Friday, 28 April 2023

विनेश फोगाट और साक्षी मलिक; सत्रहवीं सदी की खाप यौधेया दादीराणी समाकौर मलिक का प्रतिरूप बन गई हैं!

आज से 403 साल पहले; सन 1620, डबरपुर गाम, सोनीपत (उस वक्त गठवाळा खाप की चौधर इसी गाम में थी) की बेटी दादीराणी समाकौर के आह्वान पर मलिक खाप ने सर्वखाप बुलाई व् फैसला हुआ कि सर्वखाप कलानौर रियासत तोड़ेगी| गढ़ी-टेकणा-मुरादपुर में सर्वखाप ने गढ़ी यानि अंडरग्राउंड-फौजी-बैरक बनाई (खापलैंड में जितने भी गामों के नाम में गढ़ी लगा हुआ है; यह सब सर्वखाप की किसी न किसी लड़ाई के कैंप होने की वजह से गढ़ी कहलाये हैं) वहां से कलानौर का घेरा डाला व् अपनी बेटी के सम्मान व् आवाज पर कलानौर रियासत तोड़ दी गई| 


साक्षी और विनेश की भांति ही दादीराणी समाकौर भी उस रियासत के जुल्मों की पीड़ित नहीं थी बल्कि अन्य समाजों पर वहां हो रहे जुल्मों को देख व् उसकी आंच जब उस तक पहुँचने का उसको पता चला तो उसने ऐसी आवाज उठाई कि तमाम खापें ऊठ खड़ी हुई और कर दिया कलानौर का ऊट-मटीला| 


विनेश व् साक्षी आज उसी रूप में नजर आती हैं व् सर्वखाप के चौधरी भी अपनी बेटियों के साथ अड़-खड़े हुए हैं| यह मामला अब एक नाजीर बनेगा जो ना सिर्फ कुश्ती संघ में अपितु तमाम स्पोर्ट्स से ले कॉर्पोरेट जगत तक में होने वाले यौन-शोषणों के लिए बेटियों-बहनों को लम्बे वक्तों तक प्रेरणा व् हौंसला देने वाला किस्सा बनेगा| 


और यहाँ कुछ गधे के बच्चे, बृजभूषण शरण द्वारा बेटियों के शोषण का "सामंती क्षत्रियों वाले ऐटिटूड वाला गंवार-गान" करने में लगे हैं| बेहूदा पोस्ट्स निकाल रहे हैं कि देखो एक क्षत्री ने 1000 फलाणियों का ये किया वो किया: मतलब क्या जंगलीपन है कि इस बात की बड़ाई गा रहे हैं; दिमाग में वासना भरे यह लोग और इन्हीं को क्षत्रिय कहा गया है| देखना कल को इसी पे इन क्षत्रियों को बार-बार धरती खाली करने के दावे करने वाला स्वघोषित ग्रुप इनको इसपे अध्याय भी लिख के देगा कि देखो तुमने फलानों की बहु-बेटियों का शोषण किया; इसलिए तुम वीर क्षत्रिय हुए कि नहीं? इसीलिए मैं इन जाटों समेत तमाम खाप-खेड़े-खेतों के पिछोके वालों को बार-बार बोलता हूँ कि नहीं हो तुम क्षत्रिय; ना सोच से, ना कर्म से ना जीन्स से| तुम प्रोटोस्टेंट स्वभाव के लोकतान्त्रिक लोग हो, उसको समझो व् जैसे थारे पुरखे अवर्ण रहे; वैसे अवर्ण रहो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 27 April 2023

अपने intellect heritage के ही विरुद्ध, भावनावश या अल्पज्ञानवश ही सही जा कर व् उनके व् अपने बीच कोई बाड़ निर्धारित ना करके:

अपने intellect heritage के ही विरुद्ध, भावनावश या अल्पज्ञानवश ही सही जा कर व् उनके व् अपने बीच कोई बाड़ निर्धारित ना करके; जब किसी सामंती स्वर्ण-शूद्र वर्णी व्यवस्था को पोषित करोगे या उसमें फिट होने की कोशिश करोगे तो कहीं-ना-कहीं जा के तो टकराव होगा ही, 'पहलवानों का धरना इसका ताजा उदाहरण है":


विशेष: यह पोस्ट उसी को समझ आएगी जो "genetical ideological and psychological intellectaul heritage" जैसे कॉन्सेप्ट्स समझता/ती होगी| ऊपरी तौर पर इसका मंतव्य है कि कोई भी समाज अनुवांशिक तौर पर किस मनौविज्ञान व् विचारधारा के आधार पर खड़ा है| यह क्या, कितनी प्रकार की होती हैं का अध्याय खोलने की बजाए, ऐसे एक-दो और उदाहरण देते हुए सीधा विषय पर आता हूँ| एक-दो और उदाहरण हैं सत्यपाल मलिक जी ने जो पुलवामा व्  भ्र्ष्टाचार खोला ((खोला पहले भी था, परन्तु रिटायरमेंट के बाद सिक्योरिटी छीनने से आंतरिक तौर पर जब अपमान मिला तो intellect heritage ज्यादा जागृत हुआ व् अति-मुखर हो गए), 13 महीने जो किसान आंदोलन हुआ| इन सब में एक बात कॉमन है; तीनों में ही खाप भी थी और हैं व् जो भूमि इनका उद्गमबिंदु रही वह है मिसललैंड (पहले खापें ही थी, सिख धर्म बनने के बाद मिसल कहलाई) व् खापलैंड| और कई तो जलते-बलते-चिढ़ते यह भी कह देते हैं कि इनमें भी बस एक जाति-विशेष वालों को ही चूल रहती है| 


आगे बढ़ने से पहले सलंगित चार्ट को पढ़ें, तो आगे की पोस्ट ज्यादा सलरता से समझ आएगी|


दरअसल, जैसे "ट्रेडिशनल-व्यापारियों" व् "मोहन-भागवत जी की परिभाषा वाले पंडितों" का एक मूक समझौता रहता है जिसके तहत व्यापारी धर्म के नाम पर पंडित के लिए धर्मस्थल इत्यादि बनाता है; पंडित इसको जैसे प्रचारित-प्रसारित करे; व्यापारी करने देता है| व् बदले में व्यापारी को पंडित से मिलता है धर्मस्थलों के जरिए व्यापार, मनोवैज्ञानिक रूप से व्यापारी की दुकानों की तरफ मोड़ दिया गया क्षत्रिय व् शूद्र वर्ण का ग्राहक व् इन दोनों से भी सबसे जरूरी चीज जो अगर पंडित ना करे तो ट्रेडिशनल-व्यापारी व् पंडित का समझौता एक दिन में टूट जाए| और वह है व्यापारी की सोशल आइडेंटिटी, रेपुटेशन व् सिक्योरिटी की गारंटी| और यही वजह है कि आपने ट्रेडिशनल-व्यापारी समाज के "सामाजिक पहलुओं व् जीवन-शैली की खामियों" पर कभी भी प्रिंट से ले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कभी ऐसी "मीडिया-ट्रायल्स" होती नहीं देखी होंगी जैसी 2000 व् 2010 के दशकों में "खाप", "जाट" व् "हरयाणवी" शब्दों की हुई| व्यापारी व् पंडित आपस में इस तालमेल से चलते हैं जो कि बहुत अच्छी बात है और कोई दो समाज आपस में इतना तालमेल से चलते हैं तो यह अनुसरणीय भी है| परन्तु इस दर्शनशास्त्र का अंत रिजल्ट निकलता है "सामंतवाद", जो कि बाकी दो वर्णों क्षत्रिय व् शूद्र को दबा के रखता है| आप कहोगे कि शूद्र की तो समझ है कैसे दबाता है परन्तु क्षत्रिय को भी? जी, क्षत्रिय को भी, क्योंकि पंडित की मर्जी व् निर्देश के बिना क्षत्रिय एक शब्द नहीं बोल सकता पब्लिक में व् ना ही वह कोई विरोध कर सकता; भले; क्षत्रिय के घरों के आगे से क्षत्रियों को बार-बार मारने वाले क्षत्रियों के पुरखों के कातिल की झांकियां ही क्यों ना निकाले| हालाँकि क्षत्रिय को, अपना यह फ़्रस्टेशन शूद्रों पर निकालने का अधिकार पूरा है| तो यह तो है इनकी सामंती व्यवस्था| 


अब बात करते हैं इसके विपरीत एक "उदारवादी" व्यवस्था की, जो दबंग पर दबंग है परन्तु मानवता को सर्वोपरि रखती है| "दबंग पर दबंग" जैसे कि तीन काले कृषि कानून लाने वाले "दबंगों पर दबंग", सत्यपाल मलिक जी ने जो दबंगों का पुलवामा खोला वह "दबंगों पर दबंग" या अभी जो पहलवान धरना दे रहे हैं "दबंगों पर दबंग"| और इनमें से जो ऊपरी पहरे में बताई "सामंती व्यवस्था" में पड़ गया वह "क्षत्रिय की शूद्र" पर होने वाली अमानवीय दबंगई करता इनमें भी पाया जाता है| 


सलंगित चार्ट पढ़ा होगा तो पाया होगा कि "ट्रेडिशनल व्यापारी + पंडित" जैसा समझौता "खाप-खेड़ा-खेत" वालों का भी हुआ था व् वह कब तक चला, कैसे टूटना शुरू किया गया व् कब-कैसे टूटा आपने चार्ट में पढ़ ही लिया होगा| 


तो बस यह जो आजकल एक क्षेत्र विशेष, एक थ्योरी विशेष की तरफ से जो यह इतने धरना-प्रदर्शन-पटाक्षेप-आवाजें उठ रही हैं इन सबकी की मूल में यही "उदारवादी पुरख इंटेल्लेक्ट" है; जिसको समझ के जब तक साफ़-साफ़ दायरा नहीं समझा जाएगा; यह जद्दोजहद चलेगी ही चलेगी| और इसका सबसे बड़ा दोषी खुद "उदारवादी खाप-खेड़े-खेतों का समाज" है; वह या तो इनसे बैठकर अपने "पुरख इंटेल्लेक्ट" की "सामाजिक सुरक्षा, सम्मान व् पहचान" को फिर से सुनिश्चित व् दृढ़ करे; अन्यथा हल नहीं मिलेंगे; बल्कि ऐसे ही समाज का कोई न कोई तबका रोड़ों पर निकलता ही रहेगा| क्योंकि दबेंगे ये नहीं व् दबाने वाले दबाने से बाज आएंगे नहीं| 


और आज जिस हालत में समाज का "पहलवान वर्ग" आ चुका है, यह इसीलिए हुआ है कि सामंती चीजों को बेइंतहा छूट देते गए व् अब जा के घुटन महसूस होने लगी है; (घुटन तो उनको भी है जो सामंती हैं, परन्तु वो तो इस मॉडल में फिट हैं, बोलेंगे ही नहीं या "विशेष-जाति" की मूढ़मति वाली पट्टी पकड़ के "बिल्ली की तरह, आँख मूँद लेंगे)| यहाँ पहलवान वर्ग को भी अपना यह intellect-heritage पढ़ाये जाने की जरूरत है व् समाज को भी इसको रिवाइज करने की जरूरत है| 


जय यौधेय! - फूल मलिक




Tuesday, 25 April 2023

कराला 17 का इतिहास – दिल्ली का प्रजातांत्रिक अध्याय- जिसका कही जिक्र नहीं।

मेरे गाँव मुंडका पश्चिमी दिल्ली मे है। दिल्ली के भूतपूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा ( लाकड़ा ) इसी गाँव से है। हमारी लोक बातों मे प्रजातन्त्र का जिक्र है पर राजाओ का कही  नहीं है। न अकबर का, न जहांगीर या शाहजहां का, न उनसे पहले कभी किसी हिन्दू राजा का ।  बस औरंगजेब का जिक्र ज़रूर आता है कि हमने उनके खिलाफ कई विद्रोह किए और बहुत खूनी युद्ध लड़े थे। बचपन मे एनसीईआरटी की किताब मे भी पढ़ा था कि दिल्ली की जाटो  ने  औरंजेब के खिलाफ कई विद्रोह किए थे। (मेरे ख्याल से सभी जातिया होती थी शामिल क्योंकि खाप व्यवस्था किसी एक जाति की हो ही नहीं सकती , जैसे गुज्जर तो हमेशा साथ रहे हैं,  पर इतिहासकार सिर्फ एक ही जाति लिख देते हैं।)

हमारी खाप का नाम है पालम 360 जिसमे आज के दिल्ली के 350 और हरयाणा के कुछ तपे जैसे दलाल (84) और कुछ और आते है। उस समय जब औरंजेब से युद्ध होता था तो खाप सेना जो कि वॉलंटियर से बनती थी उसके द्वारा लड़े युद्धो के बारे मे  अक्सर बड़ो से सुनते थे कि  फरसे खून मे संधे आते थे। पालम 360 मे अनेकों तपे आते है – जैसे तिहाड 28, बवाना -52, महरौली 96, शाहदरा घोंडा -24, मान 8, राणा 8 , महिपालपुर 12, सुरहेडा 18,  अलीपुर 17, कादीपुर 12 एवं अन्य । 

हमसे लगान ज़रूर लेते थे, पर हमारे गांवो के अंदरूनी मामले मे किसी बादशाह की हिम्मत नहीं थी कि हस्तक्षेप करे। औरन्गजेब ने कि और वह असफल रहा – दिल्ली के सभी गाँव हिन्दू रहे। पहाड़ी धीरज गाँव जिसकी जमीन पर लाल किला बना हुआ है, वह भी हिन्दू है। हिन्दू से मेरा मतलब हिन्दुत्व वाले नहीं- प्रजातांत्रिक हिन्दू एक अलग कैटेगरी है जो कि आरएसएस वाले हिन्दुओ से अलग है। 

अब आते है कराला 17 के इतिहास पर :

पश्चिमी दिल्ली मे यह एक 17 गांवो की confederation है। कराला गाँव को इसका headship यानि चौधर है।  किसी वक्त पर इन 17 गांवो की headship सैयद नांगलोई गाँव को सौप रखी थी। यह गाँव अफगानों का था। अफगानों का मुगलो से 36 का आंकड़ा रहा था। अफगान हथियार बनाने और रखने का काम करते थे। जब भी कोई मुगलो से लड़ाई की चुनौती  आती तो यह गाँव हथियार सप्लाइ करता तपे या खाप की सेना को। इसलिए सम्मान के रूप मे इस गाँव को चौधर सौप राखी थी। सैयद नांगलोई गाँव भी बड़ी बेहतरीन तरीके से संचालन का काम कर्ता। पंचायत मे हुक्के पानी और खाने का पूरा इंतजाम करता। 17 गांवो मे चिट्ठी बांटना दुरुस्त करता। पर समय के साथ सैयद गाँव थक गया और आए पंचायत करके मुंडका को headship यानि चौधर सौप दी गयी। काफी समय , शायद  एक दो शताब्दी तक यह चौधर मुंडका गाँव के पास रही।

पर एक समय एक दिक्कत आई। डबास गोत्र के दिल्ली मे काफी गाँव है जो पुराने समय मे दहिया खाप के अंतर्गत आते थी। मुंडका के पास डबासो के कई गाँव है। डबास मुंडका के जंगलो मे अतिक्रमण करने लगे । उस समय जंगल गौचर  और फॉरेस्ट प्रोड्यूस और अन्य कामो मे बहुत आवश्यक था। ऐसे मे मुंडका गाँव के समर्थन मे कराला गाँव तुरंत मदद करने पहुंचा और इस तरह मुंडका गाँव के जंगल अतिक्रमण से बच पाये। 

समय पर मदद करने  का एहसान चुकाने के लिए मुंडका गाँव ने मुंडका-17 की चौधराहट कराला गाँव को एक पंचायत करके सौंप दी। कराला गाँव ने यह ज़िम्मेदारी सह सम्मान ली। इस तरह मुंडका -17 से कराला -17 नामकरण हुआ। 

इन 17 गांवो कि लिस्ट मे कुछ गाँव इस प्रकार है – मुंडका, नांगलोई, निलोठी, रनहोला, पीरा गढ़ी, मंगोल पुर, सुल्तानपुर, पुंठ कलाँ, किराडी, इत्यादि । By: Diwan Singh Mundka

Friday, 21 April 2023

अगस्त 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप से अंग्रेजों की विदाई और सितम्बर से लगभग 1.5 करोड़ लोगों की बर्बादी की शुरूआत!

हर साल की तरह इस बार भी 14 व 15 अगस्त को भारत व पाकिस्तान में अंग्रेजों से मुक्ति का जश्न बड़ी धूमधाम से मनाया गया | इस खुशी के साथ ही उस समय के लगभग 1.5 करोड़ लोगों ( जिनके बारे में आंकड़ों और कारणों का मैं इस लेख में विस्तार से वर्णन कर रहा हूं ) की बर्बादी की दास्तान जुड़ी हुई है | अगर वर्तमान की जनसंख्या के हिसाब से अनुमान लगाया जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग 6 करोड लोगों के परिवारों से ये बर्बादी की यादें जुड़ी हुई हैं | इस बारे में उसी समय एक लेख लिखने का विचार आया था लेकिन फिर मन में आया कि इस खुशी के मौके पर निराशाजनक यादों को याद दिलाना ठीक नहीं है| इसलिए तय किया कि या तो सितम्बर के प्रथम सप्ताह या फिर सितंबर के दूसरे सप्ताह में इस पर लेख लिखूंगा | इसलिए आज 12 सितंबर को मैं प्रवीन कुमार, तहसील बादली,जिला झज्जर ये लेख लिख रहा हूं जो संभवत: कल तक पूरा कर लूंगा |

अगस्त 1947 में अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप को छोड़ने की घोषणा की तो यहां के लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा | लेकिन इसके साथ ही अंग्रेजों ने घोषणा की कि भारतीय उपमहाद्वीप को दो टुकड़ों इंडिया और पाकिस्तान के रूप में बांटा जाएगा | विभाजन की इस नीति से कुछ लोगों को बहुत दुख हुआ और उन्होंने विरोध किया | लेकिन बहुसंख्यक जनता की खुशी में उनकी बातें दब गई क्योंकि जनता को निकट भविष्य में आने वाली भयानक त्रासदी का पता नहीं था | 14-15 अगस्त को ब्रिटिशर्स और पाकिस्तान की तरफ से मुस्लिम लीग और भारत की तरफ से कांग्रेस ने 'ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर एग्रीमेंट ' पर साइन किए थे | 17 अगस्त तक लोग इस बात से अनभिज्ञ थे कि कौन सा क्षेत्र पाकिस्तान में जाएगा और कौन सा क्षेत्र भारत में रहेगा | लेकिन वह अपनी अपनी समझ के हिसाब से अनुमान लगाकर खुशी मना रहे थे | भारत के कुछ मुस्लिम बहुल क्षेत्रों जैसे मालदा, मुर्शिदाबाद आदि में लोगों द्वारा पाकिस्तान के झंडे फहराए जा रहे थे | जबकि थारपरकर , खुलना आदि गैर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी भारत के झंडे फहराए जा रहे थे | भारत छोड़ने की घोषणा के बाद अंग्रेजों को भारत पाकिस्तान के बंटवारे के लिए दोनों की सीमा निर्धारण के बेहद जटिल कार्य को अंजाम देना था | पंजाब और बंगाल का विभाजन होना था | लेकिन इसके विभिन्न क्षेत्रों को लेकर मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस ने अपने-अपने दावे रखे | असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह कराने की बात पर सहमति हुई | सिंध,बलूचिस्तान और उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत का पाकिस्तान के साथ जाना तय था | अंत में अंग्रेजों ने किसी भी एक पक्ष के दावों को एक तरफा न मानते हुए अपने अनुसार सीमा निर्धारित कर दी | 17 अगस्त को अंग्रेजों ने भारत पाकिस्तान की सीमा रेखा की घोषणा करके स्थिति को स्पष्ट कर दिया |
भारत विभाजन क्यों हुआ ? इसके लिए कौन जिम्मेदार था ? इस संबंध में विभिन्न पक्षों की अलग-अलग धारणाएं और तर्क हैं | किसी का तर्क है कि सबसे पहले हिंदू महासभा और संघ द्वारा दिया गया द्विराष्ट्र सिद्धांत भारत विभाजन के लिए जिम्मेदार है | जबकि दूसरा पक्ष कहता है कि मुस्लिम लीग और कट्टर इस्लाम इसके लिए जिम्मेदार था | एक पक्ष यह भी कहता है कि कांग्रेसी नेताओं और नेहरू ने सत्ता प्राप्ति के लालच में भारत विभाजन के प्रस्ताव को जल्दबाजी में स्वीकार कर लिया | लेकिन अगर गहराई से अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि ये सभी संगठन कहीं ना कहीं अंग्रेजों द्वारा निर्मित अथवा पोषित संगठन रहे हैं | इन्होंने कभी न कभी अंग्रेजों के हितों की ही पूर्ति की है और हमेशा शोषक वर्ग के हितों के लिए खड़े रहे | आज के समय में इन्हीं संगठनों की वैचारिक संताने एक दूसरे को विभाजन के लिए जिम्मेदार बताते हैं | जिससे विभाजन के वास्तविक कारणों की तरफ ध्यान ही नहीं जाता | जबकि उस समय यह सारे संगठन एक दूसरे से जुड़े हुए थे | इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि ब्रिटिश समय में कई बड़े नेता हिंदू महासभा और कांग्रेस दोनों के सदस्य थे | इसके अलावा सिंध और बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चलाना भी इस बात की पुष्टि करता है | इस तरह हम विभाजन के वास्तविक कारणों तक नहीं पहुंच पाते और आपस में सतही बहस में लगे रहते हैं |
विभाजन अकेले भारत का नहीं हुआ| अगर आप अंतर्राष्ट्रीय इतिहास उठा कर देखेंगे तो आप पाएंगे कि यूरोपियन शक्तियों का दुनिया के बहुत बड़े क्षेत्रों पर आधिपत्य था | दूसरे विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी शक्तियां बेहद कमजोर हो गई थी | इसलिए उन्होंने उपनिवेशों को छोड़ने का निर्णय लिया | जब वे उपनिवेशों को छोड़कर गए तो उन्होंने उन क्षेत्रों को विभिन्न छोटे-छोटे देशों में बांट दिया चाहे भले ही उसके लिए कोई आंदोलन हो रहा था या नहीं | जाते जाते अपनी लूट को जारी रखने के लिए वे अपने समर्थकों को सत्ता सौंप कर चले गए | लेकिन भविष्य में उन्हे भय था कि किसी भी सांस्कृतिक क्षेत्र की कोई ट्राईब् संगठित होकर नए लोकतांत्रिक ढांचे में उनके लिए समस्या पैदा कर सकती है | ब्रिटिश समय में हुए चुनाव में पंजाब और बंगाल में चुनकर आई हुई किसान व गरीब समर्थक सरकारों द्वारा उन वर्गों के लिए किए गए कार्य और प्रयासों ने उनकी शंका को भारत के संबंध में भी यकीन में बदल दिया था | इसलिए उन्होंने उपनिवेशों को विभिन्न देशों में बांटने का निर्णय लिया चाहे इसके लिए कोई भी तर्क देना पड़े | अरब प्रायद्वीप, अफ़्रीका और हिंद चीन के देश इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं | अरब प्रायद्वीप ,हिंद चीन के देश और अफ्रीका के विभिन्न उपनिवेश भारत की अपेक्षा कम सांस्कृतिक ,भाषाई ,धार्मिक और भौगोलिक विभिन्नता के होने के बावजूद विभिन्न देशों के रूप में बांट दिए गए |
विभाजन का सबसे दुखदाई पहलू लोगों का विस्थापन था | शुरुआत में आम लोग इस बात से अनजान थे कि 'ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर एग्रीमेंट' में विभाजन के साथ-साथ पंजाब में लोगों की अदला-बदली की शर्तें भी हैं | यहां यह बात गौर करने लायक है कि जनसंख्या की अदला-बदली केवल और केवल पूर्वी और पश्चिमी पंजाब के मध्य ही होनी थी | बाकी प्रांतों के लिए इस तरह का कोई समझौता नहीं था | अगस्त समाप्त होते-होते लोगों को विस्थापन का भय डराने लगा | 99% लोग अपनी मातृभूमि को छोड़कर जाना ही नहीं चाहते थे | चाहे वह किसी भी धर्म से संबंध रखते हैं | सितंबर महीने की शुरुआत से ही पूर्वी तथा पश्चिमी पंजाब में सेना तथा कट्टर धार्मिक संगठनों द्वारा लोगों को जबरदस्ती उनके घरों से बेदखल किया जाने लगा | पश्चिमी और पूर्वी पंजाब में बहुत से ऐसे उदाहरण हैं जब लोगों ने सामूहिक रूप से जिला अधिकारियों से कहा कि वे अपना धर्म परिवर्तन कर लेंगे | लेकिन अपनी मातृभूमि को नहीं छोड़ेंगे | अधिकारियों ने ऊपरी आदेश बताकर उनकी इस बात से असहमति जताकर इंकार कर दिया | यह बात इस तथ्य पर मोहर लगाती है कि विभाजन का असली कारण धर्म नहीं था | जैसा कि ऊपरी तौर पर बताया जाता है | एक दूसरा तथ्य भी है जो इस बात की पुष्टि करता है कि अगर धर्म की वजह से विभाजन हुआ था तो जनसंख्या अदला-बदली का समझौता केवल पंजाब के लिए नहीं होता | बल्कि सभी प्रांतों के लिए होता | दरअसल विभाजन के बाद पंजाब में जनसंख्या अदला-बदली का मुख्य कारण डेमोग्राफी का बदलाव करना था | ताकि भविष्य के लोकतांत्रिक ढांचे में पूंजीपति शक्तियों को चुनौती देने वाली फिर से कोई यूनियनिस्ट पार्टी न खड़ी हो जाए | लोग अपनी मातृभूमि को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे| इसलिए हिंसा का दौर शुरू हुआ | लाखों लोगों की हत्याएं हुई और हजारों औरतों की इज्जत को तार-तार किया गया | जिसके कारण हिंसा की आग अकेले पंजाब तक सीमित नहीं रही | बल्कि पूरे भारत में फैल गई | इस हिंसा के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग 1.45 करोड़ लोग विस्थापित हुए | लाखों लोगों की हत्याओं के आंकड़ों के संबंध में अनुमान अलग-अलग हैं यह अनुमान 2 लाख से लेकर 10 लाख से भी ज्यादा तक के हैं | हत्याएँ दोनों पक्षों की हुई थी | इन्हीं की वजह से लोगों को मजबूरीवश स्थानांतरण करना पड़ा | जनसंख्या स्थानांतरण में कितने लोग इधर से उधर गए या उधर से इधर आए उसके वर्णन निम्नलिखित है :-
विभाजन के बाद के विस्थापन में लगभग 1.45 करोड़ लोगों ने सीमा को पार किया था | दोनों तरफ से संख्या लगभग बराबर थी |
1951 की जनगणना अनुसार भारत से पाकिस्तान पहुंचे विस्थापितों की कुल संख्या -72,26,600 ( लगभग सभी मुस्लिम)
1951 की जनगणना अनुसार पाकिस्तान से भारत पहुंचे विस्थापितों की कुल संख्या - 72,95,870 ( हिन्दू,सिक्ख,ईसाई,बौद्ध आदि )
1.12 करोड़ (77.4℅) विस्थापित पश्चिमी भागों में थे| 65 लाख मुस्लिम भारत से पश्चिमी पाकिस्तान गए थे और 47 लाख हिंदू ,सिख ,ईसाई आदि पश्चिमी पाकिस्तान से भारत आए थे | इसलिए पश्चिमी पाकिस्तान में भारत से शुद्ध विस्थापन 18 लाख था|
33 लाख (22.6℅) विस्थापित पूर्व में थे | 26 लाख हिंदू , बौद्ध , ईसाई आदि पूर्वी पाकिस्तान से भारत आए तथा लगभग 7 लाख मुस्लिम भारत से पूर्वी पाकिस्तान अर्थात बांग्लादेश में गए | इस प्रकार पूर्वी पाकिस्तान से भारत में शुद्ध विस्थापन लगभग 19 लाख था | इस प्रकार क्षेत्रवार असमानता के बावजूद दोनों देशों से लगभग बराबर की संख्या में लोगों का विस्थापन हुआ था |
अब भारतीय राज्यों के आधार पर आंकड़ों पर थोड़ा प्रकाश डालता हूं ताकि इस बात का पता चल सके कि किस क्षेत्र के लोगों को सबसे अधिक त्रासदी झेलनी पड़ी थी |
भाग-क :- भारत से पाकिस्तान गए लोगों की संख्या क्षेत्रवार या राज्यवार
1. जम्मू+पंजाब+हिमाचल प्रदेश+हरियाणा+दिल्ली+राजस्थान व अजमेर से पाकिस्तान गए लोगों की कुल संख्या 57,85,100 थी |
इनमें जम्मू से लगभग 2.5 लाख,राजस्थान व अजमेर से लगभग 4.5 से 5 लाख,दिल्ली से लगभग 91 हजार,हिमाचल प्रदेश से संख्या एक लाख से कम ही थी | इन राज्यों से गयी आबादी को 57,85,100 में से घटाकर शेष सारी आबादी पंजाब व हरियाणा से गई थी |
2. बिहार , झारखंड ,उड़ीसा ,पश्चिम बंगाल व आसाम आदि से पूर्वी पाकिस्तान में जाने वाले मुस्लिमों की संख्या लगभग 701300 थी जिसमें ज्यादा हिस्सा पं बंगाल से जाने वाले लोगों का था|
3. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से 464200 मुस्लिम पाकिस्तान गये थे |
4. पुराने बम्बई प्रांत से अर्थात गुजरात ,महाराष्ट्र के पश्चिम के 13 जिले व उत्तरी कर्नाटक के 4 जिलों से 160400 मुस्लिम पाकिस्तान गए थे|
5. मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़ ,तेलंगाना ,पुरानी हैदराबाद रियासत में आने वाले कर्नाटक व महाराष्ट्र के क्रमशः 3 और 5 जिले तथा महाराष्ट्र के विदर्भ और बरार के क्षेत्र से लगभग 91200 मुस्लिम पाकिस्तान गए जिनमें से ज्यादातर भाग भोपाल और हैदराबाद शहर से था |
6. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और मैसूर रियासत जिसमें मध्य तथा दक्षिण कर्नाटक आता है से लगभग 18 से 20,000 मुस्लिम पाकिस्तान गए थे |
भाग-ख :- पाकिस्तान से भारत आने वाले लोगों की कुल संख्या भारतीय राज्यों या क्षेत्रों के अनुसार
1.जम्मू में पाकिस्तान से लगभग 113000 लोग आए |
2.पंजाब +हरियाणा + चंडीगढ़ + हिमाचल में पाकिस्तान से लगभग 2739590 लोग पहुंचे |
3.दिल्ली में पाकिस्तान से पहुंचे विस्थापितों की संख्या 495391थी| 4.अजमेर व राजस्थान में विस्थापितों की संख्या का आंकड़ा 368367 था |
5.पुराना मुंबई प्रांत जिसमें गुजरात पश्चिमी महाराष्ट्र के 13 जिले और उत्तरी कर्नाटक के 4 जिले शामिल में पाकिस्तान से 409882 लोग आए थे|
6.पश्चिमी बंगाल में लगभग 21लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर पहुंचे थे|
7.त्रिपुरा असम व अन्य पूर्वी राज्यों में यह विस्थापितों का आंकड़ा लगभग 4 लाख था |
8. पाकिस्तान से आये शेष लोग दूसरे क्षेत्रों में बसाए गये थे |
यह सारे आंकड़े 1951 की भारत और पाकिस्तान की जनगणना से लिए गए हैं |अपनी तरफ से मैंने काफी प्रयास किया है कि इनमें कोई त्रुटि ना हो | कुछ राज्यों का अनुमान भी लगाया है जो आंकड़े अलग-अलग नहीं थे | अगर किसी साथी को तथ्यात्मक रूप से आंकड़ों में कुछ गलती दिखाई दे | तो मैसेंजर पर मेरे को सूचित करें ताकि मैं उनको ठीक कर सकूँ |
अंत में निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि भारत से अंग्रेजों का छोड़कर जाना जितना खुशी का विषय था उतना ही दुखदाई भी था | इसके साथ ही करोड़ों लोगों ने भयंकर त्रासदी को झेला | इसके साथ ही एक लंबे समय तक के लिए समाज में नफरत की खाई खोद दी | विभाजन की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान तुलनात्मक रूप से पंजाब और पंजाबियत को हुआ था जिसकी भरपाई कभी नहीं की जा सकती | लेकिन विभाजन के कारणों और वास्तविकता का पता लगने से हम समाज में नफरत की गहरी हुई खाई को पाटने की तरफ एक प्रयास जरूर कर सकते | ताकि आने वाली पीढ़ियां नफरत की आग में जलने की बजाय अपने जीवन में सुधार और प्रगति की तरफ अग्रसर हो सके और एक सुखमय जीवन जी सकें | धन्यवाद !
लेखक :-प्रवीन, तहसील बादली, जिला झज्जर

आज "ईद-उल-फितर" के मौके पर आईए जानते हैं कि वेस्टर्न यूपी के मुस्लिम भारत-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त पाकिस्तान ना जा के यहीं क्यों रह गए थे!

एक लाइन का जवाब है: सर्वखाप पंचायत के चौधरियों की वजह से| एक चींटी तक नहीं फटकने दी थी सर्वखाप ने इस हिंसा-हेय के नाम पर खापलैंड में, वेस्टर्न यूप में तो खासतौर से| 


आप जब खाप-पंचायतों का इतिहास पढ़ते हैं तो आपको 1947 में "कांधला सर्वखाप पंचायत" का चैप्टर मिलता है| हुआ यह था कि उस वक्त जब हिन्दू-मुस्लिम मारकाट चल रही थी व् दक्षिण से ले मध्योत्तर भारत से मुस्लिमों को पाकिस्तान जाने का रास्ता अधिकतर पंजाब बॉर्डर से था जहाँ से दोनों तरफ से धर्म-आधारित जनसंख्या के पलायन हो रहे थे व् देश के नए बॉर्डर की तरफ कई जगह भारी दंगे भड़क गए थे| और क्योंकि खाप-पंचायतें, हमेशा मानवता पर नश्लीय हेय व् हिंसक अति होने के विरुद्ध रही हैं; क्योंकि यह बसासत में गणतांत्रिक हैं व् न्याय यानि सोशल-सिक्योरिटी देने में लोकतान्त्रिक तो जब खाप चौधरियों ने यह देखा तो तुरंत "कांधला" में सर्वखाप पंचायत बुलाई गई और ऐलान हुआ कि खापलैंड से कोई पलायन नहीं होगा; जो जहाँ है वहीँ रहे| इसका वेस्टर्न यूपी में तो इतना जोरदार संदेश गया कि ना तो एक भी दंगा हुआ व् शायद ही कोई-कोई मुस्लिम पाकिस्तान गया इधर से| 


और यही वह गणतांत्रिक व् लोकतान्त्रिक सोशियोलॉजी थी, जिस पर तब के यूनाइटेड पंजाब में सर छोटूराम व् यमुनापार चौधरी चरण सिंह की धर्मरहित राजनीति इतनी परवान चढ़ी कि एक ने आज़ादी से पहले ही यूनाइटेड पंजाब पर 25 साल निरतंर राज किया व् दूसरा आज़ादी के बाद देश का प्रधानमंत्री बना| 


बंधे रहिए सभी धर्म व् जातियों के साथ, इस एकता व् पुरख-सोशियोलॉजी से व् इसकी प्रमोशन कीजिए! 


आप सभी को "ईद मुबारक"!


जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday, 18 April 2023

सत्यपाल मलिक जी का इंटरव्यू, क्षत्रिय व् अवर्णीय का फर्क क्रिस्टल क्लियर कर देता है!

अवर्णीय यानि पांचवा वर्ण यानि जो ना स्वभाव से, ना कल्चर से, ना DNA से, ना किनशिप से चतुर्वर्णीय व्यवस्था में फिट बैठता और ना बैठा कभी| ऐसा व्यक्ति चतुर्वर्णियों के साथ काम कर भी लेगा तो उसका प्रोटोस्टेंट स्वभाव फायर-बैक करेगा-ही-करेगा| कर्ण थापर का इंटरव्यू इसकी बानगी है| J&K 370 हटना, UT बनना, सरकार भंग करना; सब वहां इनके कार्यकाल में हुआ व् इन्हीं को देश में Z सिक्योरिटी नहीं तो फिर कौन डिसर्व करता है? व् इसी से उनके आत्म-सम्मान को ठेंस लगी है व् उनका भय भी सच्चा है कि क्या मुझे यह लोग ऐसे मुफ्त में ही निबटाना चाहते हैं? जनता ने भी अब सुनी उनकी बात, वरना 2 बार टीवी पे तो वो 2019 में ही बोल चुके थे| खैर, बीजेपी ने इनके साथ जो व्यवहार किया व् उसपे जिस तरह से आरएसएस चुप है; इससे इतना तो है कि कोई भी सत्यपाल जी की बिरादरी का जो इनसे साथ जुड़ा है वह यह नहीं कह सकेगा कि हमें आरएसएस में यथोचित स्थान व् सम्मान दोनों हैं व् उसकी गारंटी भी है| 


इधर, अपमान व् डिग्रडेशन तो जो पहले गृहमंत्री थे फिर दूसरे नंबर से तीसरे पे डिफेंस में खिसका दिए गए; मोदी ने सरेआम कितनी बार उनका पब्लिकली अपमान भी किया तो भी वह एडजस्ट करके चलते आ रहे हैं| क्योंकि क्षत्रिय को चतुर्वर्णीय व्यवस्था में शिक्षा ही यह है कि चुप रहो| वीरता भी दिखानी है तो जब बोला जाए तब| 


तो यही है अवर्णीय व् क्षत्रिय का फर्क| नादाँ हैं यह "अवर्णीय" जो खामखा अपने DNA, किनशिप एथिक्स सब से लड़ते हैं व् ऐसी व्यवस्था में घुसने को आतुर हैं जो इनकी अंतरात्मा को स्वीकार हो ही नहीं सकती; हकीकत सामने आने पर वह ऐसे ही उबाल मारती है जैसे सत्यपाल मलिक जी की ने मारा| 


लोग कहते तो हमें भी है कि हम तो अपनी जॉब या बिज़नेस सिक्योरिटी के चलते इनमें शामिल होते हैं; इतना भर हो तो सही भी है परन्तु यह लोग इनका प्रचार, प्रसार व् आत्मसात करने तक पहुँच जाते हैं; जिसका सीधा-सीधा असर इनके बच्चों पर पड़ता है व् इसी को "शूद्रता" कहते हैं| 


जिनको शूद्र कहा गया है उनको भी इनके इस शब्द को ओढ़ने से बचना चाहिए; अन्यथा तो आप इसको ओढ़ के इनके इस शब्द को सत्य स्थापित करते हो; जो कि मानवता के ऊपर सबसे भीषण प्रहार है| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Monday, 17 April 2023

"जिस महामानव के कारण 60 के दशक में दुनिया के 100 करोड़ लोग भूखे मरने से बचे, आओ आज उनको जानें…"

आज हम बात कर रहे हैं "हरित क्रांति" के अग्रदूत विश्व विख्यात कृषि वैज्ञानिक राव बहादुर डॉ रामधन सिंह हुड्डा जी की:-

1 मई 1891 में रोहतक जिले के किलोई गांव में साधारण किसान के घर इस असाधारण बालक ने जन्म लिया। हमारी किसान बिरादरी से शायद पहले होंगे जो लंदन कैम्ब्रिज में पढ़ने गए, प्राकृतिक विज्ञान और कृषि में PhD करने के बाद 1925 में Punjab Agriculture College & Research Institute, Layallpur में प्रिंसिपल लगे, 1947 में रिटायरमेंट तक वहीं रहकर भारत ही नहीं दुनिया के लिए गेहूं, जौ, धान, दाल, गन्ना की नई नई किस्में इज़ाद की।
गेहूं की किस्में:
Pb-518, Pb-591 (1933-34)
C-217, C-228, 250, 253, 273, 281और C-285
Canada और Mexico ने सबसे पहले इनकी गेहूं Pb-591 अपनाई और पैदावार के रिकॉर्ड बनाये।
जिस C-306 गेहूं को सबसे स्वादिष्ट माना जाता है उसे भी डॉ रामधन सिंह जी ने इज़ाद किया था।
चावल की किस्में:
Basmati-370, Jhona-349, Mushkans-7 & 41, Palman Suffaid 246 (मैदानी इलाकों के लिए)
Ram Jawain 100, Phul Patas-72 और Lal Nankand 41 (पहाड़ी इलाकों के लिए)
संसार में मशहूर बासमती चावल 370 और Jhona 349 भी डॉ रामधन जी की ही देन है।
जौ की किस्में:
T4, T5, C138, C141 और C155
दालों की किस्में:
Moong No.54, 305 और Mash Variety No.48
1961 में जब Lyallpur Agriculture College के गोल्डन जुबली समारोह में भाग लेने पहुंचे तो पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान ने डॉ रामधन सिंह जी को राष्ट्रपति गोल्ड मैडल से सम्मानित किया और वह यह सम्मान पाने वाले पहले भारतीय बने।
उनके योगदान का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हो कि जब Mexico से नोबल पुरस्कार विजेता डॉ Norman E Borlog 1963 में डॉक्टर रामधन सिंह जी से Sonipat उनके घर पर मिलने आएं और रामधन सिंह जी के पैर छू कर कहें ''आपने संसार को बेहतर किस्में देकर 100 करोड़ लोगों को भूखे मरने से बचा लिया" और खुशी से रो पड़े।
1965 में लाल बहादुर शास्त्री जी ने डॉ रामधन सिंह जी को किसी भी राज्य के Governor बनने के लिए कहा था लेकिन डॉक्टर रामधन सिंह जी ने कहा ''राज्यपाल बनने से ज्यादा भला मैं वैज्ञानिक के तौर पर कर सकता हूँ देश का'' और उन्होंने ऐसा किया भी।
17 अप्रैल 1977 को भारत के महान सपूत डॉ रामधन सिंह जी इस संसार को अलविदा कह गए लेकिन सबको जिंदा रहने के लिए अथाह अनाज भंडार दे गए।
डॉ रामधन सिंह हुड्डा जी अमर हैं… 🙏

Post: Suman Hooda

अतीक अहमद के कत्ल ने मोदी की "पसमांदा मुस्लिम्स" को लुभाने की पॉलिटिक्स तहस-नहस कर दी है; साथ ही अखिलेश यादव से भी मुसलमानों का मोह भंग होता दिख रहा है!

विवेचना: क्या अब मुस्लिम "जय श्री राम" वालों की बजाए, "हे राम" या "हर-हर महादेव + अल्लाह-हू-अकबर" वाले अपने पुराने समीकरणों की तरफ तो नहीं मुड़ेगा?

अतीक अहमद व् उनका पूरा परवार "पसमांदा मुस्लिम" है वह यादव समुदाय से आते हैं| मोदी-शाह पिछले काफी महीनों से पसमांदाओं को बीजेपी में खींचने की क्या-क्या कैसी-कैसी कोशिशें कर रहे थे; इससे लगभग हर सोशल मीडिया वाला वाकिफ है|
अब यह लाइव-मर्डर का आईडिया जिस किसी का भी था, इससे बनिस्पद वकार अहमद, राष्ट्रीय महासचिव पसमांदा मुस्लिम बोर्ड "मोदी-शाह को तो इस फ्रंट पे तगड़ी मात मिली है| पसमांदा मुस्लिम समुदाय जो बीजेपी के साथ जाने का मन बनाने लगा था, इस तरीके के मर्डर से ठिठक गया है|" योगी को अभी चल रहे ओबीसी जनगणना व् एससी-एसटी मूवमेंट्स व् जागरूकता अभियानों व् उधर किसानों की सबसे बड़ी कम्युनिटी से आने वाले "पूर्व गवर्नर सत्यपाल मलिक जी द्वारा इनके खोखले 'राष्ट्रवाद' यानि 'पुलवामा' एपिसोड से ले अडानी-माधव आदि की जो पोल कर्ण थापर के इंटरव्यू में खोली है (यह कम्युनिटी 'राष्ट्रवाद' के शब्द पे सबसे ज्यादा रीझने वालों में है; क्योंकि पुलिस-फ़ौज-खेत-खेल तमाम 'देशप्रेम' के सबसे बड़े फ़ील्ड्स में यह अग्रणी जानी जाती है) व् ऊपर से किसानों के MSP जैसे मुद्दों व् रोज-रोज अभी भी जारी आंदोलनों; इन सबके बीच बाबा का 80-20 भी कितना कामयाब होगा, शायद कर्नाटक-राजस्थान-मध्यप्रदेश के चुनाव बता दें|
अतीक अहमद मर्डर के बाद से मुस्लिमों में चौधरी चरण सिंह जी के दिए "मजगर" फार्मूला के जमानों से ले दिवंगत मुलायम सिंह यादव जी द्वारा "मजगर" को "यम" में तोडना; फिर मुज़फ्फरनगर 2013 दंगों में बीजेपी के साथ वोट बांटने की सपा की गुप्त डील यानि जाटों को बीजेपी ले लेगी व् मुस्लिमों को सपा (चर्चा है कि "पदम्-विभूषण" अवार्ड मुलायम जी को मरणोपरांत "मुज़फ्फरनगर 2013" में इनका साथ देने का पारितोषिक है वरना जिस वर्णवाद की चासनी से आज के सत्तारूढ़ लोग आते हैं, वह किसी पिछड़े समुदाय वाले को यूँ चुपचाप यह इस स्तर का अवार्ड दे दे, कैसे हो सकता है); व् अब अतीक अहमद कत्ल, सब कड़ियाँ जोड़ी जा रही हैं| इस सबके ऊपर 13 अप्रैल से यूट्यूब पर वायरल अतीक अहमद की पत्नी के भाषण ने इन कयासों को और तेज कर दिया है; जिसमें वह अखिलेश यादव को विश्वासघात टाइप का उल्हाना सा देती दिख रही हैं; उनके शब्दों से साफ़ झलक रहा है और वहीँ ओवैसी बैठे हैं| मुज़फ्फरनगर 2013 के लिए चुपचाप सहमति आज़म खान की भी चर्चित होने लगी है|
ऐसे में ईशारा साफ़ है कि बाबा ने बड़ा खेला कर दिया है अतीक अहमद, उनके बेटे व् भाई तीन-तीन कत्ल इस तरीके से होने दे के| यानि बाबा 80-20 तो चाहते ही हैं, उस पर वह यह भी चाहते हैं कि सपा का "यम" फार्मूला भी तहस-नहस कर दूँ व् यह होने के आसार बढ़ चुके हैं; इन तीन मर्डर्स के बाद से| अब मुस्लिम जरूर सपा से अन्य विकल्प को सीरियसली कंसीडर कर रहा है; यह इस समाज के चिंतकों व् प्रबुद्ध हस्तियों के वक्तयों में साफ़ देखा जा सकता है; वह ओवैसी पर जाएगा या ज्यादा दूर की सोचेगा यानि सत्ता तक में आने जितने की तो हो सकता है कि वह "मजगर" टाइप कोई ऑप्शन सोचे| किसान आंदोलन ने इसके इशारे भी दिए थे, जब सितंबर 2021 में मुज़फ्फरनगर की ही किसान महापंचायत में "अल्लाह-हू-अकबर" व् "हर-हर महादेव" के फिर से एक साथ नारे लगे थे| दूसरा मजबूत ऑप्शन "हे राम" वालों के साथ फिर से जा खड़े होने का बन सकता है| लेखक को लगता है कि "हे राम" वाले या "अल्लाह-हू-अकबर" व् "हर-हर महादेव" वाले जो भी इन ताजा बने हालातों में मुस्लिमों में जितना ज्यादा विश्वास बहाल कर सकेगा; मुस्लिम उसको कंसीडर करेगा|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 6 April 2023

लंगर व् भंडारे में फर्क!

लंगर: गुरु नानक देव जी के जमाने से चल रहा है| दाता का नाम, पता, ओहदा गुप्त होता है| शुद्ध मानवता की सेवा की सही वाली निस्वार्थ नियत से लगाया जाता है| आसपास जो कोई किसी भी धर्म-जात से भूखा हो, वह खा सकता है| 


भंडारा: नाम की भूख, पाप धोने का लालच, बोल रखा था इसलिए खिलाना, तथाकथित मन्नत पूरी हुई तो खिलाना या किसी बात का भय दूर भगाने हेतु खिलाना आदि-आदि| भंडारा स्थल पर सबको पता होगा कि कौन खिला रहा है, अथवा अगला स्वत: ही बड़ा बैनर लगाए मिलता है कि मैं खिला रहा/रही हूँ| इसके साथ एक और अवधारणा जुडी है कि इसको जरूर इलेक्शन लड़ने होंगे, बड़ा समाजसेवक दिखाना चाहता/चाहती है खुद को आदि-आदि| निस्वार्थ शब्द झलका कहीं इसके उद्देश्यों में? बल्कि इसमें तमाम वो वजहें हैं जो लोगों को कम्पटीशन की भावना में डाल के जो इसको नहीं भी करना चाहते हों, उनको भी इसको करने को मजबूर करती हैं| अन्यथा तान्ने एक्स्ट्रा तैयार मिलते हैं कि "के धरती म्ह हाथ टिक रे सें", "कीमें धर्म-कर्म भी कर लिया करो", "धर्म नैं मानदे ए कोन्या के" आदि-आदि| 



भंडारों से अच्छा तो म्हारे पुरखों का सदियों पुराना यह सिद्धांत रहा है कि "गाम-नगर खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" - इसके तहत मैंने मेरी दादी समेत गाम की बहुत औरतों-मर्दों को गाम के किसी भी लाचार व्यक्ति को खाना-कपड़ा देते बालकपन से देखा| गाम की परस में कोई राह चलता रैन-बसेरे रुका तो उसको खाना पहुंचाते/पहुंचवाते देखा (परन्तु वाकई में राहगीर हुआ तो, वरना कोई फंडी-फलहरी इस बात का फायदा उठाने हेतु आया तो वह लठ भी खूब खा के जाता देखा)| और यह लाचार व्यक्ति चाहे जिस किसी जाति-धर्म का रहा हो गाम से, सबके बारे हमारे दादे/दादी यही कहते थे कि "खेड़ों की सदियों पुरानी बसावट से नगर-खेड़ों (भैयों-भूमियों) का यह सिद्धांत रहता आया है| इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता था कि अगर गाम-की-गाम में कोई बेऔलादा, निर्धन या बेवारसा बूढा/बुढ़िया/मंदबुद्धि आदि भूखा होता तो वह हक से भी गाम के किसी भी घर में जा के खा सकता था या कोई-कोई घर ऐसे किसी भी जरूरतमंद को स्थाई तौर पर खाना देते रहते थे| घर के आगे से या गली से निकलते वक्त मुलाकात होती तो आगे से पूछ लेते थे कि आज खाना खाया तो सामने वाला बता देता था व् पूछने वाला उसको अपने घर से आदरसहित बिना दिखावे के खाना दे देता था| और  यही वह सिद्धांत रहा है "गाम-नगर खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" जिसके चलते खापलैंड बारे यह कहावत मशहूर हुई कि, "यहाँ के गाम-नगर खेड़ों में कोई भिखारी नहीं मिलता/होता"| अगले की हालत देख, आगे से खुद ही हाथ बढ़ा के बिना तंज-ताने के उसको खाना दे देना; ताकि अगले की सेल्फ-एस्टीम व् सेल्फ-रेस्पेक्ट भी कायम रहे| 


आज हम इसको कितना पाल रहे हैं, पता नहीं| आज तो खाना खिलाना भी प्रदर्शन का विषय जो हो चला है या कहो कि फंडियों के फैलाए इस भंडारे के कांसेप्ट ने इससे मानवता निकाल कोरी प्रसिद्धि व् स्वार्थसिद्धि की लालसा का सौदा बना छोड़ा है; जो पूरी हुई कि नहीं यह खुद इसको लगाने वाले अधिकतर को नहीं पता चल पाता| 


विशेष: आशा है कि मैंने भंडारे की तमाम सम्भव परिभाषा देने की कोशिश करी है, फिर भी कोई अन्यत्र पक्ष रह गया हो तो इसमें बिना तू-तू मैं-मैं के शांति से बता दीजिएगा; मैं सीखने को हर वक्त तैयार रहता हूँ| हाँ, भंडारे में इतनी ईमानदारी तो है कि सामने वाला घोषित करके बता चुका होता है कि मैं यह इस स्वार्थसिद्धि के लिए कर रहा हूँ; यही इसका पॉजिटिव एंगल है; बाकी धर्म-कर्म का इसमें कोई बीज तब तक आ ही नहीं सकता, जब तक इसमें "निस्वार्थ" का कांसेप्ट नहीं डलेगा; वह डला तो यह लंगर या खेड़ों वाला ऊपर बताया कांसेप्ट हो जाएगा| धर्म किसी भी कम्पटीशन से बाहर रहने का नाम है; वह धर्म कैसे हो जाता है जहाँ कम्पटीशन-जलनवश या लोगों के तानों से बचने हेतु चीजें की जाती हों? भंडारा वही तो है या कहीं धर्म का भी कुछ है इसमें? अच्छी बात है स्वार्थ के लिए भंडारे लगाओ परन्तु फिर इसको धर्म का चोला क्यों पहनाते हो; यह पहनाते हो इसीलिए तुम्हारे आंतरिक भय-क्लेश-द्वेष-लोभ-लालसा कट नहीं पाते व् आजीवन भरमते फिरते हो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक