इस
छोरी के विचार और पोलिटिकल एफिलिएशन (political affiliation) जानने के बाद
इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यह लड़की पी.के. फिल्म की भांति रॉंग कनेक्शन
(wrong connection) की पोलिटिकल मिस्सकन्नेक्शन (political misconnection)
का नतीजा है। जैसे तपते रेगिस्तान में मींह की बूँद की आस में मुंह बाए
आदमी के मुंह में पानी की बूँद तो आई नहीं, परन्तु कोई कव्वा बीट कर गया और
उसके लिए यह छोरी कोसने मंड री है जाटों को।
मैं कुछ और भाईयों की
भांति ना ही तो इसके व्यक्तिगत जीवन पर कोई टिप्पणी करूँगा, क्योंकि इसने
पब्लिक डोमेन (public domain) में बात करी है तो उसी लाइन पे चलूँगा। ना
मैं और भाईयों की भांति भाह्ण, बेबे, दीदी, जीजी जैसे वर्ड्स (words) के
साथ इसको सर पे बैठाऊंगा, क्योंकि मेरी जाटू संस्कृति के अनुसार पांच
प्रकार की बहनों में से यह किसी में भी फिट नहीं बैठती। पांच कौनसी?
गाम-गोत-गुहांड-सगी-धर्म। यानि गाम की मेरे यह नहीं, गोत की मेरे यह नहीं,
गुहांड की मेरे यह नहीं, सगी बहन मेरी यह नहीं, और इसको धर्म की बहन कहूँ,
ऐसा महान इसने काम नहीं कर रखा और ना ही जाटों पे 'तेल पिए हुए काट्ड़े की
भांति बुरकाने' का काम करके, इसने छटा ऑप्शन दोस्ती वाला कार्य किया।
हाँ, हो सकता है मेरे इस उत्तर को पढ़ के यह मुझे दुश्मन बनाने जरूर भागे।
या आदत से मजबूर अपनी मुंहफट शैली में मुझे कोसने जरूर चले कि देख्या थारे
पै एक छोरी बोलती कोणी देखी जांदी, थामनैं एक छोरी बोल पड़ी या बात-ए कोनी
सुहाई, एंड बला-बला (and bla-bla)।
इस पर मैं शुरू से ही यह बिंदु
स्पष्ट करता हुआ चलूँगा कि मेरी आपकी बोली या आपकी शैली से कोई कटुता
नहीं| कुछ है जिसपे आपको ले के बोलना है तो उस आइडियोलॉजी के सॉफ्टवेयर पर
जो एक पोलिटिकल मिस्सकन्नेक्शन के तहत आपमें बचपन से फिट किया गया है। और
इसी पे मेरे लेख का फोकस है।
वैसे भी कुछ दिनों पहले इस छोरी की
पाथी (हिंदी में लिखी) हुई किताब "आज़ादी मेरा ब्रांड" पे टिप्पणी करने बारे
मेरे पास कई दोस्तों की अपील आई थी परन्तु मैंने मना कर दिया था। एकाध ने
ज्यादा जोर दिया तो उस किताब के रिव्यु देखे और उससे संबंधित इस छोरी की
फेसबुक वाल पे पोस्ट्स देखे, तो भी मैंने यह कहते हुए मना कर दिया कि मखा
क्यों बावले हो रे सो, छोरी स्टूडेंट लाइफ में बस-कॉलेज में हुई ईव-टीजिंग
(eve-teasing) और छेड़खानी के उलाहने दे रही है, देने दो। मखा ऐसे-ऐसे
मुद्दे भी पब्लिक में चर्चा हेतु आने चाहियें। और रही बात जो या छोरी न्यू
कह रही है अक हरयाणे में पब्लिक में तो बेबे कह्वेंगे और एकांत मिलते ही
पिछवाड़े पे हाथ मारण के बहाने टोहवैंगे, तो इसपे भी मैंने यह कह दिया था कि
यह हर सोसाइटी की बीमारी है, भावुक मत होवो, यह मत सोचो कि यह तुम्हारी ही
सोसाइटी की समस्या है, अपितु यह हर सोसाइटी की समस्या है।
परन्तु
इब जो इसने किया वो किया इसके दिमाग के सॉफ्टवेयर में गड़बड़ वजह से। पता
किया तो पाया कि यह छोरी लेफ्ट-आइडियोलॉजी के परिवेश से है। जहाँ हरयाणवी
लेफ्ट-विंग के गुरु हैं बंगाल-बिहार की सामंतवादी सोच की बंगाली-बिहारी
ब्राह्मण-ठाकुर लॉबी।
बस सारी गड़बड़ इसमें छुपी है। एक लाइन में
कहूँ तो यें लेफ्ट वाले कदे हरयाणा में यही नहीं समझ पाये कि तुम यहां से
कौनसा सामंतवाद मिटाना चाहते हो| क्योंकि बंगाली-बिहारी आइडियोलॉजी के
ब्राह्मण लेफ्टिस्ट जिस तरह का सामंतवाद इनको दिखाते रहे, उसको तो सर
छोटूराम लगभग एक सदी पहले हरयाणा से उखाड़ के जा चुके। क्योंकि यह सामंतवाद
बंगाल-बिहार में अभी भी बाकी है तो यह लोग इन हरयाणवी लेफ्टिस्टों को यही
दिखाते आ रहे हैं और यही है, यह पोलिटिकल मिस्सकन्नेक्शन; जिसकी वजह से
लेफ्ट वाले हरयाणा में गलियों में बाल्टियों में चून मांगने के किरदार से
ख़ास ज्यादा कभी कुछ कर ही नहीं पाये। अब चलेंगे बंगाली-बिहारी ब्राह्मण
सामंतवादी सोच से तो, इनको एक जाट छोटूराम थोड़े ही नजर आएगा।
अब इस
आइडियोलॉजीकली रॉंग कनेक्शन से क्या होता है कि बिहारी-बंगाली ब्राह्मण
लेफ्टिस्ट जाटों को हरयाणा में बिहार-बंगाल के ब्राह्मण-ठाकुर के बराबर
दिखाते हैं कि देखो जी जैसे उधर ब्राह्मण-ठाकुर दलित-मजदूर पर जो अत्याचार
करते हैं वही हरयाणा में जाट करते हैं। और यही वो सॉफ्टवेयर है जो इस छोरी
में फिट हो रखा है, यह सोचती है कि जाट तो हरयाणा के बिहारी-बंगाली स्टाइल
वाले ब्राह्मण हैं, ठाकुर हैं। इसीलिए यह बोली कि थाहमें की बावले थे,
थाहमें के सोच नहीं सको थे। थांनैं लाहौर कोनी फूंका, आपणा घर फूंक्या सै।
कोई भड़कावे था तो थाहमें क्यों भड़के? इब थारै कूण फैक्ट्री लाण आवैगा एंड
बला-बला।
यहां दो धाराओं में लेख को आगे बढ़ाऊंगा। एक तो छोरी न्यू
बता, जै कोई तैने बस में छेड्या करदा तो के जुल्म होग्या था जो तैने पूरी
किताब-ए पाथ कें धरदी उन मुद्द्यां पै? तू के बावळी थी? ऊँ तो तू इतनी
क्रन्तिकारी बनै अक जाटों का औढ़ा ले के हरयाणा की इन बुराइयों पर लोगों को
बोलने हेतु प्रेरित करै अर दूसरी तरफ तू जाट्टां नैं उनके अधिकार की आवाज
भी ना उठाने दे रही? के बात छोरी, तूने जाटों को 'फॉर गारंटीड' ले रखा है
क्या, कि मेरे ब्ट्यो थामनैं न्यूं बळ भी बासुंगी अर न्यूं बळ भी? अगर तूने
सर छोटूराम को पढ़ा होता तो जानती होती कि लाहौर जाटों के लिए कितने सम्मान
की जगह है, जाट क्यों सर छोटूराम की कर्मस्थली में आग लगाएंगे, पहाड़ी
बुच्छी?
दूसरी बात, छोरी अपणे दिमाग के सॉफ्टवेयर को या तो
रेक्टीफाई कर ले या पूरा सिस्टम रिप्लेस कर ले। क्योंकि बंगाल-बिहार का
ब्राह्मण-ठाकुर सामंतवाद हरयाणा में नहीं और ना ही तू बिहार बंगाल स्टाइल
वाली हरयाणा की ब्राह्मण या ठाकुर है। वो कैसे वो ऐसे:
बिहार-बंगाल का सामंतवाद बनाम हरयाणा का सीरी-साझीवाद:
1) बिहार-बंगाल में आज भी ब्राह्मण-ठाकुर खेत के किनारे खड़ा हो के मजदूर
से कार्य करवाता है, जबकि तेरे हरयाणा का जाट अपने सीरी के साथ लग के खेतों
में काम करता है।
2) बिहार-बंगाल में 'नौकर-मालिक' का रिश्ता है,
जबकि हरयाणा में 'सीरी-साझी' यानी पार्टनर का। जानती है ना गूगल जैसी कंपनी
भी जाटों के वर्किंग कल्चर पे चलती है, उसमें भी एम्प्लोयी को एम्प्लोयी
नहीं बल्कि पार्टनर कहते हैं?
3) बिहार-बंगाल में ब्राह्मण-ठाकुर के
जुल्म की वजह से वहाँ महादलित भी हैं। जबकि हरयाणा में सिर्फ दलित और वो भी
ऐसी हैसियत और स्वछँदता के कि साला किसी की बेफाल्तू में दाब ना मानते।
4) बिहार-बंगाल के सामंतवाद से तंग हो के वहाँ के दलित हरयाणा-पंजाब में
रोजगार ढूंढने और करने आते हैं। एक आर्ट फिल्म है 'दामुल' वा देख लिए फर्दर
डिटेल्स के लिए।
5) बिहार-बंगाल में कोई दलित ढंग के मकान की सोच भी
ना सकता, जबकि दो चमारों की जाटों को टक्कर देती पचास-साठ साल पहले बनी दो
हवेलियां तो मेरे गाँव निडाना, जिला जींद हरयाणा में आज भी खड़ी हैं। और ऐसी
ही कहानी लगभग हर हरयाणवी गाँव की है।
6) बिहार-बंगाल का
ब्राह्मण-ठाकुर आज भी बेगार करवाता है वहाँ दलित-महादलित से। जबकि तेरे
हरयाणा का अधिकतर जाट बाकायदा बनिए की बही के जरिये लिखित के सालाना
कॉन्ट्रैक्ट के जरिये सीरी रखता आया है और आजकल तो कच्ची रजिस्ट्री पर भी
रखने लगे हैं।
7) बिहार-बंगाल में जहां दलित-महादलित ब्राह्मण-ठाकुर
के आसपास भी फटकने की नहीं सोच सकता, हरयाणा में खेत में जाट दलित के साथ
बैठ के खाता आया है और बहुत से एक ही थाली में खाते हैं। इब इसपै तू न्यूं
बरडान्दी होई ना चढ़ जाईये, अक फेर घर में थाली न्यारी क्यूँ हो सै सीरी की।
इसका कारण यही है कि तेरी माँ तेरे ताऊ-चाचा की झूठी थाली तीज-त्यौहार को
छोड़ के रोज-रोज ना मांज सकती। हाँ जाट-किसान इतने अमीर होंदे कोनी अक घर
में कासण मांजन ताहीं नौकर राखदे हों। बड़ै सै किमैं बुत में अक नी?
तो सबसे पहले यह बंगाल-बिहार की ब्राह्मण लेफ्ट आइडियोलॉजी का सॉफ्टवेयर
अपने दिमाग से डिलीट मार दे कि तू हरयाणा की ब्राह्मण है। दूसरा हरयाणा के
लेफ्ट वालों को बोल कि जहां से सर छोटूराम जी काम अधूरा छोड़ गए थे, उससे
आगे काम को उठावें। बंगाली-बिहारी ब्राह्मणों की आइडियोलॉजी की चापलूसी में
एक जाट सर छोटूराम की कहीं बेहतर और कारगर आइडियोलॉजी को ना ठुकरावें या
नजरअंदाज करें। और गारंटी देता हूँ आज लेफ्ट वाले सर छोटूराम को उठा लेवें,
अगर अगले पांच-दस साल के भीतर-भीतर हरयाणा में सरकार ना बना जावें तो।
इन थोड़े से बिन्दुओं पर विचार कर लिए अर ना तो बावली-ख्यल्लो, न्यू-ए
"काटड़ा और जाटड़ा अपने को ही मारे" वाली केटेगरी में गिनी जाया करेगी,
इतिहास में। और घणी चौड़ी मत ना होईये इस बात पे अक तेरे को इतने अवार्ड
मिले, फलाने बड्डे अवार्ड मिले अक धकडे बड्डे अवार्ड मिले; क्योंकि यह
अवार्ड्स की वो केटेगरी है जिसको एक सोसाइटी के लिए नेगेटिव तो एक के लिए
पॉजिटिव लिटरेचर बोलते हैं, सैचुरेटेड, न्यूट्रल या इम्पार्सियल लिटरेचर
नहीं।
Special: I have tried to write this note mapping your
sattire of writing, especially its Haryanvi part. Hope you won't create a
new nuissance out of it uselessly and would talk to the point.
Note: I shall also try to send this note to this girl, even then thanks a lot for sending it to her on my behalf.
Author: Phool Kumar Malik