Sunday, 30 May 2021

जाति नहीं, वर्ण खत्म हो!

लेख का उद्देश्य: फंडियों के psychological war-game को समझने हेतु!

क्या कभी एक ही वर्ण के अंदर गिनी जाने वाली जातियों (गिनी जाने वाली लिखा है, क्योंकि जरूरी नहीं कि सभी जाति खुद को किसी वर्ण सिस्टम का हिस्सा मानती हों) में वर्ण-आधारित मनभेद या मतभेद जैसे कि छूत-अछूत, ऊंच-नीच, रंग-नश्ल पाए जाते हैं; नहीं; बल्कि यह सब भेद अंतर-वर्ण पाए जाते हैं| एक वर्ण तो ऐसा है जो अपने वर्ण के धर्म-कर्म-पूजा-पाठ अपने वर्ण से बाहर वाले से नहीं करवाता अपितु खुद ही करते हैं; चाहे बेशक दूसरे वर्ण वाला सर्टिफाइड शास्त्री व् क्वालिफाइड पुजारी ही क्यों ना हो| किधर हैं वो जो कहते हैं कि वर्ण तो कर्म आधारित होते हैं, तो क्यों नहीं करवाते बराबरी के सम्मान से खुद के वर्ण से बाहर वाले से अपने यहाँ के धर्म-कर्म-पूजा-पाठ? "भाईचारा" शब्द का छद्म सहारा सबसे ज्यादा यह खुद के वर्ण के पूजा-पाठ दूसरे वर्ण के शास्त्री-पुजारी से नहीं करवाने वाला ही सबसे ज्यादा लेता है| देखना यह पोस्ट पढ़ते ही रटी-रटाई कूटनीति के तहत कहेंगे कि देखो यह तो "भाईचारा" तोड़ने वाली पोस्ट है; नहीं यह तुम्हारे पाप से भरे भीतर फ़ोड़ने की पोस्ट है, भाई कह कर भी जो अलगाववाद तुम बरतते हो उस पर चोट है, जो इस समाज को दीमक की तरह चाट रहा है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 29 May 2021

उदारवादी जमींदारी कल्चर की धरती अडानी-अम्बानी जैसे कॉर्पोरेट्स को इतना क्यों आकर्षित कर रही है कि इसको हड़पने को येन-केन-प्रकेण से कृषि का नाम दे कर 3 काले कानून पास करवा लिए?

भूमिका: आज के दिन अडानी-अम्बानी जैसे बड़े-बड़े कॉर्पोरेट वालों को भी खेती करने का शौक चढ़ा है, 5000-5000 एकड़ के बड़े एग्रीकल्चर-फार्म बनाना चाहते हैं हरयाणा-पंजाब की धरती पर| एक तो आखिर पूरे देश में इनको यही धरती क्यों चाहिए? ऊपर से सोचो तुम्हें-हमें तो बचपन से यह तर्क दे कर बड़ा किया गया कि "पढ़ ले बेटा, कुछ नहीं धरा खेती में" या किसी का बालक नहीं पढता था तो कहते थे कि, "इसको दो-चार महीने खेतों में रगड़ा लगाओ खेती का, अपने आप पढ़ाई की कीमत समझ आ जाएगी"| अब पता नहीं यह हीन भावनाएं कौन लाता था समाज में, वह भी ऐसे धंधे बारे, जिसकी सबसे स्थाई इकॉनमी देने की क्षमता व् महत्ता किसान कम जानते थे व् यह बड़े-बड़े व्यापारी शायद ज्यादा जानते हैं जो किसान बनने को लालायित हुए जाते हैं?


परिवेश: इस बीच के भाग को पढ़ते हुए थोड़ी उबासी आना सम्भव है, परन्तु समस्या जड़ से समझनी है; तो खा जाओ एक-एक अक्षर को| बोर हो सकते हो परन्तु पढ़ के यही कहोगे कि पढ़ना व्यर्थ नहीं गया| तो आइए, समझते हैं उदारवादी जमींदारी को; और क्यों अडानी-अम्बानी इसको हड़पने को लालायित हैं:

1) वर्किंग कल्चर:
1.1) इस जमींदारी का "सीरी-साझी" वर्किंग कल्चर है| "सीरी-साझी" का मतलब है काम के साथ-साथ दुःख-सुख के पार्टनर; कोई नौकर-मालिक नहीं|
1.2) पुराने वक्तों से इसमें जब जमींदार, साझी को अपने यहाँ काम पर रखता है तो सालाना करारनामा घोषित होता है, जो कि पहले जमींदार अपने घर की बहियों में एक गवाह बीच में ले के लिखवाता आया है, आजकल पक्की रजिस्ट्रियां भी होने लगी हैं| इस करार के तहत साल की तय राशि यानि तनख्वाह का आधा साझी को सीर लिखे जाने की तारीख को देने का विधान रहा है व् आधा साल खत्म होने पर| इस तनख्वाह के अतिरिक्त तीन वक्त का फ्री खाना, सामर्थ्यानुसार कपड़ा-लत्ता, अनाज-तूड़ी-ईंधन का सहारा सीरी अपने साझी को लगाता आया है| आजकल महीना आधारित सिस्टम भी आ गया है| भीड़ पड़ी में सीरी, अपने साझी के घर के ब्याह-वाणे तक ओटता आया है| ब्याह-वाणे तो किसान से बंधे कारीगर बिरादरियों के घरों के भी ओटे जाते रहे हैं|
1.3) बंधुआ मजदूरी इस सिस्टम में नगण्य पाई जाती है अन्यथा कोई करता पाया जाता है तो उसको कभी प्रोत्साहित नहीं किया जाता अपितु हतोत्साहित ही किया जाता है|
1.4) इस कल्चर में साझी को नेग से बोला जाता है यानि दादा है तो दादा, काका-ताऊ, भाई-भतीजा है तो इस हिसाब से|
1.5) इस कल्चर में सीरी-साझी मिलके खेत कमाते हैं, दोनों खेत में खटते हैं|
1.6) वर्णवाद इस सिस्टम में वर्जित है, फिर भी कोई साझी ऐसा करता है तो उसको यथोचित स्थान व् आदर नहीं मिलता|
1.7) विश्व की Google जैसी बड़ी कम्पनी का वर्किंग कल्चर इसी "सीरी-साझी" सिद्धांत पर आधारित है|
1:8) यह एक "नैतिक पूंजीवाद" यानि "अर्थ प्लस मानवता" का सिस्टम है जो कहता है कि कमाओ और बराबरी के मौकों व् सम्मान से कमाने दो|
1.9) इसका मुख्यत: फैलाव हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी, दक्षिणी उत्तराखंड व् उत्तरी राजस्थान में है|

2) आध्यात्मिक कल्चर:
2.1) युगों पुराना मूर्ती-पूजा रहित, परमात्मा के एकरूप को मानने वाला, धोक-ज्योत में औरत को 100% प्रतिनिधित्व देने वाला, वर्ण-जाति के भेदभाव से रहित, अवतारवाद को नहीं मानने वाला, ऊंच-नीच के बर्ताव से रहित, गाम में सबसे-पहले आ के बसने वाले पुरखों द्वारा स्थापित "दादा नगर खेड़े बड़े बीरों" का प्रकृति व् मानवता को सहेजने का आध्यात्मिक कल्चर होता है उदारवादी जमींदारी|
2.2) यहाँ ध्यान देने की बात है कि सन 1875 में बने आर्य-समाज में "मूर्ती-पूजा" नहीं करने, परमात्मा के एकरूप को ही मानने, अवतारवाद को नहीं मानने के जैसे सिद्धांत इस 1875 से सदियों पहले से विदयमान उदारवादी जमींदारी आध्यात्म से ही लिए गए हैं| और यही समानताएं सबसे बड़ी वजहें थी कि खापलैंड पर आर्य-समाज इतना अंगीकृत किया गया|

बोल नगर खेड़े की जय!

3) सोशल इंजीनियरिंग कल्चर:
इस कल्चर की सूत्रधार, कर्णधार खाप पंचायतें हैं| सर्वखाप (खाप/पाल) / मिसल की
3.1) निशुल्क व् वक्त पर न्याय देना,
3.2) मानवीय व्यवहार में सबका बराबरी से ख्याल रखना,
3.3) हर गाम में अखाड़ों के जरिये मिल्ट्री कल्चर पाल के "पहलवान तैयार" करने का सुरक्षा सिस्टम रखना (आजकल फ़ौज-पुलिस में सबसे ज्यादा सैनिक-सिपाही इन्हीं अखाड़ों की देन होते हैं; पहले इनके "पहलवानी दस्ते" होते थे, जो सर्वखाप या खाप की चिट्ठी के जरिये दी गई इमरजेंसी कॉल पे रातों-रात इकठ्ठे हो आर्मी जितना आकार ले लिया करते थे; जिसका कि एक नमूना 28 जनवरी 2021 की रात चौधरी राकेश टिकैत के आंसुओं पर "किसान आंदोलन" को बचाने हेतु रातों-रात जुटता आप सबने देखा; यह जींस में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पलते आये "मिल्ट्री कल्चर" का ही परिणाम था),
3.4) छोटे किलानुमी परस/चौपाल/चुपाड़ के जरिये सामुदायिक सभायें/बैठकें कर गाम-प्रदेश-देश की हलचलों को सबमें पास करना; यह उदारवादी जमींदारी कल्चर के शीर्ष सोशल इंजीनियरिंग बिंदु हैं|
3.5) परस/चौपाल/चुपाड़ ग्रामीण भारत में सिर्फ खापलैंड (ग्रेटर हरयाणा) व् मिसललैंड (पंजाब) पर ही पाई जाती हैं|
3.6) गाम-खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए की मानवता,
3.7) गाम की 36 बिरादरी की बेटी-बुआ-बहन, सबकी बेटी-बुआ-बहन, ब्याह-वाणे में गाम-गौत-गुहांड (एक गौतीय खेड़े में), गौत (बहु-गौतीय खेड़े में) छोड़ने का विधान, ऐच्छिक विधवा-विवाह, सति-प्रथा व् देवदासी कल्चर को वर्जित रखना, "खेड़े के गौत में लिंग-समानता से गाम का बसना", बेटी/धाणी/देहल की औलाद की सूरत में औलाद का गौत पिता की बजाए माँ का होना" "महिला-सुरक्षा" के तहत सर्वखाप पालती आई है|

4) आर्थिक कल्चर:
4.1) नैतिक पूंजीवाद (यानि कमाओ व् कमाने दो) जिसके तहत दैनिक वस्तुओं व् सेवाओं के विपणन की "बार्टर सिस्टम प्रणाली" यानि सेवा के बदले वस्तु या सेवा विधान आज भी चलन में हैं|
4.2) मुद्रा अधितकर पशु व् वाहन खरीद में ज्यादा उपयोग होती थी, आजकल दैनिक वस्तुओं व् सेवाओं में भी प्रयोग में चल चुकी है|

विवेचना: क्यों लालायित हैं अडानी-अम्बानी जैसे कॉर्पोरेट्स यहाँ खेती करने को?

एक तो इस ऊपर बताए उदारवादी सिस्टम की खूबी देखिये; देश में आमिर-गरीब का सबसे कम अंतर् इस सिस्टम की देन है| बिहार-बंगाल की तरह आज तक किसी दलित, ओबीसी को मात्र बेसिक दिहाड़ी कमाने को कभी मुंबई, हरयाणा, पंजाब नहीं दौड़ना पड़ा| खापलैंड व् मिसललैंड पर मुंबई-गुजरात की तरह बंगाली-बिहारी-आसामी प्रवासियों को भाषावाद, क्षेत्रवाद की व्यापक झिड़क व् मार नहीं झेलनी पड़ी| यह सब बातें, अडानी-अम्बानी जैसों को गारंटी की हद तक जा कर आकर्षित कर रही हैं|

इसके ऊपर जुल्म इनकी सामंती सोच यानि अनैतिक पूंजीवाद के "वो कमाए तुम जोड़ो", "वर्णवाद का भेद बरतो", "नौकर-मालिक" के सिद्धांत; जो कि उदारवादी जमींदारी के बिल्कुल विपरीत हैं| और इस सामंती सोच के लोगों को अपना सामंती सिस्टम यहाँ लागू करने को उदारवादी जमींदारी का ऊपर बताया कल्चर सेट नहीं चाहिए; यह सब हटाना है| आपका यह सारा वैल्यू सिस्टम, इकनोमिक सिस्टम हड़पना है| यानि आप इनको एक सहज टारगेट दिख रहे हो; इसलिए यह लालायित हुए चले आते हैं|

यह सब जान के क्या आप लुटने देना चाहेंगे, आपके पुरखों द्वारा व्यवस्थित व् स्थापित इस सिस्टम को? शायद नहीं ही जवाब होगा आपका? तो इन सामंतियों से छुटकारा पाना होगा| इनसे छुटकारा पाने को यह दो चोटें सबसे ज्यादा समझते हैं, पहली नोट की व् दूसरी वोट की| वोट की यह सह भी जाते हैं, जैसे अभी 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सह गए, बंगाल की हार भी झुकाती नहीं दिखती इनको| तो ऐसे में कौनसी चोट सबसे कारक है; नोट की| व् यह कैसे सम्भव होगी? आर्थिक असहयोग से? परन्तु वह कैसे किया जाए; क्योंकि छोटा व् मंझला व्यापारी तो किसान के साथ है? इसका मध्यमार्गी तरीका होगा न्यूनतम 3 महीने के लिए खाने-पीने के सामान को छोड़ के 25000 रुपए से ऊपर की कीमत की कोई वस्तु-सेवा ना खरीदी जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 26 May 2021

'मार दिया मठ', 'हो गया मठ', 'कर दिया मठ'!

यह कहावतें हमारे समाज में होने का मतलब समझने की जरूरत है| कल थोड़ा सा व्यस्त था इसलिए बुद्ध पूर्णिमा पर पोस्ट नहीं निकाल पाया| 'मठ' बुद्ध धर्म का ही कांसेप्ट है, वहीँ से कॉपी हुआ है बाकी सब जगह| जाट महाराजा हर्षवर्धन बैंस बुद्ध धर्मी हो गए थे, यह वही जाट राजा हैं जिन्होनें "सर्वखाप" सिस्टम को 643 AD में विश्व में सबसे पहले 'लीगल सोशल जस्टिस' में समाहित किया था व् खापों को ठीक वैसी ही सोशल जूरी होने की वैधानिक मान्यता दी थी जैसी कि आज के दिन अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया आदि में पाई जाती है|


अकेले वर्तमान हरयाणा की बात करें तो इसमें 22 पुरातत्व साइटें हैं बुद्ध की| भंते (8 पीढ़ी पहले मेरे एक दादा का नाम भंता रखा गया था, आज मेरे गाम में उनके नाम से पूरा ठोला बसता है) मठों में समाधि लगा कर बैठते थे| जब राजा पुष्यमित्र सुंग ने धोखे से गद्दी हथियाई व् उसका राज आया तो मठों में तपस्या में लीन भंतों की गर्दनें कटवाई गई व् उनके मठ-के-मठ जला दिए गए| यह इतने व्यापक स्तर पर हुआ था कि किसी के यहाँ नुकसान होना, बुरा होना; मठ मारने का पर्याय बन गया|

पुष्यमित्र को कैसे इन कुकृत्यों से रोका गया था, इस बारे "हरयाणा का इतिहास" पुस्तक में प्रोफेसर के. सी. यादव लिखते हैं कि उसकी 100000 की सेना को बुद्ध मीमांसा में तल्लीन 9000 जाटों ने समाधि छोड़, अपने 1500 लोग खपा के इस सेना को काटा था, तब जा के यह टिके थे|

आज वालों के भी वही लच्छन हैं, यह देश में गृहयुद्ध करवाए बिना टिकेंगे नहीं; क्योंकि यह येन-प्रकेण सत्ता हथियाना तो जानते हैं, परन्तु उसको सुचारु रूप से चलाना इनके DNA में ही नहीं है| तब से अब तक इनके तौर-तरीकों-सोच में कुछ नहीं बदला|

Belated Happy Buddha Poornima!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 24 May 2021

किसान आंदोलन का हिसार अध्याय व् आगे की दिशा!

थोड़ा किसान आंदोलन के साइड-बाई एक और जो जरूरी पहलु है उस पर बात करूँगा, जो बात को किसान आंदोलन के जीवन से भी आगे जाती है| 


कच्छाधारी फंडियों की 7 साल की सरकार में आज हिसार में पहली सबसे बड़ी वह कामयाबी मिली जिसने लोकंतत्र जिंदा होने की आस को फिर से खड़ा किया है| परन्तु क्या आगे की राह इतनी आसान है? नहीं है, जब तक ओबीसी व् दलित में जिस भी स्तर तक कच्छाधारी अपना प्रभाव जमा चुके हैं; उसको एक-एक किसान-मजदूर का बालक प्रचारक बन के नहीं निकालेगा या कम-से-कम इनके दोगले चेहरे व् सोच को नंगा नहीं करेगा; तब तक सफर भी अधूरा व् मंजिल भी दूर| 


मुझे तो ताज्जुब होता है हर उस ओबीसी व् दलित पर जो गोलवलकर के उन बारे यह विचार कि "मैं सारी जिंदगी अंग्रेजों की गुलामी करने के लिए तैयार हूँ, लेकिन जो दलित, पिछड़ों व् मुसलमानों को बराबरी का अधिकार देती हो ऐसी आज़ादी मुझे नहीं चाहिए|" जानकर भी इनके साथ जुड़े हुए हैं| जिनकी सोच के मूल में दलित व् ओबीसी के लिए इतनी नफरत हो, वह संघ की शाखाओं में कितना ही बराबरी का राग अलापते रहें, जातिवादी नहीं होने की पीपनी बजाते रहें परन्तु इनके मूल में तो नफरत व् जातिवाद ही है ना? अन्यथा दलित व् ओबीसी बारे ऐसी बातें करने वाला व् ऐसी सोच रखने वाला कैसे आरएसएस का 33 साल तक प्रमुख रहा? ताज्जुब है कि आज तक कोई दलित ओबीसी ऐसा नहीं दीखता, जिसने उनके बारे गोलवलकर की यह बात जानी हो और इसपे इनसे कभी सवाल किया हो? या गोलवलकर की कही इस स्टेटमेंट में सिर्फ मुसलमान शब्द देख कर इनके साथ डट जाते हो व् इसको इग्नोर कर देते हो कि मुसलमान के साथ-साथ उसने इसमें दलित व् पिछड़े को भी लपेटा हुआ है? यही समाज की मानसिक गुलामी व् पिछड़ेपन की सबसे बड़ी वजह है|


ऐसे लोगों की यह चुप्पी चाहे जिस भी वजह से है परन्तु इसका दंड यह तो भुगत ही रहे हैं साथ-की-साथ उत्तरी भारत की बड़ी किसान कौमें भी भुगत रही हैं| क्या इनको ज्वाइन करने वाला कोई ओबीसी व् दलित यह बताएगा कि ऐसी कौनसी वजहें हैं जो यह आपको बताते या सिखाते हैं व् आप दिनरात आपके साथ खड़ी रहने वाली व् आपसी रोजगार की सूत्रधार किसान जातियों को छोड़ इनके साथ मिलके आप इन किसान जातियों के ही खिलाफ खड़े हो जाते हैं, जैसे कि फरवरी 2016 का 35 बनाम 1? आप नहीं भी खड़े होते होंगे तो यह इस 35 में आपका नाम तो जोड़ ही लेते हैं| और वह भी बावजूद इसके कि यही वह लोग हैं जो आपको वर्णवाद में शूद्र श्रेणी में रखते हैं, छूत-अछूत, ऊंच-नीच में बांटते हैं? आपका छुआ खाना-पीना तक पसंद नहीं करते? 


यह जो जहर इन कच्छाधारी फंडियों ने समाज में नीचे-नीचे उतारा है, इसको साफ़ करने को कदम बढ़ाने होंगे| तब जा कर किसान समेत मजदूर वर्ग अपनी उस आभा-गौरव को वापिस पा सकेंगे जिस पर आ के दिन इन फंडियों के इनके polarisation व् manipulation के जहर की काली स्याही फेरी हुई है| 


जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Friday, 21 May 2021

फंडी कैसे किसी को उसके साइकोलॉजिकल ट्रैप (जाल) में लेता है!

ग्रीक फिलोसोफर Aristotle की theory of convincing के अनुसार तीन तरीकों से एक इंसान को प्रभाव में लिया जा सकता है:


1) Ethos (Authority) यानि अधिकृत विषेशज्ञ 

2) Logos (Logics) यानि तार्किकता 

3) Pathos (Emotions) यानि भावुकता, भावनात्मकता


एक संसार को स्वस्थ तरीके से चलाने हेतु इन तीनों का बराबर से इस्तेमाल ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है| परन्तु फंडी, इनमें से सिर्फ इमोशंस को आप पर इस्तेमाल करता है यानि भावना| 


और भावना किस से पैदा होती है? Ekman, Paul; Davidson, Richard J. (1994) के अनुसार "कोई भी ऐसी चीज/अनुभव/विचार/व्यवहार जो आपको दुःख या ख़ुशी की, जुड़ाव या अलगाव की तरंगे दे; वह आप में उस वस्तु/व्यक्ति आदि के प्रति नकारात्मक या सकारात्मक भावना पैदा करता है| 


और फंडी हर उस बाह्य वस्तु/विचार को आप पर अपनी भावनाएं थोंपने के लिए इस्तेमाल करता है जो आप में सकारात्मकता व् जुड़ाव, कहिये कि आदर भाव पैदा करती होती हैं| 


जब आंतरिक तौर पर आप पर हमला करना होगा तो आपकी नकारात्मकता को फंडी सबसे ज्यादा कुरेदता है| 


इस तरीके से जब उसने आपकी रग पकड़ ली, फिर वह आप पर साम-दाम-दंड-भेद आजमाता है| 


जय यौद्धेय! - फूल मलिक  


Thursday, 20 May 2021

फंडी, ना साइंस से चलता है और ना लॉजिक से; वह चलता है साइकोलॉजिकल ट्रैपिंग से!

फंडी को समझने के लिए साइंस या लॉजिक्स ना पढ़ें अपितु साइकोलॉजी यानि मनौविज्ञान के ज्ञाता बनें| जिस दिन इनका मनौविज्ञान से चलना समझ गए, उस दिन इन बातों पर आश्चर्य करना छोड़ दोगे कि, "हाय-हाय फलाना-धकड़ा या फलानी-धकडी इतना पढ़ा-लिखा हो के भी फंड-आडंबर में डूबा हुआ या हुई है"| या कहो कि "इतना बड़ा असफर-साइंटिस्ट हो के भी आकंठ आडंबर में डूबा निकला", आदि-आदि|

अब यही देख लो: मैं तो बड़ा हैरान होता था बचपन में कुछ ज्यादा ही आधुनिक अथवा पढ़ा-लिखा होने का दावा ठोंकनें वालों की सुन के, जो कहते थे कि, "अजी, मुझे तो गोबर-मूत से एलर्जी है"| कई गिरकाणी लुगाई तो चाहे उनको गोबर-मूत का काम भी नहीं करना होता था परन्तु अपने गाम वाली देवरानी-जेठानी के आगे ऊँचा थोबड़ा रखने को ही गोबर के आगे से नांक-मुंह सिकोड़ के निकलती थी| एक वक्त वह भी आया जब रिश्ते वालों ने भी ऐसी शर्तें रखी कि म्हारी छोरी गोबर-खेत का नहीं करेगी| ना और थारी छोरी साँप पकड़ेगी, ल्या देवें सपेरे वाली एक बीन और पिटारा?
और आज देख रहा हूँ कि सबसे ज्यादा यही गिरकाने गोबर-मूत में नहाते-लेटते फिर रहे हैं; और इनमें क्या साइंस पढ़े हुए, क्या आर्ट व् कॉमर्स पढ़े हुए; पट्ठे सब पटे पे चढ़ा रखे हैं फंडियों ने| फंडियों ने ऐसे ब्रैनवॉश कर दिए इनके कि इनको सारी साइंस गोबर-मूत में ही नजर आती है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 18 May 2021

बावन बुद्धि आणिया, छप्पन बुद्धि जाट!

सुनी थी छप्पन बुद्धि जब महाराजा सूरजमल ने चलाई तो नागपुर-पुणे के चितपावनी पेशवे भी दिल्ली पर राज करने के सपनों का मन-मसोसवा के व् हाथ-मलवा के वापिस पुणे छुड़वा दिए गए थे| क्यों पड़े हो फिर से इनके चक्कर में, यह इतने भले होते तो तुम्हारा यह पुरखा इनको वापिस जाने की हालत में लाता क्या?

सुनी थी छप्पन बुद्धि जब सर छोटूराम ने चलाई थी तो आज़ादी से पहले के "यूनाइटेड पंजाब" से गाम-के-गाम, ताखड़ी पे डंडी मारने व् चक्रवर्धी सूदखोरी करने वालों से खाली हो गए थे? उस एथिकल-कैपिटलिज्म (ethical capitalism) के धोतक ने, सारी बावन की बावन झाड़ ली थी|
अगला कौन आएगा इस क्रम में व् कब आएगा; यह इंतज़ार इतना लम्बा ना हो जाए कि किसान आंदोलन से, फंडियों के जुल्मों से मुक्ति पाने की आस जो किसान ही नहीं अपितु मजदूर, छोटे-मंझले व्यापारी व् वास्तविक धार्मिक प्रतिनिधियों की इससे जुडी हैं, वह टूट जाएं| क्या प्रकृति-परमात्मा-पुरखे इतने ज्यादा रूष्ट हुए खड़े हैं कि राह अभी हासिल नहीं? इनसे तो लड़ाई भी बुद्धि की है, तो धरनों पे यह रोज-रोज की दौड़-धूप किस ख़ुशी में करवाई जा रही है, जहाँ बैठे हैं वहां बैठ के सर-जोड़ के छप्पन बुद्धि से चलाने की जरूरत है इस आंदोलन को; बोहें-दाडें-भृकुटि दिखाने-दरडाने की नहीं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 हवन इतना कमजोर कब से हो गया कि उसको धूणी की पद्दी (पीठ) बिठाना पड़ रहा है?:

जिस बेहताशा से रोहतक जिले में धूणी के ऊपर हवन को बैठाया जा रहा है, लगता है हवन को जिन्दा रखने हेतु उसको धूणी की पद्दी बिठाया जा रहा हो? कहीं गए जमानों में हवन को, धूणी से ही तो नहीं निकाला गया था? यानि धूणी का पॉलिशड वर्जन बना के हवन नाम धर दिया हो? अन्यथा यह किस बात की बेचैनी है कि दिखती-दिखाती धूणी को हवन प्रचारित करवा रहे हैं? क्या हवन का अस्तित्व इतना सस्ता व् कमजोर है कि उसको धूणी पे ढंका जा रहा है? क्योंकि जिन अवस्थाओं में यह हो रहा है उसमें तो यही कहा जाता है कि भले वक्तों में गर्रा के अलग हुई या अलग की गई चीज, भीड़ में पड़ी जिससे अलग हुई थी या की गई थी; वापिस उसी की पद्दी बैठने की कोशिश करती है या बैठाई जाती है|
धूणी व् हवन में अंतर् समझें:
धूणी: जानवरों व् मौसमीय बिमारियों के कीटाणुओं को घर-ढोर के वातावरण से खत्म करने हेतु घर-घर घूम के दी जाती है| इसमें आग की बेदी नहीं जलाई जाती, सिर्फ सुलगाई जाती है ताकि अधिकतम धुआं बन सके| यह तो डांगरों के ठान के कोने में दो-चार गोस्से लगा के भी सुलगा दी जाती है|
हवन: मंत्रोचार का लेप लगा के, स्थाई कुंड में आग जला के (अंतर् नोट करें, धूणी में धुआं चाहिए, आग नहीं और धुंए से ही इसका नाम धूणी पड़ा है) एक क्रिया-अनुष्ठान किया जाता है, वह भी खुले वातावरण में; घर के अंदर हो तो खिड़की-दरवाजे खुले रख के|
तो इन परिभाषाओं के हिसाब से समझा जा सकता है कि रोहतक में गामों में जो दी जा रही है वह धूणी है, हवन नहीं|
धूणी को धूणी रहने दो, उसको हवन का नाम मत दो!
रिवाज को रिवाज रखो, उसको पाखंड का नाम मत दो|
धूणी भी एक रिवाज है, हवन भी एक रिवाज है; इनको मिक्स मत करो| मिक्सिंग को बुजुर्गों ने पाखंड कहा है इंग्लिस में बोले तो "manipulation"| जरूरत क्या पड़ी है जो सदियों से गामों में दी जाने वाली धूणी को हवन बता के प्रचारित किया जा रहा है? हवन की अपनी मर्याद है, उसको धूणी का सहारा लेने की क्या जरूरत? या कहीं किसी को कोई भय सता रहा है?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 11 May 2021

"Disqualified दादा कल्चर" फ़ैलाने वालों से बचें!

हरयाणवी कल्चर में दादा 

या तो गाम के खेड़े को कहा जाता है 

या तो पिता के पिता को 

या गाम के नेग से दादा लगने वाले 36 बिरादरी व् सर्वधर्म के व्यक्ति को 

या किसी खाप-तपे के चौधरी को कहा जाता है| 

इस परिधि से बाहर आने वाले हर बुजुर्ग को "ताऊ" कहा जाता है, जैसे "ताऊ देवीलाल"| 

विशेष: ऊपर लिखित परिधि से बाहर वाले को "ताऊ" कहने के साथ-साथ ताऊ, पिता का बड़ा भाई या गाम के नेग में ताऊ लगने वाले 36 बिरादरी व् सर्वधर्म के व्यक्ति को कहा जाता है| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक  

Monday, 10 May 2021

फ्रांस का लोकल आयुर्वेद!

1) साबूत अलसी (Lin), तिल, रागी का खाने में प्रचुर प्रयोग होता है| pave lin, baguette, में सबसे ज्यादा|

2) आंवला व् इसकी सिस्टर प्रजातियों जैसे "riene-claude" के मुरब्बे खूब खाये जाते हैं|
3) सरसों के तेल की स्पेशल सॉस होती हैं, फ्रांस का Dijon city - Ville de moutarde" यानि "सरसों का शहर" भी कहा जाता है|
4) तिल (sesame) का तेल, जैतून (olive) का तेल सबसे ज्यादा खाया जाता है|

और भी कई उदाहरण हैं| और यह सब इनके यहाँ लोकल ही पैदा होते हैं|

बस फर्क इनमें और हम में इतना है कि यह देशी खाने-दवाई का इन्हीं की बनाई अंग्रेजी खाने-दवाई से व्यर्थ का कम्पटीशन करके, लोगों को भड़क दिए नहीं रहते| और शायद यही इनके विकसित होने की सबसे बड़ी परन्तु मूक वजहों में से एक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 7 May 2021

चौधरी अजित सिंह को उनकी मृत्यु पर सिर्फ जाट नेता कहने-लिखने वालो सुनो!

पहली तो बात:
1) कभी नरेंद्र मोदी को भी मोढ़ बनियों (जो तेल का व्यापार करते हैं) का नेता कह-लिख लिया करो? जिसने पिछले 7 साल से सारी ओबीसी पागल बना रखी कि वह तेलियों वाला ओबीसी है? जनाब धंधा तेल का होना व् तेल निकालने का काम करना दोनों अलग-अलग होते हैं| तेल निकालने वाला तेली होता है, बेचने-खरीदने वाला नहीं; अन्यथा मुकेश अम्बानी, मोदी से भी बड़ा तेली कहा जाना चाहिए| और गुड़ बनाने वाला किसान नहीं, व्यापारी कहा जाना चाहिए|
2) कभी अमितशाह को भी जैनियों का नेता कह-लिख लिया करो? जिसका कि दादा तो बताया भी मुस्लिम से कनवर्टेड|
3) कभी अटलबिहारी वाजपेई को भी ब्राह्मणों का नेता कह-लिख लिया करो?
4) कभी मनोहरलाल खटटर को भी खत्रियों मात्र का नेता कह-लिख लिया करो?
दूसरी बात:
अपनी यह आदत आगे के लिए सुधार लो| क्योंकि अब "के बिगड़ै सै", "जाण दो रै" वाले जमींदार-किसान गए बख्तों की बात हो ली| अब "तुम डाल-डाल, हम पात-पात" वाले तैयार हो रहे हैं; थारी तसल्ली से कलम थोब्बी जागी| और नहीं हुए हैं तो मेरे जैसे बहुतेरे दिन-रात इसी बिपदा में जीवैं सैं कि जब तक उदारवादी जमींदारों के अंतिम बालक तक को थारे "PRO" ना बना देंगे; हमनें चैन नहीं| अगर तुम हमारी कौमों मात्र से होने वाले सर्वसमाज द्वारा स्वीकृत नेताओं को भी सिर्फ हम में से जिस समाज से आते हैं उन तक सिमित करने की कुचेष्टाओं से बाज नहीं आए तो आने वाले वक्त में खुद के समाज के नेताओं के लिए इसी तरह के व्यापक स्तर के सम्बोधन पढ़ने-सुनने की आदतें अभी से डालनी शुरू कर लो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आईए फंडियों की एक और केटेगरी बारे जान लेते हैं!

जातिवाद-वर्णवाद में अंधे कैसे हुआ जाता है इसकी एक बानगी देखनी है तो आज के अखबारों में कल चौधरी अजीत सिंह के निर्वाण पर हुई कवरेज देखिएगा| नोट कीजियेगा कि कितने अखबारों ने उनको सिर्फ किसान नेता लिखा और कितनों ने जाट नेता लिखा| साथ ही इन सब लिखने वालों के उपनाम भी नोट कीजिएगा| गारंटी देता हूँ सिर्फ "जाट नेता" कह के पूरा लेख लिखने वाले तमाम फंडी मिलेंगे| और यह वही मिलेंगे जो कभी इनकी बिरादरी से आने वाले किसी नेता के नाम के आगे-पीछे उसकी जाति-वर्ण कभी नहीं लिखते| उदाहरण के तौर पर कुछ कटिंग्स सलंगित भी किए दे रहा हूँ| इनको फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने महान बने, शहरी रहते हुए बने या ग्रामीण, अक्षरी ज्ञान वाली डिग्रियां होते हुए बने या जिंदगी के तजुर्बे वाली विद्वानी से; इनके लिए अगर तुम इनकी बिरादरी के नहीं हो तो सिर्फ तुम्हारी जाति के नेता और इन वाली के हो तो सर्वसमाज के नेता| 


यह मत समझिएगा कि वर्ण-जाति-आडंबर-पाखंड फैलाने वाला ही फंडी है; यह अखबार वाले फंडी "वर्ण-जाति-आडंबर-पाखंड फैलाने" वालों के भी फूफा होते हैं| 

 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 









Monday, 3 May 2021

अपने धर्म में दान के सदुपयोग बारे सिखी जैसे सुधार करवाईये!

क्योंकि दान में धन-अनाज आप भी इतना ही देते हैं, परन्तु सिखी में दिया उसी मकसद व् नियत में काम आता है जिसके लिए दिया जाता है; उदाहरणार्थ किसान आंदोलन व् कोरोना महामारी| जबकि धर्म के नाम पर आप जिन नर-पिशाचों को दान दे रहे हैं; यही आपकी सबसे बड़ी दुर्गति की वजहें हैं| ना आपके दान से आपका यश बढ़ता, ना मानवता की सेवा में ये उसको लगाते|

हाल-फ़िलहाल धर्म में सुधार की कोई मुहीम नहीं चला सकते हो तो कम-से-कम इतना तो कर सकते हो कि अपना दान अपने पुरखों की भांति अपने हाथों से लगाओ, इन फंडी-फलहरियों को मत इसके खसम बनाओ|
देख लो आपके पुरखे जब अपने हाथों में कण्ट्रोल रख के धर्म-दान करते थे तो हर दस कोस पर गुरुकुल बनाए थे, जाट एजुकेशन संस्थाओं की हर जिले में जाट कॉलेज, जाट स्कूलों के नाम से सिरिजें बनाई थी| परन्तु जब से आपने यह कमांड इन फंडियों के हाथों में सरकाई है, क्या लगा है एक नया टोरड़ा, इन सीरीजों में बढ़ोतरी हेतु? इन पुरखों की खड़ी की इमारतों की मरम्मत में ही लगा हो? सोधी में आईये और अपनी अधोगति के खुद दोषी होने को सबसे पहले करेक्ट कीजिए| कहाँ वो पुरखे थे जिन बारे कहा जाता था कि, "जाट रोटी खिलाएगा तो गले में रस्सा डाल के" और कहाँ तुम उन अक्षरी अनपढ़ ग्रामीण पुरखों की तुलना में ज्यादा पढ़े लिखे व् शहरी होते हुए व् उनसे ज्यादा दान-पुण्य करके भी 35 बनाम 1 झेल रहे हो| कमी सारी इस दान की दिशा व् कण्ट्रोल ढीली छोड़ देने में छुपी है; कण्ट्रोल में लीजिये इसको|
और यह नहीं कर सकते तो गुरुद्वारों में दान करना शुरू कर दो; पड़े बेशक वहीँ रहो धर्म के नाम के जहाँ पड़े हो, यह इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि फिर तुम में से भक्त टाइप स्याणा कहेगा कि देखो धर्म-परिवर्तन की बात कर रहा है| ना मैं सिर्फ दान की दिशा व् कण्ट्रोल को पुरखों की भाँति करेक्ट करने की बात कर रहा हूँ|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 2 May 2021

2 मई के चुनाव नतीजों के बाद, किसानों पर ट्राई होगा धर्म की अफीम का इमोशनल कार्ड!

किसान नेताओं पर अब यह धर्म व् धर्मगुरुओं का इमोशनल ट्रैप फिंकवाने का पैंतरा चलने की ताक में रहेंगे; खासकर तथाकथित धर्म की अफीम सूंघे हुए, पीछे बीजेपी को वोट कर चुके व् संघी बैकग्राउंड के नेताओं के जरिए| ठोड्डी पकड़ते हुए, सत्यार्थ प्रकाश वाले "जाट जी" की स्तुति वाले ग्यारहवें सम्मुलास की भांति कहेंगे कि, "अगर सब संसार जाट जी जैसा मानवीय हो जाए तो संसार से पाखंडलीला खत्म हो जाए व् पंडे भूखे मर जाएँ"| अबकी ऐसी कोई बात आवे तो इनको बोलना कि "हम कौन होते हैं आपको खत्म करने वाले, "गीता ज्ञान" की घूंटी पियो-पढ़ो और कर्म करो; कर्म करने से कौन भूखा मरा भला"? तुम ही कहते हो ना कि "कर्म किए जा फल की चिंता ना कर रे इंसान, जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान; ये है गीता का ज्ञान"? तो लागू करो इसको पहले खुद पे|


और अगर कोई तुमको रघुवंशी या चंद्रवंशी बता के राम या कृष्ण की दुहाई देता आवे और किसान आंदोलन में कोई ऐसी दुहाई रखे कि, "एक कदम तुम पीछे हट लो, एक कदम सरकार हट लेगी" तो कहना कि आर्य-समाज के सत्यार्थ प्रकाश में ही इसके बारहवें सम्मुल्लास में रामायण व् महाभारत दोनों को ब्राह्मण मूल शंकर तिवारी उर्फ़ महर्षि दयानन्द बोगस-गपोड़ कथाएं बता के गए हैं तो उसके हिसाब से तो आपके यह दावे बोगस हुए?

और इन सबसे भी बड़ा लॉजिक: भाई जब कुछ हमारी जेब में छोड़ेगा यह 90 साल लगा के तुम लोगों का ही खड़ा किया विश्वगुरु यानि मोदी, तभी तो तुम पंडे-पुजारियों के पेट पालने लायक भी कुछ कर पाएंगे, हम? अब पिछले 5 महीने से बैठे हैं सड़कों-बॉर्डरों पर, तुमने तो 99% ने आ के आज तक ज्यात भी ना पूछी म्हारी? तो आज क्यों हिया निकला जाता है तुम्हारा?

तुम चिंता ना करो, यह तुम्हारे भी पेट पालने की लड़ाई है और शर्म बची हो कुछ तो हमारे साथ लगो अन्यथा हमें हमारे हाल पे छोड़ दो यानि हमारा पैंडा छोड़ दो| क्योंकि तुम्हें चिंता होगी तुम्हारे पेट-मात्र की, जैसे कि ऊपर कही; परन्तु हमें चिंता सिर्फ पेट की नहीं, फसल-नश्ल के साथ-साथ मानवता व् देश बिकने से बचाने की भी है| चिंता ना करो, धुर्र पुरखों के बख्तों से तुम्हारी "दो जून की रोटी व् साल का दो जोड़ी कपड़ा" यह कृषक समाज पुगाता आया व् पुगाता रहेगा बशर्ते हमें हमारे इस ब्योंत को कायम रखने की इस लड़ाई में साथ दो म्हारा ना कि इमोशनल ट्रैप खेलो हम पे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक