लगता है केजरीवाल के पुरखों की बुद्धि सर छोटूराम के बनाए सूदखोरी के कानूनों ने चटका दी थी व् वह केजरीवाल के बुड्ढे, केजरीवाल को यह दुःख पास करके गए हैं कि पोता बदला जरूर लेना है| और मौका मिलते ही नतीजा सबके सामने है|
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Saturday, 30 April 2022
हरयाणे में पूर्ण बहुमत से भाजपा आते ही दंगे-फसाद शुरू, पंजाब में पूर्ण बहुमत से आप आते ही दंगे-फसाद शुरू!
Monday, 25 April 2022
चौधरी राकेश टिकैत वाली बात हो जाए अब तो, "अडानी के साईलों में गौशालाएं खोलने की"!
जब गौशालाओं के लिए धक्के से ही तूड़ी की ट्राली खाली करवाने की बात है तो सारा टंटा ही खत्म; सीधा इन साईलों को ही गौशाला बना दो; एक पंथ दो काज|
Sunday, 24 April 2022
यहूदी, मुस्लिम, ईसाई व् जाट - इनकी समानताएं!
भक्तों को मुस्लिमों के ही खतना करवाने, एक ईश्वरवाद को मानने, सूदखोरी नहीं करने व् मूर्तिपूजा नहीं करने से दिक्कत है; जबकि चारों ही चीजें मुस्लिम धर्म में आई उसी यहूदी धर्म से हैं, जिनको भक्त अपना आर्दश व् आराध्य मानते हैं| और आज भी यह चारों बातें यहूदी धर्म की बुनियाद हैं|
इन चारों बातों में से तीन बातें यानि एक ईश्वरवाद, रिश्तेदारी में सूदखोरी नहीं करना व् मूर्तिपूजा नहीं करने की साझी रीत जाट समाज की भी रही हैं व् आज भी हैं| जाट समाज का एकमुश्त सबसे बड़ा माना गया "दादा नगर खेड़ा/दादा भैया/बाबा भूमिया" का कांसेप्ट यही एक ईश्वरवाद व् मूर्ती-पूजा नहीं करने पर आधारित है| तो क्या इस हिसाब से जाट समाज, यहूदी व् मुस्लिमों के बाकी सब भारतीय कॉन्सेप्ट्स से अधिक नजदीक है?
मूर्तिपूजा नहीं करना व् एक ईश्वरवाद, ईसाईयों में भी है व् इन दोनों पहलुओं पर जाट ईसाईयों के भी नजदीक लगता है|
वेशभूषा के हिसाब से देखो तो: यह चारों ही मर्द व् औरत दोनों के मामले में ऊपर से नीचे तक, जिनसे तन पूरा डंके, ऐसी वेशभूषाओं को तरजीह देते हैं| व्यापार व् फैशन के कपड़े जो कि कमर्शियल कांसेप्ट है; उसको अलग रख के देखा जाए तो चारों की ही ट्रेडिशनल-कल्चरल पहनावे में सभी शरीर के हर अंग ढंकने को तरजीह देते हैं| कहीं भी किसी ड्रेस में पेट-नाभि-पीठ-छाती आधी नंगी या उघड़ी रखने वाली पौशाकें पहनते नहीं देखे जाते|
कम्युनिटी गैदरिंग के कांसेप्ट भी चारों के आपस में मिलते-जुलते हैं|
तो एक इंटरनेशनल कल्चर होते हुए, क्यों इन फंडियों के फैलाए हुए गोबर को ढो रहे हो? गोबर, फ़ैल जाए तो उसको साफ़ किया जाता है, ना कि उसको सना जाता है| साफ़ करो इन संकुचित सोच के कॉन्सेप्ट्स को|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Saturday, 23 April 2022
आपकी औरतें किसके व् कैसे लोकगीत गा रही हैं, यह बता देता है कि आपका समाज अग्रणी है, बीच में कहीं है या पिछड़ा हुआ है!
एक जमाना होता था उदारवादी जमींदारों की औरतों के मध्य:
Wednesday, 20 April 2022
"सीरी-साझियों" की राजनीति की विरासत व् मुस्लिमों पर हो रहे साम्रदायिक दंगों के मध्य जयंत चौधरी व् उनकी रालोद का रूख!
"सीरी-साझी" से "मजगर", "मजगर" से "अजगर", "अजगर से यम" व् अब "यम" से वापिस सीधा "सीरी-साझी" की तरफ आता दीखता "सीरी-साझी राजनीति" का तिलिस्म| यह सब समझाएगी आपको यह पोस्ट, इसलिए जरा इत्मीनान से पढ़िएगा इसको|
बात वहां से शुरू करते हैं, जहाँ से इस राजनीति ने रूप लेना शुरू किया और राष्ट्रीय व् अंतर्राष्ट्रीय राजनीति तक छाई व् फिर उतार पर गई| इसको आप सीरी-साझियों की आधुनिक युग की राजनीति भी कह सकते हैं, बीसवीं सदी की राजनीति| पॉलिटिक्स की टर्म में इसको "politics of class community" कहते हैं| सीरी-साझियों की यह क्लास इस वक्त एक ऑफिसियल आकार लेना शुरू करी थी| इसका कल्चरल क्लास वाला आकार "सर्वखाप व् मिसल थ्योरी" के जरिए सदियों से चला आ रहा था|
बात शुरू हुई चाचा सरदार अजित सिंह के 1907 के "पगड़ी-संभाल-जट्टा किसान आंदोलन" से; जिसने तब के यूनाइटेड पंजाब में हिन्दू-मुस्लिम-सिख सब बिरादरी की एकता की वह मिशाल पेश की, कि अंग्रेजों को तीनों काले कृषि कानून वापिस लेने पड़े| हालाँकि यह आंदोलन गैर-राजनैतिक था परन्तु अंग्रेजों को झुका के गया| इस आंदोलन ने यह सीख भी दी कि जिसके साथ आप सबसे ज्यादा लड़ते हैं, आप उसी के साथ सबसे ज्यादा मिलकर भी रह सकते हैं; जैसे कि मुस्लिम व् जट्टों (सिख व् हिन्दू दोनों) के ऐतिहासिक युद्धों का दौर भी है तो इन्हीं का सबसे ज्यादा मिलजुल के रहना भी मिसाल है| फंडियों की आंख की रड़क आज भी यही तथ्य है|
खैर, 1907 का आंदोलन इस सीरी-साझी राजनीति को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाने के बीज बो चुका था, जिसने आगे चल के सर छोटूराम, सर सिकंदर हयात खान, सर फ़ज़्ले हुसैन, इसी राजनीति के सबसे बड़े दलित चेहरे बाबा मंगोवलिया देने थे व् दिए| अंग्रेजों ने लंदन तक बखूबी नोट भी किए| फिर आज़ादी के बाद यह सीरी-साझी राजनीति सरदार प्रताप सिंह कैरों व् चौधरी चरण सिंह के जरिए 1987 तक बखूबी बुलंद चढ़ी|
इस बीच फंडियों ने इसको पोलराइज करने को 1987 तक (चौधरी चरण सिंह की मृत्यु का साल) मजगर लिखना-कहना शुरू किया हुआ था| दरअसल यह लोग इसके जरिए "सीरी में से साझी" या कहिए "साझी में से सीरी" को दो फाड़ करने के काम पर लगे हुए थे| सनद रहे यहां अभी तक "सीरी-सझियों की राष्ट्रीय राजनीति" की बात चल रही है| यही दौर मान्यवर कांसीराम जी की दलित-चेतना का चल रहा था| ताऊ देवीलाल, सरदार प्रकाश सिंह बादल व् कांसीराम जी कोशिशें करते रहे, आपसी समझ से एक होने की|
तब आती है चौधरी चरण सिंह के पीएम रहते वक्त बने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की लड़ाई| ताऊ देवीलाल इसको लागू करना चाहते थे व् उनके हाथों ऐसा होता तो यह "सीरी-साझी राजनीति" देश को नए आयाम दे चुकी होती| परन्तु फंडियों ने बात भांप ली कि अगर ताऊ मंडल कमीशन लागू कर गया तो अभी तो यह उप-प्रधानमंत्री है, जल्द ही प्रधानमंत्री होगा व् न्यूनतम 20 साल बाकी सब राजनीतियां वेंटिलेटर पर होंगी| इसलिए ताऊ द्वारा उनकी वोट-क्लब रैली के जरिए "मंडल-कमीशन लागू होने की" घोषणा से 2 दिन पहले फंडियों ने एक तरफ तो वीपी सिंह से इसको लागू करवा दिया (ताऊ देवीलाल की वजह से फंडियों की हालत "मरता क्या ना करता" वाली थी इस वक्त, इसलिए लागू करवानी पड़ी) व् दूसरी तरफ फंडियों ने 1989 से ही ताऊ देवीलाल व् वीपी सिंह को एक-दूसरे के विरुद्ध पहले से ही भड़का रखा था (यह बात "जियो और जीने दो" की फिलॉसोफी वाले जरूर नोट करें; जो इस तर्क का हवाला दे फंडियों की हरकतों पर ख़ामोशी अख्तियार किए चलते हैं व् कहते होते हैं कि "के बिगड़े स, देख लेंगे"; फंडी तुम्हारा इन्हीं "शून्यकालों" में सबसे ज्यादा 24*7 बिगाड़ने पे लगा रहता है और तुम "के बिगड़े से" पकडे बैठे ही रह जाते हो); तो मसला इतना बढ़ा कि जो ताऊ इसको लागू करने चले थे वही इसके विरोध में आ खड़े हुए| सर छोटूराम की ताऊ देवीलाल को कही वह बात सच साबित हुई कि, "तुम भीड़ जुटा के सत्ता तो ले लोगे, परन्तु चला नहीं पाओगे"|
इसका असर यह हुआ कि 1987 के बाद से फंडी मीडिया जिस "सीरी-साझी" को पहले "मजगर" व् फिर "अजगर" तक सिकोड़ने पर लगा हुआ था; उसको अब मुलायम सिंह यादव घोषित तौर पर सिर्फ "यम" पर ले आए| अभी तक मीडिया ने सिकोड़ा था इसको, परन्तु नेता जी ने ऑफिसियल तौर पर सिकोड़ दिया| निसंदेह नेता जी में इस "सीरी-साझी राजनैतिक विरासत" की थोड़ी भी समझ रही होती तो वह इसको वापिस "अजगर" से "मजगर" व् "मजगर" से "सीरी-साझी" तक ले जाने की सोचते परन्तु वह इसको उससे भी छोटे दायरे में ले गए| जिसको कि नेता जी ने लगभग एक दशक तक भुनाया| यानि "सीरी-साझी" से "मजगर", फिर "अजगर" व् अंतत: यम यानि चौथे छोटे स्तर तक सिकुड़ गई, खासकर यूपी में| यह सिकुड़ी सोच इनको आगे चल के मूल-समेत खाने वाली थी| पढ़ते जाईये|
यही वह दौर था जब "सीरी-साझी" राजनीति राष्ट्रीय पट्टल से उतर राज्य स्तरों पर बिखर गई थी| इसके धड़ों की आपसी खींचतान चलती गई व् यह आपस में एक-दूसरे को हराने पर केंद्रित हो कर रह गए व् इससे फंडी को वह "उसाण" आया जो कि फंडी सर छोटूराम के जमाने से 1991 तक सिर्फ ढूंढता ही रहा था| हालाँकि इस दौर में भी जो इंसान उत्तर-प्रदेश में "सीरी-साझी राजनीति" का दामन थामे रहा वह थे चौधरी अजित सिंह| क्योंकि पोस्ट शीर्षक से ही रालोद पर केंद्रित है तो अभी यूपी पर ही बात की जाएगी|
यह वह दौर भी था जब इस राजनीति की रीढ़ यानि इसका अराजनैतिक व् कल्चरल प्रेशर ग्रुप "सर्वखाप" में भी काफी खाप चौधरियों में राजनीति करने के सुर उठे या कहिए एक षड्यंत्र के तहत उठवाए गए| आरएसएस इनके अराजनैतिक गुण से सीख के बनी व् यह इसी गुण की पटरी से डिरेल होने लगे|
और इन संकुचित सोचों की प्रकाष्ठा तब हुई जब अगस्त-2013 के मुज़फ्फरनगर दंगे हुए| समझ नहीं आई कि 'यम' ही सही परन्तु यह 'यम' भी तो "सीरी-साझी राजनीति" की विरासत से ही निकली थी, उसके नेताओं की सरकार होते हुए यह उनको ही मूल से खत्म कर देने वाला दंगा, उन्होंने होने कैसे दिया? क्या यह फंडियों ने बहका लिए थे कि तुम मुस्लिम (SP) ले लो और हम जाट (BJP) ले लेंगे? आग तो फंडियों की लगाई हुई थी, परन्तु काफी समय से "यम" के दम में प्रधानमंत्री बनने तक की ख्वाइश लिए चलते आ रहे मुलायम सिंह यादव व् अखिलेश यादव क्या प्रधानमंत्री बनने के लालच में आ गए थे व् उस तक पहुँचने का इतना संकुचित परन्तु असम्भव रास्ता ही देख पाए होंगे? और यह इसका दूसरा पार्ट नहीं देख पाए; जहाँ फंडी घोर तैयारियों में लगा पड़ा था? वो तैयारियां कि 2013 के डिरेल हुए 2014, 2017, 2022 में सत्ता से दूर ही रह गए?
खैर, इसके बाद क्या-क्या कैसे-कैसे हुआ उसके आप सब साक्षी हैं| मैं सीधा आता हूँ उस आस की लहर व् बहार पर जो 1907 की भांति 2020 में फिर सरदार अजित सिंह जी के पंजाब से उठी व् किसान-आंदोलन के रूप में दिल्ली का घेरा पड़ गया| जो कि 13 महीने चला, पूरा विश्व उसका साक्षी हुआ| इस "सीरी-साझी" विरासत वालों ने इंडिया ही नहीं अपितु विश्व को शांतिपूर्ण व् कूटनैतिक आंदोलन करना सीखा दिया|
माइथोलॉजी के जानकारों ने तो इसको "ब्रह्मा-विष्णु" की रचनाओं व् पालनहारी नीतियों के कुरीति बनने के चलते बिगड़े हालातों पर किसान द्वारा "शिवजी" की भांति तीसरी आँख खोलना बता दिया|
अब बात करते हैं इस लेख के शीर्षक के दूसरे हिस्से "मुस्लिमों पर हो रहे साम्रदायिक दंगों के मध्य जयंत चौधरी व् उनकी रालोद का रूख" की:
जब से मार्च 2022 के पांच राज्यों के चुनाव हुए हैं एक नया पैटर्न देखने में आ रहा है, साम्रदायिक व् टार्गेटेड दंगों में बढ़ोतरी| व् इस बढ़ोतरी पर मुस्लिम, यादव व् जाट की एप्रोच नोट कर रहे हैं| सपा, रालोद व् इनके एमएलए इस वक्त पर उनके लिए क्या कर रहे हैं यह सब मुस्लिम समाज बारीकी से नोट कर रहा है| और पाया गया है कि जयंत चौधरी व् रालोद तो काफी हद तक एक्टिव हैं परन्तु सपा व् अखिलेश पूर्णत: खामोश हैं|
मुस्लिम यह भी देख रहा है कि जाट, जिसके विरोध में है वह फिर सभी राज्यों में अमूमन समान रूप से ही उसके विरोध में है, जैसे कि बीजेपी-आरएसएस| जबकि उनकी ऑब्जरवेशन कहती है कि यादव, हरयाणा में बीजेपी की गोद में बैठा है व् दंगों पर तो हरयाणा व् यूपी दोनों ही जगह खामोश है|
मुस्लिम इस वैचारिक व् पोलिटिकल स्थाईत्व को पकड़ रहा है| जयंत चौधरी जी की कल की आजम खान जी के घर की मुलाकात इसी तथ्य का परिणाम है कि यह खूंटा चौधरी चरण सिंह, चौधरी छोटूराम व् सरदार अजित सिंह के विचारों में जा के ही मजबूत होता है| परन्तु रालोद को अब यह मुलाकात धरातल पर साम्प्रदायिक दंगे ना भड़कें, इस ओर उतारनी होगी| गाम-जिला ही नहीं अपितु बूथ लेवल पर "सीरी-साझी भाईचारा" टीमें गठित करनी होंगी|
उधर से अबकी बार जयंत चौधरी, फंडी मीडिया की उस शरारत को भी निबटाना चाहते से प्रतीत हो रहे हैं जिसके तहत फंडी मीडिया ने दलित व् ओबीसी को "सीरी-साझी पॉलिटिक्स" से छीना था| यानि चंद्रशेखर रावण जी को साथ ले के चल रहे हैं| लेखक की निजी जानकारी के अनुसार जयंत जी, रावण जी को साथ ले के चलना तो हाल में हुए यूपी चुनाव में भी चाहते थे, परन्तु गठबंधन के चलते ऐसा नहीं कर पाए; अन्यथा वेस्ट यूपी के राजनैतिक नतीजे कम से कम जरूर और ज्यादा बेहतर होते|
साथ ही जयंत जी ओबीसी में भी अपनी विरासत को खड़ा करने पर लगे हैं| देखते हैं उनका वेस्ट-यूपी में जहाँ यह टूट के सिर्फ "यम" पर आ गई थी वहां इस "सीरी-साझी" विरासत को कितना जल्दी वापिस खड़ा कर पाते हैं| लहर, माहौल, विश्वास व् प्रेरणा "किसान आंदोलन" दे ही चुका है|
एक ऐसा ही विस्तारित लेख, हरयाणा बारे लिखूंगा कि अब हरयाणा में इस "सीरी-साझी राजनीति" विरासत को कौन सही से पकड़ रहा है व् कितना मजबूती से इसको लड़ा जा सकता है|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Monday, 18 April 2022
मुझे लगता है कश्मीर-फाइल्स फिल्म ने पंडितों की हस्ती को छोटा कर दिया है!
मैदान छोड़ कर भाग खड़ा होने पर "कश्मीर फाइल्स" बनाने की बजाए, वहां अपना 21 बार क्षत्रियों को मारने वाला रिकॉर्ड फिर से दोहरा कर उस पर फिल्म बनाते तो हम भी मानते कि जो इतिहास में क्षत्रियों को मारने के दावे हैं वह वाकई में सच हैं| और नहीं तो वहां लड़ते-लड़ते जान दे देते परन्तु भागते नहीं तो भी मान लेते| ऐसी हरकतों से समाज को संदेश जाता है कि तथाकथित इतिहास के नाम पर जो-जो फैलाए हो, वह हकीकत छूते ही कितना खोखला है| कम-से-कम यह फिल्म ना दिखा के अपनी झूठी इज्जत ही ढंकी रख लेते|
इस प्रदर्शन से बाकी तो पता नहीं, परन्तु खापलैंड वाली किसान-मजदूर कौमें तो शायद ही प्रभावित होवें| और इनमें भी खासकर जाट कौम में तो इस फिल्म ने इस समाज की महानता को छोटा और कर दिया है| क्योंकि इनसे ज्यादा तो जाट अड़ जाते हैं तो या तो जीत ले के उठते हैं या दुश्मन को उल्टा मोड़ के या लड़ते-लड़ते मरना पसंद करते हैं; फिर चाहे क्या तप 1669 का औरंगजेब से किसान आंदोलन रहा हो, क्या 1857 की किसान-क्रांति रही हो, क्या 1907 का "पगड़ी संभाल जट्टा" आंदोलन की जीत रही हो व् क्या 2020-21 का किसान आंदोलन की जीत रही हो; परन्तु मैदान छोड़ के भागना वह भी 21 बार क्षत्रियों को मारने के दावों का इतिहास होते हुए; हजम नहीं हुई यह बात|
निःसन्देश जैनी मोदी-शाह; पंडितों पर ऐसी फिल्म बनवाये हैं व् जैनी, इस फिल्म के जरिए पंडितों का प्रभाव कम करने में कामयाब हुए हैं| क्योंकि जब इस फिल्म का खुमार उतरेगा तो लोगों के दिमाग में सवाल बचेगा कि 21 बार क्षत्रियों को धरती से मिटाने वालों के वंशज कश्मीर से भाग खड़े हुए, वह भी बिना लड़े ही? एक समझदार पंडित पीएम कभी यह गलती नहीं करवाता; ना पीवी नरसिम्हाराव पीएम ने उसके काल में करी ना अटलबिहारी ने करी और ना ही पंडित चलित मनमोहन सरकार ने करी| मैं इस फिल्म को जैनियों का सनातनियों की साइकोलॉजिकल रेपुटेशन डाउन करने का षड्यंत्र मानता हूँ; जिसमें चुपके से जैनी कामयाब हुए हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक
फंडियों के लिए कहीं मात्र टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनकर तो नहीं रह गए हो सोशल मीडिया पर?
मात्र फंडियों की हरकतों पर टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनकर कमेंट करने तक मत सिमटिये| इनको इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता बल्कि इस फीडबैक से यह अपना आगे का रास्ता निर्धारित करते हैं, जिसमें आप इनकी ही सीधा-सीधा मदद कर रहे हो| इनकी सोच व् रास्ते को कुंध करना है तो एक तो इनके बारे ऑब्जरवेशन-मोड में आ जाईए व् दूसरा वहां जुड़िए जहाँ जुड़ने से फंडियों से बाड़ बनाने के, 35 बनाम 1 की डिकोडिंग के, अपने स्पीरिचुवल, कल्चरल, इकोनॉमिकल मॉडल्स विकसित करने के कार्य हो रहे हैं| वरना अंत दिन हताशा के अंधेरों में जाओगे; जब अहसास होगा कि तुम्हारे कमैंट्स व् पोस्टों से ना तो फंडी रुका, ना ही तुम उसका अपना स्थाई समाधान खड़ा कर सके| अपनी इस ऊर्जा-वक्त-ज्ञान-संसाधन की अहमियत को इनके टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनने पर ज्याया ना करें| करें तो ऐसे कमेंट व् पोस्ट्स करें जो इनको कंफ्यूज करे, डिफूज करे|
यह देश को आग लगाएंगे, नर्क में झोकेंगे तो यह तुम्हारे कहे से रुकने वाले नहीं| ऐसे में बेहतर है इन बारे इनके ही गोलवलकर की वह लाइन दोहराओ, "अंग्रेज हिंदुस्तान या हिन्दुओं के साथ क्या करते हैं, हमें इससे मतलब नहीं; हमें सिर्फ मनुवाद (हिंदुत्व के चोले में जो छिपा है स्वर्ण-शूद्र में बांटने वाला सनातनी मनुवाद) पर काम करना है"| तो आप भी अपने कल्चर-किनशिप पर फोकस बनाए रखिए व् उसको बढ़ाने पर ही अपनी फॅमिली-प्रोफेशनल लाइफ से फ्री वक्त को लगाइए| तभी 5-10 साल बाद अपनी जिंदगी से संतुष्टि फील करोगे कि उस दौर में यह नीति ही हमें बचा पाई|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Sunday, 17 April 2022
Father of Green Revolution Dr. Ramdhan Hooda!
"जिस महामानव के कारण 60 के दशक में दुनिया के 100 करोड़ लोग भूखे मरने से बचे, आओ आज उनको जानें…"
Wednesday, 13 April 2022
"35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र का पटाक्षेप", सीरीज पोस्ट - 1
"35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र का पटाक्षेप", सीरीज पोस्ट - 1
"जाट-रे-जाट, 16 दूणी 8" की कहावत का मतलब!
अंतर्राष्ट्रीय जाट दिवस पर विशेष!
Sunday, 10 April 2022
रामचंद्र जांगड़ा जी 1956 के पटवारखाने के रिकार्ड्स व् कानून उठा के पढ़ो, शामलाती जमीन मालिकाना जमीन है, पंचायती या सार्वजनिक नहीं!
आपको सार्वजनिक के नाम पर कुछ बंटवाना ही है तो धर्मस्थलों के दान-चंदा की कमाई व् इनमें धर्मप्रतिनिधि की पोस्टों पे ओबीसी समेत दलित-किसान सबको बैठवाईये; इससे ज्यादा भला होगा ओबीसी समेत अन्यों का भी| अकेले ओबीसी को क्यों बहकाते हो?
Friday, 8 April 2022
फंडियों की सीख तुम्हारे कौम-कल्चर-किनशिप की गोभी खोद रही है; वक्त रहते घर-कुनबे के मर्द-औरत साथ बैठ के मंत्रणा करो व् अपने-अपने साझे नॉर्म्स निर्धारित करो!
करनाल के छोटे से बच्चे जस की निर्मम हत्या को देख के भी, जिसका ढोंग-पाखंड-आडंबर-फंडी-फलहरी-पाखंडी से व् उसकी कथाओं-गपेड़ों से हटने का मन नहीं करता तो समझो अगला नंबर थारे घर का भी हो सकता है|
शहरी RWA वाले, गाम के बगड़ों के कांसेप्ट कॉपी कर गए परन्तु इन्हीं गामों केे "नगर खेड़ों" वालों ने ही यह कांसेप्ट बिसरा दिए!
पहले तो "नगर खेड़ों वालों" में नगर शब्द नोट करो; तुम्हारे गाम थे ही नगर, बस तुम उस प्रोपगंडा वाले प्रचार का मुकाबला नहीं कर पाए; जिसके तहत तुम में धक्के से ग्रामीण होने की भावना ठूंसी गई; वरना तुम नगर वालों से पहले ही नागरिक व् नगर वाले थे|
Tuesday, 5 April 2022
मानसिक शूद्रता/दरिद्रता का बदलता चेहरा!
हरयाणवी समाज के जमींदारों का कोई परिवार शहर में निकलेगा या इनमें एक को ढंग की नौकरी लग जाए तो सबसे पहले फंडी-फलहारी के पाखंडों में रिफल-रिफल के भाग लेगा| व् साथ-की-साथ पीछे गाम का सारा कुनबा-ठोला इसमें लिपटवाने की कोशिश करेगा| और यह जो लॉबी बन रही है जमींदारों में, यही आने वाली शूद्र कहलाने वाली है, अगर इन्होनें यह रिफलने नहीं छोड़े तो| इनके घर के मर्द-औरतों ने बैठ के आपस में डाइलॉगिंग नहीं की तो|
Monday, 4 April 2022
लोकल लेवल पे वोकल हो जाओ, अगर 35 बनाम 1 को फंडी बनाम नॉन-फंडी में तब्दील चाहो!
समस्या कितनी बड़ी खड़ी कर दी है फंडी ने आपके आगे यह तो देख ही रहे होंगे; वह भी स्वधर्मी होते हुए? तुम किसी के इतने बड़े भी दोषी नहीं हो, जितना बड़ा बना के फंडी ने तुम्हें परोस दिया है| तुम्हारी कौम-कल्चर-किनशिप को राह चलती उस बेचारी अकेली लाचार लड़की की तरह बना डाला है, जिसपे गुंडे किसी भी वक्त टूट पड़ते हों व् बच के निकल भी जाते हो? कब तक होने दोगे यह खुद के साथ?
ऐसे ही चलता रहा तो, ना तुम्हें नेता बनने लायक छोड़ेंगे ना पंचायती| वक्त है, सम्भल के सर जोड़ लो व् इस फंडी को पहले झटके तोड़ लो| फंडी, भांप के धधकते उस बुलबुले की तरह होता है, जो सतह पर आते ही फुस्स और वह सतह है तुम्हारा सरजोड़|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Friday, 1 April 2022
साइलेंस में बहुत ताकत होती है - matter of Chandigadh!
राजनीति में बैठे घाघों के कोई भी मुद्दा उछालते ही, उसको उड़ते तीर की तरह नहीं लेना चाहिए| इन्होनें चंडीगढ़ बोला और आपने सोशल मीडिया पर झड़ी लगा दी| स्पष्ट राय अपनों को दो, दुनिया को नहीं; क्योंकि दुनिया में फंडी भी हैं| यह आपकी रिएक्शन के आधार पर मिनट में अगला स्टेप निर्धारित कर लेते हैं व् आपको ऐसे ही अगले-से-अलगे स्टेप की पिच पे खिलाते चले जाते हैं| जबकि आप भ्रम में रहते हो कि मैंने पब्लिकली बोल के समाज को चेता दिया, अपना फर्ज निभा दिया| यूं निभाए फर्ज, गली में भोंकते कुत्ते से ज्यादा कोई अहमियत व् असर नहीं रखते होते|
13 महीने किसान आंदोलन लगा के, दोनों स्टेटस ने जो आपसी भाईचारा बनाया, क्या उसको यूँ एक क्षण में इनकी भेंट चढ़ा दोगे? ऐसे इनके उछाले मुद्दों में कूदने से पहले रत्ती भर भी नहीं सोचना दिखाता है कि आपकी उस 13 महीने लगा के बनाए भाईचारे को बचाये रखने के प्रति कितनी एकाग्रता है|
यह नेता तो चंडीगढ़ बनते ही इसको मुद्दा बनाते आ रहे यहीं, परन्तु निकला क्या और क्या निकालोगे? इससे अच्छा हाईकोर्ट की भांति राजनधानी के भी रीजनल सेंटर्स मांग लो, टंटा खत्म| नेताओं को भी पता लगे कि जनता क्या चाहती है व् क्यों अब तुम्हारी बनाई पिचों पर नहीं खेलेगी| इनको आपकी बिछाई पिच दो, तब बात बनेगी|
वैसे भी फंडी अब इस पर काम कर रहे हैं कि दोबारा ऐसा किसान आंदोलन फिर ना हो तो उसके लिए क्या किया जाए? और यह चंडीगढ़ का राग उसी की एक स्ट्रेटेजी है, आपकी एकता को तोड़ने की| आपकी आपसी समझ व् तालमेल खत्म करने की| ऊपर से आगे 2024 में इनको फिर सरकार चाहिए, जिसके लिए आपकी एकता व् समझ फिर से खतरा इनके लिए| इन बातों को समझ के ही सोशल मीडिया पर लिखा करो|
कुछ सौदा ना है इन फंडियों का, अगर आप इनको अपने साइकोलॉजिकल वॉर गेम में उलझाने हेतु लिखने लगो तो| कोई दिमाग भी नहीं है इनमें और ना बुद्धि है; बस यह सर्वाइव ही आपकी ऐसी जल्दबाजी पर करते हैं, जैसे पिछले दो दिन से चंडीगढ़ वाले मुद्दे पर मचाते हो|
थोड़ा ठहरो, सोचो व् चुप रह के चिंतन करके ही आगे बढ़ो; यह सब मलियामेट होते जायेंगे|
जय यौधेय! - फूल मलिक