Sunday, 28 June 2015

मुझे हिन्दू शब्द का भविष्य बताओ, इसको शास्त्र-ग्रंथों में स्थान दिलवाओ!


हिन्दू शब्द का अस्तित्व तभी तक है जब तक इसको भुनाने वालों को एक प्रतिद्ंवदि धर्म विशेष से डर है; जिस दिन यह डर खत्म उस दिन हिन्दू शब्द को ऐसे उतार के त्याग दिया जायेगा, जैसे सांप अपनी केंचुली त्याग देता है|

क्योंकि हिन्दू शब्द का इतना ही धार्मिक औचित्य होता और इसको भविष्य में भी आगे बढ़ाने का प्लान होता तो अब तक इस शब्द को तमाम ग्रन्थ-शास्त्रों में जगह मिल चुकी होती|

समय भले ही दशक लगे, अर्धशताब्दी लगे, शताब्दी लगे या शताब्दियाँ लगे, परन्तु यह पूर्वनिर्धारित है और अवश्यम्भावी है|

जिसको मेरी बात अटपटी लगे, वो जा के इस शब्द को भुनाने वालों से पूछ लेवें| और मुझे कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब इस शब्द को त्यागा जायेगा तो इसकी रिप्लेसमेंट में कौनसा शब्द तैयार करके रखा जा चुका है| और खुद हिन्दू शब्द भुनाने वालों ने इस शब्द को धर्म नहीं अपितु जीवनशैली की एक पद्द्ति कह के इसको रास्ते से हटाने की समानांतर तैयारी शुरू भी कर दी है|

इसपे भी जिसको जिसको यकीन ना हो वो मेरी इस पोस्ट के स्क्रीनशॉट ले लेवें, कहीं बहुत ही सुरक्षित जगह पे सेव कर जावें| आप अपने जीवन में ऐसा होते हुए नहीं देख पाएं, तो गाली देते हुए ही सही परन्तु अपने बच्चों को जरूर कहना कि इस फूल कमीने की बात जब सच होवे तो हमें स्वर्ग में खत डाल के अवगत करवा देवें| साथ ही उनको यह भी लिख जावें कि नए नाम के तहत हमें स्वर्ग में ही रहना है या हैवन (heaven) अथवा जन्नत या इसके ही जैसे नए शब्द के रूप में ईजाद की गई जगह पे शिफ्ट होना होगा| कोई डाकिया/ईमेल ना मिले तो हमारे श्राध वाले दिन कौव्वे को खीर खिलाने की जगह यह चिठ्ठी उसकी चोंच में बत्ती बना के उसको गिटका देवें, वो हम तक पहुंचा देगा; ठीक वैसे ही जैसे कव्वे की खाई खीर सीधी स्वर्ग में बैठे पुरखे खाते हैं|

वैसे मुझे अचंभा भी होता है कि जिस शब्द को अब आ के धर्म नहीं अपितु जीवन जीने की एक शैली बताया जाने लगा है, उसी शब्द के नाम से भारत में सिर्फ एक वर्ग विशेष ही कानूनी कागजों में इस शब्द को धर्म के नाम से क्यों दर्शाता है; उस वर्ग विशेष के इस शब्द से 'हिन्दू मैरिज अधिनियम 1955' बने हुए हैं और तमाम तरह की कानूनी और सरकारी योजनाये भी हैं, परन्तु दूसरी तरफ इस शब्द को शास्त्र-ग्रंथों में कोई जगह ही नहीं। यह भी एक दूसरी और ख़ास वजह है इस शब्द को ले के मेरे संशय की।

बात कड़वी है, बहुतों को चुभेगी, परन्तु सोलह आने डंके की चोट पे सच्ची है|

इसलिए इस शब्द से अपने आवेश और परिवेश को बांधने वाले जितना जल्दी हो सकें उतना जल्दी इसको शास्त्र-ग्रंथों में एंट्री दिलवाने बारे आंदोलन चलायें अथवा चलाने पे मंत्रणा करें|

वैसे एक पक्ष इसका यह भी है कि जो सांप की केंचुली की भांति बदल दिया जाए वो धर्म स्थाई या अपने वंश-कुल का खून स्थाई?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक वीर यौद्धा बाबा बंदा सिंह बहादुर जी!


चंडीगढ़ के पास बुड़ैल गाँव है, जो गुलामी के दौर में मुस्लिम रांघड़ के अधिपत्य में होता था| यहां का फौजदार हिन्दू धर्म की तमाम 36 बिरादरी की औरतों को शादी के तुरंत बाद कुछ दिन अपने पास रखता और फिर पति के घर जाने देता| बुड़ैल के स्थानीय ग्रामीण इस बाध्यता से तंग थे और इसपे सितम तो यह था कि यह इलाका मूलरूप से इस मुस्लिम रांघड़ की हिन्दू जाति बाहुल्य था|

जब इसकी शिकायत बाबा बंदा सिंह बहादुर जी को पहुंचाई गई तो उन्होंने 1712 में 80% जाट योद्धाओं से सुसज्जित टुकड़ी के साथ बुड़ैल के फौजदार को मार दिया और इस अमर्यादित कुकर्म का खात्मा किया| उसके बाद बुड़ैल में बाबा जी का गुरुद्वारा बनाया गया जो कि आज भी मौजूद है|

ऐसे ही किस्से जब हम कलानौर रियासत की तरफ आते हैं तो वहाँ के सुनने को मिलते हैं| यह भी मुस्लिम परमार रांघड़ द्वारा शाषित रियासत थी और इसके इर्द-गिर्द के 10-12 गाँव इसी रांघड़ की हिन्दू जाति बाहुल्य थे जो कि आज भी हैं| तब ऐसा ही अमर्यादित तंत्र एक रात हेतु इसने सिर्फ आसपास के ही नहीं अपितु दूर-दराज वालों के यहां से गुजरते डोलों पर भी चलाया था| तो ऐसे ही इनके यहां से जब एक जाट बारात गुजरी तो इन्होनें उस डोले को उतारना चाहा परन्तु उस डोले में बैठी दुल्हन गठवाला खाप की दादीरानी समाकौर गठवाला ने इसका विरोध किया और वहाँ से भाग निकली व् अपने मायके आ अपने पिता से पूछा कि, "मैं जाटों के ब्याही हूँ तो कालनौरिया मेरा डोला कैसे रोक सकता है?" इस पर उनके पिता ने गठवाला खाप हेडक्वार्टर आहुलाना गोहाना सन्देश भिजवाया| वहाँ से गठवाला खाप ने तमाम खापों को चिट्ठी फाड़ी (यानी ऑफिसियल लेटर भेज कर सर्वखाप महापंचायत बुलवाई, यहां मीडिया के वो भीरु ध्यान देवें कि कोई भी खाप पंचायत ऑर्गनाइज कैसे की जाती है) और फिर हुआ 1620 में गठवाला खाप की अगुवाई में कलानौर के पास गढ़ी-टेकना का रण तैयार| खाप की इस कार्यवाही के लिए लीडर दादावीर चौधरी ढिलैत जी की कमांड तले पूरी कलानौर रियासत को नेस्तो-नाबूत कर खापों ने इस जुल्म को खत्म किया|

ऐसे ही झज्जर के पास 17 गाँव राजपूत जाति बाहुल्य हैं, जहां की तमाम हिन्दू औरतों पर भी ऐसे ही जुल्म हुआ करते थे| तब यहां के स्थानीय खुडान गाँव के पूनिया गोती (गोत्री) जाटों ने इन गाँवों को रांघड़ों के जुल्मों से मुक्त करवाया था| आज भी यह 17 गाँव, खुडान गाँव के पूनिया जाटों के सर पगड़ी रखते हैं| बाकी सही-सही जानकारी की वर्तमान यथास्थिति इन गाँवों में जा के प्रत्यक्ष देखी जा सकती है|

खरखौदा, हसनगढ़ और भरोटा को भी इन्हीं वजह से तोड़ा गया था|

बड़ा गर्व महसूस होता है जब बहादुर जातियों के ऐसे आपसी सहयोग के किस्से सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। काश! सोशल मीडिया पे आपस में भिड़ने से पहले इन जातियों के आज के नादान युवा इन ऐतिहासिक बारीकियों को समझें और ऐसे ही आपसी सहयोग और तालमेल से रहें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

एंटी जाट ताकतें वैसे ही नहीं जाटों के खिलाफ, एक तरफ़ा कार्यवाही का साहस जुटा गई!


यह सब कब से हुआ और कैसे हुआ उसको बड़े सलीके से अंजाम दिया गया है| और इसके परिणाम स्वरूप पहले जाट को चार धड़ों में अलग-थलग किया गया, एक शहरी जाट, दो खाप-परस्त जाट, तीन नेता व् पार्टी परस्त जाट और चार ग्रामीण जाट|

1) 3B ग्रुप ने शहरी जाट को अपने चश्मे में उतारा, उससे माताएं पुजवानी शुरू की, गैर-जाट ब्याह-शादी की चमकीली परन्तु बिना लॉजिक की परम्पराएँ प्रमोट करवाई| इससे शहरी जाट में इतना अरोगेंस भर गया कि रिटायर होने के बाद भी उसने अपने गांवों की तरफ मुड़ के नहीं देखा|

2) पूरा मीडिया और एंटी-जाट सभ्यता एनजीओ को जाट की खाप ब्रांड को धूमिल करने हेतु 2005 से उसके पीछे छोड़ा गया| इससे शहरी जाट को दूसरा कारण दिया गया गाँवों की तरफ मुड़ अपने ग्रामीण भाइयों को ना संभालने का|

3) पार्टी-परस्त जाट, इसका तो कहूँ ही क्या, इतनी तो देश में पार्टियां नहीं, जितनी जाट बहुल एक गाँव में मिल जाएँगी|

4) ग्रामीण जाट के संसाधनों व् संस्कृति को तितर-बितर करने हेतु तो सारा गेम खेला ही गया था|

और हमारे वाले अरोगेंस में बैठे रहे यह कहते हुए कि, "के बिगड़े सै, देखी जागी!"

इब तो एडी उचका-उचका देखण का ही काम रहवगा जब तक यह चार धड़ों में बंटा जाट एक हो के नहीं सोचता|
इसलिए सबसे पहले एक होवो, इनकी माता-मसानियों को अपने घरों से बाहर निकालो| खाप तंत्र को जो नहीं समझता उसको समझाओ| जो शहरी जाट है वो गाँव की तरफ मुङो| जिसको बोलना नहीं आता उसको बोलना सिखाओ| चाहे गाली खा के सिखाओ परन्तु सिखाओ|

क्योंकि एंटी-जाट 3B ताकतें जाट को दलित और पिछड़े से तोड़ रही हैं और जाट सिर्फ खड़े देख रहे हैं| जाटो जब तक आगे बढ़ के अपने आपको स्पष्ट नहीं करोगे, दलित-पिछड़ा आपके एंटी 3B की ही सुनेगा| अपने आपको प्रमोट करो, मार्किट करो और बोलना शुरू करो|

मैं यही नहीं कहता कि दलित-पिछड़े को ले के आपसे कोई गलती नहीं हुई होगी, परन्तु इतना भी जानता हूँ कि आप से कहीं कई गुना ज्यादा दलित-पिछड़े का नुक्सान इन्होनें किया है| और दलित-पिछड़े को इस बात का अच्छे से अहसास भी है, पंरतु अगर आप ऑप्शन ही खत्म कर दोगे तो वो आपके साथ कैसे जुड़ा रह पायेगा?

अत: जरूरत है तो वो उस नुकसान को आगे रखने की, दलित-पिछड़े का ऑप्शन बने रहने की| इसलिए सोशल मीडिया हो या जैसा भी प्लेटफार्म हो, चुप मत बैठो 'Tit for tat करो|' यह आपके अधिपत्य के किस्से दलित-पिछड़े के आगे रखते हैं तो आप इनके रखो| जैसे एमडीयू में जाट असफरों-प्रोफेसरों के साथ किया जा रहा है, ऐसे आप इन वालों के जिसको भी जहाँ जो भी भेदभाव और घपला दिखे उसको आगे लाओ| क्योंकि यह लोग दलित-पिछड़े को सिर्फ बहका के रखेंगे और रोजगार देंगे खुद के 3B ग्रुप को|

शर्म-शर्म में शर्मा के सामड जाओगे और दुश्मन सोचेगा कि यह तो मेरे से डर गया| इनकी नियत को बराबर उजागर करते रहोगे तो इस भीड़ पड़ी के वक्त में एक तो दलित-पिछड़े के दिल-दिमाग से दूर नहीं जाओगे, दूसरा दलित-पिछड़ा इनके इतना नजदीक नहीं जायेगा कि जिससे आपको जुड़े रहने में बाधा आये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 27 June 2015

एक ही गोत (गोत्र) में ब्याह और यूरोप!


‘le mariage de même nom pas autorisé dans notre culture’ – as per my european friends

विगत सप्ताह एक फ्रेंच मित्र और उससे कुछ दिन पहले एक रोमानियाई मित्र से मुलाकात हेतु कंट्रीसाइड गया हुआ था| इन दोनों मुलाकातों में ही ऐसा संयोग बैठा कि संस्कृति और मान-मान्यताओं पर बातें चल निकली| उनसे हुई बातों के कुछ रोचक हिस्से हिंदी में रूपांतरित करके सुनाता हूँ|

गाड़ी में कंट्रीसाइड चल निकले तो बातें शुरू हुई| उन्होंने मुझसे कहा कि इंडिया में तो वर्ण व् जाति-व्यवस्था बहुत ऊँच-नीच फैलाती है| सुना है हिन्दू धर्म विश्व का इकलौता ऐसा धर्म है जिसमें धर्म के ही अंदर रंग-नश्ल के आधार पर भेदभाव होता है?

मैंने कहा कि रंग-नश्ल के आधार पर भेदभाव तो हर जगह है| तो वो बोले हाँ, पर खुद के ही धर्म वालों द्वारा खुद के ही धर्म वालों को रंग-नश्ल भेद का शिकार? तो मैंने कहा कि यह सब गन्दी राजनीति की वजह से होता है|
बोले कि फूल बनो मत हमारे आगे, हमें गूगल करना आता है| इस पर मैंने कहा कि अमेरिका में गोरे और काले की लड़ाइयां तो वर्ल्ड फेमस हैं, सुना है दोनों एक धर्म के होते हैं? इस पर झट से बचाव में जवाब आया कि काले पहले गौरों के गुलाम थे, उस वक्त उनका धर्म कुछ और था| तो यहाँ सवाल एथनिसिटी का भी बन जाता है, परन्तु तुम्हारी तो सबकी एथनिसिटी इंडियन ही है ना?

मैंने कहा जो भी हो परन्तु लड़ाईयां तो हैं? इस पर मैंने टॉपिक को घुमाते हुए कहा कि चलो इंडियन और यूरोपियन कल्चर में कुछ कॉमन ढूंढते हैं|

1) गॉड फिलोसोफी मिलाई तो वो नहीं मिली| वो बोले कि हमारे यहां तो जीसस ही को मानते हैं सब| मैंने कहा हमारे यहां ऐसी कोई बाध्यता नहीं, आप जिसको चाहे मानो| पर उन्होंने मुझे इसपे घेर लिया| बोले कि ऐसा है तो फिर दलितों को मंदिरों में चढ़ने से क्यों रोका जाता है? वो भी तो जिसको चाहें मान सकते हैं| मैं मन ही मन कुंधा कि पूरी रिसर्च करके बैठे हैं|

2) फिर बात आई साधु-संत परम्परा की| इसपे कॉमन बात मिली कि जैसे स्थानीय संत-महापुरुष हमारे यहां होते हैं ऐसे ही यूरोप-फ्रांस में क्षेत्र के हिसाब से अपने-अपने होते हैं|

3) शादी के रीति-रिवाजों की बात चली तो मुझे उत्सुकता हुई और उनसे पूछा कि तुम्हारे यहां शादी पे गोत-वोत (गोत्र) छोड़ने जैसा कोई सिस्टम है क्या? तो वो बोले कि हाँ है, आपको सेम-सरनेम में शादी का विधान नहीं है| तो वो बोले की इंडिया में कैसे होता है? तो मैंने कहा कि है तो हमारे यहां भी कुछ-कुछ ऐसा ही परन्तु सिर्फ जाट-बाहुल्य इलाकों में| बोले कि वही जाट जिनकी आर्मी की टुकड़ी की हिटलर ने भी डिमांड की थी कि मेरे पास जाट टुकड़ी होती तो युद्ध मेरे पाले होता? मैंने कहा हाँ वही जाट|

वो आगे बोले कि ऐसा क्यों कि धर्म एक परन्तु विवाह के नियम अलग? मैंने कहा वास्तव में जाट-सभ्यता के नियम अलग हैं| तो बोले कि शादी वाला तो हमारे जैसा हुआ? मैंने ख़ुशी से कहा कि हाँ, बिलकुल|

ऐसे बातें करते-करते हम अपनी मंजिल पर पहुँच गए| वहाँ रात को डिनर पे बैठे-बैठे हमारे होस्ट के आगे भी यही बातें चली तो उसने सेम-सरनेम मैरिज का एक इशू बताया| बोली कि le mariage de même nom pas autorisé dans notre culture.

ऐसे कुछ दिन पहले जिस रोमानियाई मित्र से मिला था उन्होंने तो सेम-सरनेम मैरिज इशू का एक एक्साम्पल भी बताया| वो पेरिस में रहती हैं, बेसिकली हैं रोमानिया की| बोली कि 2009-10 में मेरे पास जो लड़की रहती थी, उसका अफेयर उसके चचेरे भाई से चल निकला था तो उसके पेरेंट्स ने लड़की को घर से निकाल दिया था| और लड़की माइग्रेट हो के फ्रांस आई तो मैंने आया के तौर पर रख लिया| परन्तु फिर अगले ही साल जब वो वापिस रोमानिया गई तो वो अपने लवर से मिली, परन्तु तब दोनों की फैमिली ने फिर से पींघे बढ़ती दिखी तो लड़के-लड़की को बहुत मारा और लड़की फिर से वापिस फ्रांस आ गई|

हालाँकि मुझे वर्ड-टू-वर्ड याद नहीं परन्तु ऊपरी तौर पर दोस्त ने मुझे यही कहानी बताई| चर्चों से पता चला तो पाया कि जो लोग चर्च में कॉन्फेशन करने जाते हैं उनमें ऐसे केस भी होते हैं जो अपनी कजिन, रिलेटिव या सेम-सरनेम में कोई अफेयर हुआ तो उसका कॉन्फेशन भी करते होते हैं|

कुछ भी हो मुझे इस बात से संतुष्टि हुई कि मेरी सभ्यता से इनकी सभ्यता में इतनी बड़ी चीज मिलती है, कि उसको सोशल लाइफ का 'कोड ऑफ़ कंडक्ट' यह भी मानते हैं और हमारे वाले भी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 26 June 2015

लोकदिखावा, सोशल रेपुटेशन अथवा मनी पावर दिखाने और जताने के अपने पैमाने बदलो!


क्या आपको कावड़ लाने की सलाह देने वाला खुद कावड़ लाता है कभी?

क्या आपको मृत्युभोज/काज करने की प्रेरणा देने वाला, खुद के पुरखों का मृत्युभोज आयोजित करता है कभी?

क्या आपसे सवामनी लगवाने वाला या जगराते करवाने वाला खुद यह करता है कभी?

तो फिर क्यों बावले हुए टूल रहे? कारण साफ़ है उसके लिए यह सिर्फ पैसा कमाने का धंधा है|

दिखावे या समाज में इज्जत और रेपुटेशन या फिर मनी पावर दिखाने के लिए अगर आप ऐसा करते हैं तो वो तो मृत्युभोज के पैसे से किसी गरीब और साधनहीन होशियार बालक की शिक्षा में लगा के भी कर सकते हो?

अपने घर-रिश्तेदारी में होने वाले ऐसे आयोजनों पर उनको बोलें कि आप यही पैसा आसपास के किसी जरूरतमंद के शिक्षा खर्च हेतु बोल दीजिये| गाँव की चौपाल से बुलवा दीजिये, अखबारों में निकलवा दीजिये, कि फलां-फलां ने अपने अतिवृद्ध पिता अथवा दादा की मृत्यु पर एक-दो-चार या जितना भी सामर्थ्य हो उतने गरीब बच्चों की एक-दो-चार या जितने तक हों उतने साल की शिक्षा का खर्च वहन करने का बीड़ा उठाया|

मेरे ख्याल से इससे आपको ज्यादा यश, वैभव और प्रतिष्ठा के साथ-साथ आपके पुरखे की आत्मा को भी संतुष्टि मिलेगी| बात तो दिखावे की ही हैं ना, तो अखबारों में निकाल के आपका दिखावे का चाव भी पूरा और डायरेक्ट आपके हाथों से धर्म का धर्म|

कसम से अगर किसी जरूरतमंद की सहायता करने से भी आपको बहु या मनोकामना नहीं मिलती तो कावड़ लाने से मिलेगी ऐसा तो सपने में भी मत सोचना|

इसको पढ़ के आया एक भेद और समझ कि यह फंडी-पाखंडी लोग आपको गुप्तदान की क्यों बोलते हैं अथवा दान दे के भूल जाने की अथवा दान को गाने-बताने की चीज नहीं होती ऐसा क्यों बोलते हैं? ताकि कहीं आप खुद दान-पुन ना करने लग जावें और इनके धंधे चौपट हो जावें| अखबारों में अगर आप इनको निकलवाओगे तो आप खुद ही भगवान बन जाओगे, तो फिर इनके घड़े हुओं को कौन पूछेगा| बड़ा गहरा रहस्य बता दिया है, अपने भगवान खुद बनिए और खुद के दान को जी भर के लोकदिखावा करते हुए, गरीब बच्चों की मदद कीजिये|

फुलटूस बाकायदा होर्डिंग्स लगवाइये, बैनर लगवाइये परन्तु अपने हाथों से दान-पुन कीजिये| अपने पुरखे की मृत्यु पे बेशक स्पीकर लगा के, यहां तक कि चाहो तो टीवी पे लाइव दिखवा के गरीब और जरूरतमंत को अडॉप्ट कीजिये अथवा दान दीजिये, परन्तु खुद कीजिये| ऐसे लोगों की तोंदों पे वसा चढ़वाने वाले लोकदिखावों से सिवाय समाज में असामनता-अराजकता और हीन भावना फैलने के कुछ हासिल नहीं होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 23 June 2015

औरत के अधिकार कुचले तो तालिबान और जो अन्य मानवताओं (मर्द-औरत दोनों) के भी अधिकार कुचले वो क्या?


बुद्ध-धर्म की थ्योरी खोज, स्वछँदता और आधुनिकता से परिपूर्ण दिमाग पैदा करती है, इसका जीता-जागता उदाहरण हैं जापान, सिंगापुर, कोरिया और चीन आदि| जो टेक्नोलॉजी वांछित और शांतिप्रिय दिमाग इनके पास है वो हमारे पास आने में दशकों लगेंगे और तब दशकों बाद वो दशकों आगे होंगे| क्योंकि हम आज भी जाति-रंगभेद-नश्लवाद-छूत-अछूत में उलझ के समाज के मानव-संसाधन का ना सिर्फ यथोचित प्रयोग नहीं कर पाते हैं अपितु उसको इससे वंचित भी रखने वाली सामाजिक व् धार्मिक व्यवस्था में जीते हैं| और दशकों बाद भी हमारी यही कहानी रहती नजर आती है; अगर हमने इस व्यवस्था को नहीं तोड़ा अथवा बदला तो| हाँ मैं शत-प्रतिशत गारंटी लेते हुए नहीं लिख रहा क्योंकि चमकते हुए चाँद में भी दाग बताते हैं परन्तु इतना जरूर कहूँगा कि बुद्ध धर्म सर्वोत्तम सोच के मानव पैदा करने वाला धर्म है|

वह धर्म हो ही नहीं सकता जो आज इक्सवीं सदी में आकर भी किसी को सिर्फ इस बात पे कलम ना उठाने की वकालत करता हो कि वो उनके अनुसार अछूत है, इसलिए उसको ऐसा अधिकार नहीं है| वह धर्म हो ही नहीं सकता जो आज इक्सवीं सदी में आकर भी ऐसी बातों से लिखी पुस्तकों-सोचों में सुधार नहीं करता हो और इनको अविरल बहने दिए जाने पे आमादा हो| ऐसी मानसिकता विश्व की सबसे घातक मानसिकता है| यह धर्म ना हो कर एक कबीलाई जाति की भांति सिर्फ अपनी पहचान ना खो जाए इस डर से खुद के लिए खड़ा किया हुआ सुरक्षा कवच है|

अथवा फिर इसको मानने वालों में दोष है, जो इसके प्रतिउत्तर में अपनी खुद की सोच नहीं खड़ी करते| इन्हीं की भांति अपनी सोच के इर्दगिर्द सुरक्षा-कवच नहीं बनाते|
ऐसी मानसिकता सिर्फ चोरी-चकारी-चाकरी-छीना-झपटी (आज की भाषा में कॉपी-कट-पेस्ट) की मानसिकता के दिमाग पैदा कर सकती है|

सोचो अगर सिर्फ औरत के हक पे लगाम लगने से कोई सोच तालिबानी कहलाती है तो वह सोच क्या कहलाएगी जो औरत के साथ-साथ रंग-नश्ल विशेष के मानव को भी उसके अधिकारों से वंचित रखती हो (जिसमें कि औरत के साथ-साथ मर्द भी आ जाता है)? या उसको अलगाव यानी आइसोलेशन में बाँध देने पर आमादा हो? दुर्भाग्य है परन्तु हम यही सोच, धर्म और आर्दश समाज के नाम पर ढो रहे हैं|

इसको समर्थन देकर उनके सुरक्षा कवच को मजबूत करने के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता| यह विश्व की मानव-गुलामी की थ्योरी की सबसे भयावह और न्यूनतम दर्जे की थ्योरी है| जो इसको बनाने वाले को जितना पोषित करती है, इसका अनुसरण करने वाले अथवा इसको शीश झुकाने वाले को उतना ही शोषित और दूषित|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणवी समाज से निवेदन है कि वो ब्याह-शादी के कार्डों में चार लोगों के कन्धों पे वाली डोली के सिंबल की जगह चार-पहियों वाली डोली यानी बैल्हड़ी-रथ का सिंबल प्रयोग करें!

स्वछंद हरयाणवी सभ्यता इतनी मानवीय रही है कि पुराने जमाने में जहां दूसरे राज्यों-समाजों में दुल्हन की डोली उठाने के लिए किसी जानवर की भांति चार दलित लोग लगाए जाया करते थे और आगे घोड़ी पे दूल्हा चला करता था; वहीँ हरयाणा और इसमें भी खासकर जाटों के यहां चार लोगों की जगह चार पहिये वाली बैल्हड़ी-रथ होता था और उसको दो बैल खींचते हुए, घोड़े पे बैठे दूल्हे के पीछे चला करते थे|

अपनी शुद्ध सभ्यता को जिन्दा रखें और मानवीयता को बनाये व् पाले रखें| किसी भी इंसान को गुलाम की भांति पालना अथवा रखना, ना ही तो हरयाणवी सभ्यता रही है और जाट की तो रही ही नहीं है| और इसलिए शुद्ध हरयाणवी सभ्यता में नौकर को नौकर नहीं साझी बोला जाता है साझी यानी पार्टनर| वैसे भी चार कन्धों (वो भी अपनों के गुलामों या बेगानों या भाड़े के नहीं) पे अर्थी जाती हुई अच्छी लगा करती है, डोली नहीं|

बचपन में मेरी दादी बताती थी कि जब अंग्रेज कलकत्ते से नए-नए खापलैंड पे आये और खापलैंड के दिल दिल्ली में राजधानी शिफ्ट करी तो यहां की सभ्यता में यह अनोखी चीज देख अचंभित थे| कहते थे कि कलकत्ता देखा, जयपुर देखा, हैदराबाद देखा यहां तक मद्रास देखा, परन्तु कहीं भी दुल्हन रथ में जाती नहीं देखी| वो कहते थे कि राजे-रजवाड़ों तक के यहां दुल्हन चार कन्धों वाली मानव डोली में जाती है परन्तु इस हरयाणे की धरती पर तो क्या छोटा और क्या बड़ा किसान-इंसान, सबकी दुल्हनें बैल्हड़ी-रथ में जाती हैं| और इसीलिए हमारे यहां इसको डोली नहीं 'डोहळा' बोला जाता था| दादी कहती थी कि वो अक्सर कहते थे कि कोई ताज्जुब नहीं कि 1857 की क्रांति दबाने में खापलैंड के लोगों ने हमें क्यों नाकों-चने चबवा दिए और क्यों इनकी वजह से राजधानी कलकक्ते से दिल्ली लानी पड़ी| यह लोग कितनी स्वछंद सभ्यता के हैं इनकी इन्हीं चीजों से अंदाजा लग जाता है| ऐसा प्रतीत होता है कि यहां हर कोई राजा है, भिखारी तो इस धरती पर दीखते ही नहीं| ना कोई यहां के गाँवों-नगरों में भूखा सोता| यह चमक और धाक होती थी हरयाणवी सभ्यता की|

तो जो हरयाणवी, आज इन नए छद्म आधुनिक राष्ट्रवादिता और सभ्यता के पैरोकार बने लोगों के बहकावे में आ रहे हैं वो इनके साथ जुड़ने अथवा इनकी किसी भी प्रकार की दानवीय सभ्यता के बहकावे में आने से पहले इनसे यह सुनिश्चित जरूर करवा लेवें कि आपकी मानवीय सभ्यता के रक्षण-संरक्षण व् पालन के लिए इनके पास क्या है| वरना दो-एक दशक बाद ऐसा अहसास होगा जैसा धोबी के कुत्ते को घर के ना घाट के वाला होता है|

इसलिए कुछ भी करें, किसी के भी साथ करें, परन्तु अपनी रॉयल हरयाणवी सभ्यता (यानी सबसे मानवीय सभ्यता) को साथ ले के चलें|

चलते-चलते मेरा हरयाणवी फिल्मकारों से भी निवेदन है कि बॉलीवुड ना सही परन्तु आप तो अपनी इस रॉयल-हरयाणवी सभ्यता के ऐसे-ऐसे सुनहरे पहलुओं को अपनी फिल्मों-सीरियलों में उतारना शुरू कीजिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 22 June 2015

इसे योग नही भोग कहते है!

जरूर यह देवदासी मानसिकता से ग्रसित इंसान है। इनको अपनी बहु-बेटी को छोड़ के बाकी सबकी बहु-बेटियों में देवदासियां नजर आती रही हैं। और यही इनकी अंतिम मंजिल होती आई है।

और इसकी बेशर्मी तो देखो कितने इत्मीनान से हाथ जचाये हुए है, इस बेशर्म को इतनी भी चिंता नहीं कि पब्लिक स्पॉट पे तू ऐसा कर रहा है। इनको भान तो रहना चाहिए ना कि योग दिवस को योग दिवस ही रखो उसको कामसूत्र दिवस मत बनने दो। दादा जी को सफेद बाल आये हुए हैं फिर भी लज्जा और योग कराने का सलीका नहीं|

इसलिए जाटों और हरयाणवियों से कहता रहता हूँ कि सदियों के त्याग और बलिदान से आपके पुरखों ने आपकी धरती को इन देवदासी मानसिकता के लोगों से बड़ा संभाल के बचा के रखा हुआ है, मत हवा दो इनको| इनको औकात पे आने में ज्यादा समय नहीं लगता।

ऐसे-ऐसों के दिमाग के शैतानी कीड़ों को ठीक करने का सिर्फ एक ही इलाज है, ओन दी स्पॉट झाड़-झाड़ के जूते मारो।

फूल मलिक


 

राइट के राष्ट्रवाद और लेफ्ट के साम्राज्यवाद के फफेड़ों में बिलखता सेंट्रल-लिबरल खापवाद!


खापवाद यानी हरयाणावाद और मीडिया के लिए खापवाद का मतलब जाटवाद!

वास्तव में खापवाद सोशल इंजीनियरिंग व्यवस्था की प्रणाली है जो चलाई तो जाटों ने थी परन्तु अपनाई सर्वसमाज ने| आदिकाल से समाज में ब्राह्मण की धार्मिक इंजीनियरिंग और जाट की सोशल इंजीनियरिंग में टकराव रहा है और यही इसकी सबसे बड़ी वजह है कि राइट विंग खाप को अंदरखाते दीमक की तरह चाट रहा है| लेफ्ट का साम्राज्यवाद तो तीन-एक सदी पुराना है, परन्तु भारत में इसके जो पैरोकार हैं वो बंगाल की ऐसी भूमि से उठ के आते हैं जहां सामंतवाद का बोलबाला रहा है| और दुर्भाग्य की बात यह है कि लेफ्ट की बागडोर भी सामंतवाद की सोच को पोषित करती है, वरना पैंतीस साल तक बंगाल में एकछत्र राज रहने पर भी बंगाल आज भी सामंतवाद विचारधारा की ही ना बना रहता|

खापवाद इन दोनों के बीच इसलिए पिस रहा है क्योंकि इसकी बागडोर उस जाट जाति के हाथ रही है जो खुद की कमी को स्वीकार कर उसको अपनों के बीच बैठ सुधारने की बजाय, दूसरों की बुराई को गले लगाना ज्यादा सहजता से मंजूर कर लेता है| इसलिए इस विचारधारा से जीवनयापन करने वाली जाट के अतिरिक्त अन्य सभ्यताएं भी अपना रोल निभाने की बजाय, मूक बनना ज्यादा पसंद करती हैं| दूसरा खापवाद विकेन्द्रित व्यवस्था तो है परन्तु चूल्हे की उस चिमनी की भांति जिसपे कोई छतरी नहीं है| और वह छतरी ना होने की वजह से हो यह रहा है कि कोई भी लेफ्ट-राइट वाला दो बूँद विषाद-द्वेष-मतभेद-लांछन की उसमें से टपका देता है और नीचे चूल्हे में ठीक-ठाक जल रही आग धूँ-धूँ करके सारे घर को धुंए से भर देती है| और खाप-थ्योरी के लोग उस चिमनी को ढंकने की बजाय तितर-बितर हो जाते हैं|

और जब तक इस चिमनी पे खाप-वाले यह छतरी नहीं चढ़ाएंगे ऐसे ही परेशान रहेंगे| इस छतरी की अनुपस्थिति का जो सबसे बड़ा नुकसान खाप को उठाना पड़ता है वो है इसके काबिल और टैलेंटेड लोगों द्वारा इनके यहां से पलायन कर जाना अथवा विमुख हो जाना और लेफ्ट या राइट के लिए काम करते पाये जाना|

मुझे भी बहुतेरे कहते हैं तू फ्रांस में बैठ के भी क्या खाप-खाप चिल्लाता रहता है| अब मैं उनको क्या बताऊँ कि खाप थ्योरी विश्व की सबसे महान सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी है यह मैंने फ्रांस आ के ही तो जाना है| और फिर बीमारी और घाव तो मानवशरीर के साथ लगते चले आये| ऐसे में कोई खाप थ्योरी का विरोधी खाप को गलत बताता है तो क्या मैं इस थ्योरी को सिरे से ख़ारिज कर दूँ? सम्पूर्ण उत्तरी-भारत का इतिहास गवाह है कि हजारों सालों से यहां की सामाजिक व्यवस्था खापों ने ही चलाई थी| सो अगर इसमें कुछ इतना ही बुरा होता तो इसके सामने राजे भी हुए, रजवाड़े भी हुए, अंग्रेज भी हुए और मुग़ल भी हुए; यह सब आने-जाने हुए परन्तु खाप फिर भी जिन्दा रही, आखिर क्यों? क्योंकि खाप कोई राज करने का तंत्र नहीं अपितु अपनों के द्वारा अपनों के लिए समाज चलाने का तंत्र रही हैं| बस एक बार वो जो ऊपर से चिमनी खुली पड़ी है उसको छतरी ढक दो और फिर देखो करिश्मा|

एक मोटा अंतर इन तीनों थेओरियों में यह है कि जहां राइट और लेफ्ट अपना फैलाव करने के लिए लिबरल-सेंट्रल का कचरा जनता के आगे रखती हैं, वहीँ सेंट्रल लिबरल भीड़ पड़ी में इन्हीं के काम आता है| और इसी उदारता के चलते सेंट्रल-लिबरल को कई बार राइट-लेफ्ट के बीच पिसना पड़ जाता है और निसंदेह ऐसा ही एक दौर अब चला हुआ है| लेफ्ट विगत दस साल से ऐसे छोटे-छोटे मामले जो हुए तो खापों की जातियों में परन्तु खापों का उसमें रोल ना होते हुए भी मीडिया की सहायता से खापों पे जी-भर के लांछन लगा कीचड़ उछाला| और लेफ्ट का दुर्भाग्य यह कि दस साल की अथक मेहनत से खाप की महत्ता को समाज में धूमिल कर जो बिसात बिसाई उसपे प्यादे राइट विंग चल गई और सत्ता पर काबिज हो गई| और लेफ्ट को इससे इतना बड़ा सदमा लगा कि पिछले एक साल से इनके चेहरों की बुढ़िया सी मरी हुई, साफ़ देखी जा सकती है|

अब कहीं का पाप कहीं तो जा के बैलेंस होगा ही ना, जो करते हैं उन्हीं पे जा के बैलेंस हुआ तो और भी अच्छा हुआ| लेफ्ट को आगे से सबक रहेगा कि राजनीति किसी दूसरी राजनैतिक विचारधारा पे कीचड़ उछाल के नहीं हुआ करती अपितु अपने वाली को सुदृढ़ करके हुआ करती है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 21 June 2015

पहले के जाट नेताओं और आज के जाट नेताओं में फर्क!


2014 के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी थक हार के जब कोई भी पैंतरा नहीं चल रहा था तो हिसार में भाषण देते हुए कहते हैं कि एक जाति के राज से हरयाणा को मुक्त करो।

लेकिन इनेलो जैसी पार्टी, जिनके मसीहा ताऊ देवीलाल खुद उसी एक जाति के थे, उन जैसा बाण पास में होते हुए भी, मोदी को वापिस यह जवाब नहीं दिया कि, 'ओ मोदी, वो इस 'एक जाति' का ही लीडर था जिसने सेंटर में प्रधानमंत्री बनने का अवसर होते हुए भी 2-2 राजपूतों वी. पी. सिंह और चंद्रशेखर को आगे करके पीएम बनाया और अजगर धर्म निभाया। कसम से इनेलो की सरकार भले ही ना बनती परन्तु बीजेपी को स्पष्ट बहुमत की सीटें शायद ही मिलती। कांग्रेस व् अन्यों के पास तो मोदी के इस बाण का जवाब नहीं था परन्तु इनेलो के पास था। खैर मौका था गया सो गया।

जब मुज़फ्फरनगर में दंगा हुआ तो अजित सिंह चुप रहने की बजाये जनता के बीच एक बार चौधरी चरण सिंह की मजगर थ्योरी ले के जाते और अपना पक्ष ईमानदारी से रखते और जाट और मुस्लिम को यह कहते कि दोनों मेरे हो। आप लोगों को कोई तीसरा भिड़ा रहा है तो ऐसे में मैं किधर जाऊं आप खुद ही बता दो। सच्ची कह रहा हूँ, रालोद को इतना नुक्सान तो कम से कम नहीं होना था कि अजित सिंह भी चुनाव हार जाते।

यह दोनों उदाहरण दे कर मैं यह बात कहना चाहता हूँ कि पहले के जाट नेता सिर्फ जाट के लिए राजनीति नहीं करते थे, उसूलों के लिए राजनीति करते थे। उसमें जाति का भला तो अपने-आप हो जाता था।

इनेलो जाट-आरक्षण के वक्त तो जरूर दिखा देती है कि वो इकोनोमिक आधार पे सबके लिए आरक्षण चाहती है, परन्तु उपर्लिखित मौकों का लाभ उठाने से चूक जाती है| मतलब इकनोमिक आधार बोल के सर्वजातीय-हित वाली जो भूमिका तैयार करती है वो मोदी जैसों को नहले पे दहले वाले जवाब होते हुए भी ना देने से वहीँ की वहीँ धरी रह जाती है|

दूसरा आज के अधिकतर जाट नेता जाति शब्द से एक षड्यंत्र के तहत कुछ इस तरह चिपका दिए गए हैं कि वो इसके मोह-पास में फंस चुके हैं। एंटी-जाट ताकतें इन नेताओं की सोच को दिन-भर-दिन सिर्फ एक जाति विशेष तक संकुचित करते जा रही हैं और क्योंकि जाट का वोट शेयर ही इतना है कि यह लोग उसके मोह में फंसे राजनीति का जवाब राजनीति से देना ही भूल जाने लगे हैं।

ऐसा ही हाल जाट-आरक्षण से जुड़े अधिकतर नेताओं का हो चुका है। वो तो जाति से भी आगे जा के क्षेत्रवाद में जा घुसे हैं। इनके दिल-जिगर इतने सिकुड़ चुके हैं कि इनमें कइयों को तो खापों का साथ भी गँवारा नहीं। इनको डर सताने लग जाता है कि कहीं खाप तुम्हारी क्रेडिबिलिटी ही ना खा जाएँ, इसलिए इनको छोटे से एरिया की दिखाने और बताने लग जाओ। और जब ऐसी सोच पैदा होती है तभी शुरू होता है, 'जाटड़ा और काटड़ा अपने को ही मारे" की थ्योरी का कहर।

इसलिए पहले तो जाट नेताओं को आपस में क्रेडिबिलिटी मैनेजमेंट सीखना होगा। आप जाट हो तो खाप भी जाट हैं यह सोच के उनकी महत्ता खुद ही घटाने लग जाने की बजाय, उनको एडजस्ट करना होगा।

और ब्राह्मण की भांति राजनीति करनी होगी। ब्राह्मण जब राजनीति में होता है तो वो यह कदापि नहीं सोचता कि मुझे ब्राह्मण कंट्रोल या मैनेज करना है, वो सिर्फ मुझे 36 कौम मैनेज करनी हैं, ऐसा सोचता है। जबकि आज के अधिकतर जाट-नेता सिर्फ जाट को ही मैनेज करने तक सिमित पड़े हैं। सर छोटूराम जैसे लीडरों की तरह सोच ले के चलना होगा। अगर चलने से पहले कौम को ही मैनेज करने से ही डरने लग जाओगे और उसको मैनेज करने के चक्कर में कौम के कल्चर व् इतिहास को ही संकुचित करके तोड़ने लग जाओगे तो बन लिए लीडर, उल्टा जाट कौम को दोजख में पहुँचा दोगे।

एक-दो लीडर हैं जो जाट शब्द से नहीं चिपके हुए हैं परन्तु मन में जाट रखते हुए बहुत अच्छा कर रहे हैं और मुझे उम्मीद है कि वो आने वाले वक्त में बहुत अच्छा बन के उभरेंगे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 20 June 2015

योगा विज्ञान को कृषक कार्य से चोरी किया गया है!

पहले के जमाने में जब कृषक व् कृषक सहयोगी, आज की भांति मशीनों की अपेक्षा मानव-तंत्र से जब खेतों में कार्य करते थे तो यह निठ्ठले बैठे बाबा व् फंडी लोग उनको कार्य करते देखते थे। और जैसा कि सभी जानते हैं कि कृषि के विभिन्न कार्यों में मानव शरीर की ऐसी ही मुद्राएँ बनती हैं जैसी कि योगा में होती हैं।

इन निठ्ठले क्रेडिट चोरों ने उन मुद्राओं के बस नाम रख के और जैसे किसान को करते देखा वैसे-वैसे ही करने के नियम लिख के और किसान से थोड़ा सा भिन्न दिखाने के चक्कर में दो-चार शब्द कम-ज्यादा लिख-लिख कापियाँ छाप दी। और इस ज्ञान के मूल-स्त्रोत व् चलती-फिरती डिक्शनरी रहे किसान को इसका क्रेडिट भी नहीं दिया।

उदाहरण के तौर पर:

पद्मासन - जब किसान खेत में पानी लगाते वक़्त पानी की नाली के पास उकडू अथवा पालथी मार के बैठा होता है तो वह पद्मासन की ही विभिन्न मुद्राएं करता है|

जब उसके खेत पे असमय बारिश अथवा ओले पड़ते हैं या खलिहान में पड़ी फसल पर आंधी-तूफ़ान का कहर बरपता है तो वो आकाश की तरफ हाथ जोड़ कर भगवान से रहम की जो कृपा मांगता है तो उसी से ऊपर हाथ उठा के की जाने वाली तमाम योग-मुद्राएं और आसन निकले हैं|

सूर्यासन अथवा सूर्य-नमस्कार आसन: जब आप खेत में किसी मशीन अथवा गिर्डी (रोलर) को धक्का लगाते हैं तो उसमें सूर्यासन निहित होता है| और किसान के रोलर योग और आकाश की तरफ हाथ करके रहम मांगने की मुद्रा दोनों को मिला दें तो इससे पूरा सूर्यासन हो जाता है|

सर्वांगासन - यह आसन तो किसान के बच्चे ट्रेक्टर-बुग्गी के एक्सेल पे पैर लगा पहिये या बुग्गी को उठाने के बहाने यहां-वहाँ आसानी से करते देखे जा सकते हैं|

शीर्षासन - जब भी कोई खेतों में गन्ना-फल-सब्जी चोरी करते हुए पकड़ा जाता है तो उसको अक्सर इसी आसान में बाँध के पीटा जाता है|

और ऐसे ही अन्य भी बहुत से आसन, जो कि किसानी से चोरी किये गए हैं अथवा उनका आधार भिन्न-भिन्न कृषि मुद्राएं रही हैं|

अब क्योंकि निठ्ठला बैठा आदमी कोई काम-हल्ला ना करे तो उसका शरीर स्थूल व् सुस्त पड़ जाता है| और कई कार्य ऐसे भी होते हैं जिनमें आपको शरीर को हिलाने-डुलाने की जरूरत नहीं होती, जैसे कि दुकानगिरी, मांग के खाना, डरा-धमका के अथवा पाखंड रच के खाना व् चमचागिरी| तो जब बाबा लोगों ने कृषि कार्यों से चोरी कर यह नियम बनाये तो यहां बताये कार्य करने वाले शारीरिक सुस्ती और वेदनाओं से ग्रस्त लोगों ने इनको हाथों-हाथ लिया, और इनका  महिमामंडन कर दिया| और ऐसे जो किसान की दिनचर्या होती है वह इन के लिए योगविज्ञान बन गई|

परन्तु इस बीच किसान को किसी ने इसका क्रेडिट भी नहीं दिया| इसलिए अगर कोई योगदिवस बनता है तो वो सिर्फ कृषक को समर्पित बनता है।

मुझे हंसी आती है सोच के ही कि बाबा-लोग योग के असली जनक किसान को योग सिखाएंगे|

मजे की बात तो यह है कि जिनको पादने हेतु टांग उठाने के लिए भी नौकर की जरूरत पड़ती है वो तो योग के प्रचारक देखे हैं मैंने।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 19 June 2015

नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों) में शादी की मान्यता वाले समुदाय में 56% लोग थैलिसीमिया बीमारी से ग्रस्त!


हिन्दू पंजाबी खत्रियों के बाद अब बंगाल के टोटो समुदाय के इस बीमारी की चपेट में होने की बात सामने आई है|

जाट के गोत (गोत्र) सिस्टम के पीछे पड़ने वालों और खुद को खुले-विचारों का बताने के लालच में इसके लिए जाटों को अपनी मनचाही भर्तसना का निशाना बनाने वालों के लिए, जाटों के गोत सिस्टम के पक्ष में एक और वैज्ञानिक साक्ष्य|

पश्चिमी बंगाल की जलपाईगुड़ी इलाके की टोटो जनजाति जिनमें मामा-चाचा के बच्चों {नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों)} की शादी की जाती है, अपनी घटती संख्या को लेकर समुदाय गहरे संकट में है| कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र कैंसर रिसर्च सेंटर ने टोटो जनजाति के लोगों के खून के नमूने लिए। इन नमूनों का जब नतीजा आया तो जानकारों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। जांच में पता चला कि टोटो जनजाति के 56 फीसदी लोग थैलीसीमिया के शिकार हैं। चूंकि इस जनजाति के लोगों ने अपनों में ही शादी के रिवाज बनाए हैं इसलिए इस बीमारी का खतरा और बढ़ जाता है।

इससे पहले हैदराबाद रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट्स के अतिरिक्त दयानंद मेडिकल कॉलेज, लुधियाना पंजाब के प्रोफेसर सोबती ने उनकी 17 मई 1990 की शोध रिपोर्ट में पाया था कि पाकिस्तान पंजाब से आई नश्लों में भी 7.5% लोग थैलिसीमिया की बीमारी से ग्रस्त हैं| डॉक्टर सोबती ने इस बीमारी से निजात पाने के लिए इन समुदायों को वैवाहिक दायरे जैसे कि ब्लडलाइन से दूर के गोत (गोत्र) व् अंतर्जातीय विवाह करने के सुझाव दिए थे|

Read the recent report revealed about Toto Community: http://khabarindiatv.com/india/national-girls-become-mothers-before-marriage-in-west-bangal-1307.html
Also read what is the Gaut System of Jats and Khaps: http://www.nidanaheights.net/EH-gotra.html

फूल मलिक|

Thursday, 18 June 2015

CAT complex, no damage control mechanism and credibility juggling in Khaps proving termite for it!


Though it’s an age’s old irony but in modern era it is the second decade going on when the credit of all positive social and human deeds stacked by Khaps is either under spurious reckoning by credit snatchers for their shake or distorted to malign Khaps in dark shadows of deprivation and disgust. Pathetic and pitiable is that Khaps are letting it happen to them. And who is responsible for it? Who is to blame for it?

Be it the men sect or the women, no one is unidirectional, motivated and determined enough for historical reforms within the system pending for addressing since beginning of current century in specific and for decades in general. What crouching stance is drowning this ancient and historically the most viable and successful social engineering system the most?

Problem jolts threefold within as follows:

1) CAT (conservation, arrogance and tantrum) fights in both men as well as women wings of the honorary system: It was 7th of January 2013 when Khaps went to Supreme Court against a case framed by an NGO Shakti-Vahini and fought it so well that until then a seemingly squeezed to Jats only body gets a Brahmin Khap leader entry in name of Col. Vats in February the following month. I would credit it to Khaps valour and patience that they made it realized to Supreme Court that they are not a yesteryear chapter and still bear a determined viability in the society. But why it was on the call of Supreme Court only and why the things developed so ironically around them that propagators reached to Supreme Court against them. Why not were the proactive measurements in place before?

I spoke to many a leaders of my personal connectivity in Khaps to know the response, and innocence emerges due to democratic approach was the answer. They gently said in one fold that we are not sharp enough to snatch the social, historical and spiritual credibility of others rather we don’t believe in it. But then shook them how to protect the own? Response was as simple as them; they said you the young generation lead the cause. And since then I am churning in grinder of thoughts that what to get rid of if to really protect our own identity and answers to problem frames a CAT i.e. conservation in thoughts and nature, arrogance in sharing and expressing and the tantrum on difference of opinion. This CAT is what the Khap leaders really need to bell!

2) No damage control mechanism: I would say a system without cap on the fireplace of the limekiln. And it cannot restore until Khaps don’t opt to organize themselves in a systematic acumen. They need one systematically elected body taking at least 2 persons per 100 of their representatives. In India after Sikhism they are the only body which bears the capacity of buttoning their women in equal participation. And image spoiling of Khaps by media, their anti-NGOs and whosoever is the area where Khaps need well trained and educated women to take charge for.

3) Credibility Juggling: Absence of any official and unanimous recording and documentation body for recognizing and accrediting the good work of its prestigious members and important dates, absence of a promotional body to promote such positive deeds and dates of the system and nil minimum common agendas across different Khaps to further keep healthy inhalation of purpose and scrutiny, all together are leading to hefty credit crisis issue. This drawback generates ego problems, self-centralism, remorseful unfaithfulness and dubious dialogues. All the cases of disparity or bifurcation of even big Khaps into two or more newly borne wings is thrashing the most crucial reforms in Khaps for infinite time. Even the woman wing is no exception and seen indulged in safeguarding own identity just for own that too within the system. They are crawling multi directions yielding an aforesaid threatening leading to entity crisis. Needlessly to name people and persons who have spread beyond expectations in undetermined direction keeping back towards an imaginative focal point somewhere in thoughts only.

Though a ray of light sparkles in terms of leaders like Dada Kuldeep Singh Dhanda, Madam Santosh Dahiya, Dada Nafe Singh Nain, Dada Ramkaran Solanki, Dada Naresh Tikait, Dada Ishwar Singh Lohan head of Satrol Khap and more recently emerging out of Ahlawat Khap chief Dada Gajender Singh Ahlawat taking front on "Miss Tanakpur" and Youngsters like Sunil Jaglan, who can be named as the gear changer of the saga. But if to see and as per the need of hour, most of them still wish to play on countryside without bothering or getting legal system of nation for support. Khaps have to understand that time has arisen to dent the opportunity by thrusting ownself into legal machinery and get registered with in it. In this desert of seemingly ‘ekla chalo re’ or ‘hum auron ko kuchh nahin kahte, isliye wo humen kyon tang karen’ approach, a lady is proving her iron by taking the system’s support. I won’t hesitate to claim it as an historical step taken by Dr. Santosh Dahiya the chief of lady wagon of Khaps against misdeeds of an elected MP of a government in power. But this is just not sufficient enough against what Khaps capacity is and should be known for, but at least she lit a ray of change, which I have been dreaming for my proudy Khap system.

I beg my pardon if any subsequent name of well doer is forgotten, I am sure they won't mind and will take the article in assessment of their work too.

Have so many plans and caricatures to draw on future expectations and expectations of this system, hope soon the time would knock and motivate me to further pen down them on papers.

I pray to God to get this system mobilize and let them make the driven to enter the legal system now.

Jai Yoddheya! – Phool Malik

Monday, 15 June 2015

"मिस टनकपुर हाजिर हो" बनाने वालो हरयाणे की पंचायतें कोई टोणे-टोटके वाले बाबे-साधु-तांत्रिक नहीं हैं जो इंसानों के जानवरों से फेरे करवाते हों!


(फिल्म रिलीज़ होने से पहले ही फिल्म का रिव्यु)

मैं तो अक्सर कहा करता हूँ कि पब्लिक स्टेजों पे होने वाली नौटंकियों ने जब से सिल्वर स्क्रीन का कवच ओढ़ा है तब से इनके खुले बारणे (पौ-बारह) और चौड़े डंके हो गए हैं| पहले जब डायरेक्ट पब्लिक के बीच स्टेजों पे नौटंकी-नाटक-सांग-रागणी हुआ करते थे तो थोड़ी सी भी भांडगिरी दिखाने पे पब्लिक वहीँ के वहीँ हिसाब-किताब कर दिया करती थी| खैर आजकल शुद्ध भाषा के ना तो सांग-सांगी रहे और ना ही दर्शक। वर्ना हरयाणा की धरती (पश्चिमी-पूर्वी-मध्य तीनों हरयाणे यानी खापलैंड) पे तो बीते दशकों तक इनके अधिकतर आयोजन गाँवों के बाहर गोरों-समाणों-जंगलों में हुआ करते थे| और रात के तो सारे प्रोग्राम ही गाँव की बसासत से बाहर हुआ करते थे| गाँव-चौपाल के अंदर सिर्फ वो प्रोग्राम अलाउड हुआ करते थे जिनको बहु-बेटी भी देख सकती थी जैसे कि साफ़-सुथरे बिना गन्दी बोली के सांग अथवा दादा चन्द्र बादी जैसों के खेल-तमाशे या गए दशक तक आर्य समाजियों के प्रवचन|

परन्तु मिस टनकपुर जैसी फ़िल्में देख-सुन के तो लगता है कि इनको सिल्वर स्क्रीन क्या मिल गई, मतलब बाजे-बाजे ने तो भांडगिरी फुलटूस फुल स्पीड में गियर पकड़ा रखी है| बताओ हरयाणे की पंचायतों को भी 70-80 के दशक के ठाकुर समझ लिया। कि यह लोग फिल्मों में किसी ठाकुर की नकारात्मक छवि दिखाएंगे, उनको विलेन-जुल्मी-डाकू-निर्दयी-अत्याचारी और क्रूर दिखाओगे और सारी ठाकुर बिरादरी चुप बैठी रहेगी।

खैर कोई नी अबकी बार आपका पाला हरयाणे की पंचायतों से पड़ा है; ऐसे ही बिना विरोध के आप अपना गंद परोसोगे और सब चुपचाप सह जायेंगे; ना बावलों ना सोचना भी मत, और बहम तो पालना ही नहीं| अभी पीछे 2011 में खाप फिल्म बनाई थी तब प्रसाद चख के मन नहीं भरा था क्या कि फिर से न्यूनतम दर्जे वाली भांडगिरी का कीड़ा उठ खड़ा हुआ? चिंता ना करो 2011 वाली का जो हाल हुआ इसका भी कुछ-कुछ ऐसा ही होने वाला है| और अगर नीचे दिए source number 1 की खबर को सच मानूं तो अबकी बार तो ठाकुर बिरादरी भी सम्भल चुकी है और साथ में विरोध को कूद पड़ी है| थम चढ़ाओ इसको खापलैंड के सिनेमाओं की स्क्रीन पे, थारे चीचड़ से ना चूंडे जावें तो|

यह तो थी ठेठ हरयाणवी में थारी फिल्म और दिमाग की सोच और क्वालिटी का पोस्टमॉर्टेम| अब सीरियस वाला फीडबैक सुनो आपकी फिल्म का:

पूरी फिल्म देखने की जरूरत नहीं, ट्रेलर देख के ही लिख रहा हूँ| क्योंकि हरयाणवी हूँ तो हरयाणा के बारे क्या सही होगा या क्या गलत, किसी खत के मजबून को देख के बताने वाली अदा में ही बता सकता हूँ| मुझे जिन-जिन बातों से यह फिल्म ऊपर लिखित भर्तसना वाले क्रिटिक (critic) के योग्य लगी, वो हैं एक तो इसका कांसेप्ट (concept), दूसरा इसकी नीयत और तीसरा इसका संदेश|

ज्यादा तो कहूँगा नहीं लेकिन क्योंकि इसमें हरयाणवी भाषा और वेशभूषा प्रयोग की हुई है तो हरयाणा के संदर्भ में ही आप लोगों को दो टूक में रिव्यु देता हूँ| ऐसा है डायरेक्टर, राइटर ऑफ़ थिस फिल्म (director, writer of this film), हरयाणा पे तीन तरह की पंचायतें पाई जाती हैं| एक सरकारी तंत्र वाली, दूसरी खापें और तीसरी सेल्फ-स्टाइल वाली किसी भी ऐरे-गैरे द्वारा सही-गलत मंशा से on the spot बटली (बुलाई) कर दी गई| ध्यान दीजियेगा खाप-पंचायत कभी भी on the spot नहीं बुलाई जाती और ना ऐसे वो आती| उनको स्पेशल बुलावा यानी official invitation दे के बुलाने का विधान है, जिसका कि बाकायदा रिकॉर्ड भी रखा मिलता है हर खाप-पंचायत के पास|

तो पहले तो सुध इंसानी भाषा में आपको बता दूँ कि इनमें से कोई सी भी पंचायत ऐसी गिरी हुई नहीं है कि जो बाबा-साधु-तांत्रिकों वाले असामाजिक काम करती हो| यानी जैसे बाबे-साधु-तांत्रिक पूर्वी-दक्षिणी और मध्य भारत में कहीं लड़के की शादी कुतिया-गधी आदि से तो कहीं लड़की की कुत्ते-गधे आदि (थोड़ा गूगल सर्च कर लेना फोटो भी मिल जाएँगी बाकायदा) से करवाती हो और लड़का-लड़की भी चुपचाप कर लेते हों| वैसे सच-सच बताना आपकी टीम में कौन-कौन इस एरिया से आता है जहां इंसान की शादियां जानवरों से करवाई जाती हैं? और टीम में कोई भी हरयाणवी नहीं था क्या जो इतना तो ज्ञान देता आपको कि भाई हमारे इधर इंसान इंसानों से ही शादी करते हैं, जानवरों से नहीं| और सामाजिक परिवेश में तो बिलकुल भी नहीं, हाँ कोई माता-मसानी-बाबा-बाबन की दुनियां की भेंट चढ़ा हो तो अलग बात है|

दूसरी बात इन तीनों तरह की पंचायतों में एक हैं खाप पंचायत| अब आप इतने मूढ़-मति तो हो नहीं सकते कि खाप पंचायत क्या होती है इसका आपको पता ही ना हो? हालाँकि मैं जानता हूँ आपने खाप-पंचायत शब्द का जिक्र नहीं किया होगा फिल्म में, परन्तु हरयाणा का परिवेश दे दिया तो देखने वाले ने पहले झटके ही इसको खाप पंचायत से जोड़ लेना है (मेहरबानी मीडिया की जिसने हरयाणा की ऐसी पृष्ठभूमि बना रखी है)।

वैसे ऐसा करने के लिए बाबे-साधु-तांत्रिक-फंडी-पाखंडियों ने आपको सुपारी-रिश्वत खिला रखी है क्या कि भाई यह हरयाणवी लोग कभी हमारे बहकावे में नहीं आते और ना ही हमें अपने मनचाहे तरीके से समाज में पाखंड फैलाने देते हैं, इसलिए यह लो पहले तो एक भैंस का एक इंसान से बलात्कार करवा दो और फिर एक पंचायत के जरिये फरमान सुनवा के उसके उसी भैंस से फेरे पढ़वा दो; और बना दो इनको भी हमारी ही गली-सड़ी सोच का? नहीं मतलब सच्ची बताना, कुछ ऐसा ही है क्या?

चलो इंसानियत के नाते पहले तो आपको 19 पेज की खापों पे इंग्लिश में बनाई एक केस स्टडी (see source link 3) पढ़वा देता हूँ। अब एक अनलॉजिकल स्टडी (analogical study) आप भी करके देखो और पता लगाओ कि सामाजिक अपराधों के मामले सुलझाने में सबसे तेज, न्यूनतम लागत का और इन वन सिटींग (in one sitting) में न्याय करने का रिकॉर्ड हमारे देश की सवैंधानिक अदालतों का बेहतर है या हरयाणे की पंचायतों का? प्रतिशत के हिसाब से गलत-सही निर्णय देने का अनुपात कानूनी अदालतों का बढ़िया है या हरयाणे की खाप पंचायतों का? कंस्यूमर सैटिस्फैक्शन (consumer satisfaction) वाला बढ़िया न्याय करने का बढ़िया रिकॉर्ड देश की कानूनी अदालतों का बढ़िया है या इन पंचायतों का? कसम से अगर इन पंचायतों का रिकॉर्ड देश की अदालतों से खराब मिले तो मुझे देश की कानूनी न्याय व्यवस्था की ऐसी तुलना करने के जुर्म में देश के कानून से ही फांसी तुड़वा देना, चूं भी नहीं करूँगा|

यार कुल मिला के यही कहना है कि अगर आप समाज को जोड़े रखने और उसकी सकारात्मक सोच को जिन्दा और पोषित रखना चाहते हो तो कृपया करके ऐसी बचकानी फ़िल्में मत बनाया करो कि जिससे मेरे जैसे अनाड़ी को भी, जिसको कि फ़िल्में बनाने की एबीसी भी नहीं आती, आप लोगों को अव्वल दर्जे का भांड कहना पड़े| और आपकी ऐसी कठोर निंदा करनी पड़े|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Source of critic made above:
1) http://hindi.eenaduindia.com/State/UttarPradesh/2015/06/14193537/Khap-panchayats-intensified-Miss-Tanakpur-opposed.vpf
2) https://www.youtube.com/watch?v=qtg99-HNBmI
3) http://www.nidanaheights.net/Panchayat.html
4) https://www.facebook.com/MissTanakpurHaazirHo

Sunday, 14 June 2015

"जो अनाज-फल-सब्जी पैदा करेगा वो और उसी की बिरादरी उसको खायेगी!" यह आरक्षण लागू हो जाए तो कैसा हो?

क्योंकि वैसे भी धर्म वाले को देखो तो उसने यही आरक्षण लागू कर रखा कि बस हमारी ही बिरादरी का पुजारी-पंडित-महंत बनेगा|

क्योंकि वैसे भी व्यापारी को देखो तो उसने यही आरक्षण लागू कर रखा कि बस कोई भी उत्पाद हो (चाहे इन्होनें उगाया-बोया-बनाया-मैनुफैक्चर भी ना किया हो, उदाहरणत: किसान की फसल) उसका विक्रय मूल्य यह तय करेंगे|

"जिन्हें अपने ज्ञान और मेहनत पर भरोसा नहीं होता वही आरक्षण माँगा करते हैं" की दलीलें देने वालो, बोलो अगर यह मेरा बताया आरक्षण भी लागू कर लेवें तो अपने पेट तो भर लोगे ना इस घमंड भरी दलील से?

और ज्ञान का इतना ही घमंड है तो बिना पर्ची के दान (जगह-जगह दान-पेटियां रख के) क्यों लेते हो? ज्ञान का इतना ही घमंड है तो तमाम तरह की धर्म के नाम की सर्विसों की लिखित गारंटी और रिटर्न क्लेम की फैसिलिटी क्यों नहीं देते हो?

ज्ञान का इतना ही घमंड है तो विकास के नाम पे विकास के पापा से करोड़ों रूपये की सब्सिडयां और मुवावजे क्यों लेते हो? वैसे भी तुम्हारी तो सारी मैनुफैक्चरिंग छतों के नीचे होती है, किसान की तरह खुले आस्मां के नीच थोड़े ही कि ओले-बारिश टाइप की प्राकृतिक आपदा नुक्सान कर देती हो| परन्तु फिर भी देश में सबसे ज्यादा मुवावजे और सब्सिडी डकारते हो और धौंस दिखाते हो ज्ञान की?

तुम्हारा ज्ञान, ज्ञान, और किसान-मजदूर का ज्ञान पानी? कभी एक सीजन तपती धूप और ठिठुरती रातों में खुले आसमान तले भगवान भरोसे रह के फसल उगा के देखो, सारे ज्ञान के मायने ही ना बदल जाएँ तो|

पेट भरने के लिए भोजन उगाने के ज्ञान से ले तन ढांपने के लिए कपास उगाने के ज्ञान तक तुम किसान के ज्ञान पे निर्भर हो, फिर भी अपने ज्ञान की धौंस दिखाते हो? परजीवी ज्ञान वाली ज्ञानियों की श्रेणी का ज्ञान रखते हो और परजीवी को भी जो पाल दे उस ज्ञान वाले के ज्ञान को धत्ता बताते हो| आखिर सामाजिक गैर-जिम्मेदारी, बेशर्मी और अहसानफ़रामोशी की भी कोई हद्द होती है|

चिपकाओ ऐसी दलीलें देने वालों की हर एक की वाल पे इस तर्क को| देखें क्या जवाब आता है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 13 June 2015

यह सब सिर्फ जाट ही क्यों थे?


(स्वछंद मति की थ्योरी बनाम निर्देशित मति की थ्योरी)

एक जाति-विशेष ने उनके खुद के इतिहास में ऐसे जंगी-विजयी रिकॉर्ड जैसे कि जाटों के इतिहास में अलंकृत हैं नहीं होने के अकाल से ग्रस्त और कुंठित हो इसकी कुछ अप्रत्याशित सी कमी पूरी करने हेतु अब जाटों को अपना वंशज कहना शुरू कर दिया है| भरतपुर से ले पटियाला, लाहौर से ले जींद, धौलपुर से ले कुचेसर, हर्षवर्धन से ले कनिष्क, पोरस से ले चन्द्रगुप्त, दादा बाला से दादा रामलाल, दादा जाटवान से दादा हरवीर, नाहर सिंह से ले बाबा शाहमल तोमर, गॉड गोकुला से ले सूरजमल, जवहारमल से ले पीटर प्रताप मतलब एक भी तो जाट को यह जाट नहीं छोड़ रहे, सभी को तो लपेट लिया अपनी जाति में|

कुंठा रे कुंठा, कभी दूसरों की निर्देशित मति पे चलने की बजाये जाटों की स्वछंद मति की तरह कार्य किये होते तो यूँ जाटों सी वीरता पाने को जाटों के वीरों पे दावे ना ठोंकने पड़ते| जलते-भुनते कभी जाटों की स्वछँदता से तंग आकर जाटों को खुद के एंटी बोलने वाले आज जाटों से वीरता उधार लेने को घूम रहे|

और आगे बढ़ने और इनके दावों को तार्किक तरीके से खारिज करने से पहले मैं इस जाति-विशेष की कुंठा पर दो मार्मिक शब्द कहना चाहूंगा कि देखो आप लोग किस हद तक जाटों से वीरता और उनकी विजयी कहानियां गिरवी लेने को लालायित हो| आप और आपकी रॉयल्टी तो आप और आपके तथाकथित मार्गदर्शकों द्वारा अपने मुंह-मिया मिठ्ठू बनने वाली ही रही; जबकि जाट को तो अंग्रेज और मुसलमानों ने भी रॉयल माना| वो इतिहास में साफ़ लिख के जा चुके हैं कि जाटों से आप हो सकते हो, जाट आपसे नहीं|

अब आता हूँ आपके दावों को ख़ारिज करने की थ्योरी पे| सारा भारतीय इतिहास का साहित्य साक्षी है कि आप लोगों ने एक जाति विशेष द्वारा लिखा हुआ इतिहास ही माना| उस जाति ने जो लिख दिया उसको प्रमाण और सत्यवचन माना| उस जाति ने जो किले-रजवाड़े सर पे बिठा दिए वही आपके अनुसार रॉयल कहलाये| उस जाति ने जिस साधारण इंसान को भी महानायक बना दिया, आप लोगों ने उसी को मान्यता दे दी| यहां ध्यान दीजियेगा कि आप लोगों ने मान्यता दी, जाट या अन्य सभी जातियों ने भी दी हो ऐसा मैंने नहीं कहा| और ना मैं यहां आपकी जाति का नाम लेने वाला और ना उस जाति का जिसने ऊपर लिखित सारे कार्य किये| इस लेख में जाति के नाम से तो सिर्फ जाट का ही नाम लूँगा| इसकी वजह भी साफ़ है मुझे आपके दावों को ख़ारिज करना है आपका अपमान नहीं| और जब आपके दावे ख़ारिज होंगे तो आप खुद भी जान जाओगे कि यहां जाट के अलावा और कौनसी जातियों का जिक्र हो रहा है| चिंता ना करें और ना ही इस लेख को पढ़ते हुए उत्तेजित होवें क्योंकि जाट जाति का गौरवान्वित अंश होते हुए जानता हूँ कि ऐसे संवेदनशील मामलों में जातीय शब्द की हिंसा और अनादर ना दिखाते हुए कैसे ऐसे दावे करने वालों को निरस्त करना होता है|

तो अब बढ़ता हूँ आपके दावों को ख़ारिज करने पे| बड़े सिंपल लॉजिक्स के साथ आपकी बातों का खंडन करूँगा|

1) आप लोग कहते हो कि महाराजा हर्षवर्धन जाट नहीं अपितु आपकी जाति के थे| तो मान्यवर अगर ऐसा था तो हर्षा ने 643 में खाप सिस्टम को वैधानिक मान्यता कैसे दे दी? क्योंकि आपकी मार्गदर्शक जाति ने जो निर्देशित कर दिया, उससे बाहर जाने का तो आपका इतिहास नहीं| और खाप-सिस्टम ठहरा टोटली उसके एंटी? तो ऐसे में फिर हर्षा आपकी जाति का होते हुए यह उददण्डता करने की जुर्रत कैसे कर गए कि उन्होंने वरन सबके परन्तु मूलरूप से जाट लोकतान्त्रिक थ्योरी के खाप सिस्टम को वैधानिकता दी? हर्षा तो अनुयायी भी बुद्ध धर्म के थे, उसी बुद्ध धर्म के जिसके विरुद्ध कार्य करने का आपका इतिहास रहा है| ध्यान दीजियेगा ऐतिहासिक तथ्य प्रमाणित करते हैं कि दसवीं सदी के इर्द-गिर्द माउंट आबू के ऐतिहासिक यज्ञ से आपकी उतपत्ति बताई जाती है| फिर भी आपकी बात का मान रखते हुए कहूँगा कि एक पल को अगर हर्षा जाट बेशक ना भी थे परन्तु आपकी जाति के तो कदापि नहीं थे| क्योंकि आपकी जाति के होते तो आपका इतिहास लिखने वालों ने आज उनको भी सर्वोच्च राजाओं की श्रेणी में रखा होता| राणाओं के राणा, महाराजाओं के महाराजा बताया होता, क्योंकि उनका इतिहास ही इतनी उपलब्धियों भरा है|

2) आप लोग कहते हो कि 1024 में महमूद ग़ज़नवी से सिंध के मैदानों में सोमनाथ मंदिर से उसका लूटा हुआ खजाना लूटने वाली खाप आर्मी और उस आर्मी के लीडर ‘दादावीर बाला जाट जी महाराज’ भी आपकी ही जाति से थे| तो मान्यवर आपने अभी तक उनके बुत क्यों नहीं लगवा दिए शहरों-गाँवों के चौराहों पर? अभी तक उनकी कोई जयंती क्यों नहीं मनाने की परम्परा सुनी मैंने आपके यहां?

3) आप लोग कहते हो कि 1206 में मोहमद गौरी को घेरने वाली खाप आर्मी और गौरी को मारने वाले ‘दादावीर रामलाल जी खोखर महाराज’ भी आपकी जाति से थे, तो अभी तक इतना मत्वपूर्ण आदमी आपके इतिहास की किताबों से गायब कैसे रह गया? अब ऐसा तो नहीं हो सकता कि जो आपका इतिहास लिखने वाली जाति रही है उसकी नजरों से इतना महत्वपूर्ण नायक छूट गया हो? उसकी अनुशंषा, प्रशंसा, महानता में कुछ घड़ा ही ना गया हो?

4) आप लोग कहते हो कि पृथ्वीराज के शासन के पतन के तुरंत बाद मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतबुद्दीन ऐबक को 1193 में नाकों चने चबाने वाले ‘दादावीर जीवन जाटवान जी गठवाला महाराज’ भी आपकी जाति से थे? तो जनाब अभी तक उनको प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक के नाम से क्यों नहीं जाना गया? क्यों नहीं आपका इतिहास लिखने वाली जाति ने आजतक उनको अपनी लेखनी में स्थान दिया?

5) 1669 में औरंगजेब की जड़ें हिलाने वाले 'गॉड गोकुला' भी आप ले लोगे यार तो फिर जाटों के पल्ले छोड़ोगे क्या? कहो तो हम लोग शाक्का कर लेवें? वैसे माँ कसम हमने शाक्के कभी नहीं किये, हमने तो जहाँ भी हमारी चली हमारी औरतों तक को नहीं करने दिए| असल में गलती आपकी नहीं है क्योंकि आपके जो गुरुलोग हैं उनको हमेशा से दो ही चीजें आई हैं एक तो दूसरों के क्रेडिट पे डाका मारना और दूसरा डाके से नहीं मिलता तो छीना-झपटी पे उतरा आना| अब उनकी सोहबत का इतना प्रभाव तो लाजिमी है ना|

6) आप दावे करते हो कि जींद-पटियाला का जाट राजघराना आप लोगों का वंशज है, तो जनाब क्यों जींद के दोनों किले गिरवा दिए गए? क्यों आप वालों की तरह उनपे भी रख-रखाव लगवा के पर्यटन नहीं कमाया गया? क्यों नहीं जींद रियासत को भी वही मान-सम्मान मिला जो इससे भी कहीं निम्न दर्जे की रियासतों को मिला हुआ है? मतलब महाराजा ने आपकी जाति से भाईचारा दिखाने हेतु कुछ कह भी दिया होगा तो क्या, मतलब पूरी रियासत ही अपनी जाति की लिखने लग जाओगे क्या?

7) आप दावे करते हो भरतपुर वाले भी आपके हैं? ……. जा के कभी भरतपुर की धरोहरों की हालत देखी है? अगर यह आप वालों के होते तो उसी तरह चमक-दमक रहे होते, जैसे आपके चमक रहे हैं| क्योंकि फिर जो सरकारी धन आप वालों की तरफ मोड़ा गया है उसका कुछ हिस्सा इनकी तरफ भी मुड़ता|

नादान जाटों सुध ले लो अपनी इन धरोहरों की, और नहीं तो पर्यटन के बहाने ही सही, भरतपुर देख के आया करो| दावा करता हूँ ब्रिटेन के बकिंघम पैलेस और फ्रांस के वरसाई पैलेस में खड़ा हो के भी वो गरूर नहीं आता जो उन दीवारों पे खड़ा हो के आस्मां निहारने में आता है जहां से जाटों के दो छोरों ने गौरों के नौ-नौ कमांडरों को धूल चटा, ब्रिटिशराज का सूरज थामा था|

तो आगे बढ़ता हूँ| जब यह तर्क दिए जाते हैं और कुछ जवाब नहीं बनता है तो शायद चिड़न व् कुंठावश आप तथाकथित सभ्यों का असभ्य व् लीचड़ तर्क आता है कि जाट तो हमारी नाजायज औलाद हैं| जो औरतें हमारे यहां विधवा हो जाती थी जाट उनसे ब्याह करते थे और उन्हीं से फैले या पैदा हुए, जो भी तर्क आप देते हैं| तो तर्कों के धनी तर्काधीश्वरो फिर यह भी आप ही बता दो कि आपके दावेनुसार वो प्रथम विधवा कौन थी जिन्होनें जाट से ब्याह किया? और वो सर्वप्रथम विधवा से शादी करने वाला सर्वप्रथम जाट कौन था? और अगर वो पहले से मौजूद था तो फिर वो आपसे कैसे पैदा हुआ?

मतलब आप कहना चाहते हैं कि आपकी विधवा औरतों ने आपके शाक्कों का विरोध किया होगा और जब जान बचाने हेतु पनाह ढूंढी होगी तो जाटों ने उनको संभाला होगा, क्योंकि एक सामान्य परिस्थिति में तो आप उसको सति होने वाली चिता से उठ के जाने देने से रहे| और आप जाने भी देते होंगे तो आपको मार्दर्शन देने वाले तो जरूर ऐसा करने से रोकते होंगे| कम से कम फ्रांकोइस बर्नियर की डायरी तो यही कहती है| तो भाई जीवनदान के लिए भाग के आये को शरण देने का काम तो पुण्य का काम हुआ ना, मानवता का काम हुआ ना, तो इससे जाट भला कैसे पीछे हट जाते| बल्कि यह तो उल्टा जाटों की स्वछँदता ही साबित करता है कि जिनके निर्देशन से आप लोग ऐसा करते रहे होंगे उन्हीं के निर्देशन को ताक पे रख के मानवता की चादर ढूंढ रही औरतों को चादर ओढ़ाई|

वैसे कमाल है विधवाओं पे काम करने के लिए खासतौर पर गाये गए और उठाये गए राजा राम-मोहनरॉय की नजर और अनुशंषा से वो प्रथम जाट या ऐसे तमाम जाट कैसे बच गए? मैंने तो आजतक यही पढ़ा और जाना कि उन्नीसवीं सदी के इस नायक से पहले किसी ने विधवाओं का कोई उद्दार नहीं किया? धन्य हो आप लोगों का जो ऐसे पुण्य कार्य सर्वप्रथम जाटों ने किये थे ऐसा कहने की हिम्मत और निष्पक्षता रखते हो| वर्ना तो जिन्होनें राजाराम मोहनरॉय को लिखा, उन्होंने जाटों को तो इस फ्रंट पे भी हमेशा की तरह दरकिनार ही रखा|

वैसे जाटों के यहां तो स्वेच्छा के बिना कोई विधवा होती ही नहीं, क्योंकि उसको पुनर्विवाह की आज्ञा है| और होती भी है तो अपने पति की घर-सम्पत्ति में ठाठ से बसती है| यह विधवाओं को समाज से बाहर कर और उनको आश्रमों में भेजने की रीत तो आपके यहां रही है, हमारे यहां थोड़े ही| ना औरत की शाक्का करने वाली रीत हमारी बनाई हुई थी, ना ही नवजन्मा को दूध के कड़ाहों में डूबा के मारने की रीत हमारी बनाई हुई थी| यह भी आप और आपके गुरुलोगों की ही समाज को अनोखी देन रही हैं (ना यकीन हो तो शाहजहाँ और औरंगजेब के फ्रांसीसी डॉक्टर फ्रांकोइस बर्नियर की डायरी खोल के पढ़ लो)| अत: आप लोग इस दावे से क्या साबित करना चाहते हो या फिर यह औरतों के प्रति अपने ऐतिहासिक क्रूरतम रवैये को जाटों को स्थांतरित करना चाहते हो? ऐसे थोड़े ही होता है महानुभाव| कृपया अपना क्रेडिट अपने पास रखिये, हम हमारे वाले से खुश हैं|

जाटों को नीचे दिखाने का अगला तर्क आप देते हो कि जाट तो हमारे यहां नौकर रहे हैं| जनाब मेरी हरयाणा तरफ की धरती पे तो मामला उल्टा है| यहां तो आप वाली जाति वाले मेरे यहां नौकर रहते आये हैं| ना यकीन हो तो मेरे गाँव में बसने वाली और आपकी बिरादरी की होने की कहने वाली जाति से साक्षात मिलवा भी दूंगा| तो यह तर्क तो यहीं पर उत्तर-कैतर यानी न्यूट्रल हो गया|

अब आप ऐसा ही एक और घटिया दावा उठा के लाते हो कि तुम्हारी औरतों को तो मुग़लों ने कुचला| उदाहरण देख लो कलानौर रियासत का| अब यह तो कुछ ज्यादा ही हो जायेगा| यह तो वही बात हो गई कि सिख को यह कहा जाए कि तुम सिख क्यों बने? बाई गॉड सिख जो भी जवाब देगा उनमें एक यह भी देगा कि हिन्दू औरतों (ध्यान दीजियेगा वो जाती-विशेष की नहीं वरन तमाम हिन्दू औरतों की बात करता है) पे विदेशी आक्रान्ताओं के जुल्मों के चलते वो हिन्दू से सिख बना| और मुझे कहने की भी जरूरत नहीं कि आधे से ज्यादा सिख भी जाट ही है| और हमने सिख ना बनते हुए भी कलानौर जैसी रियासत तोड़ के मूल-जाट रहते हुए कौम-हित के काम किये, तो इसमें उलाहना या कटाक्ष कैसा?

कुंठा की भी तो कोई हद होती है ना, क्योंकि आप लोगों ने किसी ऐसी रियासत को तोडा हो तो सामने वाले का बलिदान और क़ुरबानी समझ आवे| वैसे मुस्लिम कोई निशानी करके हिन्दू औरतों से बदसलूकी नहीं करते थे| जैसा कि अभी ऊपर कहा वो 36 कौम की हिन्दू औरतों से बदसलूकी करते थे| हाँ परन्तु इस मामले में एक बात में हम तुमसे फिर भी ऊपर हैं| जाटों के राजघरानों ने कभी मुग़लों को औरतें नहीं दी, बल्कि उल्टी उनकी ब्याही| उदाहरण स्वरूप गढ़-ग़ज़नी की बेगम से लव-मैरिज करने वाले गठवाला जाट दादा मोमराज जी महाराज; महमूद ग़ज़नवी की बहन से शादी करने वाले साहू जाट, अहमदशाह अब्दाली की नाक तले दिल्ली को हरा संधि स्वरूप दिल्ली की राजकुमारी का ब्याह स्वीकारने वाले महाराजा जवहारमल जी, और ऐसे ही बहुतेरे उदाहरण|
गठवाला (मलिक) जाटों की तो वो टोर होती थी कि मुस्लिमों ने कभी उनकी बारात के धौंसे (तुरई-टामक और नगाड़े बजते जाया करते थे पुराने जमाने की बारातों में) नहीं रोके, फिर उनसे कोले पुजवाने की तो बात दूर की है| हाँ 1620 में गठवालों की बेटी की डोली रोकने की हिमाकत करी थी कलानौर वालों ने तो ऐसी धूल में मिलाई थी पूरी रियासत कि आजतक इतिहास में मोटी स्याही में तारीख मौजूद है|

अब देखो यार बाल की खाल तो मुझे निकालनी आती नहीं| ना ही तुम्हारी तरह वो हमारी हरयाणवी कहावतानुसार 'चूचियों में हाड टोहने (ढूंढने)' आते| फिर भी अगर इससे भी तुम्हारा पेट्टा नहीं भरा यानी संतुष्टि नहीं हुई हो तो इतिहास की वो तारीखें और निकाल के तुम्हारे सामने रख दूंगा, जब बार-बार जाटों ने तुम्हारी आन और इज्जत बचाई (वैसे वैसी कुछ तारीखें तो इस लेख में दे दी हैं, जैसे गौरी को मारने वाली)|

तो ऐसा है बंधू हमें आपकी वीरता से स्नेह है, क्योंकि हम उन ब्रिटिशों के विजयरथ रोकने वाली कौम होते हैं जिनके बारे तारीखों ने कहा कि ब्रिटिशराज का सूरज कभी छिपा नहीं करता, इसका रथ कभी रुका नहीं करता| अब यार 1804-05 में भरतपुर में इनके रथ को 4 महीने तक रोक के रखने और फिर इनसे ‘treaty of equality and friendship’ sign करवाने वाले तो कम से कम आप नहीं हो सकते| पीछे के इतिहास में तो लाख झोलमेल-घालमेल करने की कोशिश करके तुम किसी को भी किसी का वंशज बताओ, परन्तु इसपे तो तुम कम से कम दावा नहीं ठोंक सकते| और जिन्होनें अंग्रेजों से बराबरी का सम्मान पाया हो, वो तो कम से कम तुम से ना तो बहादुरी में कम हो सकते और ना रॉयल्टी में|

अरे हमने तो ब्रिटिश ही क्या आपका मार्गदर्शन करने वालों के निर्देश पर सजी एक लाख की आर्मी को मात्र 9000 गठवाले जाटों में से सिर्फ 1500 गठवाले जाट कुर्बान कर हराया था| साहस और शौर्यता का यह अदम्य करिश्मा देख कर तो हमें अरब के खलीफाओं के प्रतिनिधियों तक ने उनके यहां रॉयल्टी की सबसे उच्च पदवी 'मलिक' बराबरी के स्थान के साथ नवीस की थी| ना यकीन हो तो अपने इतिहासवेत्ताओं व् मार्गदर्शकों से पूछवा लो|

सही कहा ना, अगर ऐसे कार्य आप लोगों के भी नाम रहे होते तो आप लोगों ने इसपे ग्रन्थ के ग्रन्थ लिखवा दिए होते| तो निराधार बातें छोड़िये और इस तथ्य को समझिए कि जाट आपसे तो कम से कम नहीं हैं|
अपने आपको बहादुर कहलाते हो, रॉयल भी कहलाते हो तो रोयलों जैसा ही बर्ताव करो| या फिर जो आपको मार्गदर्शन देते हैं उनको छोड़ के अपनी मति से कार्य करना शुरू करो; तब शायद पहचान सको कि जाट औरों से अपेक्षाकृत इतना गौरवशाली इतिहास कैसे लिए हुए है| और जाट से बड़ा आपका मित्र भी कोई नहीं हुआ इतिहास में| परन्तु पहले उनको छोडो जो आपका कन्धा प्रयोग करके आपको जाट से भिड़ाते हैं, तब जा कर यह बातें समझ आएँगी| जाट तो वो किंगमेकर रहे हैं जिन्होनें आज़ादी के बाद भी आपके दो-दो किंग बनाये और आप जाटों से ही घृणा रखते हो| नहीं मेरे भाईयो इसको त्यागो| और जो धारणा जाट के प्रति आप लोग रखते हैं जाट बिलकुल उसके विपरीत आपके लिए साबित हुए हैं|

चलते-चलते भावावेश और आवेश में बह के सोशल मीडिया पर तैरने वाले जाट-युवानों से एक निवेदन है कि आप लोग इन बेकार के तर्कों में उलझने से पहले, जितना हो सके उतना अपने इतिहास का अध्यन करो| मैडिटेशन और मनन करो| और सच कहूँ तो इन दावा करने वालों से ज्यादा यह लेख मैंने आप लोगों के लिए लिखा है| आलोचना करने वाले को जवाब देने की कला का अभ्यास करो| और हो सके तो इस लेख को दूर-दूर तक शेयर करना, इतना शेयर करना कि हर जाट को इन कुतर्कों की वजह से न्यून ना देखना पड़े| और ऐसे झूठे दावे करने वाले समझ जाएँ कि उनके दावे कितने खोखले हैं; उनकी भाषा कितनी असभ्य है और उनका व्यवहार कितना कुंठित और मनोरोगी है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

अधिपत्य सिद्धता की राजनीति बनाम राज-कर्तव्यता की राजनीति!


(जाट का धर्म के लिए नहीं अपितु देश-कौम व् मानवता के लिए हथियार उठाने का इतिहास रहा है)

विगत दो सालों के इतिहास को छोड़ दो तो जाट-कौम के इतिहास में ऐसी अंधभक्ति की कोई काली तारीख नहीं, जब उसने धर्मांद व्यभिचारियों व् पाखंडियों के मंसूबे सधवाने हेतु हथियार उठाये हों| इससे पहले जाट ने जब भी हथियार उठाये वो सिर्फ और सिर्फ देश-कौम और मानवता की रक्षा के लिए उठाये थे| और इस परम्परा का इतिहास वहाँ तक जाता है जब ईसा-पूर्व दूसरी सदी के पुष्यमित्र सुंग से ले शशांक और दाहिर जैसे राजाओं ने जाटों के साथ सामाजिक संधि तोड़ी थी|

मैं हिन्दू धर्माधीसों को अक्सर कहा करता हूँ कि या तो बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार कहना छोड़ दो, अन्यथा मुझे बुद्ध की उपासना करने दो| इसको मैं हिन्दू धर्म का दोगलापन कहूँ, मौकापरस्ती कहूँ, स्वार्थ कहूँ या क्या कहूँ, कि एक तरफ तो पुष्यमित्र सुंग, शशांक और दाहिर से बुद्ध अनुयायिओं के मठ-लाइब्रेरी (नालंदा और तक्षिला की लाइब्रेरियां बुद्ध धर्म के साहित्य संग्रहालय थी) तुड़वाये, इस धर्म को भारत से खत्म करने हेतु जितने हो सकते थे उतने जुल्म करवाये और दूसरी तरफ उसी बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार भी बना लेते हैं| आखिर एक धर्म का यह कैसा अवतार हुआ कि उसी धर्म की किताबों-ग्रंथों-मठों-शंकराचार्यों की जुबानों तक के अनुसार वो उस धर्म का नौवां अवतार कहा जाता है और उसी धर्म के लोग उसकी उपासना करें तो उनको मौत के घाट उतरवा दिया जाता रहा है?

मुझे शायद ही किसी जाट राजा का ऐसा इतिहास पढ़ने को मिलता है जिसने राजा बनते ही एक जाति-विशेष के खिलाफ उसको मिटाने-झुकाने-तोड़ने अथवा बर्बाद करने के बिगुल बजाये हों| परन्तु इन तीनों राजाओं का यही इतिहास रहा| जो इनके बारे जानता है वो इनका इतिहास भी जानता है, जाति भी और इनके कुकर्म भी| कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इन राजाओं ने जो काल जाटों को दिए, ऐसा ही बड़ा (छोटे-मोटे तो और भी रहे हैं) चौथा काल अब चल रहा है| और यह तब-तब हुआ है जब-जब जाट हद से ज्यादा इनके अंदर घुसे हैं, इनसे गलबहियां डालने की भूलें की हैं या इनके अंधे या धक्के के प्रभाव में आये हैं|

पुष्यमित्र सुंग और शशांक की हरकतों का जहर चढ़ता-चढ़ता जाटों में तब सहिषुणता का बाँध तोड़ गया जब दाहिर ने भी राजा बनते ही जाटों के खिलाफ प्रताड़ना शुरू कर दी, इससे जाटों ने उदासीनता ओढ़ ली और इनकी राज-कुशलताओं और दक्षताओं को देखने की नियति पे ही चलना धारण किया| क्योंकि यह जाट की गुणवत्ता का सबसे बड़ा उत्कृष्ट गुण रहा है कि अपनों द्वारा ही जब-जब देश की शांति भंग करने की परिणति उठी, उसने उस परिणति को तोड़ने और देश की शांति को बरकरार रखने के बीच देश की शांति को चुना है|

यह लोग ऐसे व्यवहार करते रहे हैं जैसे कोई बच्चा उससे किसी ऐसी चीज जो चलानी-संभालनी उसके बस की ना होते हुए भी उसको सिर्फ अपने अधिपत्य में रखने हेतु रुदन मचाने लग जाता है| और इतिहास में खाई बार-बार चोटों ने इनको ऐसा ही साबित किया| निश्चय ही ऐसी थ्योरी के तहत बने या बनाये राजा वही होंगे जो राज को सिर्फ अपना अधिपत्य सिद्ध करने को चलाते हों| और यही हुआ इन ऐतिहासिक मौकों पर:

1) अरब के व्यापारियों के साथ दाहिर के राजदरबारी व् व्यापारियों ने बदसलूकी कि तो अरब के खलीफा ने मीर कासिम को सिंध भेजा| और क्योंकि यह सिर्फ अधिपत्य सिद्ध करने को सत्तारूढ़ होते आये तो जो युद्ध-राज कला में सबसे निपुण जाट जाति इन्होनें जाट से अपने दुर्व्यवहार के कारण अलग कर दी थी, इस संकट की घड़ी में उसका समूचा साथ ना मिलने की वजह से दाहिर मीर कासिम से हार गया| अब जाहिर सी बात है जो किसी के साथ राज्य का बासिन्दा होते हुए भी दुश्मन सा व्यवहार करेगा तो भीड़-पड़ी में उसका साथ कैसे पा लेगा? और इस तरह मुग़लों का आगमन भारत में शुरू हुआ| लेकिन इतिहास के पन्ने साक्षी हैं कि बाद में अरबों को नकेल डाली जाटों ने ही|

2) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि महमूद ग़ज़नवी को खुद भारतीय धर्म की अधिपति जाति के ही कुछ लोग उसके सेनापति बन उसको भारत पे हमला करने को बुलाते हैं और वो सोमनाथ के मंदिर की तरफ मुड़ जाता है| और जनता को सिर्फ मौखिक गपेड़ों से काबू करने के आदि बन चुके लोगों के उस दावे को धत्ता बताते हुए कि इस मंदिर में सेना घुसी तो अंधी हो जाएगी, उसी सेना ने सोमनाथ को जी भरकर लूटा| लेकिन देश-कौम पर बात आती देख, सिंध के जाटों ने दादा जी महाराज बाला जी जाट के नेतृत्व में खाप-आर्मी ले गजनवी लुटेरे के अधिकतर कारवां को लूट लिया| यह ठीक वैसी ही साइकोलॉजी है कि बस अब बहुत हुआ, तुम्हारी राजकुशलता बहुत देखी, अब बात देश-कौम की गरिमा पे आन खड़ी हुई है तो हमें आगे बढ़ना ही होगा|

3) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि पृथ्वीराज चौहान द्वारा मोहम्मद गौरी को हरा, बंधी बना लिए जाने के बाद भी राजदरबार के सलाहकारियों ने उसको मुक्त करवा दिया और उसका प्रतीकात्मक परिणाम यह हुआ कि गौरी फिर से चढ़ आया और पृथ्वीराज को बंधी बना ले गया| पूरे विश्व में यह अनोखी थ्योरी हमारे भारत में ही देखने को मिलती है कि एक खतरनाक युद्धबंदी को छुड़वाया गया हो, वरना रोमनों से ले हूण, मंगोलों से ले पर्सियन किसी के इतिहास में ऐसे लाजवाब समझ से परे के किस्से नहीं मिलते| फिर भी यह राजकुशलता देख रहे जाटों ने ही अंत में पृथ्वीराज के कातिल को मारा, क्योंकि बात देश-कौम की अस्मिता पे जो आन डटी थी|

इस बीच बहुत से अन्य युद्ध-यौद्धेय होते गए और देश के काम आते रहे| ऐसे चलते चलते काल आया औरंगजेब का|

4) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि औरंगजेब ने जब तक अन्य जातियों के साथ-साथ धर्म ध्वजा वाली जाति पर भी जजिया कर नहीं लगाया तो इन्होनें औरंगजेब को कुछ नहीं कहा| परन्तु जैसे ही यह कर लगा, इन्होनें रूदन मचाने शुरू कर दिए| और उधर इनकी राज-कुशलताओं पर नजर रखे हुए जाट-समाज को भी अहसास हो गया कि अब सहनशीलता की सीमा आ चुकी है| तो तब जब सम्पसम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे, धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें दिखाई देती थी, राजे-रजवाड़े झुक चुके थे; फरसों के दम भी दुबक चुके थे, ब्रह्माण्ड के ब्रह्म-ज्ञानियों के ज्ञान सूख चुके थे, हर तरफ त्राहि-त्राहि थी, ना धर्म था ना धर्म के रक्षक| तब निकला उमस के तपते शोलों से एक शूरवीर, तब किरदार में अवतारा था वो यौद्धेयों का यौद्धेय "समरवीर प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक अमर-ज्योति 'गॉड गोकुला' जी महाराज"|

और इसके बाद जाटों ने अपनी राजसत्ता और दक्षता को फिर से उसी स्तर का अमली-जामा पहनाने की ठानी जो कि महाराजा हर्षवर्धन, कनिष्क और पोरस काल में हुआ करता था| और चले तो ऐसे चले कि मुग़ल हों या अंग्रेज सबकी तलवारों की धार ऐसी परखी कि कूटनीति-राजनीती और युद्धकौशलता के लिए एकछत्र डंका बजाने वाले महाराजा सूरजमल, महाराजा रणजीत सिंह पंजाब, महाराजा जवाहर सिंह, महाराजा रणजीत सिंह भरतपुर दिए| जहां अधिपत्य हेतु राजनीति करने वाले आज भी हारे हुए राजाओं-रजवाड़ों को ही फिल्मों-नाटकों में सर्वोत्तम दिखाते हैं वहीँ जाटों ने वो राजे निकाले जिनका लोहा मुग़लों ने भी स्वीकारा, अंग्रेजों ने भी और दबी जुबान में इन खुद अधिपत्य-मात्र की राजनीति करने वालों ने भी| और कुछ एक की बेचैनी का तो यह आलम है कि आज इन जाट राजाओं को ही अपने ही वंश का बता के जाट की शौर्यता को भी अपनी बताते हुए आम सुना जा सकता है|

5) पानीपत की तीसरी लड़ाई में जब पेशवा महाराजा सूरजमल की सलाह को नकारते हुए उनको दरकिनार कर पानीपत लड़ने चढ़े तो मुंह की खा के लौटे| फिर उन्हीं अहमदशाह अब्दाली के सेनापति नजीबुद्दीन पर रणचंडी बन महाराज जवाहर सिंह नाचे तो अब्दाली भी मूक-दर्शक बन गया और दिल्ली में लगे चित्तोड़ के अष्टधातु दरवाजे समेत, मुस्लिम राजकुमारी से ब्याह और युद्ध खर्च की संधि पर ही वापिस लौटे|

6) 1857 की क्रांति में अपने-अपने इक्का-दुक्का हीरो को सबसे अग्रणी साबित करने में लगे रहने वाले बड़े सहज ही यह भूल जाते हैं कि वह आप नहीं अपितु जाट और खाप थे जिनकी वजह से अंग्रेजों को कलकत्ता से दिल्ली में राजधानी शिफ्ट करनी पड़ी, 1857 के भोगने स्वरूप जाटलैंड की यमुना के आर और पार दो फाड़ करनी पड़ी| क्या इससे बड़ी कोई परिणति है उस इतिहास की जो यह साबित करती हो कि 1857 का झंडा किसके हाथ रहा?
क्या यह ईसा-पूर्व दूसरी सदी में जाटों से सामाजिक संधि तोड़ने वालों ने यह संधि फिर से स्थापित की है, क्या जाटों को इसको तोड़ने बारे इसको तोड़ने वालों ने कोई माफ़ी या पछतावा पत्र लिखा है? जब यह लिखा ही नहीं तो ऐसे गलबहियां किस काम और उद्देश्य-सिद्धता की? इतिहास गवाह है कि यह संधि टूटने पर भी जाट जहां खुद को बचाने में सफल रहा वहीँ इनसे जो इतिहास की तारीखें बिगड़ी उनको भी संगवाता यानी सुधारता आया| लेकिन हर विद्या-दक्षता का धनी जाट जब तक अपनी धर्म और धन की इन अधिपत्य की राजनीती करने वालों से रक्षा हेतु कड़ी नीति नहीं अपनाएगा, तब तक दुविधा और उहापोह खत्म नहीं होगा| मानवीयता के मापदंडों पर बेहद लचीले जाट को अपनी खुद की धार्मिक मान्यताओं जैसे कि "दादा नगर खेड़ा" और अपने धन यानी फसलीय उत्पाद का मूल्यनिर्धारण का हक़ अपने हाथों में लेना ही होगा| और इनसे भी पूछना होगा कि पहले पुष्यमित्र सुंग की तोड़ी संधि को जोड़ो, और फिर किसी एकता और बराबरी की बात करो| वरना तो जाट इस टूटी हुई संधि की वेदना पर ही चलते हुए, समाज के हर फर्ज को पूरी तल्लीनता से निभाते आये हैं और निभाते रहेंगे; उसके लिए जाट को किसी धार्मिक कटटरता से जुड़ने या बहकने की जरूरत नहीं|

चलते-चलते एक गौर फरमाने की बात कहूँ, इतिहास में पहली बार इन लोगों ने जाट-राजनीति पर चलते हुए किसी गैर-धार्मिक प्रतिनिधत्व समुदाय के मनुष्य को पीएम बनाना पड़ा है| परन्तु जाट से संधि को आज भी तैयार नहीं| लगता है ताऊ देवीलाल की अधिपत्य-सिद्धि से रहित उस राज-कर्तव्यता की राजनीती से ही प्रेरणा लेकर इन्होनें यह कदम उठाया है जिसके तहत ताऊ जी ने खुद पीएम नहीं बन, दो-दो राजपूतों (श्री वीपी सिंह व् श्री चंद्रशेखर) को पीएम बनाया था|

लेकिन यह इतना भर तो ऊँट के मुंह में जीरे के समान है| असली राज-कर्तव्यता और देशपालना तो उस दिन बन-निकलेगी जब ईसा पूर्व दूसरी सदी की टूटी इस संधि को जोड़ने हेतु कदम उठाए जायेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 12 June 2015

धर्म के नाम पर इन्वेस्ट करना है तो!


धर्म को चलाने वाला रिटर्न में रोजगार और सम्मान दोनों पाता है|

धर्म में इन्वेस्ट करने वाला व्यापारी रिटर्न में व्यापार पाता है|

परन्तु धर्म के नाम धन-दान, ताकत-बल, भावना-जज्बात तीनों को एक साथ इन्वेस्ट करने वाला रिटर्न में सिर्फ जेल, रोते-बिलखते परिवार, दंगों की भेंट चढ़े आग में जले उजाड़ घर पाता है, अलगाव और पछतावा पाता है|

वह धर्म नहीं हो सकता जो किसी के उजड़ने-बरबाद होने व् जेल जाने का सबब बने| वह कोरी राजनीति होती है सिर्फ और सिर्फ राजनीति| कोई समझे तो समझे, ना समझे तो ना समझे; माने तो माने, ना माने तो ना माने|
धर्म में हाथ डालना है तो पहले इतने प्रो-रिलिजन बनो कि या तो रिटर्न में रोजगार ही पाओ, या आय ही पाओ या सम्मान तो कम से कम जरूर पाओ| जो इस इन्वेस्टमेंट से एक भी रिटर्न नहीं निकालता वो मानव-योनि में पैदा हुआ चलता-फिरता वो जानवर है, जिसको धर्म के नाम पर पशुओं की भांति कोई भी किधर भी किसी भी दिशा में हाँक सकता है|

धर्म के नाम पर इन्वेस्ट करना है तो एक वक्त में एक ही चीज करो, या तो धन-दान इन्वेस्ट करो या ताकत-बल इन्वेस्ट करो या भावना-जज्बात इन्वेस्ट करो| तीनों एक साथ इन्वेस्ट किये तो समझ लेना खुद भी वेस्ट हो जाओगे| एक वक्त में एक चीज इन्वेस्ट करोगे तो इस बात पर बराबर नजर रहेगी कि रिटर्न क्या आएगा या आने वाला है या आया| और नहीं आया तो क्यों-क्या नहीं आया| धर्म में तीनों एक साथ डालना, समझो शरीर से पत्थर बाँध कर झील में कूद जाना|

और कोई माने या ना माने, परन्तु अगर धर्म में वित्तीय रिटर्न ना हो तो ना तो कोई धर्मालय खोल के बैठे और ना ही कोई व्यापारी इनको बनवाने हेतु इनमें इन्वेस्ट करे| तो जब यह दोनों ही वित्तीय रिटर्न को सामने रख के इन्वेस्ट करते हैं तो किसान-कमेरे-दलित भी वित्तीय रिटर्न को सामने रख के ही इनमें इन्वेस्ट करें|

अन्यथा मन की शांति और आध्यात्म की तृष्णा-तृप्ति हेतु तो अपने पारिवारिक देई-द्योते बहुत हैं| धर्म की वो शास्वत परिभाषा ही बहुत है जो कहती है कि तर्कशील बुद्धि से तार्किकता और विवेचना के आधार पर लिया गया निर्णय और मार्ग ही इंसान का धर्म है| इसलिए अगर वित्तीय रिटर्न की जगह धार्मिक रिटर्न ही चाहिए तो अपने आपको तर्कशील बनाने में इन्वेस्ट किया जाए|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

मंडी (व्यापारी) दान के नाम पर अधिकतर मंदिर ही क्यों बनवाता है?


क्योंकि मंदिर बनवाना भी उसके लिए एक इन्वेस्टमेंट होता है| जितनी बड़ी इन्वेस्टमेंट, उसमें उतनी बड़ी फंडों की मण्डली, जितने बड़े फंड उतने अंधभक्त, जितने ज्यादा अंधभक्त उतना बड़ा रिटर्न| रिटर्न कैसे? अरे भाई फंड रचने के लिए जो सामान चाहिए वो कहाँ से खरीदोगे, वापिस व्यापारी की दुकान से ना?

यानी दानी-धर्मात्मा होने का नाम हुआ सो हुआ और रिटर्न का रिटर्न| यह जितने भी लोग ऐसा कहते हैं ना कि व्यापारी अपने पाप धोने के लिए ऐसे मंदिर बनवाते या दान देते हैं, वो अपना भरम दूर कर लें| व्यापारी सिर्फ और सिर्फ इन्वेस्ट करता है| पाप धोने को मंदिर बनाया, यह तो उसकी स्ट्रेटेजी होती है बन्दों को उन्हीं मंदिरों में बुलवा, अंधभक्त बनवा अपना सामान बिकवाने की|

मैंने वैसे तो भारत के कई हिस्सों, परन्तु हरयाणा तो खूब घूम के देखा है| व्यापारियों की धर्मशालाओं से बड़ी तो किसानी जातियों की धर्मशालाएं मिल जाती हैं| यहां तक कि मेरे जींद में तो दलित समाज की धर्मशाला तो इतनी बड़ी है कि उसी की अटालिका पूरे जींद की धर्मशालाओं में सबसे ऊँची टक्कर देती है| कारण साफ़ है किसान या दलित धर्मशाला बनाता है शुद्ध धर्म-पुण्य के लिए या फिर इनको व्यापारियों जैसी चालाकी नहीं आती| जबकि व्यापारी धर्मशाला बनाएगा तो वो भी सिर्फ छोटी सी, क्योंकि धर्मशाला से रिटर्न थोड़े आना है|

वो धर्मशाला की बजाये मंदिर में इन्वेस्ट करता है| क्योंकि पता है वहाँ से रिटर्न आएगा ही आएगा| You know its a cyclic business process, invest there (temple), get return here (shop)!

अरे किसानो-दलितों और नहीं तो कम से कम धर्मपुण्य के जरिये भी कमाना सीख लो| अपने दादा खेड़ों के इर्द-गिर्द बड़े पार्क-बाड़े-स्मृति अथवा प्रेरणा स्थल बनाने सीख लो| आपके खुद के हुए योद्धेयों के किस्से-गाथाएं गानी-गुवानी सीख लो| कम से कम और नहीं तो उनमें देवता तो आपके अपने बैठे हैं| कमाई नहीं भी होगी तो पुरखों की बड़ाई और पहचान तो हो जाएगी समाज-संसार में|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 11 June 2015

क्या जब धर्म-वालों ने गौरक्षा के झंडे नहीं उठाये थे तब गऊ की रक्षा नहीं होती थी?

मुखड़ा ही याद है, पर मेरी दादी और घर की औरतें एक लोकगीत कुछ इस तरह गाया और सुनाया करती थी, "मैं सूं हरफूल जाट जुलानी का, कित लुकेगा तेरै गुडैकी मारूंगा| गौहत्था चलावणिये बाज आ जिए, ना आरे पर को तारूँगा|"

मेरी दादी जी बड़े गर्व से दादावीर हरफूल जी की महानता के किस्से ऐसे लोकगीतों और कहानियों के माध्यम से सुनाया करती थी और बताया करती थी कि कैसे दादा जी का नाम सुनते ही गौहत्यारों की पिंडियाँ काँप जाया करती थी| कैसे दादा जी ने गोहाना और टोहाना से ले तमाम उत्तरी भारत के बहुतेरे गौहत्थे तोड़े थे| और हजारों-हजार दूधिये (दूध के रंग के यानी गाय) जानवरों की जानें बचाई थी|

याद करो दादावीर हरफूल जाट जुलानी वाले का जमाना| वह ठीक उसी काल में हुए, जब आरएसएस बना था, हिन्दू परिषद बनी थी| क्या कोई मुझे बता सकता है कि दादावीर हरफूल जाट को इनमें से किसने आ के गौरक्षा हेतु प्रेरित किया था या यहां तक कि इनका साथ तक दिया हो? या जब अंग्रेजों ने इनको फांसी दी तो किसी तथाकथित राष्ट्रवादी ने इनकी रक्षा की हो अथवा इनका पक्ष लिया हो? श्रद्धेय दादावीर की मृत्यु भी चालीस के दशक में हुई जब इन संगठनों को बने हुए दशकों बीत चुके थे, परन्तु मुझे इतिहास से इनका कोई ऐसा पन्ना नजर नहीं आता जब इन्होनें उस जमाने में कभी गौ की सुध भी ली हो|

हरयाणा कहो या मीडिया की भाषा वाला जाटलैंड अथवा खापलैंड पूरे देश में सबसे बड़ी व् प्राचीन गौशालाएं इस धरती पर हैं| बचपन में जबसे सोधी संभाली तब से देखता आया हूँ, मेरे घर से हर साल गौशाला धड़ौली के लिए, गौशाला शादीपुर के लिए अनाज की बोरियां और तूड़े की ट्रॉलियां बराबर जाती रही हैं| बल्कि जब मैं कॉलेज स्टूडेंट हुआ करता था तो खुद अपनी निगरानी में यह सामान गौशालाओं में पहुंचा के आया करता था| बंधा हुआ सिस्टम रहता था कि गौशाला का इतना अनाज और इतना तूड़ा हर साल जायेगा और जाता रहा| अब भी जब भी इंडिया जाता हूँ तो पहले झज्जर गुरुकुल की गौशाला में गौओं को गुड़ खिलाते हुए मेरी नगरी जाता हूँ|

तो मुझे समझ यह नहीं आ रहा कि यह तथाकथित राष्ट्रवादी एक हरयाणवी को कौनसे वाली गौरक्षा या गौसेवा का पाठ पढ़ाना चाहते हैं? लेकिन अब लगने लगा है कि अगर ऐसे बहरूपिये भी गौसेवा के लेक्चर देने लग गए हैं तो मैं गौसेवा छोड़ कुछ नया पुण्य करने की शुरुआत क्यों ना करूँ|

और कमाल है यह इस बात की उम्मीद भी कैसे कर लेते हैं कि मानवता और धर्म पर यह लोग पाठ पढ़ाएंगे और हरयाणवी इनसे पढ़ के मार्गदर्शन पाएंगे? यह लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हम हरयाणवी होते हैं जो स्वछँदता से मन में आये तो वो जाट वाली भेल्ली भी दे देवें ना तो देवें ना पोरी भी? परन्तु आज सब कुछ संशय में हैं, क्योंकि शहरी हरयाणवी कुछ ज्यादा ही धार्मिक हुआ टूल रहा है; इसलिए ज्यादा सटीक इसपे दावा भी नहीं कर सकता| परन्तु इसको इस बात का पैमाना तो ले ही सकता हूँ कि जरूर मूल हरयाणवी दिशाहीन हो चुका है, उसकी मानवता और स्वछँदता घिर चुकी है|

उत्तरी भारत में मंदिर जितने छोटे, गौशालाएं उतनी बड़ी; दक्षिण भारत में मंदिर जितने बड़े, गौशालाएं उतनी छोटी, फिर भी यह लेक्चर हरयाणा में ही ज्यादा पढ़ाये जा रहे हैं? हरयाणा तो सबसे बड़ा मुस्लिम बहुल राज्य भी नहीं, केरल-आंध्र-तमिलनाडु में हमसे कहीं ज्यादा मुस्लिम हैं| तो ऐसे में अगर इसको इसी हिसाब से समझूँ कि इन राष्ट्रवादियों को गौरक्षा के मुद्दे के बहाने मुस्लिमों से ही कुछ हिसाब-किताब बराबर करना है तो वहाँ क्यों नहीं इस स्तर के ऐसे अभियान सुनने में आ रहे?

शायद हरयाणवी जाट वाली मानवता और स्वछंद स्वमति से प्रेरित धर्म पालना का क्रेडिट डकारना है| जो गौसेवा इनकी तुंगभद्रा टूटने से सदियों पहले से हरयाणवी करता आ रहा है उसपे ही इनको हरयाणवी को भरमाना है कि देखो तुम गौसेवा करो| इन अनाड़ियों को इतनी सी बात कौन समझाए कि एक मास्टर भी जब किसी बच्चे को ऐसी बात पे लेक्चर देवे जो वो पहले से ही दुरुस्त्ता से कर रहा हो, तो बच्चे को चिड़ होती है| बच्चा बोर होने लगता है, उस अध्यापक से कन्नी काटने लगता है| यही नहीं बल्कि उस टीचर को सबसे बड़ा फद्दु भी समझने लगता है| परन्तु इन धक्के के स्वघोषित व् प्रैक्टिकल-विहीन कुंठित टीचरों को यह बात पता नहीं कब भेजे में घुसेगी कि जिन धर्म-पुन की तुम थ्योरी मात्र रटते हो, मूल हरयाणवी बाइडिफ़ॉल्ट उसका प्रैक्टिकल करते हैं| इसलिए हमें मत पकाया करो|

और गाय तो गाय हरयाणवी ने तो तीतर-बटेर-सूअर तक मारने वालों को कभी आदर-मान नहीं दिया| तीतर-बटेरों को मारने के लिए भी जब शिकारी खेतों का रूख करते हैं तो पहले देख लेते हैं कि कोई जाट-जमींदार-किसान आसपास तो नहीं है; वरना क्या मूड हरयाणवी का कि उसका लठ लगा तो खुद की टंगड़ी तुड़वा बैठें| हरयाणवी के लिए सिर्फ गाय ही नहीं, सब जानवरों का मर्म-दर्द स्पर्शीय रहा है| हरयाणवी इनके प्रति संवेदनशील रहा है| परन्तु इन संवेदनहीन लोगों को एक यही बात पल्ले नहीं पड़ती| वही बात जब ऐसे-ऐसे मूढ़ भी धर्म-पुण्य का प्रैक्टिकल करने चले हैं तो हरयाणवी को तो कुछ और ही पुण्य ढूंढ लेना होगा, कम से कम मुझे तो ऐसा ही महसूस होता है|

और अचरज तो मुझे इस बात का हो रहा है कि हरयाणवी युवा दिशाहीन प्रतीत होता है| निसंदेह हरयाणा के बड़ों की चुप्पी इसके पीछे बहुत बड़ी वजह है, जो अपने बच्चों को ऐसे-ऐसे तथ्य नहीं बताते| नहीं बताते कि 70% गौ-मांस का व्यापार करने वाले बड़े कारखाने खुद हिन्दू व्यापारियों के हैं| नहीं बताते कि शिक्षा के गुरुकुलों की तरह हर दस कोस पे खापों व् तमाम हरयाणवी समाजों ने गौशालाएं भी खोली हुई हैं और वो भी आज से नहीं, तब से जब आपकी तथाकथित राष्ट्रवादी विचारधारा का तो अंकुर भी नहीं फूटा था|

निसंदेह बैठे-बिठाए क्रेडिट ले उड़ने वाले और जिंदगी के तीन चौथाई हिस्से कल्पनाओं में बिताने की आदत से लाचार, इन घाघों से अपनी मति की रक्षा करना लाजिमी है| हरयाणवी युवानों सम्भलो और अपनी दिशा व् दशा सम्भालो| गौ-रक्षा तो क्या हर जानवर की रक्षा आपके खून में स्वत: ही नीहित है| कम से कम यह जानवर रक्षा के पाठ तो इनसे सीखने की जरूरत नहीं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 9 June 2015

सभ्रांत भाषा सिखाने का अंग्रेजी स्लेव सिंड्रोम!

ये आजकल की माएं जब अपने बच्चों को 'आप-आप' करके बोलती हैं तो बड़ा नकलीपन लगता है, ना कोई घर-प्यार की फीलिंग आती| ऐसा लगता है कि बच्चा कहीं नर्सरी में पल रहा हो|

असली प्यार तो वो होता था जब माँ की एक बात का रेस्पोंस ना दो तो लखानी की हवाई चप्पल सर-सर करती हुई झन्न से सीधी मुंह या पीठ पे आ के लगती थी|

वो होता था असली सॉलिड वाला प्यार| सीधी ताबड़-तोड़ भाषा, ना कोई लाग ना कोई लपेट; और हम झट से रेस्पोंस देते थे|

परन्तु आज वाले को तो ऐसा गूगा बना देते हैं कि बच्चे के मुंह हमेशा फूले हुए गुब्बारे बने रहते हैं| एक दम प्रतिक्रियाहीन बोरिंग चेहरे, ना कोई हंसी ना खिलखिलाहट|

सच भी है कोई तो रिश्ता ऐसा भी होना चाहिए जिसमें कोई फॉर्मेलिटी ना हो| परन्तु लगता है ये आधुनिकता के भूत माँ के रिश्ते को भी बोरिंग बना के छोड़ेंगे|

Even in France, no one uses 'vous' (आप) in personal, familiale, known relations and among friends, it is 'tu' (तू), 'toi' (तुम), 'ton' (तेरा) 'tes' (तुम्हारा). Vous is used in case of professionals or strangers only. And even then French language is called and known as the best cultural language worldwide.

लेकिन यही तू-तड़ाक जब हमारी हिंदी में उतरता है तो पता नहीं कैसे असभ्य हो जाता है और वो भी औरों से पहले खुद हिंदी ही बोलने वालों के लिए| लगता है अंग्रेजी गुलामी का मॉडर्न-कीड़ा नामक सिंड्रोम इतनी आसानी से निकलने वाला नहीं हमारे में से|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

मेरी 15 पीढ़ियां और मेरी निडाना नगरी (गाँव)!


फूल मलिक > चौ. राममेहर सिंह > चौ. फ़तेह सिंह > चौ. लक्ष्मण सिंह > चौ. शादी सिंह > चौ. गुरुदयाल सिंह (हरयाणवी में दादा गरद्याला जी, हमारे ठोले का नाम इनके ही नाम पर है) > चौ. डोडा सिंह > चौ. दिशोधिया सिंह > चौ. थाम्बु सिंह > चौ. संजय सिंह > चौ. रोहताश सिंह > चौ. सांजरण सिंह (इनके नाम पे मेरे पान्ने का नाम है और मेरे ब्लॉग का भी इन्हीं के नाम पे http://sanjrann.blogspot.fr/ है) > चौ. करारा सिंह > चौ. रायचंद सिंह > चौ. मंगोल सिंह गठवाला दादा जी महाराज, जिन्होनें सन 1600 ईस्वीं में अपने साथी दादाश्री मीला धानक व् अन्यों के साथ मोखरा नगरी, जिला रोहतक से आ के मुस्लिम रांघड़ों के डेरे पे अपना खेड़ा निडाना नगरी जिला जींद बसाया| गाँव के सबसे पुराने जोहड़ (तालाब) मंगोलवाला का नाम आप पर ही रखा गया है|

औसतन 24-25 साल में नई पीढ़ी जन्म ले लेती है, इस हिसाब से मेरी 15 पीढ़ियां निडाना नगरी में हो चुकी हैं, जिनका कुल काल निकाला जाए तो 375 साल बैठता है| मैं शादी करने में लेट हूँ और बीच में मेरे पिता भी तब हुए थे जब मेरे दादा तकरीबन 43 साल के थे| तो ऐसे कुल मिला के यह काल सटीक मेरे गाँव की स्थापना के समय से मेल खाता है|

It was just like coffee time in office and all revolved in mind and I just wrote, nothing special effort put!

जय दादा नगर खेड़ा! जय निडाना नगरी!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 8 June 2015

मुझे हिन्दू धर्म के ज्ञाता-प्रणेता एक बात बताएं!


जब रामायण काल में एक दलित महर्षि शम्बूक की सिर्फ इस बात पे क्योंकि उन्होंने शास्त्रार्थ किया, शास्त्रों का अध्ययन और शिष्यों व् जनता में प्रवचन किया, राजा राम द्वारा उनकी हत्या करवा दी जाती है| तो ऐसे में यह कैसे सम्भव हो गया कि एक दलित बाल्मीकि इतना शास्त्रार्थ भी कर गए कि वो ना सिर्फ महर्षि बन गए वरन उनकी लिखी पूरी रामायण को भी धर्माधीसों ने मान्यता दे डाली? और इससे भी बड़ी बात उनको रामायण लिखने भी दी गई, वो भी निर्विरोध|

और जब उस काल में एक दलित का शास्त्रार्थ करना, अध्यापक बनना वर्जित था, वो भी इस हद तक वर्जित कि ऐसा दुःसाहस करने पर सीधी राजा द्वारा उनकी हत्या करवा दी जाती थी तो फिर महर्षि बाल्मीकि कौन थे, क्या वो वाकई दलित थे?

Such loop-holes make me to consider these creations as mythology i.e. the work of fiction (imagination) only. Such work is similar to America’s Disney and France’s Asterix character work. Only difference is that American and French are honest and sincere in accepting and admitting the work of imagination as imagination, history as history and then religion as religion; whereas ours, I think in front of examples like above, I don’t need to comment further.

Though curious to get my query clarified if any religious guru could make me understand on such a blunderous contradiction cited above.

Jai Yoddheya! - Phool Malik

Sunday, 7 June 2015

क्या इतना ही काफी नहीं है समझने को?


ओ दाऊद, ओ शकील, ओ पास्कल, ओ राजन, ओ दुबई के शेख, ओ लादेन और ओ आईएसआईएस तुम तो इंसानों का अपहरण करते हो, यह देखो हमारे तेलंगाना के पुजारी, इन्होनें तो सीधा भगवान का ही अपहरण कर डाला| अपनी तनख्वाह और सुविधाओं की मांगे मनवाने को डाक्की के चेल्लों ने पूरे तेलंगाना के अढ़ाई हजार के करीब मंदिरों पर ही ताले जड़ के सीधा भगवान का ही अपहरण कर लिया| कुछ सीखो इनसे|

पता नहीं इनका भगवान कैसा है, दिन-रात उसकी आरती करते हैं, माला जपते हैं और उसके डायरेक्ट ए...जेंट कहलाते हैं और फिर भी अपनी सुविधाओं की भरपाई के लिए इंसानों के मुंह तकते हैं| वैसे जनता तो चंदा भी देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती|

बाकी जनता मुझे एक बात बताये, जिस भगवान का अपहरण हो जाए, जो अपनी कैद ना छुटा पाये, वो भला इंसान की क्या रक्षा करेगा? क्या इतना ही काफी नहीं है समझने को कि भगवान के नाम पे दुकानें चलती हैं, भगवान चलता तो हिम्मत थी क्या कि यह उसके आगे ताला जड़ देते?

इनको तो भगवान का मजाक बनाते हुए भी शर्म नहीं आती, फिर आम इंसान को तो कठपुतली बनाने से क्या बाज आएंगे| क्या इससे मर्यादित तरीका ही नहीं मिला मांगें मनवाने का?

वैसे पूरे विश्व के धार्मिक इतिहास में भी ऐसा पहली बार हुआ होगा कि भगवान का ही अपहरण हो गया| गॉड-अल्लाह-वाहेगुरु-धम्म-पैगंबर धन्य हो तुम और तुम्हारे लोग जो तुम्हारी इतनी मर्यादा तो रखते हैं कि तुम्हारा अपहरण नहीं करते| तुम्हारी शर्म और प्रतिष्ठा बनाये रखते हैं|

Phool Malik

Source: http://zeenews.india.com/news/telangana/telangana-priests-temple-employees-on-strike_1607414.html

आखिर आप अन्नदाता का कार्य करते हो, वह तुच्छ कैसे बताया जा सकता है?


जब एक ब्राह्मण कारोबार बदलता है तो वो कभी भी पंडिताई अथवा पुरोहिती को बुरा बताते हुए नहीं छोड़ता; वरन उसके प्रति सम्मान रखते हुए, उस कार्य की प्रतिष्ठा को बरकरार रखता है|

वैसे तो बनिया यानी व्यापारी वर्ग अपना कारोबार बदलता नहीं, परन्तु जब भी बदलता है तो उसकी भी यही कहानी रहती है कि वो उसके पुराने कार्य को सम्मान देते हुए उसकी प्रतिष्ठा को बरकरार रखता है|

ऐसे ही एक दलित उदाहरणतः एक मोची अगर मोची का कार्य छोड़ के नया पेशा करता है तो कभी भी मोची के कार्य की बुराई नहीं करता|

लेकिन जब एक किसान (मैं जाट किसान का बेटा हूँ तो मैंने जाट किसानों के यहाँ तो खूब देखा है) के बेटे को किसानी छोड़ कोई और कारोबार करने या सीखने की कहा जाता है तो हमेशा खेती के कार्य की बुराई करते हुए, उसकी कमिया-खामियां दर्शाते हुए उसको छुड़वाने या छोड़ने के लिए प्रेरित किया जाता है|

किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी पूजा करने को कहा जाता है| जो कार्य करते हो उसमें आस्था और सम्मान रखना सबसे जरूरी बात बताई जाती है| लेकिन किसानों का अपने कार्य के प्रति यह कैसा रवैय्या है कि किसान अन्नदाता जैसे कार्य को भी छोटा कहने लगता है| वजह साफ़ है बाकी सब कार्यों में चाहे वो पुजारी का हो, व्यापारी का हो, मजदूरी का हो, या फेरीवाले का हो; हर कोई अपने सामान-उत्पाद-वस्तु की अपने मुताबिक कीमत पाता है| यानी जिस कीमत पे चाहे उसपे सामान बेचता है, इसलिए कभी भी इन कार्यों में आपको लागत-बचत की शिकायत नहीं मिलती| जितना लगन और शिद्दत से करोगे उतनी कमाई पाओगे| जबकि किसानी की एक तो सदियों पुरानी समस्या यह कीमत निर्धारण रही है जो हमेशा से गैर-किसान करते आये हैं, दूसरा इसकी वजह से फिर किसान का स्वार्थी रवैय्या हो जाता है और इसी रवैय्ये की वजह से गाँव से शहरों को पलायन कर जाने वाले किसानों के बच्चे गाँव की तरफ वापिस तो मुड़ते ही नहीं हैं, साथ ही किसानी के उनके पुरखों के धंधे के पक्ष में भी नहीं बोल पाते हैं|

इससे होता यह है यह कि किसान के यहां से जो जनरेशन पढ़-लिख के इस काबिल बनी कि वो किसानी को ना सही कम से कम उसकी संस्कृति को तो शहरों में संभाले रखे, वो यह भी नहीं कर पाती है| क्योंकि उससे खेती से दूर होने की वजह स्वाभिमानी नहीं अपितु हीनकारी यानी हीन भावना वाली बताई जाती है| और इसी हीन भावना की वजह से किसान वर्ग आज भी झंझावतों में उलझा डोल रहा है|

किसान वर्ग को अपने बच्चों को खेती से बाहर निकलने की वजह बताने के तरीके बदलने होंगे, कृषि के कार्य की मर्यादा उनके आगे बनाये रखनी होगी| आखिर आप अन्नदाता का कार्य करते हो, वह तुच्छ कैसे बताया जा सकता है?

इस मुद्दे पर विस्तार से कभी फुरसत में लिखूंगा, फ़िलहाल इतना जान पाया हूँ कि किसान को यह अपनी औलादों से पेशे बदलवाने के तौर-तरीके बदल के, खेती की प्रतिष्ठा कायम रखनी होगी, और इसका सम्मान बनाये रखना होगा| हो सके तो किसान अब अपनी फसलों के मूल्य निर्धारण का अधिकार कैसे लेवें इसपे मंथन करने शुरू कर दें, जो कि इन सारी कार्य-संबंधी, संस्कृति के संकट संबंधी समस्याओं की जड़ है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 5 June 2015

धर्म के नाम पर विधवा-आश्रमों में फेंक दी जाने वाली विधवाओं का पालनहार कौन?

मेरा बस चले तो मैं खाम्खा के दंगों में इस्तेमाल किये जाने वाले नादान जाट युथ के गुस्से का मुख इन विधवा आश्रमों को तोड़ने की ओर मोड़ दूँ| जिनमें हजारों-हजार विधवाएं धर्म के नाम पर ढोंगभरे नारकीय जीवन की वेदना पर रेंगने को पिछले कर्मों के पाप-कर्म भोगने के नाम पर झोंकी गई हैं|

वाराणसी में 38000 विधवाएं धर्म की क्रूरता का शिकार हैं| औसतन 3000 वृन्दावन में रहती हैं| इसके अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल और अब तो सुना है करनाल में भी विधवा आश्रम खुल गया है| धुर हरिद्वार से ले हुगली तक तो गंगा के किनारे-किनारे लगभग हर शहर खासकर धर्मनगरी में तो खैर विधवा-आश्रमों की पूरी श्रृंखला ही है|

जहाँ एक तरफ जाटों ने सदियों से अपने यहां विधवाओं को पुनर्विवाह की स्वेच्छा दे रखी है, वहीं जब जाटबाहुल्य खापलैंड पर इन विधवा आश्रमों की सुनता हूँ तो खून दिमाग में चढ़ने लगता है| मन उद्वेलित हो उठता है कि अभी जाऊं और जैसे दादावीर हरफूल जाट जुलानी वाले गोहत्थों के बाड़े तुड़वाते थे, ऐसे ही इन विधवाओं के बाड़ों को तोड़, इन सब औरतों को मुक्त करवा, इनके पति के घरों में इनके प्रॉपर्टी राइट्स दिलवा दूँ| और जैसे अंग्रेजों ने सति-प्रथा के खिलाफ कानून बना के रोक लगाई, ऐसे ही सरकार से कानून बनवा दूँ कि जो भी विधवा को आश्रम भेजेगा उसको सीधा कालापानी भेजेंगे|

अंदर कहीं टीस है कि जिन जाटों और खापों की वजह से धर्म की क्रूरतम प्रथाएं जैसे कि नवजन्मा बच्ची को दूध के कड़ाहों में झोंकने की प्रथा (याद रहे यह प्रथा सर्वप्रथम राजस्थान से शुरू हुई थी, 'ना आना लाडो इस देश' टीवी सीरियल में बदनाम करने के मकसद से दिखाई गई जाटलैंड से नहीं), देवदासी, सतीप्रथा और विधवा आश्रम पलायन इनकी लाख कोशिशों के बावजूद भी जाटलैंड अथवा खापलैंड पर उस स्तर तक पैर नहीं पसार पाये, जिस तक कि आज इक्कीसवीं सदी में पहुंच जाने पर भी यह देश के अन्य कोनों में मौजूद हैं; उन्हीं की धरती पर इन चीजों के पैर-पसरने लगे हैं|

जाटों की ऐसी ही मानवधर्म की स्वछंद पालना के समक्ष कई बार वेद-पुराणों की परिभाषानुसार निर्धारित चार वर्णों के अतिरिक्त पांचवा वर्ण कहा गया| यहाँ जोड़ता चलूँ कि वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने आर.एस.एस. द्वारा हरयाणा को अपनी प्रैक्टिकल लैब बनाने पे हरयाणा को land of reckless people (स्वछंद मति) का कहा तो उनका इशारा भी इसी स्वछँदता की ओर था| लेकिन उन्हीं जाटों की नजर तले आज विधवा आश्रम बढ़ते जा रहे हैं और यह नादान उलझे हुए गैर-जरूरी दंगों और आडंबरों में|

मीडिया भले ही जाटों को लाख औरत और दलित विरोधी बता ले, परन्तु अगर कभी किसी दलित की बेटी खापलैंड पर देवदासी नहीं बन पाई तो वो इन्हीं जाटों के इस स्वछंद साये की वजह से| कोई जाटनी तो क्या यहां तक कि खापलैंड की गैर-जाटनी भी विधवा होने पे विधवा आश्रम नहीं जा पाई तो इन्हीं जाटों की मानवधर्म पालना की प्रेरणा और प्रभाव से| काश जाट और इनका युवा अपने इस मानवीय धर्म को पहचान के औरतों के प्रति इस क्रूरतम सोच वाले तबके के चंगुल से निकल के अपनी ऊर्जा को जाटलैंड पर पसरते जा रहे इन विधवा आश्रमों को उखाड़ फेंकने में लगाए|

लेकिन इन मुद्दों पर आज जो उदासीनता पसरी पड़ी है उसी से अंदाजा लगा सकता हूँ कि जाट-समाज की स्वछँदता को दिन-प्रतिदिन घुण लगता जा रहा है| तभी तो छद्मज्ञानी लुटेरे धर्म की आड़ में अपने प्रवचन और पाखंड की दुकानें बढ़ाते ही जा रहे हैं|

कहीं जाट को जाति की बहस में उलझा रखा है तो कहीं वर्ण की तो कहीं धर्म की| और जिसने औरतों के लिए ऐसी क्रूर प्रथा और रूढ़ियाँ बनाई वो समाज में जाति की उंचता और नीचता के सर्टिफिकेट बाँटते हैं| इसलिए इन बातों पे बहस करने से पहले मैं यह सोचता हूँ कि यह जाति-वर्ण-धर्म के प्रति कट्टरता के सर्टिफिकेट ले भी लूँगा तो क्या समाज की विधवा औरतों को विधवा आश्रमों में भेजने के लिए, अथवा नवजन्मा बच्चियों को दूध के कड़ाहों में झोंकने के लिए अथवा दलितों की बेटियों को देवदासियां बनवाने में सहयोग देने के लिए? मुझे लगता है कि इंसान को इंसान की सोच का स्तर और मुद्दा देख के बहसों में उलझना चाहिए|

धर्मभीरु सियार आन चढ़े हैं धरती पे तेरी ओ जाट, सोच-समझ के न्याय करवाना,
पुरखों ने तेरे, नारी को सति-देवदासी-विधवा ना बनने दिया, प्रण निष्ठां से पुगाना|
जाट-देवता यूँ ही ना कहलवाया, ऐसे भीरुओं के मुंह मोड़े तब यह सम्मान कमाया,
बहुत हुआ शरणार्थियों की शर्म में, स्व-संस्कृति भूलने का आत्मघाती अफ़साना||
धार ले धरा के धर्म को अब, तुझे मंदिर-मस्जिद नहीं, मानवता को है बचाना||

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Source:
1) वृन्दावन – स्वर्ग की सीढ़ियों पर नरक की परछाइयाँ - www.hastakshep.com/hindi-news/khoj-khabar/2015/06/02/वृन्दावन-स्वर्ग-की-सीढ़ि?
2) वाराणसी में रह रहीं 38 हज़ार विधवाओं की ज़िंदगी में बदलाव की उम्मीद - http://khabar.ndtv.com/video/show/news/widows-of-varanasi-369201

Wednesday, 3 June 2015

क्या कभी सुना है कि किसी भारतीय रियासत का खजांची एक दलित हुआ हो?


जी हाँ, जहाँ दूसरी जातियों के राजा-रजवाड़े वर्ण व् जातिव्यवस्था के परिचायक धर्माधीसों के प्रभाव के चलते ऐसा करने की कभी सोच भी नहीं सके होंगे या सकते थे, वहीँ विश्वप्रसिद्ध भारतवर्ष की एक मात्र अजेय-अपराजेय रियासत भरतपुर ने यह साहस किया था और एक दलित को अपने राज्य के खजाने की देखरेख का मुखिया बनाया था|

धर्मनिरपेक्षता व् जातिनिरपेक्षता का यह अदम्य उदाहरण एशिया के ओडीसियस व् जाटों के प्लूटो कहे जाने वाले आजीवन अपराजित अमर प्रतापी महाराजा सूरजमल सिनसिनवार जी ने अपने राज्य में एक गुज्जर को सेनापति, एक दलित को खजांची, जाटों व् अन्यों को राज-सलाहकार समिति में रख के स्थापित किया था|

वहीँ मुग़लों से आजीवन लोहा लेने व् उनसे आजीवन अपराजित रहने पर भी, ‘जाट कौम के इंसानियत धर्म’ को सब मानव स्थापित धर्मों से सर्वोपरि रखते हुए स्व-राज्य में मंदिरों के साथ-साथ स्व-राजधानी में अपनी देखरेख में मस्जिद का निर्माण भी करवा अपनी धार्मिक सहिष्णुता का भी परिचय दिया था| और सिद्धांत स्थापित किया था कि किसी से आपका राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक झगड़ा अथवा मतभेद हो सकता है, परन्तु धार्मिक नहीं|

क्या पुरखे थे मेरे, क्या अदम्यता थी, क्या साहस था, क्या शौर्य था और क्या न्यायकारी थे; और यही जाट धर्म (जाट को जाति ना बोल के इसीलिए धर्म बोलता हूँ क्योंकि इसने इंसान के बनाये धर्मों से भी सदा इंसानियत के धर्म को सर्वोपरि रखा) की सबसे बड़ी पूंजी रही है| जो दूरदर्शी, सच्चा और पहुंचा हुआ जाट हुआ, उसने इंसानियत धर्म से बड़ा ना कोई धर्म पाला और ना ही सत्ता| और इसीलिए ऋषियों-साधुओं के मुख से 'जाट-देवता' कहलाया और कहलाया कि, 'अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा हुआ जाट खुदा जैसा|' जाट अगर रूढ़िवादी जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था के बहकावे में ना पड़े तो इससे बड़ा मानवीय धर्म रक्षक व् पालक कोई नहीं|

जाट इतिहास बताता है कि जाट ने इंसानियत के आगे ना किसी धर्मगुरु की सुनी ना राजगुरु की और ना सत्ता अथवा शक्ति की| फिर भले ही इस पालना हेतु लाख अपनों के ही हमले, उजड़ने, तान्ने व् बिखरने सहे हों| और यह सिलसिला धुर जाट के आदिकाल से चल जाट महाराजा हर्षवर्धन बैंस से होते हुए खापों और जाट शासकों से होता हुआ, आधुनिक युग के जाट राजनीतिज्ञों जैसे कि सर छोटूराम, सर फजले हुसैन, सर हिज्र खाँ तिवाना, चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों, ताऊ देवीलाल और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत तक अविरल चलता आया|

हाँ बाबा टिकैत के जाने के बाद से समाज इस परम्परा का अपना नया उत्तराधिकारी ढूंढ रहा है| ऐसा उत्तराधिकारी जो सर्व-समाज को इन नए-नए उभरे तथाकथित धर्म और राष्ट्र के स्वघोषित राष्ट्रवादियों के गिद्दी इरादों से बचा; वर्ण, जाति, नश्ल व् धार्मिक द्वेष से निकाल इंसानी धर्महीनता पर ला, इंसानी धर्म पे चला सके|

जिससे कि फिर कोई दादावीर धूला भंगी जी तैमूरलंगी जंग में सर्वखाप-सेना का उपसेनापति बन सके, फिर कोई दादावीर मोहर सिंह बाल्मीकि जी 1529 में चित्तौड़गढ़ की रक्षा हेतु सर्वखाप-सेना का सहायक सेनापति बन राणा सांगा की मदद को सर्वखाप-सेना ले जावे, अथवा फिर कोई दादावीर मातेन बाल्मीकि जी की तरह सर्वखाप आर्मी का राष्ट्रीय मल्लयुद्ध प्रशिक्षक नियुक्त होवे| कम से कम मेरे जैसे कौम के जागरूक तो ऐडी उठा-उठा भविष्य के गर्भ में झाँक बाट जोह रहे हैं कि कब फिर से कोई बाबा टिकैत के स्टेज से 'अल्लाह-हू-अकबर' नारा गूंजे और भीड़ 'हर-हर महादेव' दहाड़े; स्टेज से हल्कारा आवे 'हर-हर-महादेव' तो भीड़ 'अल्लाह-हू-अकबर' से आस्मां गूंजा दे|

मेरे उन तेजस्वी-ओजस्वी पुरोधाओं की ओर देखता हूँ तो आज के समाज की हालत देखकर सिहर जाता हूँ| कहाँ तो वो लोग थे जो दुश्मन को भी इस तरह खुद में रमा लेते थे कि अल्लाह बोलो या महादेव कोई फर्क ही नहीं पड़ता था और कहाँ यह आज वाले कि वो उसकी मस्जिद की अरदास सुनके भड़के तो वो उसके मंदिर की आरती पे बिफरे| आखिर राष्ट्रवादिता यह तो नहीं हो सकती जो अपनी ही जनता में अविश्वास, अराजकता, आंतक, घृणा व् द्वेष के जहर डाल उसको ना सिर्फ धार्मिक वरन जातीय मतभेद की भट्टी में झोंकवा दे?

दलित हो या जाट, मुस्लिम हो या हिन्दू, दोनों एक बार खाप और जाट के साथ आपके इतिहास में झाँक के देखें तो पाएंगे कि इतनी गलबहियां डाल के रणभूमियों से ले रैलियों में वीर-रस और आल्हे दूसरी कौमों ने ऐसे आपस में मिलके शायद ही कभी गाये हों, जैसे आप लोगों ने गा रखे हैं| इसलिए:

मत बनने दो नए नागौर और अटाली,
दे मारो राष्ट्रवादियों के सर पे टाल्ली|
यह इतिहास ले जाओ बीच अपनों के,
वर्ना धर्म के अंधे, घरों बुला दें रुदाली||


अंत में स्टार न्यूज़ का कोटि-कोटि धन्यवाद! आपने पहली बार मीडिया में भारत की सबसे गौरवशाली रियासत बारे प्रशंसनीय डाक्यूमेंट्री पेश करी है| और सही मायनों में यही डॉक्यूमेंट्री इस लेख की प्रेरणा बनी, आप भी एक बार जरूर देखें|

Link: https://www.youtube.com/watch?v=sfyFIK_D2hs&sns=fb

लेख-सार: किसी से आपका राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक झगड़ा अथवा मतभेद हो सकता है, परन्तु जातीय व् धार्मिक नहीं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Video of Star News Report: