॉन्ट्रैक्ट करने वाली कंपनी आपकी जमीन के कागजों पर भारी लोन्स ले सकेंगी|
2) अगर लोन नहीं चुका पाई कंपनी तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा बल्कि उस लोन की वसूली आपकी जमीनों की कुर्की से की जा सकेगी| और ताज्जुब मत मानियेगा, जब आपसे कॉन्ट्रैक्ट करने वाली कंपनी ही आपकी जमीन की कुर्की की बोली में भी शामिल मिलेगी तो| यानि उसी ने आपको उस हालत तक पहुँचाया होगा व् वही आपकी जमीन कुर्की के जरिये खरीद भी जाएगी| तब उसको खरीदने के लिए उसके पास पैसा होगा परन्तु आपकी जमीन पे लिए लोन को चुकाने को नहीं होगा|
3) SDM कोर्ट से आगे आप अपील भी नहीं कर सकेंगे|
मेरे कहे से नहीं समझ आती तो आज ही 3 कृषि बिलों की कॉपी मँगवाइए, इंग्लिश में समझ आती हो तो इंग्लिश में; अन्यथा हिंदी में| यह भी मत सोचना कि आप सयानी बुद्धि दिखाते हुए किसी कंपनी से इन तीन बातों को हटवा के कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लोगे| नहीं होगा, क्योंकि कानून बन चुकी यह बातें अब|
और वैसे भी गाम वालों से ज्यादा कॉर्पोरेट के लिए शहरों में बैठे आप लोग ही सरल-सुगम व् पहला निशाना होंगे| देखियो कदे अब अपने गाम के भाई-भतीजों-अडोसी-पड़ोसियों को जमीनें हिस्से-बाधे पे दे जो मुनाफा कमा लेते हो शहरों में रह कर ही; उससे भी सदा के लिए जाते रहो|
अत: इनको समझो और ग्रामीण किसानों के साथ आवाज उठाओ| वरना आने वाली पीढ़िया गाम वालों को आपसे ज्यादा समझदार आँका करेंगी| और आप कहलाओगे शहरों में बैठी एक ऐसी जमात जो अन्य शहरियों के लिए एक कंस्यूमर मार्किट से ज्यादा कुछ नहीं (होती तो यूँ फरवरी 2016 वाला 35 बनाम 1 होता क्या आप पे?) और गाम-खेड़ों से तो खुद ही छिंटके बैठे हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

दो दिन पहले हुई बीजेपी की गुड़गाम्मा वर्कर्स मीटिंग में हुई किसान को समझाने की बजाए बहकाने के 2-4 मंत्र देने वाली बात का आउटपुट: मोड्डे गाम-गाम शांति महायज्ञ करेंगे!

सावधान किसानों: बीजेपी की गुड़गाम्मा वर्कर्स मीटिंग का आउटपुट आ गया है, जिसके तहत बीजेपी/आरएसएस ने किसान को कृषि बिल समझा के कन्विंस करने की बजाए बहकाने हेतु अपना पैंतरा फेंक दिया है| इस पैंतरे के तहत बाबे/मोड्डों की ड्यूटी लगाई गई है कि गाम-गाम शांति के लिए हवन-यज्ञ-महायज्ञ करवाओ| यानि किसानों को तथाकथित शांत करने के लिए अब गाम-गाम शांति के महायज्ञों का प्रपंच होगा और लोगों को ओपरी-पराई शक्तियां उन पर चढ़ी होने, गाम पर चढ़ी होने के फंड रचे जायेंगे ताकि जिससे मर्द किसान ना भी डरें तो उनकी औरतें डरें (क्योंकि औरत का हृदय ज्यादा कोमल होता है, ज्यादा संवेदना वाला होता है) व् अपने मर्दों को घरों पर बैठा लें| कल ही मेरे गाम-गुहांडों में मोड्डों की भरी गाड़ियां देखी गई हैं जो 2 मोड्डे प्रति गाम उतारती है और अगले में चली जाती है| उनसे पूछा जाता है तो कहते हैं कि गाम की शांति हेतु गाम में महायज्ञ करेंगे| क्या मजाक व् संवेदनहीनता है यह, किसान के मुद्दों का अब यूँ मजाक बनाया जाएगा कि इन प्रपंचों से इनके हल निकलेंगे/निकालेंगे?

साइकोलॉजिकल लड़ाई शुरू कर दी है फंडियों ने, अब इससे जूझना होगा; व् इनसे पार पाना होगा| ले लो इनको अपने पुरखों/बुजुर्गों वाली तर्कशक्ति से बोल के|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 22 February 2021

सिख मिसलों की लंगर परम्परा व् खापों की "गाम-खेड़े में कोई भूखा-नंगा ना सोए" में क्या समानता है?

हर इंसान जिन्दा रहे की इंसानियत वाला धर्म पालने व् अपने कमाए में से भी बाँट के खाने की सबसे बड़ी समानता है| इसी वजह से बीते वक्त तक कहावत चलती आई है कि इन क्षेत्र के गामों में कोई भूखा-नंगा नहीं सोता, शायद आज भी बदस्तूर चलन में है यह कहावत| यही इनके दादे खेड़े कहते हैं कि सर्वधर्म व् 36 बिरादरी बराबर हैं| संवेदना के पैमाने पर औरत, मर्द से पहले है; इसीलिए तो खेड़ों पर 100% धोक-ज्योत औरत ही करती है| भीख-भिखारी का कांसेप्ट ही नहीं इनकी आइडियोलॉजी में|

तो फिर यह खाप वाले, दान-धर्म के नाम पर ऐसे लोगों के चक्कर में क्यों पड़ जाते हैं; जो सिर्फ लेते ही लेते हैं| देने के नाम पर कुछ मिलता है तो घोर मर्दवाद वाला लिंगभेद, वर्णवाद व् छूत-अछूत वाला अलगाववाद, 35 बनाम 1 के नफरती अखाड़े, धर्मस्थलों में एक समूह की मोनोपॉली? या तो इनको भी यह मर्दवाद, वर्णवाद, छूत-अछूत, नफरती अखाड़े व् मोनोपॉली हटवाने की कही जाए अन्यथा ऐसी ताकतों को अपना ध्यान-धन देने का मतलब है समाज में नाजायज अशांति-हेय-नश्लवाद को बैठे-बिठाए न्यौता देना|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 8 February 2021

मोदी का छोटा किसान बनाम बड़ा किसान व् MSP!

लेख का निचोड़: सही मायनों में यह आंदोलन है ही छोटे किसान का, सफल हुआ तो इसके सबसे ज्यादा फायदे होने ही छोटे किसान को हैं|

वो कैसे आईये जानते हैं:
बड़ा किसान: अमूमन 5 या 10 एकड़ से ज्यादा के किसान को बड़ा किसान कहा जाता है| हरयाणा में जितना भी बड़ा किसान है वह सिर्फ किसान नहीं अपितु व्यापारी भी है| वह विरला ही सीजन पर मंडी में फसल उतारता है| बल्कि वह तो अपने अनाज-तूड़े आदि को स्टोर कर लेता है व् ऑफ-सीजन में दिल्ली जैसी जगहों की आटा मीलों व् मंडियों में सीजन से डेड से ले डबल रेट पर बेच कर; आढ़ती या सेठ जो मात्र स्टोरेज के दम पर व्यापार कमाता है; वह यह बड़ा किसान खुद कमाता आ रहा है| और आज से नहीं न्यूनतम सर छोटूराम के जमाने से ऐसा होता आ रहा है; कहीं कोई यह सोचे कि मोदी ने पहली बार मार्किट ओपन की है किसान के लिए; यह जमानों से ओपन है| तो बड़े किसान की चिंता MSP नहीं है अपितु मात्र PAN Card चाहिए होगा बड़े किसान को अपने इस सिस्टम को जारी रखने हेतु|
छोटा किसान: अमूमन 5 एकड़ से कम वाला या 2 एकड़ से कम वाला| बड़े किसान की भांति इसके घर में फाइनेंसियल बैक-अप इतना नहीं होता कि यह एक सीजन की भी फसल ऑफ-सीजन में बेचने तक भी होल्ड करके रख ले| उसको घर-रिश्ते चलाने को तुरंत पैसा चाहिए होता है| इसलिए ऑन-सीजन फसल बेचना/ निकालना इसकी मजबूरी होती है| और मंडी में इसकी मजबूरी का फायदा उठाते हैं खरीददार| जहाँ MSP नहीं है (पंजाब-हरयाणा से बाहर) व् APMC नहीं है वहां तो यह किसान प्राइवेट प्लेयर्स की मेहरबानी पर आश्रित होता है जैसे कि बिहार-बंगाल| ऐसे में इसका आर्थिक शोषण इस हद तक होता है कि घोषित MSP के आधे से कम पर फसलें बेचने को मजबूर किया जाता है| और इस आमदन से तो उसकी फसल की लागत भी पूरी नहीं होती, इसलिए अगली बार फिर से कर्जे उठा के फसल बोता है और यह कुचक्र अंतहीन चला जाता है| इतना अंतहीन कि उसको जमीन बेच कर इस धंधे से अपना पिंड छुड़वाना भला लगता है|
तो अगर MSP पर गारंटी कानून होगा तो हुआ ना छोटे किसान को सबसे ज्यादा फायदा? उसको खेती के खर्चे निकाल के आमदन भी बचेगी, घर के खर्चे निकलेंगे व् कर्जे लेने की नौबत नहीं आएगी| और इन कर्जों के जाल में फंसा के छोटे किसान की जमीन ही सबसे ज्यादा हड़पी जाती है, वह बचेगी|
तो निचोड़ यह है कि यह कानून व् बिना MSP की गारंटी के ऐसे ही चलता रहा तो बड़ा किसान जो आज के दिन व्यापारी भी है, वह मात्र किसान रह जायेगा और छोटा किसान, मात्र मजदूर रह जायेगा; मजदूर भी बंधुआ वाला|
यह ठीक ऐसे ही है जैसे यह सरकार बड़े व्यापारियों (अडानी-अम्बानी) टाइप के शॉपिंग माल्स चलवाने हेतु किरयाना-खुदरा दूकान वालों के पेटों पर लात मार रहे हैं; ऐसे ही कृषि में पहले से स्थापित कृषक व्यापारियों के तो व्यापार खत्म होवेंगे व् छोटे किसान की तो इतनी मर आ जाएगी कि उसको जमीनें बेच के पिंड छुड़वाने पड़ेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 5 February 2021

किसान आंदोलन में खापों के रोल को देख इनके आलोचक भी इनके मुरीद हुए जाते हैं!

सर्वखाप व् मेरी लाइफ-जर्नी ऐसी रही कि दोस्तों से ले रिश्तेदारों ने इनके प्रति मेरे लगाव व् विश्वास बारे मुझे हड़काया-झिड़का, कईयों ने तो इस लगाव को मुझसे अलगाव की वजह बनाया| मेरे सामने से जानबूझ के सोशल मीडिया से ऐसी पोस्टें गुजारी/गुजरवाई जिनमें खापों बारे व्यंग्य या तिरस्कारिता होती थी| परन्तु आज किसान आंदोलन के वक्त इनके रोल बारे जब इन्हीं दोस्तों को इनका मुरीद हुआ देखता हूँ तो आत्मविश्वास आता है कि सर्वखाप के प्रति मेरी सोच, मेरा स्टैंड सही था| लोगों को अक्सर कहता था कि जैसे साँपों के लिपटने से चंदन अपनी शीतलता नहीं छोड़ा करता ऐसे ही खापों में कुछ खराब लोग हो जाने से खाप का कांसेप्ट बेमानी नहीं हो जाता| आज उसी कांसेप्ट ने अपना ऐसा तेज दिखाया कि लगभग मरणास्सन पहुँच चुका किसान आंदोलन रातों-रात जिन्दा हो आया, वह भी दोगुनी ताकत-तेज व् प्रभाव के साथ| ऐसी आभा से उभरा की आलोचकों की आखें चकाचौंध हैं| परिणाम चाहे जो होवे परन्तु आलोचकों की जुबान शब्दहीन हो गई हों जैसे; ऐसी आभा उभरी इस आंदोलन की सर्वखाप के साथ में उठ खड़ा होने से| 


एक दूसरा पहलु जिसको ले कर मेरे दोस्तों में मेरे बारे इसी तरह का रवैया रहता आया है, वह है आर्य-समाज| मेरे को अक्सर सुनने को मिलता रहा कि यह आर्य-समाज व् खापों को छोड़ दे तो हम बहुत आगे बढ़ जाएँ| वह कितना आगे बढ़े इसकी हालत वह भी जानते हैं और उनके अगल-बगल वाले भी| मैं आज भी कहता हूँ कि सिस्टम्स रोज-रोज खड़े नहीं होते| तुम-हम या हमारे पुरखे यहाँ सिस्टम्स बना के फंडियों को देने/परोसने हेतु मात्र को नहीं हैं या थे| कोई नया सिस्टम खड़ा करना या ट्राई करना जितना जरूरी है उससे भी ज्यादा जरूरी है अपने पुरखों के खड़े किये सिस्टम्स से कमियां दूर करके उनकी निरंतरता व् उन पर अपना कब्जा बनाए रखना| और आज वह कब्जा हमारा आर्य-समाज से उठता जा रहा है| दर्जनों-सैंकड़ों लेख हैं मेरे इस बात पर कि किसका क्या कब्जा होता जा रहा है आर्य समाज के कांसेप्ट से ले इसकी प्रॉपर्टीज पर, जमीनों पर| इस पर भी लेख हैं कि आर्य-समाज में क्या कमियां जानबूझकर छोड़ी गई व् क्या अनजाने में छोड़ी गई|  


और ऐसा नहीं है कि खापों के प्रति मेरे लगाव ने मुझे कुछ दिया नहीं| फ्रांस में बैठे हुए को भी जितना ओब्लाइज खाप चौधरी करते हैं मुझे, मैं उसको देखते   हुए, उनका कृतज्ञ भी हूँ और उनसे मिलने वाले आदर-मान, आशीष-आशीर्वाद से अभिभूत भी| बस जरूरत है तो अपने इन बुजृगों से निस्वार्थ व् विश्वास के निहित व्यवहार व् आचार की| इनको बावला मान के इनसे डील करने जाते हो तो यह चुटकियों में पकड़ लेते हैं कि छोरा कौनसी खूंट में बोल रहा; परन्तु व्यापक सामाजिक सरोकार से जाते हो तो यह आपको, आपके आईडिया को अंगीकार करने में पलक झपकने जितनी भी देरी नहीं लगाते| और यह मैं इनके साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव से बता रहा हूँ| 


अब आईये, इस किसान आंदोलन के बाद; आर्य-समाज को संसोधित करवाने का अभियान चलाएं| इनमें जो मूर्ती-पूजक घुस आये हैं उनको निकाल बाहर करें व् जिन दादा नगर खेड़ों के मूर्ती-पूजा रहित कांसेप्ट के आधार पर आर्यसमाज टिका है उसको वापिस लावें| और अबकी बार संस्कृत के साथ-साथ एरिया मुताबिक अपनी मातृभाषा हरयाणवी व् पंजाबी में इसको लावें| हम जल्द ही आर्यसमाज संवाद समिति बनाएंगे, जो हर एक गुरुकुल में सम्पर्क साधेगी व् इनमें घुस चुके फंडियों को इनसे कैसे बाहर किया जाए इस पर मंत्रणाएं शुरू करेगी| मंत्रणा करेगी कि आर्य-समाज वर्जन 2 का नाम यही हो या कुछ और| मंत्रणा करेगी कि दादा नगर खेड़ों को आर्य-समाज से दूर किस षड्यंत्र के तहत रखा गया, जबकि दोनों मूर्ती-पूजा रहित आध्यात्म के कांसेप्ट हैं| मंत्रणा होगी कि सत्यार्थ प्रकाश के 11वें व् 12वें सम्मुलासों में जिस माइथोलॉजी को प्रतिबंधित किया गया वह दिनप्रतिदिन कैसे इन्हीं गुरुकुलों के जरिए समाज में उतारी जा रही है| 

आदि-आदि! 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

किसान आंदोलन एक साइकोलॉजिकल वॉर भी है, जिसको बचाये रखने को किसानों को ठीक वैसे ही डरावे सरकार के आगे खड़े किये रखने होंगे जैसे खेतों में आवारा जानवरों से अपनी फसलें बचाये रखने हेतु खड़े रखते हैं!

1) डरावा नंबर 1: संयुक्त किसान मोर्चा की स्टेजों व् प्रेस कॉन्फरेंसों से यह बात यदाकदा याद दिलाई जाती रहनी चाहिए कि हम तो रामलीला मैदान जाना चाहते हैं, दिल्ली के बॉर्डर्स तो सरकार ने ब्लॉक किये हुए हैं| बल्कि मुख्य स्टेजों के फ्लेक्सों पर यह बात स्थाई तौर से लिखवा दी जाए तो और भी बेहतर|

2) डरावा नंबर 2: हर किसान जत्थेबंदी अपने-अपने फैलाव के गामों से "ग्राम-सभाओं" में इन 3 कृषि कानूनों के विरुद्ध व् MSP गारंटी कानून के पक्ष में रेसोलुशन की 3-3 कॉपियां पास करवा के, एक उस जिले के डीसी को सौंपें, एक स्टेट के मुख्यमंत्री को व् एक सिंघु बॉर्डर किसान आंदोलन के हेडक्वार्टर पर भिजवा देवें| इन कॉपियों को फिर संयुक्त मोर्चा लीगल सेल सुप्रीम कोर्ट में पेश कर दे| इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा तो सरकार से ले सुप्रीम कोर्ट नैतिक प्रेशर में रहेगा क्योंकि "ग्राम-सभा" में पास रेसोलुशन की ताकत इतनी है कि राष्ट्रपति भी उसको यूं ख़ारिज नहीं कर सकता|
3) डरावा नंबर 3: जिस किसी भी धर्म की धार्मिक गुरुद्वारा-मस्जिद-चर्च-मठ-संस्थाएं-संघ-संगठन इस आंदोलन को सपोर्ट नहीं कर रहे या लंगर-दावत-भंडारा तक में सहयोग नहीं कर रहे, उनको बार-बार कॉल देती जाती रहे| इसको योगदान व् समर्थन नहीं माना जा सकता कि किसी धार्मिक संस्था या हस्ती ने ट्रैक्टर्स के बैनर्स पर अपनी फोटो लगवा दी और हो गया योगदान; बाकायदा उनके खजाने के खर्चे से, उनकी खुद की टीमें आ के लंगर लगावें; जैसे गुरूद्वारे व् मस्जिदों वाले लगा रहे हैं| इससे और कुछ ज्यादा नहीं भी होगा तो इनको अंदर से आत्मा सालती रहेगी कि कितने दुष्ट-बेगैरत-कृतघ्न हो तुम कि ताउम्र जिस अन्न-उत्पादक (इन्हीं की भाषा में अन्नदाता) के यहाँ से तुम्हें सबसे ज्यादा दान-चढ़ावे मिलते हैं, मुसीबत की घड़ी में उसी के साथ नहीं खड़े| इनको ऐसे पल्ला मत झाड़ने दो, वरना बर्बाद कर देंगे यह नश्ल की नश्लों को|
4) डरावा नंबर 4: किसान धरनों के जयकारों में अब बाबा टिकैत के नारों को वापिस लौटवाईये व् यह तीनों नारे एक साथ लगाईये-लगवाईये: हर-हर महादेव, अल्लाह-हू-अकबर, जो बोले सो निहाल, शत-श्री-अकाल| तब जा के मनोवैज्ञानिक रूप से कांपेंगे ये| आपके अपने पुरखों के दुरुस्त आजमाए हुए अकाट्य फार्मूला हैं ये, इनको दागिए इन पर|
5) डरावा नंबर 5: अडानी-अम्बानी कॉर्पोरेट के साथ-साथ जो भी अख़बार-टीवी-फ़िल्मी हस्ती - खिलाडी आदि किसान आंदोलन के खिलाफ कोई टिप्पणी करे या सही खबरें ना दिखावे; उनको घोषित बॉयकॉट घोषित कीजिये| इसमें आप यह सोच के ढील देते होंगे कि क्या फर्क पड़ता है बोलते रहेंगे, डेमोक्रेसी है; सही बात है परन्तु इसी डेमोक्रेसी में यह भी कहावत चलती है कि, "अगला शर्मांदा भीतर बढ़ गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया"| इसलिए इनका डेमोक्रेटिक तरीके से ही बोल के प्रतिकार करना, आर्थिक मार से प्रतिकार करना भी उतना ही डेमोक्रेटिक है जितना कि इनका किसान से पक्षपात करना|
6) डरावा नंबर 6: किसानों के ऐतिहासिक आंदोलनों की गाथाएं मंचों से चलवाईये; फिर चाहे वह खालसा व् मिसलों के संघर्ष की हों या सर्वखाप (खाप/पाल) की किसान क्रांतियों के किस्से हों| सर्वखाप, फंडी के लिए बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक एंटी-वायरस है जिसका कि मात्र नाम सुनते ही फंडी को सुनपात होने लगता है| जब इनको धरना स्थलों की स्टेजों से इनके किस्से कथाओं-कहानियों-गानों-गीतों के रूप में सुनाई देंगे तो इनके कानों में रहद पड़ जाएगी व् बुद्धि चक्र जाएगी| इसलिए यह साइकोलॉजिकल मार मारिये इनको व् इन किस्सों को न्यूनतम सुबह-शाम दो बार रोज शुरू करवाइए|
7) डरावा नंबर 7: जिस-जिस भी राज्य में नजदीकी वक्त में विधानसभा चुनाव, जिला-परिषद या ग्राम-पंचायत चुनाव होने हैं; वहां-वहां किसान यूनियनों को किसानों को अपनी मांगों बारे जागरूकता अभियान युद्धस्तर पर चलवाइए व् सरकार के अड़ियल रवैये से अवगत करवाइये| इस मुहीम में लोकल सामाजिक संस्थाओं जैसे कि पंजाब में खालसा-मिसल, हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तराखंड-राजस्थान आदि में खाप/पाल की मदद भी ली जा सकती है|
8) डरावा नंबर 8: न्यूनतम 3 दिन में सिंघु बॉर्डर पर 40 के 40 किसान अग्गुओं का मिलना व् मिल बैठ के मंत्रणा करना आवश्यक किया जाए व् सयुंक्त किसान मोर्चा की प्रेस कांफ्रेंस में आपकी एकता का प्रदर्शन संख्याबल व् शब्दबल दोनों प्रकार से दिखाया जाता रहना चाहिए| किसान लीडरों के लोकल कार्यक्रमों की सूची भी सिर्फ यहीं से जारी हो, एक अकेला कोई भी नेता अपने कार्यक्रम खुद से घोषित ना करे भले ही उसके निर्णय संयुक्त किसान मोर्चा से मंजूरी के ही क्यों ना हों|
9) डरावा नंबर 9: किसी भी निर्वाचित MLA, MP, राजनैतिक पार्टी, हस्ती (सरकार के पक्ष-विपक्ष दोनों), किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता के कार्यक्रमों में किसी भी किसान लीडर को ना जाने दिया जाए|
10) डरावा नंबर 10: बेशक आप अक्टूबर तक की स्ट्रेटेजी बना के रखें परन्तु सरकार पर समय का प्रेशर जरूर बना के रखें कि जल्द-से-जल्द निबटारे पे आवे| क्योंकि इनको यूँ वक्त की ढील दोगे तो यहाँ सुप्रीम कोर्ट तक सालों-साल निबटारे करके नहीं देता, उसी की संवेदनशीलता इतने घटिया लेवल की है तो सरकार में तो अव्वल दर्जे के निखट्टू बैठे हैं| इसलिए इनको समय की ढिलाई ना देवें, एक जायज व् तयबद्ध वक्त में निबटारा करवाने का दबाव जरूर होना चाहिए| क्योंकि जब इन कानूनों को बनाते वक्त सिर्फ 2 महीने लगे व् लागू करते वक्त 2 दिन तो जब लाखों-लाख किसान सड़कों पर बैठे हों तो स्पेशल सेशंस से निबटारे क्यों नहीं हो सकते? एक तरफ तो यह आंदोलन के बढ़ने से देश-धर्म की सम्प्रभुता के खतरे की पीपनी बजाते यहीं और दूसरी तरफ इतनी असंवेदनहीनता कि जैसे कानों पर जूं ही नहीं रेंग रही| यह गैर-जरूरी देरी ना आंदोलन की सेहत के लिए अच्छी ना देश के लिए| अत: कहिये कि बेशक दिन-रात चर्चाएं करवाएं, हम तैयार हैं| चर्चाएं करवाएं व् साथ यह डरावा भी बना के रखें कि कानून लोकसभा-राज्यसभा में ही रद्द करने होंगे व् MSP गारंटी कानून भी वहीँ से बना के देना होगा, कोई कमेटी बना देने या राजपत्र पर लिख के देने भर से आंदोलन खत्म नहीं होगा|
ये इतने साधारण लोग नहीं हैं, यह "चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाए" वाले लोग हैं; पैसे के आगे राष्ट्रभक्ति नहीं लगती इनकी फूफी भी| इसलिए इनको साइकोलॉजिकल प्रेशर हेतु ऊपरलिखित डरावे खड़े किये रखने होंगे, तभी जायज समय में कुछ देंगे ये| वरना तो यह भी मत भूलिए कि इनके पीछे जो सोच इनको पोषित करती है वह वर्णवाद वाली नीचतम अलगाववाद व् नश्लवाद के लोगों की है, उनको फर्क नहीं पड़ता कि आप यहाँ 10 महीने बैठो या 10 साल|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक