Sunday, 29 November 2015

खाली, ठाल्ली, निखट्टू, निठ्ठले मोडे/बाबाओं/पुजारियों आदि को और काम ही क्या है?

सबसे पहले तो बता दूँ कि आपको जानकार आश्चर्य होगा कि यह लाइन "नफरत की सोशल थ्योरी ऑफ़ प्रतिकर्षण" के तहत खुद मोडे/बाबाओं/पुजारियों ने ही समाज में फैलवा रखी है| ताकि लोग बाहर से खाली, ठाल्ली बैठे दिखने वाले इन लोगों को खाली, ठाल्ली की गाली देने में ही अपनी ऊर्जा गंवाते रहें और उस रहस्य रुपी अध्यात्म और ध्यान को ना जान पाएं, जो यह इस खाली/ठाल्ली की मुद्रा में बैठ के करते हैं| और एक जगह बैठे-बैठे और खाली/ठाल्ली से घूमते दिखने से ही सारे समाज के चप्पे-चप्पे का ज्ञान अर्जित कर जाते हैं|

मोडे/बाबाओं/पुजारियों को इस खाली/ठाल्ली से इतना तक प्यार है कि जब बुद्धकाल में जाट और दलित बौद्ध भिक्षु बन हर गाँव-गली चौराहे पर ध्यानमग्न नजर आने लगे थे तो इनमें कोहराम मच गया| यह लोग अंदर से अशांत हो गए और चिंता में पड़ गए कि जिस "खाली ठाल्ली" के टैटू के पीछे छुप के हम इतना गहन कार्य किया करते थे अब अगर यह लोग भी इसको करने लगे तो हमारी तो सत्ता ही खत्म| बहुत ध्यान भटकाने की कोशिशें करी, बुद्ध की बेइज्जती तक करवाई, उनकी जितनी हो सके उतनी आलोचना करवाई, परन्तु फिर भी लोग नहीं माने, तो अपनी इस विधा की रक्षा हेतु इन्होनें ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र सुंग, राजा शशांक, राजा चच और उसके बेटे राजा दाहिर के हाथों बुद्ध भिक्षु बने जाटों और दलितों के कत्ले-आम करवाये| बौद्ध मठ तक तोड़े गए| इतना क्रूर तांडव मचवाया कि कहावतें चल पड़ी, "ले भाई मार दिया मठ", "हो गया मठ" आदि-आदि|

क्योंकि बुद्ध धर्म सम्पूर्णत: शांति का संदेश देता है, तो जाट तपस्या में लीन रहते हुए भी कटते गए, परन्तु कुछ ना बोले| अब तक यह एक ऐसा मैदान लड़ रहे थे, जिसमें दूसरा पक्ष तो अभी तक हथियार उठाया ही नहीं था| तब जब लगा कि कहीं अस्तित्व ही खत्म ना हो जावे, तब जा कर जाटों ने अपनी भृकुटि यानी तीसरी आँख खोली और भारतीय स्पार्टन यानी खापों ने एक हो इनको जवाब देने की ठानी| मशहूर इतिहासकार श्री के. सी. यादव कहते हैं कि पांचवीं सदी में एक ऐसी विध्वंशकारी लड़ाई हुई जिसमें एक तरफ इनकी एक लाख सेना और दूसरी तरफ जाटों की मात्र नौ हजार सेना थी| युद्ध बहुत ही विघटनकारी हुआ परन्तु जाटों ने जब तांडव मचाया तो मात्र पंद्रह सौ जाट खोते हुए अत्याचारियों की पूरी की पूरी सेना को धूल चटा दी| तब जाकर यह लोग रुके थे बुद्धों पर अत्याचार करने से|

और यह सब था किसलिए, सिर्फ इस लेख के शीर्षक में कही बात की रक्षा के लिए| इसके बाद यह ऊपर से तो शांत बैठ गए, परन्तु जिस मुद्रा को हम अक्सर निठ्ठला और खाली बैठना कह देते हैं, उसमें बैठे-बैठे लगातार षड्यंत्र करते रहे| वक्त गुजरा और सिख धर्म की स्थापना हुई| अधिकतर जाट सिख धर्म में पलायन करने लगा| परन्तु इतिहास से सीख लेते हुए इन्होनें अबकी बार मारकाट के रास्ते की बजाये, पूना में ब्राह्मण सभा कर, महर्षि दयानंद के जरिये आर्य समाज का फुलप्रूफ पैकेज उतारा और आर्य समाज की पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" में "जाट जी" जैसे शब्दों के साथ जाट की स्तुति करवाई गई| मान-सम्मान को सुरक्षित समझ जाट सिख धर्म में पूर्णत: पलायन करने से रुक गया|

जाट की स्वछँदता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि आर्य समाज में रहते हुए जाट ने शादी-बयाह में फेरे करने, शांत-शीतल जगहों पर बैठ के चिंतन-मनन-ध्यान लगाने जारी रखे| और हमारे समाज में सब कुछ ठीक रहा|

लेकिन मोडे/बाबाओं/पुजारियों लोग चिंतन-मनन-ध्यान को ठाल्ली-निट्ठलों का काम है, ऐसी लाइन हमारे समाज के बच्चों-बुड्ढों की जुबान पर फिर से लाने में कामयाब रहे| और आज हालत यह है कि दस में से शायद ही दो जाट चिंतन-मनन-ध्यान में बैठते हों| और जब से यह विधि-पद्धति हमारे समाज से लुप्तप्राय होने को आई है, तब से जाट समाज का ह्रास ही होता चला जा रहा है|

अत: आज के सिर्फ जाट ही नहीं अपितु तमाम किसान और दलित युवा/युवती से विनती है कि इस पद्धति को पकड़े रखो, इसको छोडो मत| और नहीं तो यह कह के कि चिंतन-मनन-ध्यान किया करो कि "या तो बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार कहना बंद करो, पीएम से विदेशों में भारत को ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि की बजाय बुद्ध का देश कहलवाना बंद करवाओ अन्यथा मुझे बुद्ध की शरण में जाने दो|"

और सच कहूँ तो "बुद्धम शरणम गच्छामि" मतलब भी यही होता है कि आपको खुद की बुद्धि की शरण में जा के चिंतन करना है। किसी इंसानी सेल्फ-स्ट्य्लेड गुरु/गॉडमैन के आगे नतमस्तक हो के चमचागिरी वाली भगति नहीं करनी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाट से चिड़ के कारण ही सही, परन्तु बीजेपी-आरएसएस को सैनी को बढ़ावा देना, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाला साबित हो सकता है!

दिल्ली में राजकुमार सैनी की कल की रैली में मुझे जो अचम्भित करने वाली बात लगी वो थी कि उस रैली पर ना ही तो बीजेपी-आरएसएस का कोई झंडा दिखा और ना ही राजकुमार सैनी को छोड़ के कोई बड़ा नुमाईन्दा दिखा|

महात्मा ज्योतिबा फुले की जयंती पर उनको श्रद्धांजलि और श्रद्धासुमन अप्रित करने लोग पहुंचे| और क्योंकि बीजेपी और आरएसएस का कोई स्लोगन/झंडा प्रयोग नहीं किया गया तो गैर बीजेपी पार्टियों का पिछड़ा भी समारोह में जरूर पहुंचा होगा| परन्तु अब इससे बीजेपी-आरएसएस के जो मंसूबे कभी पूरे नहीं होंगे वो कुछ इस प्रकार होंगे:

1) आरएसएस/बीजेपी की अंदरखाते मन में दबी आरक्षण को खत्म करवाने की मंशा अब कभी पूरी नहीं होगी| हालाँकि लालू यादव जैसा पहाड़ पहले से ही उनकी राह में था परन्तु अब सैनी को और खड़ा करके आरएसएस/बीजेपी ने अपनी ही राह में कांटे बोये हैं| क्योंकि अब जहां एक तरफ इनको रह-रह के आरक्षण खत्म करने का इनका इरादा भीतर से परेशान करके रखेगा, वहीँ दूसरी तरफ जाट के प्रति नफरत फैलाने के चक्कर में पिछड़े को आरक्षण की आवश्यकता पर खुद ही और ज्यादा जागरूक कर दिया है। शायद इसी को कहते हैं कि बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होए| भाई नफरत बोवोगे तो बदले में या तो नफरत मिलेगी या कुंठा| अब आरएसएस/बीजेपी इस कुंठा में जियेगी कि तुम्हारे आरक्षण को खत्म करने के मिशन का क्या होगा|

2) और इधर जिस आरक्षण को ज्यादा बढ़ाने (27 to 54 or 60%) की आस सैनी ने पिछड़ों में जगा दी है उसको बीजेपी/आरएसएस कभी पूरा नहीं करेगी| तो ऐसे में पिछड़े का बीजेपी और यहां तक राजकुमार सैनी भी से जल्द ही मोह भंग हो जाये, इसके पूरे आसार रहेंगे| हरयाणा में साल-छ महीने में इलेक्शन होने होते तो शायद इस बिंदु को भुना के फिर से बीजेपी को वोट मिल जाता| परन्तु 2019 तक भी यही स्थिति रहेगी, इसका मुझे संदेह है|

3) यह आस पूरी नहीं हुई तो पिछड़ा वर्ग आरएसएस से उल्टा हट सकता है या ऊब सकता है| और ऐसे में जब जाट को यह पहले से ही ताक पे रख के चल रहे हैं तो पिछड़ा भी इनसे उल्टा हटा तो फिर यह वापिस सिमित समूह बनने तक सिकुड़ जाएगी|

अब देखने वाली बात यह होगी कि खाली जाटों से नफरत के षड्यंत्र पर, सैनी कब तक पिछड़े को आरएसएस/बीजेपी से बांधे रख पाएंगे? क्योंकि आज का पिछड़ा इतना तो जागरूक हो ही रखा है कि उसको खाली किसी के खिलाफ उसकी भावनाओं का दोहन करके लम्बे समय तक बांधें नहीं रखा जा सकता| बीजेपी/आरएसएस ने जाट के प्रति नफरत सुलगाने के चक्कर में सैनी के जरिये उनमें जो अप्रत्याशित सी आस जगा दी है वो पूरी नहीं हुई तो या तो राजकुमार सैनी खुद ही पिछड़े को ले के अलग पार्टी बना लेंगे या फिर किसी अन्य दल में शामिल होने की जुगत ढूंढेंगे अन्यथा बिना यह जगी हुए आसें पूरी करवाये भी यहीं के यही रहे तो पिछड़ा इनको छोड़ दे, ऐसा भी होने का भय रहेगा| 

इन सबके बीच जो अच्छी बात हुई वह यह कि कल की सभा में यह फैलसा लिया गया कि अगले वर्ष भी महात्मा ज्योतिबा फुले की जयंती ऐसे ही बड़ी सभा करके मनाई जाएगी|

मैं तो चाहता हूँ कि जाट भी अब अपनी राजनैतिक व् राजशाही हस्तियों के अलावा सामाजिक, और खाप हिस्ट्री में हुए हुतात्माओं की भी जयंती पर एक विशाल सामूहिक "सर्वजाट खाप" के स्तर का कोई वार्षिक उत्सव मनाना शुरू कर देवें| जिसमें "दादा बाला जी महाराज (जिनके ऊपर हनुमान का किरदार ढांप दिया गया है)", "दादा रामलाल खोखर जी", "दादा जाटवान जी गठवाला महाराज", "दादा हरवीर सिंह गुलिया जी", "दादिरानी भागीरथी देवी जी", "दादिरानी समाकौर गठवाला जी", "गॉड गोकुला जी", "बाबा शाहमल तोमर जी" आदि-आदि बहुत से और भी खाप इतिहास से और "भगत धन्ना जाट जी", "गरीबदास" जी जैसे भक्ति आंदोलन के जाट हुतात्माओं पर कम से कम एक हफ्ते भर लम्बा उत्सव जरूर मनाना शुरू कर देना चाहिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कर्नाटक में देवदासी प्रथा रोकने बारे जवाब न देने पर केंद्र पर 25 हजार का जुर्माना!

न्यायालाय ने NGO एसएल फाउंडेशन की जनहित याचिका पर पिछले साल केंद्र सरकार से जवाब-तलब किया था। इस याचिका में केंद्र और कर्नाटक सरकार को राज्य के देवनगर जिले के उत्तांगी माला दुर्गा मंदिर में 13 फरवरी, 2014 की आधी रात को देवदासी समर्पण को रोकने के लिये तत्काल कदम उठाने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया था। न्यायालय को सूचित किया गया था कि यह गतिविधि कर्नाटक देवदासी समर्पण निषेध कानून, 1982 के खिलाफ है और इससे किशोर के अधिकारों का हनन होता है।

उस समय न्यायालय ने कर्नाटक के मुख्य सचिव को 14 फरवरी, 2014 के भोर पहर में होने वाले इस कार्यक्रम में, जहां दलित किशोरियों को देवदासी के रूप में समर्पित किया जाना था, के संबंध में सभी एहतियाती उपाय करने का निर्देश दिया था। पीठ ने इस जनहित याचिका पर कर्नाटक सरकार से भी जवाब मांगा था। इस याचिका में देवदासी प्रथा रोकने के लिये दिशानिर्देश बनाने का अनुरोध करते हुए कहा गया था कि यह राष्ट्रीय शर्म की बात है। NGO ने आरोप लगाया था कि देवदासी प्रथा के खिलाफ कानून होने के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों में यह कुप्रथा जारी है। इस संगठन ने न्यायालय से इसमें हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था।

आपको बता दें कि देवदासी "धार्मिक वेश्या" को कहते हैं, जिसके तहत पुजारी-महंत लोग दलितों की सुन्दर बेटियों को उनकी व् उनके विशिष्ट लोगों की वासना पूर्ती हेतु मंदिर में रखते हैं| सुदूर दक्षिण भारत से ले महाराष्ट्र-एमपी और पूर्व में बंगाल तक के विभिन्न मंदिरों में यह व्यवस्था आज भी चल रही है|

थैंक्स टू जाट्स एंड खापस्, जिन्होनें इस कुक्तृत्य को कभी उत्तरी भारत में पैर नहीं पसारने दिए| अब प्लीज कोई इस थैंक्स गिविंग में भी जातिपाती मत ढूंढने लग जाना| मैं किसी दूसरी जाति में भी पैदा हुआ होता तो इस मामले में यह थैंक्स इनको फिर भी बोलता|

भगतो जरा बताना यह कौनसे वाली सहिषुणता की श्रेणी में आता है आपके लिए कि इसके पक्का सबूत होते हुए भी आप लोगों का खून उबाल नहीं मारता?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 28 November 2015

और जो समझदार पिछड़ा होगा वो यह बात बड़े अच्छे से जानता होगा!

राजकुमार सैनी साहब, यह पिछड़े और दलित पर जाति और वर्ण-व्यवस्था के नाम पर उत्पीड़न का पिटारा जाट पर ना फोड़िए, उन पर फोड़िए जो इसके जनक हैं|

आपका स्तर सिर्फ इतना है कि जिसकी आप पीपनी बनके बज रहे हैं जाटों को वो "जाट जी" लिखते आये हैं| ऐसा अपने से ऊपर का सम्मान उन्होंने राजपूतों तक को नहीं दिया, जो जाटों को "जाट जी" कह के दिया|

भले ही जाट को सिख धर्म में जाने से रोकने के चक्कर में दिया, परन्तु सिख तो अन्य हिन्दू भी बहुत बने, तो फिर इनको जाटों को "जाट जी" कह के क्यों रोके रखना पड़ा? घुन्ने हैं पर फिर भी सच्चाई जानते हैं, हिन्दू धर्म में जाट नहीं तो कुछ नहीं| आपको क्या लगता है जैसे आप जाटों को आँखें दिखाने का डर बना के डराने का बहम पाले बोलते चले जा रहे हैं, यह खुद नहीं कर सकते थे ऐसा? नहीं, यह जानते थे, जाट को इतिहास में आँख दिखा के कोई नहीं दबा सका, सिर्फ सद्व्यवहार और सत्कार से ही जाट रोका जा सकता है|

सबूत के तौर पर मूल शंकर तिवारी उर्फ़ महर्षि दयानंद का "सत्यार्थ प्रकाश" पढ़ लीजियेगा|

और आपके जरिये जो इनको हासिल करना है वो है दलित-पिछड़ा और जाट की एकता में फूट| कल को आपको इसके ऐवज में भले ही "कुत्ते को हड्डी" फेंकने के स्टाइल में मंत्रिपद भी मिल जाए, परन्तु जब-जब दलित-पिछड़ा उन्हीं हकों के लिए जिनके लिए आप थोथी आवाज बने फिर रहे हैं, इनकी सही में बात उठा के लड़ाई लगी, तब-तब पिछड़े-दलित को जाट की जरूरत होगी और जब वो देखेंगे कि राजकुमार सैनी ने तो इतने बड़े गड्डे खोद दिए जाट-पिछड़े की बीच की अब जाट को अपने से मिलाएं कैसे तो आपको कोसेंगे और गालियां दिया करेंगे|

जिस दिन इन उत्पीड़नों पर इनके जनकों से सीधी आँख में आँख डाल के बातें करना सीख जाओ, उस दिन मान लेना कि जाट के बराबर पहुँच गए हो| वरना इस कुम्हार की कुम्हारी पे तो पार बसावे ना, जा के गधे के कान खींचे, की परिपाटी पर चल के तो बन लिए आप पिछड़ों के मसीहा; क्योंकि अंत में आज जिन अधिकारों की बातें उठाते फिर रहे हो, वो आपको जाटों से लड़ के नहीं, इन्हीं से लड़ के मिलेंगे यानी मंडी-फंडी से| और जो समझदार पिछड़ा होगा वो यह बात बड़े अच्छे से जानता होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"बीटिंग अराउंड दी बुश" छोड़िये राजकुमार सैनी!

1) पिछड़ों का नौकरियों में जो बैकलॉग होता है उस पर सबसे ज्यादा डाका डालता है मंडी-फंडी, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
2) पिछड़ों की जनसख्या अनुपात के आंकड़े सार्वजनिक जो नहीं कर रहा वो है मंडी-फंडी, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
3) पिछड़ों को जनसंख्या के अनुपात में 27 से 54 प्रतिशत आरक्षण जो नहीं लेने दे रहा वो है मंडी-फंडी, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
4) आरक्षण की पुनर्विवेचना करने की बात जो कर रहा है वो है मोहन भागवत, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
5) संसद में सविंधान के प्रीएमबल को बदल उसमें मूलभूत बदलाव हेतु बहस करवाना चाहती है खुद राजकुमार की पार्टी बीजेपी, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
6) पिछड़े समाज के किसानों की धान 1200 के भाव से खरीदते ही 3000 से ऊपर के भाव कर 2015 का धान खरीद घोटाला करती है बीजेपी, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
7) बीजेपी ने आते ही किसानों के खिलाफ घातक लैंड आर्डिनेंस निकाला, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
8) पिछड़ों को वर्ण व जाति व्यवस्था में कहीं शूद्र तो कहीं चांडाल ना ही तो जाट ने लिखा और ना ही कहा| जिन्होनें कहा उन पर निशाना ना होने की बजाय, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
9) जिन मंडी-फंडी की स्तुति राजकुमार सैनी कर रहे हैं, उन्होंने कभी भी अंग्रेजों से सैनी समाज को जमीन की मल्कियत दिलवाने हेतु लड़ाई नहीं लड़ी| यह लड़ाई लड़ी और यह हक दिलवाया तो एक जाट सर छोटूराम ने और निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
10) पिछड़ों-दलितों को हक देने वाली साईमन कमीशन का लाला लाजपत राय की अगुवाई में विरोध करने वाले थे मंडी-फंडी| सर छोटूराम ने साईमन कमीशन का स्वागत किया, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
11) आज़ादी के बाद मंडी-फंडी से लड़ के पिछड़ों-किसानों के लिए सबसे ज्यादा कानून बनवाए चौधरी चरण सिंह और ताऊ देवीलाल ने, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|
12) भारतीय किसान यूनियन बना के किसान-पिछड़े के हकों के लिए मंडी-फंडी से लड़े बाबा महेंद्र सिंह टिकैत, निशाना फिर भी राजकुमार सैनी का जाट समाज पर|

क्या सैनी साहब आज के दिन किसानों की सभी समस्याएं हल हो गई या कोई समस्या है ही नहीं किसान को, यहां तक कि और नहीं तो आपके खुद के समाज के किसान को भी नहीं?

आखिर क्यों इन सब मुद्दों से "बिल्ली को देख कबूतर की भांति आँखें मूंदे" राजकुमार सैनी ऐसे सभाएं करते फिर रहे हैं जैसे कल ही इलेक्शन होने वाले हों? क्या यह मौका सभाएं करते फिरने का है या फिर इन मुद्दों पर संसद में बहस से ले, अपनी खुद की पार्टी की केंद्र और राज्य सरकारों से इन पर काम करवाने का?

इनमें से एक भी मुद्दा ऐसा नहीं है जो जाट को आरक्षण ना मिलने से हल हो जायेगा| या फिर पिछड़ा समाज सिर्फ जाट से नफरत निभा के पेट पाल लेगा? क्या पिछड़ों में कोई भी राजकुमार सैनी को समझाने वाला बुद्धिजीवी नहीं कि जाट समाज से नफरत करोगे तो कृषि और कृषक दोनों का भविष्य अंधकारमय बना दोगे?
क्योंकि मंडी-फंडी यह बात अच्छे से जानता है कि अगर पिछड़े और कृषक समाज पर उनको राज करना है तो पिछड़े समाज को जाट समाज से तोड़ के रखना होगा|

शरद यादव जैसे पिछड़े समाज के नेता का मानना है कि अगर पिछड़ों को जनसँख्या के अनुपात में आरक्षण चाहिए तो मंडी-फंडी से लड़ने हेतु जाट को साथ लेना होगा| और राजकुमार सैनी हैं कि बिलकुल उनके विचार के उल्ट चल रहे हैं| वो पिछड़ों को यह समझने ही नहीं दे रहे हैं कि एक बार जाट को ओबीसी में आ लेने दो फिर नारा देंगे कि "किसान-कमेरों ने बाँधी गाँठ, अब चाहिए सौ में साठ|"

ऊपर गिनाये 12 बिन्दुओं में से अगर एक पर भी सैनी साहब आवाज उठा रहे हों तो मुझ तसल्ली हो कि जनाब वाकई में पिछड़े के लिए कुछ कर रहे हैं| और राजकुमार सैनी ऐसा नहीं करके सिर्फ खुद को मंडी-फंडी का प्यादा साबित करने से ज्यादा कुछ करते नजर नहीं आते|

तो क्या ऐसे में पिछड़ा वाकई इस सोच का है कि वो राजकुमार सैनी को सिर्फ जाटों से नफरत करने के नाम पर ही अपना नेता मान लेगा? अगर ऐसा होता है तो फिर तो यही कहा जायेगा कि भारत पूरी दुनिया में एक ऐसा अनूठा देश है, जहां नेता बनने का यह भी एक पैमाना है कि आप किसी दूसरे समाज से कितनी नफरत करते हो| परन्तु क्या इससे कृषि और कृषक के मुद्दे भी हल हो जायेंगे?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 27 November 2015

जाट की साइंस 16x2=8 का अर्थ!

पहले बताता चलूँ कि जैसे सिखों के ऊपर "12 बज गए" वाला जुमला (इसके वास्तविक महत्व को न्यून करने हेतु घड़ा गया) उनका मजाक उड़ाने हेतु बनाया गया, ऐसे ही एंटी-जाट विचारधारा की पनप है, "जाट यानी 16x2=8"। जाट की साइंस जिनको पल्ले नहीं पड़ती वो फिर ऐसा ही बोलते हैं।

चलिए अब आपको जाट की साइंस में इस 16x2=8 का मतलब समझाते हैं।

आप किसी भी ट्राली बनाने वाली वर्कशॉप में जाएँ, वहाँ आपको ट्राली का फर्श बनाने वाली लोहे की 16 फुट लम्बी चददरें मिलेंगी, उनको देखना। जब इन चददरों से ट्राली का फर्श बनता है तो उसको डबल फोल्ड किया जाता है, जिससे 16 फुट लम्बी चद्दर दो टाइम फोल्ड हो के 8 फुट की रह जाती है यानी 16x2=8 आउटपुट आता है।

अब क्योंकि उत्तरी भारत में खेती में जाट सबसे बड़ा और माना हुआ समाज है तो इसकी अधिकतर कहावतें जाट से ही जुड़ी हुई मिलती हैं। और ऐसे में एंटी-जाट विचारधारा को कुछ ना कुछ चाहिए ही तो उठा के घड़ दिया "जाट यानी 16x2=8|

अब यह भी तो सोचने की बात है ना कि यह 16x2=8 ही क्यों कहा गया; 14x2=7 या 18x2=9 आदि-आदि क्यों नहीं कहा गया? कारण ऊपर बता दिया है।

हालाँकि की यह साइंस तो कृषि की है परन्तु जोड़ी जाट से जाती है तो पोस्ट के टाइटल में इसको जाट की साइंस लिख के कहा। वरना ऐसा भी नहीं कि अन्य जातियों के किसान किसी और तरीके या फार्मूला से ट्राली बनवाते हैं, इसी तरीके से बनवाते हैं, परन्तु उत्तरी भारत में जहां कृषि की सकारात्मक कहावतें भी जाट पे बनती हैं तो साथ ही कुछ ऐसी नकारात्मक मजाक उड़ाने वाली भी एंटी-जाट विचारधारा द्वारा किसान या कृषि से ना जोड़ के जाट से ही जोड़ दी जाती हैं|

As per Manbir Redhu Ji: चदर की मोटाई मापने का एक स्पेशल पैमाना होता है ।उसे कहते है गेज ।एक इंच की मोटाई में जितनी चदर आसके वो संख्या उस चदर का गेज होगी। यानि 16 चदरों की मोटाई एक इंच है तो वो चदर 16 गेज की है ।और यदि उस चदर से दोगुनी मोटी चदर लेंगे तो वो एक इंच में 8 ही आएंगी यानि 8 गेज, इस तरह से होता है 16×2 =8

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

दिन-रात जाटों के खिलाफ पड़ी बीजेपी, आरएसएस और मीडिया का जाट-विरोधी तबका महर्षि दयानंद से सीख लेवे!

जाटलैंड के ब्राह्मण समाज को समझाना चाहिए इन आरएसएस, नागपुर और बाकी के क्षेत्रों से आने वाले ब्राह्मणों को कि ऐसा नहीं है कि जाट ब्राह्मण का आदर नहीं करता या उसको इज्जत नहीं देता, बशर्ते कि वो ब्राह्मण जाटों के साथ महर्षि दयानंद जैसा आचरण करता हो, महर्षि दयानंद की भांति अपनी पुस्तकों में जाटों की स्तुति करता हो, जाट के सकारात्मक पहलुओं की इस हद तक प्रशंसा करता हो कि वो जाट के अच्छेपन से आल्हादित होकर जाट को अपनी सत्यार्थ प्रकाश में "जाट जी" तक लिख डालता हो| जाटों की इन बातों को अंगीकार कर इनका समर्थन करता हो|

महर्षि दयानंद ने भले ही जाट को सिख धर्म में जाने से रोकने हेतु अपनी लेखनी में जाट का ऐसा बखान किया हो, परन्तु जाट ने उसको लौटाया सूद-समेत। आज तक पूरी जाटलैंड पे महर्षि दयानंद जितना सम्मानित दूसरा कोई और ब्राह्मण नहीं हुआ। और यह सब इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने जाटों को अपने व्यवहार और लेखनी दोनों में वो इज्जत बख्शी जिसके कि जाट वास्तव में अधिकारी होते आये। 

आप लोग डरें नहीं और ना ही जाटों को ऐसा समझें कि जाट वजह हो या बेवजह हो, हर वक्त उददंड ही होते हैं इसलिए इनको सिर्फ उद्दंड ही बोलते-लिखते जाओ। कभी महर्षि दयानंद जैसा जज्बा भी ठान के लिख के देखो, पूरे विश्वास से कहता हूँ जाट तुम्हें सूद समेत वापिस करेंगे, ठीक वैसे ही जैसे महर्षि दयानंद को किया है।

और नहीं तो भाई इसी परिपाटी पे चलना है तो हम फिर यही समझेंगे कि तुम्हारी निगाह हमारी सामाजिक साख गिराने, हमारा सामाजिक दायरा समेटने और हमारे और हमारे पुरखों के द्वारा हाड़तोड़ मेहनत से बनाये संसाधनों और सुविधाओं को लूटने अथवा मिटाने पर है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 26 November 2015

भाजपा और आरएसएस की कूटनीति!

जाट सावधान!

भाजपा अपने सांसद राजकुमार सैनी से जाटों को अपशब्द और अपमानजनक बयान दिलवा रही है। परन्तु जाट संयम से सब देख रहे हैं, ऐसे में आरएसएस-बीजेपी का एक भी पाशा सीधा ना पड़ता देख यह लोग कुछ ऐसा करने की चाल चलेंगे|

इसके बाद जाटो के नाम पर फर्जी प्रोफाइल और पेज बनाकर सोशल मीडिया पर सैनी को मारने काटने का आह्वान किया जायेगा। इसके बाद भाजपा स्वयं राजकुमार सैनी पर हमला करवाएगी और नाम जाटों के लगा देगी। जो जाट आमिर खान के बयान के बाद घनघोर राष्ट्रवादी बन रहे हैं उनके हलक से जुबाँ नहीं निकलती जब उनकी पार्टी का एक सांसद जाटों के खिलाफ इतना जहर उगलता फिर रहा है|

चिंता ना करो राजकुमार सैनी, तुम जाटों की हिटलिस्ट पे ना कभी थे और ना हो सकते| जाटों की हिटलिस्ट पे जो होते आये हैं वो भली भांति जानते हैं और वो यह भी जानते हैं कि वो जाटों को परेशान करके बहुत बड़ी गलती कर चुके हैं और डरे-सहमे आपके जरिये उन पर से ध्यान हटाना चाहते हैं| परन्तु हमारा ध्यान वहीँ रहेगा जहां होता आया यानी मंडी-फंडी पर| हम तुम्हारे रुकने का इंतज़ार नहीं कर रहे, हम तो मंडी-फंडी किस हद तक जाता है वो देख रहे हैं|

तुम भोंकते जाओ राजकुमार सैनी, क्योंकि तुम्हारा भोंकना और जाट का तुमको ना टोकना मंडी-फंडी की कुलमुलाहट बढ़ाएगा, बेचैनी बढ़ाएगा और इनको इनके ही जाल में फांसता हुआ भयभीत करता जायेगा| जाटों धैर्य रखना, यह परीक्षा हमारी टॉलरेंस की नहीं, इनके पेशेंस की है|

अब इनके भोंकने की गागर स्वत: ही छलकने लगी है, इसके फूटने का वक्त है, धैर्य बांधे रखना, ताकि यह इन पर ही फूटे| हम तो भोले हैं, विष पी के भी भस्मासुर और रावणों को वर दे दिया करते हैं परन्तु जब तांडव मचाएंगे तो ना यह भष्मासुर रुपी सैनी नजर आएगा और ना इसको शय देने वाले रावणबुद्धि इसके आका|

Phool Malik - JaiYoddhey‬

कब थे आप सहिष्णु?

कौनसे युग, कौनसी सदी में?
किस कालखंड में सहिष्णु थे आप?
देवासुर संग्राम के समय?
जब अमृत खुद चखा
और विष छोड़ दिया
उनके लिए,
जो ना थे तुमसे सहमत?
दैत्य, दानव, असुर, किन्नर, यक्ष, राक्षस
क्या क्या ना कहा उनको?
वध, मर्दन, संहार
क्या क्या ना किया उनका?
.......................
तब थे आप सहिष्णु?
जब मर्यादा पुरुषोत्तम ने काट लिया था
शम्बूक का सिर?
ली थी पत्नी की चरित्र परीक्षा
और फिर भी छोड़ दी गई
गर्भवती सीता
अकेली वन प्रांतर में?
.......................
या तब, जब
द्रोण ने दक्षिणा में कटवा दिया था
आदिवासी एकलव्य का अंगूठा?
जुएं में दांव पर लगा दी गयी थी
पांच पांच पतियों की पत्नी द्रोपदी
और टुकर टुकर देखते रहे पितामह?
.......................
या तब थे आप सहिष्णु?
जब ब्रह्मा ने बनाये थे वर्ण
रच डाली थी ऊँच नीच भरी सृष्टि?
या तब, जब विषमता के जनक ने
लिखी थी विषैली मनुस्मृति?
जिसने औरत को सिर्फ
भोगने की वस्तु बना दिया था
शूद्रों से छीन लिए गए थे
तमाम अधिकार
रह गए थे उनके पास
महज़ कर्तव्य
सेवा करना ही
उनका जीवनोद्देश्य
बन गया था
और अछूत
धकेल दिये गए थे
गाँव के दख्खन टोलों में
लटका दी गई थी
गले में हंडिया और पीठ पर झाड़ू
निकल सकते थे वे सिर्फ भरी दुपहरी
ताकि उनकी छाया भी ना पड़े तुम पर
इन्सान को अछूत बनाकर
उसकी छाया तक से परहेज़!
क्या यह नहीं थी असहिष्णुता?
.......................
आखिर आप कब थे सहिष्णु?
बौद्धों के कत्लेआम के वक़्त
या महाभारत युद्ध के दौरान
लंका में आग लगाते हुए
या खांडव वन जलाते हुये
कुछ याद पड़ता है
आखिरी बार कब थे आप सहिष्णु?
..............................
अछूतों के पृथक निर्वाचन का
हक छीनते हुए
मुल्क के बंटवारे के समय
दंगों के दौरान
पंजाब, गुजरात, कश्मीर, पूर्वोत्तर,
बाबरी, दादरी, कुम्हेर, जहानाबाद
डांगावास और झज्जर
कहाँ पर थे आप सहिष्णु?
सोनी सोरी के गुप्तांगों में
पत्थर ठूंसते हुए
सलवा जुडूम, ग्रीन हंट के नाम पर
आदिवासियों को मारते हुए
लोगों की नदियाँ, जंगल,
खेत, खलिहान हडपते वक़्त
आखिर कब थे आप सहिष्णु?
दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी के
क़त्ल के वक़्त
प्रतिरोध के हर स्वर को
पाकिस्तान भेजते वक़्त
फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप
किस जगह पर थे आप सहिष्णु?
.......................
प्राचीन युग में,
गुलाम भारत में,
आजाद मुल्क में,
बीते कल और आज तक भी,
कभी नहीं थे आप कतई सहिष्णु
सहिष्णु हो ही नहीं सकते है आप
क्योंकि आपकी संस्कृति, साहित्य, कला
धर्म, मंदिर, रसोई, खेत, गाँव, घर
कहीं भी नहीं दिखाई पड़ती है सहिष्णुता
सच्चाई तो यह है कि आपके
डीएनए में ही नहीं
सहिष्णुता युगों युगों से
.......................
- भंवर मेघवंशी (स्वतंत्र पत्रकार)

राजकुमार सैनी "सूअर" कहे या "शूरवीर"; ईटीवी जैसा मीडिया इसको किस जाति पे बतावे और किसपे नहीं, इससे जाटों का क्या लेना-देना?

हम सिर्फ इतना जानते हैं कि जितना समृद्ध और खुशहाल दलित-पिछड़ा हरयाणा की धरती पर कहो या पूरी जाटलैंड पर कहो, रहा है इतना पूरे भारत में कहीं नहीं| फिर भी सैनी अपने दावों में इतना दम भरते हैं कि नहीं ऐसा ही है, तो जरा पेश करें पूरे देश दलित-पिछड़े के राज्यवार आकंड़े| बैठे-बिठाए ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा|

शायद बिहार में भी जाट ही बसते होंगे, जहां के पिछड़ों ने उनसे तंग आ के लालू को चुन लिया? क्यों सैनी महाशय सही कहा ना? या फिर जनाब ने जरूर यह बयान कहीं छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, कर्नाटका आदि को लेकर कहा होगा, जहां के स्वर्ण दलितों को संसद तो क्या जंगलों से ही नहीं निकलने देते|

वैसे भाईयो, किसी के पास हरयाणा में जाट सीएम होते हुए कितने पिछड़े-दलित सरकार में मंत्री-एमएलए-एमपी रहे, किसी भाई के पास इसकी एनालिटिकल लिस्ट हो और फिर ऐसी ही लिस्ट नॉन-जाट सीएम रहते हुए की हो, खासकर अब वाले खट्टर रिजाइम की तो उपलब्ध करवाना भाई| ताकि जरा इन महोदय की बात का सही से अवलोकन किया जा सके| खट्टर के रिजाइम में कितने ब्राह्मण-बनिए-अरोड़ा-खत्री-दलित-ओबीसी सरकार में मंत्री हैं, इसकी भी डिटेल हों तो बहुत ही बढ़िया रहे| देखें कौन कितनी जनसंख्या का होते हुए कितने पद लिए बैठा है|

सैनी महाशय आपका धन्यवाद, जो हमें ऐसे-ऐसे जिनपे हम शायद ही कभी सोचते-विचारते, पहलुओं पर हमारा ध्यान आकर्षित कर, ज्ञानवर्धन और इंटेलिजेंस डेवेलोप करने को मोटीवेट कर रहे हो| जाट भाइयो, इस इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन गैदरिंग पे इस वक्त अपनी ऊर्जा लगाते हैं, क्योंकि इसमें ही आधे से ज्यादा तर्क मिल जायेंगे, इन जनाब को एक जगह बैठे-बैठे ही गलत साबित करने के|

अरे भाई बीजेपी वालो, यह तुम्हारा जाटों के खिलाफ खड़ा किया वाचक, किसी और का औढ़ा ले के तुमसे मंत्रिपद मांग रहा है, दे दो भाई, ताकि हरयाणा की जान छूटे इससे| संसद में ना सही तो हरयाणा विधानसभा में दे दो, वरना आज तो बिना नाम लिए "सूअर" कहा किसी को, हो सकता है कल को तुम्हारा नाम ही रख दे, कि इन बीजेपी वालों ने रोका मुझे मंत्री बनने से| सिर्फ जाटों के खिलाफ जहर उगलवाते रहे, और अंत में दिया क्या "बाबा जी का ठुल्लु"? दे दो भाई इनको एक पद दे दो| इतनी मेहनत का बेचारे को कुछ तो सिला दो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 25 November 2015

सोचो क्या टोर रही होगी उस महामानव की!

जब मुहम्मद अली जिन्नाह और नेहरू ने गांधी के आगे तब के यूनाइटेड पंजाब के बंटवारे की बात रखी तो गांधी ने एकमुश्त जवाब दिया कि, "पंजाब को छोड़ के बाकी के भारत में जो चाहे करवा लो, पंजाब मेरे काबू से बाहर की चीज है; क्योंकि वहाँ छोटूराम की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता|"

जब उस महामानव छोटूराम को जिन्नाह की पंजाब को तोड़ने की मंशाओं का पता चला तो उसको पंजाब से तड़ीपार कर, बॉम्बे भिजवा दिया था| और सख्त लहजे में कह दिया था कि ख़बरदार जो मेरे पंजाब को तोड़ने की मंशा रखी तो|

जिन्नाह ने इसपे गांधी को एप्रोच किया तो गांधी ने कहा कि उसके आगे तो मैं भी लाचार हूँ, तू अभी बॉम्बे ही रह, कुछ होगा तो देखूंगा|

इस ममतामयी तरीके से बैठा था अपने पंजाब की जनता को सहेजे हुए वो महामानव, ठीक वैसे ही जैसे मुर्गी अपने अण्डों को सेते वक्त उन पर बैठती है|

काश ऊपरवाला सर चौधरी छोटूराम को 1945 में बुलाने की बजाये, ज्यादा नहीं तो बस 2-4 साल और बाद बुलाता तो, आज उत्तरी भारत का भूगोल कुछ और होता|

आज फिर एक ऐसा ही ममतामयी महामानव चाहिए हमारी धरती को|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आमिर खान की बेगम किरण राव को जाटों से सीखना चाहिए!

मैडम असली असहिषुणता देखनी और सीखनी है तो हरयाणा में आ के देखो, जहां तुम्हें मुस्लिम-बनाम-हिन्दू में तो झाँकने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, क्योंकि यहां हिन्दू खुद अपने में ही जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजा के जाट जाति को निशाने पे ले के दिन-रात जाटों पर अपनी असहिषुणता दिखाते रहते हैं| परन्तु जाट हैं कि ठाठी के बन्दे कभी नहीं कहते कि असहिषुणता बढ़ रही है| ना इन कुकरमुत्तों के बनाये जाट-घृणा के माहौल से खौफ खाते| क्योंकि जाट अच्छे से जानते हैं कि "ऊँट (नॉन-जाट का माहौल बनाने वाले) तो सदा रिडान्दे ही लदे और हाथी (जाट) सदा झूमते ही चले"।

ये देखो यहां हरयाणा में यह आरएसएस और बीजेपी के मनोहरलाल खट्टर, राजकुमार सैनी और रोशनलाल जैसे चमचे जाटों के खिलाफ कितना बजते हैं पर मजाल है जो यह जाटों को थोड़ा सा भी विचलित कर पाते हों|

आप घबराओ मत किरण राव मैडम, यह इनका असहिषुणता का ड्रामा और कुछ नहीं सिवाय अपने खुद के हिन्दू धर्म के अंदर इन्हीं द्वारा फैलाई गई असहिषुणता को हिन्दू-बनाम-मुस्लिम का चोगा पहना के ढांपने के|

वैसे सुना है आप तो हिन्दू ब्राह्मण हो, फिर भी इतना डर रही हो? कोई नी फिर भी ज्यादा डर लगता हो तो खुद को जाट घोषित कर लो, सुरक्षित ना सही परन्तु निडर और निर्भीक जरूर बनी रहोगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

लव-जिहाद के झण्डादारी अंधभक्तो यह बाबा रामदेव ने क्या कह दिया कि किरण-आमिर की शादी सहनशीलता का प्रतीक?

क्यों क्या बाबा को मारने को नहीं दौड़ोगे? या गरीब की बहु सबकी भाभी की तरह तुमको निशाने पर सिर्फ वही लोग लेने आते हैं जो मानवीय हों परन्तु गरीब हों और ऐसी शादियों को लव-जिहाद का नाम देने की बजाय सही ठहराते हों?

क्या बाबा को सेक्युलर नहीं बोलोगे? क्या बाबा को देशद्रोही नहीं बोलोगे? क्या बाबा को हिन्दू विरोधी नहीं बोलोगे? क्या बाबा को पाकिस्तान नहीं भेजोगे?

फिर पूछते हैं कि देश की सहिषुणता में क्या गड़बड़ी है, सब ठीक तो है| हाँ भाई जिनके प्रेरणा पुरुष पल में पाला पलटने वाले हों, उनकी अपनी कटिबद्धता का क्या ठोर-ठिकाना|

आशा है कि भगतों में जो भी लॉजिकल होगा, उनको समझ आ रहा होगा कि तुमको जिन मुद्दों पे घुट्टी पिला के आतंक की मशीन में परिवर्तित जो करते हैं वो खुद अपनी विचारधारा को ले के कितने विचलित होते हैं|

वैसे क्या आमिर और किरण फाइव स्टार कपल ना हो के किसी गली-चौराहे पे तुम्हारे बीच रहने वाले आम इंसान होते तो अब तक तो तुमने अपने इन्हीं आकाओं को खुश करने के लिए उनकी बलि ना ले ली होती? तो अब किसकी लोगे, दोनों तरफ फाइव-स्टार मामला है; इस मैरिज को सहनशलीता का प्रतीक बताने वाले की या इस कपल की?

वास्तविकता तो यह है कि परम्परागत सेक्युलर और इन नए फूटे कट्टरों में फर्क सिर्फ इतना है कि परम्परागत सेक्युलर सिर्फ जुबान से ही नहीं कर्म से भी सेक्युलर हैं और यह नए-नए फूटे कट्टर सिर्फ जुबान से कटटर हैं, वरना रियल सिचुएशन फेस करने पे यह भी सेक्युलर ही हैं| और बाबा बामदेव ओह नो सॉरी रामदेव का आज का बयान इसको प्रमाणित करता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

और हमारे देश और धर्म की सदियों से कड़वी सच्चाई है ही यह कि!

ना हमारे धर्माधीस सहिष्णु हैं, और ना ही देश को जातिवाद के जहर के दम पे देश चलाने वाले सहिष्णु हैं| वो कैसे, उसकी एक झलक इस कड़वी सच्चाई में झांक के खुद का चेहरा आईनें में देखने की भांति स्वत: ही देख लीजिये|

दलितो के अत्याचार पर देश मे असहिष्णुता का माहौल क्यो नही बना?

वर्षो से आजादी के बाद से आज तक दलितो पर अत्याचार हो रहे है। देश का ऐसा कोई कोना नही जहाँ इन्होने अपमान ना झेला हो। इनके घर की औरतो को हवस का शिकार नही बनाया गया हो। तरह-तरह से प्रताडित किया जाता रहा है। ये समाज आज भी आजादी की लडाई लड रहा है। इतना सब होने के बाद भी भारत मे असहिष्णुता नजर नही आयी। किसी ने इस पर अवार्ड नही लौटाया। किसी ने मार्च नही निकाला। किसी बुद्विजीवी प्राणी, सेलिब्रिटी, राजनीतिक पार्टी या किसी फेसबुकिया गिरोह ने इस पर चर्चा नही की। जिन टी.वी चैनलो पर लम्बे टाईम से असहिष्णुता पर बहस जारी है उन्होने इस पर बात करना ठीक नही समझा। ये सब इसलिए है क्योकि वो दलित् है? और ये सब झेलना तो उनका अधिकार है।

आश्चर्य की बात तो ये है कि जो दलित आज की असहिष्णुता पर हल्ला मचा रहे है वो अपने समाज पर बढ रही असहिष्णुता समझ ही नही पाये है। उन्हे ऊपर के सवालो पर सोचना चाहिए। साथ मे ये भी कि आज तक कितने लोग उनके प्रति इस असहिष्णुता पर आगे आये है? उन्हे बहती गंगा मे हाथ न धोकर कुछ जरुरी तर्क भी करने चाहिए।

दलितो पर अत्याचार सबकी सरकारो मे होते है। लेकिन सफाई देने के अलावा किसी ने कुछ नही किया। ये असहिष्णुता सिर्फ एक विशेष धर्म के लिए ही क्यो? इतनी हमदर्दी दलितो के लिए क्यो नही? क्या दलितो को कोई अपना नही समझता?

Phool Malik

Tuesday, 24 November 2015

यह है असली असहिषुणता, अगर किसी नेता-अभिनेता-लेखक से इसपे आवाज उठाई जाती हो तो उठा लो!

असहिषुणता का असली मुद्दा अगर किसी को उठाना है तो वो मरते किसान की, आत्महत्या करते किसान की आवाज के साथ उठाओ, मैं गारंटी देता हूँ या तो कोई तुम्हारा विरोध नहीं करेगा अन्यथा वास्तव में असहिष्णु लोगों के चेहरे सामने आ जायेंगे|

लो मैं कहता हूँ देश का किसान मर रहा है, कहीं आत्महत्या करके तो कहीं भूख से तो कहीं कर्जे से तो कहीं सूखे और अकाल से तो कहीं उसकी मेहनत पर मची लूट से|

क्या किसी को चुपचाप मरते देखना असहिषुणता नहीं होती? किसी के दर्द को और बढ़ाना, उसको जानबूझकर फसलों के दाम ना देना और फसल का सीजन जाते ही फसलों के दोगुने दाम कर लेना, क्या यह असहिषुणता नहीं इस बात की कि किसान की जेब में उसकी मेहनत के बराबर तक का भी पैसा मत जाने दो, पंरतु अपनी जेबें भर लो?

ताजा उदाहरण चाहिए किसी को तो हरयाणा में आ के देख लो, महीना भर पहले जिस धान (चावल) की फसल को सरकार और व्यापारी 1200 रूपये में भी नहीं खरीद रहे थे, आज उसी धान का भाव वापिस 3000 रूपये चल रहा है| अगला सीजन आएगा तो इसको फिर से यह बीजेपी और आरएसएस वाले 1200 करवा देंगे और सीजन निकलते ही वापिस 3000|

लगता है असहिषुणता शब्द को भुनाने वालों ने जानबूझकर इसकी दिशा बदली हुई है और ऐसे लोगों के बयानों पे इस शब्द को टिका रहे हैं, जिनके बोलने से आमजन को कुछ फर्क नहीं पड़ना| शायद यह जानते हैं कि ऐसे शब्दों को उधर नहीं मोड़ा गया तो कहीं किसान-कमेरे-दलित की आवाज ना फूट पड़े और इनके कान बहरे हो जाएँ| इन फाइव-स्टार लोगों की असहिषुणता सुनने और उसको भुनाने से किसी को फुर्सत मिल जाए तो यह मेरे वाली उठाई असहिषुणता की तरफ भी ध्यान घुमा लेना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 23 November 2015

किसानों के भगवान एक बार फिर हो आणा हो!

किसानों के भगवान एक बार फिर हो आणा हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा,
वो खुदाई दुनिया ने दादा, आपमें पाई थी|
पढ़ा ब्रामण समाज तोड़े, पढ़ा जाट समाज जोड़े,
किसान-दलित की ऐसी जोट तूने बनाई थी||
आ फिर से समाज जोड़ना, ना तो हो जा धिंगताणा हो|
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

दमनचक्र काले अंग्रेजों का,
गौरों की लय पे चढ़ आया है|
मंडी के हितैषी गांधी-लाजपत खड़े,
इनके आगे अड़ने का बुलावा आया है||
आजा सपूत साँपले के, घना अँधेरा छाँट जा हो|
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

किसानों के भाव देते ना,
किसानों को भाव देते ना!
अंग्रेजों से अड़ के जिद्द पे जैसे,
किवंटल पे 6 के 11 दिलवाए थे|
ऐसे ही आज, इन काले अंग्रेजों से दिलवाना हो|
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

हिन्दू बाँट दिया, मुसलमान बाँट दिया,
मंडी ने बाँट दिया, फंडी ने बाँट दिया|
कहीं आपसी नादानी ने, जहर जख्म का टांट दिया,
जिन्ना-नेहरुओं ने मिलके, बाग़ तेरा उजाट किया||
हरयाणा-पंजाब एक रखने को, जिन्नाओं को बॉम्बे भगाना हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

अजगर-ब्राह्मण-सैनी-खाती-छिम्बी सबकी,
पक्की किसानी-मल्कियत करवाई थी|
बंधुवा और बालमजदूरी के संग,
साहूकारी-कर्जदारी की जड़ उखड़वाई थी|
सबसे पहले लाहौर सचिवालय में,
दलित-पिछड़ों की आरक्षण पे नौकरी लगाई थी|
उसी आरक्षण को अब, जनसंख्या अनुपात में करवाना हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

जज्बे की बात कर ज्या,
दादा हो जज्बात भर ज्या|
खाली तेरा डेरा हो रह्या,
किसानां का भाग सो रहया||
तेरे भोलों के हक पे बैठा, यह काग उड़ाणा हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

तेवर वही चाहियें फिर से,
जिनसे गांधीं थर-थर ठिठकें,
'फुल्ले-भगत' के जज्बात छलकें,
मंडी-फंडी को कैसे लूँ डट के,
इनको होश में लाऊँ कैसे, इसका राहगोर बनाणा हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

किसानों के भगवान एक बार फिर हो आणा हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Special tribute to Sir Chhoturam on thou birth anniversary (24th Nov, 1881)!

जरूर दूसरा पक्ष नॉन-जाट रहा होगा, इसलिए जाति नहीं बताई!

वर्ना मोटे-मोटे अक्षरों में कुछ इस तरह का लिखा आता कि, "दबंग जाटों ने दलित को खिलाया गोबर!"

दलित खुद फैसला कर लें और समझें अब इस वाले राज को| जाट सीएम होता था तो भी अगर जाट से झगड़ा हुआ तो जाट के नाम के साथ उसकी जाति जरूर आती थी| और अब देख लो अब तो आप लोगों को यह भी पता नहीं लगने दिया जाता कि कौनसी जाति वाले ने दलित उत्पीड़न किया|

तो क्या था यह मीडिया और दलित हमदर्दी का खेल? सिर्फ और सिर्फ जाटों को आपका नंबर वन दुश्मन दिखाकर, जाट-दलित के वोट तोड़कर, दलित का वोट लेकर सत्ता हासिल करना और फिर ऐसे उत्पीड़न हों दलितों पर तो उत्पीड़न करने वाले की जाति का नाम तक अखबारों में ना आने देना|

मानता हूँ जाटों-दलितों में मनमुटाव होते आये हैं, परन्तु क्या इनसे भी बुरे तरीके से कि आज तो दलित उत्पीड़न करने वाले की जाति अगर जाट ना हो तो सबको सिर्फ "दबंग बनाम दलित" से ढांप दे रहे हैं|


फूल मलिक

 

Sunday, 22 November 2015

सर छोटूराम को अंग्रजों का पिट्ठू कहने वाले अपने कानों के पट खोल के सुनें!

यह जो नीचे सर छोटूराम द्वारा पास करवाये जिन कानूनों की फेहरिश्त रख रहा हूँ, यह ना ही तो किसानों के लिए किसी गांधी ने पास करवाये, ना ही किसी नेहरू ने, ना ही किसी शंकराचार्य-महंत आदि ने, ना ही किसी आर.एस.एस. वाले ने, ना ही किसी जिन्नाह ने; अंग्रेजों को लट्ठ दे के यह पास करवाये तो सिर्फ और सिर्फ सर छोटूराम ने| और उनके इस गट के आगे "सर' तो उनके लिए बहुत छोटी उपाधि है, उनको "किसानों का भगवान" भी कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं|

डालें नजर जरा इन पर राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य जैसे मंडी-फंडी के इशारों पर बरगलाते फिर रहे लोग| आप लोग अपनी सरकार-सत्ता और ताकत होते हुए इन जैसा एक भी कानून अगर किसान बिरादरी के लिए पास करवा दो, तो ताउम्र आपकी वंदना करूँ| जब गांधी-जिन्नाह-लाला लाजपत राय जैसे लोग मंडी-व्यापारियों के हितों हेतु कभी असहयोग आंदोलन तो कभी साइमन कमीशन का विरोध कर रहे थे, जब बालगंगाधर तिलक और गांधी वर्ण व् जातीय व्यवस्था को ज्यों-का-त्यों कायम रख पाखंडियों के हितों हेतु "पूना पैक्ट" कर रहे थे, जब आर.एस.एस. वाले अपने बिलों में घुसे बैठे रहा करते थे, तब इस शेर जाटनी के जाए ने, अंग्रेजों के हलक से निकाल यह कानून दिलवाए थे किसान-कमेरे को, पढ़ो इनको और सोधी में आओ कुछ:

साहूकार पंजीकरण एक्ट - 1938 - यह कानून 2 सितंबर 1938 को प्रभावी हुआ था । इसके अनुसार कोई भी साहूकार बिना पंजीकरण के किसी को कर्ज़ नहीं दे पाएगा और न ही किसानों पर अदालत में मुकदमा कर पायेगा। इस अधिनियम के कारण साहूकारों की एक फौज पर अंकुश लग गया।

गिरवी जमीनों की मुफ्त वापसी एक्ट - 1938 - यह कानून 9 सितंबर 1938 को प्रभावी हुआ । इस अधिनियम के जरिए जो जमीनें 8 जून 1901 के बाद कुर्की से बेची हुई थी तथा 37 सालों से गिरवी चली आ रही थीं, वो सारी जमीनें किसानों को वापिस दिलवाई गईं। इस कानून के तहत केवल एक सादे कागज पर जिलाधीश को प्रार्थना-पत्र देना होता था। इस कानून में अगर मूलराशि का दोगुणा धन साहूकार प्राप्‍त कर चुका है तो किसान को जमीन का पूर्ण स्वामित्व दिये जाने का प्रावधान किया गया।

कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम - 1938 - यह अधिनियम 5 मई, 1939 से प्रभावी माना गया। इसके तहत नोटिफाइड एरिया में मार्किट कमेटियों का गठन किया गया। एक कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार किसानों को अपनी फसल का मूल्य एक रुपये में से 60 पैसे ही मिल पाता था। अनेक कटौतियों का सामना किसानों को करना पड़ता था। आढ़त, तुलाई, रोलाई, मुनीमी, पल्लेदारी और कितनी ही कटौतियां होती थीं। इस अधिनियम के तहत किसानों को उसकी फसल का उचित मूल्य दिलवाने का नियम बना। आढ़तियों के शोषण से किसानों को निजात इसी अधिनियम ने दिलवाई।

व्यवसाय श्रमिक अधिनियम - 1940 - यह अधिनियम 11 जून 1940 को लागू हुआ। बंधुआ मजदूरी पर रोक लगाए जाने वाले इस कानून ने मजदूरों को शोषण से निजात दिलाई। सप्‍ताह में 61 घंटे, एक दिन में 11 घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकेगा। वर्ष भर में 14 छुट्टियां दी जाएंगी। 14 साल से कम उम्र के बच्चों से मजदूरी नहीं कराई जाएगी। दुकान व व्यवसायिक संस्थान रविवार को बंद रहेंगे। छोटी-छोटी गलतियों पर वेतन नहीं काटा जाएगा। जुर्माने की राशि श्रमिक कल्याण के लिए ही प्रयोग हो पाएगी। इन सबकी जांच एक श्रम निरीक्षक द्वारा समय-समय पर की जाया करेगी।

कर्जा माफी अधिनियम - 1934 - यह क्रान्तिकारी ऐतिहासिक अधिनियम दीनबंधु चौधरी छोटूराम ने 8 अप्रैल 1935 में किसान व मजदूर को सूदखोरों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए बनवाया। इस कानून के तहत अगर कर्जे का दुगुना पैसा दिया जा चुका है तो ऋणी ऋण-मुक्त समझा जाएगा। इस अधिनियम के तहत कर्जा माफी (रीकैन्सिलेशन) बोर्ड बनाए गए जिसमें एक चेयरमैन और दो सदस्य होते थे। दाम दुप्पटा का नियम लागू किया गया। इसके अनुसार दुधारू पशु, बछड़ा, ऊंट, रेहड़ा, घेर, गितवाड़ आदि आजीविका के साधनों की नीलामी नहीं की जाएगी।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मंडी-फंडी पर किसानी एकता का चाबुक रहना बहुत जरूरी है!

वर्ना यह बेलगाम बेदिशा बेदर्दी से लूटते हैं। किसानों को राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य जैसे कठपुतली नेताओं को यह बात समझानी होगी, वरना ऐसे नेता जाट को कोसने के नाम पर किसान बिरादरी की इतनी अपूर्णीय क्षति कर देंगे कि सर छोटूराम - चौधरी चरण सिंह - ताऊ देवीलाल और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत एक साथ पैदा हों तब ही जा के पूरी हो पाये।

अब क्योंकि चारों किसान नेता जाट जाति से हैं तो इसमें भी जातिवाद के कीड़े के काटे हुए लोग जाति मत देखने लग जाना, क्योंकि हकीकत यही है कि किसान और कमेरी जातियों के लिए जो-जो लड़ाईयां यह लोग लड़ गए और जो-जो कानून यह लोग बना गए, आज तक कोई और किसान नेता नहीं बनवा पाया, फिर चाहे वो किसी जाति से क्यों ना आता हो। और अगर उत्तर भारत में इनसे बड़ा कोई किसान मसीहा हुआ हो तो मैं जरूर उसका नाम जानना चाहूंगा।

लेख के शीर्षक पर आगे बढ़ते हुए कहना चाहूंगा कि जब गुलामी के दौर में मंडी-फंडी पर अंग्रेजों का चाबुक रहता था तो यह कंट्रोल में रहते थे। बेशक हम उनके गुलाम थे परन्तु किसान के दर्द और दुःख से वो कभी भी इस तरह विमुख हो कर या तो खुद ही नहीं बैठते थे और अगर यदि बैठते थे तो सर छोटूराम जैसे मसीहा उनको विवश कर देते थे किसानों की सुनने के लिए।

अंग्रेजों के जाने के बाद, मंडी-फंडी के खुल्ले बारणे हुए और 1300 साल की घोर गुलामी से कुछ भी प्रेरणा ना लेते हुए मंडी-फंडी लग गया किसानी एकता को तोड़ने पर। और इसमें भी तल्लीन तरीके से किसानी एकता की धुर्री जाट जाति को इससे अलग करने पर। इनको पहली बड़ी कामयाबी तब मिली थी जब 1990 में इन्होनें वीपी सिंह (एक राजपूत) और ताऊ देवीलाल (एक जाट) की जोड़ी को तोड़ा था। उसके बाद से ही यह लग गए किसान जातियों में से जाट का प्रभाव खत्म करने पर। हालाँकि बाबा टिकैत ने फिर भी किसानों को एक पिरोये रखा, पंरतु बाबा के जाने के बाद और उनके जैसे जज्बे का कोई उत्तराधिकारी अभी तक किसानों को नहीं मिलने की वजह से आज किसान बिलकुल अनाथ सा भटक रहा है।

राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य जैसों के माध्यम से तो अब मंडी-फंडी किसान के बिल्कुल वही हालात लाने की ओर अग्रसर है जब ना किसानों में एकता रहे और ना ही किसान हकों की कोई बात भी उठाने वाला रहे। सिर्फ इतना ही नहीं इनकी मंजिल जाती है किसानों में इतनी हीन-भवन भरने तक कि कोई किसान नेता किसानों की बात करने तक से घबराये। अभी जो सैनी और आर्य जैसे कठपुतली नेताओं के जरिये से चल रहा है यह मंडी-फंडी का यही मिशन चल रहा है कि किसानों में तुम्हारे नाम का इतना भय बैठा दिया जाए कि किसान सिर्फ तुम्हारा बंधुआ मजदूर बनके रहे जाए। और अगर ऐसा हुआ तो सैनी और आर्य जैसे लोग इसके जिम्मेदार होंगे।

जरूर सैनी और आर्य जैसे लोगों में किसान-कमेरे का नेता बनने की ललक होगी, परन्तु इन्होनें जो रास्ता अख्तियार कर रखा है वो एक दम गलत है। इनको अगर वाकई में किसान का मसीहा बनना है तो इन ऊपर चर्चित किसान मसीहाओं की जीवनी इन्हें पढ़नी चाहिए। वर्ना तो जाट को कोसने के रस्ते चलके यह खुद को कितने ओबीसी के शुभचिंतक साबित कर पाएंगे यह तो ओबीसी ही जाने, परन्तु किसान की किस्मत में अँधेरे-ही-अँधेरे भर देंगे यह जरूर सुनिश्चित है।

हालाँकि ताऊ देवीलाल के सानिध्य में राजनीति के गुर सीखे हुए लालू यादव, शरद यादव और नितीश कुमार से बिहार चुनाव के बाद से कुछ आस जगी है, परन्तु यह कितना इन किसान मसीहाओं जैसा साबित कर पाएंगे, यह भी देखने वाली बात रहेगी| सच कहूँ तो आज के दिन एक ऐसे वक्त में जब बाकी के किसान नेता सत्ता में नहीं हैं तो इन लोगों के पास मौका है उत्तर भारत में किसानों के अगला मसीहा बनने का और किसानी एकता को मजबूत कर मंडी-फंडी पर इस एकता का चाबुक चलाने का|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 21 November 2015

बीजेपी में जा के किसान पृष्ठभूमि के नेता की बुद्धि भी कैसे मंद हो जाती है, उसका जीता-जागता उदाहरण है भिवानी-महेंद्रगढ़ के सांसद धर्मबीर पंघाल!

एक किसान ने जब पूछा कि यह हजारों गाय आवारा छोड़ दी, यह हमारी रबी-खरीफ दोनों फसलें उजाड़ रही हैं, इनका कुछ क्यों नहीं किया जा रहा?

तो महोदय जवाब में कहते हैं कि देशी गाय नहीं अपितु जर्सी-अमरीकन गाय ज्यादा आवारा घूमती हैं और खेतों को चरती हैं| अब इन महाशय को कौन बताये कि जर्सी-अमरीकन तो बालट भर के दूध देती है, उसको तो कोई विरला ही आवारा छोड़ता है| 90% आवारा तो घूम ही देशी नश्ल रही है|

ओह अच्छा जनाब आरएसएस और बीजेपी से गाय-ज्ञान पा के इतने ज्ञानी हो गए हैं कि इनको यह भी पता लग गया कि जर्सी-अमेरिकन गाय में दिमाग नहीं होता और देशी में होता है| जनाब यह जो अमेरिका और यूरोप पूरे विश्व पे राज करते हैं ना वो इन्हीं जर्सी और अमेरिकन गाय का दूध पी के करते हैं, और यह आपकी देशी नश्ल का दूध पीने वालों के दिमाग ने क्या दिमागी करिश्मे दिखाए हैं जरा देश की 1300 साल की गुलामी काल में झाँक के देख लो|

ऐंड-बैंड-सैंड कुछ भी क्या? आळु जैसा व्यवहार मत करो जनाब अगर आपके हाथ बंधे हैं तो साफ़ बोल दो|

वैसे किधर गए ये सारे गौ-भगत, आओ भाई आगे, कम-से-कम एक-एक तो बांधों अपने कोठी-बंगलो में, और नहीं तो दूकान के अगाडे-पिछाड़े या मंदिर के आँगन में ही बाँध लो|

जागो किसान की औलादो, इन पाखंडियों के ढोंगों में फंसोगे तो ऐसे ही अपने दोहरे-तिहरे नुकसान करवाओगे|
मतलब क्या खूब मजे ले रही है हरयाणा सरकार भी किसानों के, एक तो फसलों के भाव नहीं, और ऊपर से जो कुछ थोड़ा बहुत पैदा होवे तो उसको यह आवारा गायें छोड़ के उजड़वा रही है| और कमाल की बात तो यह है कि किसानी जातियों से आने वाले राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य तक को यह चीजें नहीं दिख रही| हाँ भाई, आरएसएस और बीजेपी के जातीय जहर के एजेंडा को फ़ैलाने से इनको फुर्सत मिले तो किसान का दर्द सुनेंगे ना| क्या विडंबना है किसान की| शायद आरएसएस और बीजेपी की घूंटी ऐसी ही होती है, किसी और को भी पीनी हो तो देख लो भाई, सोच लो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: BJP सांसद धर्मबीर बोले, गाय एक बिना दिमाग वाला पशु है
http://hindi.news18.com/news/chandigarh/cow-is-without-mind-animal-says-dharambir-1041163.html

गर्व से कहो हम हरयाणवी हैं!



जैसे मंडी-फंडी बाकी के समाज की इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन रखता है, ऐसे ही इनकी रखो!

मंडी-फंडी खुद नफरत नहीं फैलाता, राजकुमार सैनी, मनोहरलाल खट्टर और रोशनलाल आर्य जैसे मंद्बुद्धियों के जरिये से फैलवाता है, फूट डालता है और राज हथियाता है| खुद तो यह तभी सामने आता है जब इसको पुष्टि रहती है कि अब समाज पूरी तरह से बिखरा हुआ है|

इनके पास लोकराज लोकलाज से चलता है व् राजनैतिक-सामाजिक लिहाज-शर्म के नाम पर कुछ नहीं होता| यह कोरी नफरत और फूट डालने की नीति की राजनीती पर फलते-फूलते हैं| क्योंकि पूंजीवादी सिर्फ पैसा कमाने के लिए राजनीति करता है, समाज में शांति-न्याय और व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए नहीं| शांति-न्याय और व्यवस्था की सुदृढ़ता तो इसकी राजनीति के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं|

तो क्या कोई ऐसी सोच या समाज नहीं जो इन मंडी-फंडी में भी फूट डलवा सके? है ऐसी सोच और समाज हर जगह मुमकिन है बशर्ते, लोग मंडी-फंडी की नीतियों को क्रिटिसाइज करने में वक्त ज्याया करने की बजाय, इनकी सामाजिक सरंचना और सूझबूझ पर फोकस करे तो|

आश्चर्य नहीं कि अगर पूछने लगूं कि मंडी-फंडी के समाजों को तोड़ने की कमजोर कड़ियाँ कौनसी-कौनसी हैं तो कोई विरला ही जवाब दे पाये कि यह-यह हैं| जबकि मंडी-फंडी के पास इतनी इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन रहती है कि इनको ओबीसी हो, दलित हो या माइनॉरिटी, हर एक की सामाजिक कमजोरी और रग पता होती है|

अत: अगर इनसे पार पाना है तो सिर्फ इनकी नीतियों को क्रिटिसाइज करने से काम नहीं चलने वाला, अपितु इनकी भांति इनके भीतर की सामाजिक सरंचना और इनके कमजोर बिन्दुओं की इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन हासिल करने पे और उसको छुपाने की बजाय साझा करने पे (कम-से-कम एक जैसी सोच वालों के साथ) फोकस करना होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 20 November 2015

राजनैतिक चुटकी है, बुरा नहीं मनाने का!

लालू से मोदी मिले तो स्ट्रेटेजी, केजरीवाल  मिले तो बेइज्जती, वाह रे भगतन क्या मापदंड है तोहार?

अभी बिहार इलेक्शन से दो-एक महीने पहले मुलायम-लालू के बेटे-बेटियों के ब्याह में जनाब मोदी जब गलबहियाँ पा-पा सेल्फ़ी खिंचाई रहे तो वो स्ट्रेटेजी था, अउर कल ललवा ने केजरिया को पकड़ गलबहियां लिए तो बेइज्जती हुई गवा, हुड़ सुसरा बुड़बक।

केजरी-लालू-नितीश-दुष्यंत-ममता-अजित-देवेगौड़ा आदि एक स्टेज पर मिले तो आँख में किरकिरी गिर गवा, अउर उ बख्त जब ई भगवा वाला J&K उग्रवादियों को दबी जुबान समर्थन देने वाली पार्टी से प्यार की पींघ चढ़ाई रहे, तब का आँखों में जाला पड़ गवा था? ओह नाहीं शायद चोर-चोर मौसेरे भाई मिलत रही, एक आईएसआईएस से प्रेम करने वाला और दूजो आरएसएस से।

का रे बुड़बक भगतो, जब सेंटर में बारहवीं पास देश की शिक्षामंत्री झेल सकत हो, गंवार-झाहिल-बदजुबान मंत्रियों-एम्पियों की पूरी फ़ौज झेल सकत हो, तो आठवीं पास ललवा के सुपुत्वा ने कोनों काले चना चबाये हैं का जो वो देश की एक स्टेटवा का डिप्टी सीएम भी नाहीं बन सकत?

अरे हो,आरएसएस का एजेंटवा हरयाणा का चीफ मिनिस्टरवा, तू काहे को दसवीं से नीचे पढ़ा लोगन को उन्हां सरपंच नाहीं बनन देत रे? जब तोरो जैसन असामाजिक जीव अढ़ाई करोड़ का हरयाणा संभाले रही, तो का दसवीं से नीचे पढ़ा हुआ इक दुइ-चार हजार का गाँव नहीं संभाल पाहिं?

हुड़ बुड़बक, किधर हो रे बुधना, ज़रा इन भगतन को हाँक के हमार बाड़ा में बंद करके ताला लगाई के चाबी हमका देई तो जरा! ससुरा जब देखो छूट लेइत है खुल्ला सांड की जोई!

मस्करी, ऊ भी राजनीति का बाघड़ बिल्ला ललवा के साथ, ससुर का नाती सबको ठिकाने ना लगाई दई का?

फूल मलिक

गौहत्थों वाले बाड़ों से पहले विधवा-हत्थों वाले बाड़े तोड़ो!

गाय जैसे पशु के लिए तणे-तुड़ाने वाले, उनको गौहत्थों के बाड़ों से छुड़ाने हेतु त्राहिमाम मचाने वाले धर्म के ठेकेदारो, यह विधवा-आश्रमों वाले बाड़ों से विधवा औरतों को कब छोड़ोगे? कब विधवाओं का जीवन इन बाड़ों में सड़ाना बंद करोगे?

अब वक्त आ गया है कि विधवा-आश्रमों की कुप्रथा का अंत हो| गंगोत्री से ले हुगली तक के नदी घाटों और वृन्दावन जैसे विधवा आश्रमों को समूल नष्ट किया जाए| विधवा को उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर धर्म के नाम पर आजीवन इन बाड़ों में सड़ाना अब बंद हो|

विधवा-आश्रम जीवन तो सती-प्रथा से भी घिनोनी क्रूरता है, सती-प्रथा में औरत कम से कम एक बार में स्वाहा हो के अपना पिंड तो छुड़ा लिया करती| इन विधवा-आश्रमों में तो तिल-तिल तो औरत की जिंदगी फफक-फफक मरती ही है, और अगर कोई इनका जीवन देख ले तो साक्षात धरती पर ही नरक के दर्शन हो जावें| 

और कहीं से इसकी शिक्षा और प्रेरणा नहीं मिलती हो तो कम से कम अपने ही धर्म बाहुल्यता के हरयाणा के मूल-हरयाणवियों से ही प्रेरणा ले लो कि कैसे इस धरती के लोग विधवा को भी स्वेच्छा से दूसरा जीवन चुनने की आज़ादी देते आये हैं| विडंबना तो यह है कि भारत में सबसे ज्यादा मानवाधिकारों को व्यवहारिकता में पालने वाले हरयाणा को मीडिया के माध्यम से यही मति के लोग ज्यादा तालिबानी दिखाते हैं जो अपने यहां विधवाओं को चुपचाप आश्रमों में सड़-सड़ के मरने हेतु पशुओं की भांति ठूंस दिया जाना देख-2 के बड़े हुए होते हैं|

क्या व्यक्तिगत अपराधों से बड़े और भयावह इस तरह के सामूहिक अपराध नहीं, और वो भी सरेआम धर्म के नाम पर? क्या बाकी तरह की तमाम करुणा पालने से पहले, मानवता को ठीक से पालने की सुध और सलीका आना सबसे जरूरी नहीं?

मुझे तो अचरज इस बात का होता है कि नेटिव हरयाणवियों की धरती वृन्दावन पर यह बंगाली विधवाओं का आश्रम बन कैसे गया और कैसे इसको यहां चलने दिया जा रहा है| जबकि यहां का स्थानीय हरयाणवी तो अपनी विधवाओं को पुनर्विवाह या स्वेच्छा से दिवंगत पति की सम्पत्ति की मालकिन होते हुए उस पर राज करते व् उसको भोगते हुए स्वाभिमान भरा जीवनयापन का हक देता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"हिन्दू एकता और बराबरी" के फोबिया से जितना जल्दी हो सके बाहर निकलें!

क्योंकि अगर इसमें ज़रा सी भी सच्चाई होती तो, इस नारे को उछालने वालों द्वारा ही:
1) मुज़फ्फरनगर का जो दंगा हिन्दू-मुस्लिम के टैग से शुरू हुआ था वो बाद में जाट-मुस्लिम बना के प्रचारित ना किया जाता|
2) हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा ना रचा जाता|
3) बिहार में कुर्मी-यादव बनाम नॉन-कुर्मी-यादव का अखाडा ना रचा जाता|
4) गुजरात में पटेल बनाम नॉन-पटेल का अखाडा ना रचा जाता|
5) महाराष्ट्र में मराठा बनाम नॉन-मराठा का अखाडा ना रचा जाता|
6) इनको हिन्दू एकता की ज़रा सी भी चिंता होती तो हरयाणा में कभी मनोहरलाल खट्टर, कभी राजकुमार सैनी तो कभी रोशनलाल आर्य से जाट समाज के खिलाफ न्यूनतम स्तर की टिप्पणियाँ नहीं करवाते|
यह लक्षण "हिन्दू एकता और बराबरी" की बात करने वालों के तो कदापि नहीं हो सकते, या हो सकते हैं? यह लोग "हिन्दू एकता और बराबरी" को लेकर तंज मात्र भी सीरियस होते तो सबसे पहले हिन्दू धर्म से वर्ण व् जातीय व्यवस्था को खत्म करते, नहीं? दलित-शूद्र-छुआछूत-ऊंच-नीच-रंग-नश्लभेद-लिंगभेद को खत्म करने पे कार्य करते? क्या दिखा ऐसा कार्य आजतक एक भी इन ऐसी बात करने वालों का?
कबीले गौर है कि आरएसएस और बीजेपी के कैडर से अगर यह पूछा जाए कि है उनके द्वारा कितने भारतीय गाँवों से दलित-शूद्र-छुआछूत-ऊंच-नीच-रंग-नश्लभेद-लिंगभेद को खत्म करवाया जा चुका है? कितने ऐसे मंदिर हैं जिनके आगे से इनके द्वारा "दलित प्रवेश निषेध" की तख्तियां हटवाई जा चुकी हैं? हिन्दुओं में मौजूद औरतों को जानवर स्तर का गुलाम बना के रखने वाली तालिबानी प्रथाओं जैसे कि विधवा पुनर्विवाह निषेध, सतीप्रथा, देवदासी, पहली बार व्रजस्ला हुई नाबालिग लड़की का मंदिरों में सार्वजनिक भोग, औरत का मंदिर में पुजारी बनना लगभग नगण्य आदि-आदि, इनमें से कितनियों को बंद करवाया है इन लोगों ने? पूछने लग जाओ तो जवाब आएगा शायद एक भी नहीं?
तो किस बात की "हिन्दू एकता और बराबरी"? हवाईयों की या ख्वाबों की "हिन्दू एकता और बराबरी"?
यह लोग क्या सोचते हैं कि इनकी थोथी हवाईयों पे चढ़े चले जाओ और इस धरातलीय भयावह कर देने वाली सच्चाई को नजर-अंदाज करके किसी भोंपू की तरह सिर्फ "हिन्दू एकता और बराबरी" चिल्लाने मात्र से हिन्दुओं में "एकता और बराबरी" आ जाएगी?

कड़वा और चुभता सच तो यह है कि यह लोग जितनी धार्मिक सेक्युलरिज्म से नफरत करते हैं उससे भी बढ़ के जातीय सेक्युलरिज्म से नफरत करते हैं| और जो जातीय सेक्युलरिज्म से धार्मिक सेक्युलरिज्म से भी बढ़ के नफरत करते हों, वह लोग "हिन्दू एकता और बराबरी" कैसे ला देंगे? और यह इस दिशा में कभी ना तो थे और ना हो सकते, ऊपर बताये उदाहरण इसका मुंह-चिढ़ाता प्रमाण हैं|
गौर फ़रमाओ तो दिन की रौशनी से भी ज्यादा स्पष्ट दीखता है कि यह "हिन्दू एकता और बराबरी" इन द्वारा फेंका हुआ भारतीय राजनीति का आजतक का सबसे काला जुमला है और सबसे बदनुमा मजाक है हिन्दू समाज के साथ| इस जुमले के प्रभाव से देश जितना जल्दी बाहर निकल आएगा, उतना जल्दी गृहयुद्ध के साथ-साथ अपनी अवनति और बर्बादी को टाल सकेगा|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 19 November 2015

ट्रेडिशनल "नगरी इकनोमिक मॉडल" की फिर से जरूरत आन पड़ी है हरयाणे की धरती को!

बाकी के भारत के किसान की तो ज्यादा कह नहीं सकता परन्तु हरयाणे के किसान को अगर बढ़ती हुई मंडी-फंडी की मार से निबटना है तो अपने पुरखों के पुराने "नगरी इकनोमिक मॉडल" को मूलभूत सुधारों के साथ अपनाना होगा। क्योंकि मंडी-फंडी के साथ-2 शरणार्थियों के पहले के प्रेशर और आये दिन और ज्यादा बढ़ते जा रहे प्रेशर से विशाल हरयाणा (मोटे तौर पर वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यूपी + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान) को अगर कोई बचा सकता है तो वह सिर्फ यही मॉडल है।

पूर्वोत्तर की तरफ से आ रहा बुद्धिजीवी वर्ग सामंतवादी सोच का है| पूर्वोत्तर और विशाल हरयाणा (खापलैंड) पर खेती के मॉडल में मूलभूत अंतर हैं, जो इस प्रकार हैं:

1) पूर्वोत्तर में जमींदार खेत में काम नहीं करता अपितु मजदूरों को आदेश देकर करवाता है। जबकि खापलैंड पे जमींदार मजदूर के साथ खुद भी खेत में खट के कमाता है। इसलिए खापलैंड की जमींदारी पद्द्ति सामंती नहीं अपितु आधुनिकतावादी है|

2) पूर्वोत्तर में जहां आज भी बेगार बहुतायत में पाई जाती है, वहीँ खापलैंड पर सदियों से सीरी-साझी के बीच बनियों-मुनिमों द्वारा सालाना ऑफिसियल कॉन्ट्रैक्ट बनते आये हैं। आजकल तो तहसीलदार के यहां कच्ची रिजस्ट्री भी होने लगी हैं।

3) पूर्वोत्तर में जमींदार और मजदूर का रिश्ता मालिक-नौकर का कहलाता है। जबकि खापलैंड पर यह रिश्ता सीरी-साझी यानी पार्टनर्स का होता है।

खापलैंड के किसान का हर वो बालक इस बात को नोट करे जो खेतों से निकल के कॉर्पोरेट में जॉब करने चढ़ता है कि सीरी-साझी वाला कल्चर ही गूगल (google) जैसी विश्व की लीडिंग कंपनी का है। गूगल में हर कोई पार्टनर होता है कोई नौकर-मालिक नहीं। सो यह वर्किंग कल्चर आप अपनी खापलैंड की विरासत से ले के वहाँ जा रहे हैं। अत: वहाँ जो नया सीखना है वो वर्किंग कल्चर नहीं अपितु टेक्नोलॉजी और ग्लोबल कम्युनिकेशन भर सीखना है।

4) पूर्वोत्तर का स्वर्ण ऊपर बताये बिंदु एक की वजह से बिहार में अपने खेतों में काम नहीं करेगा, बेशक उसको हरयाणा में आ के मजदूरों के साथ काम करना पड़ जाए।

इस पर एक निजी अनुभव बताता हुआ आगे बढूंगा। बारहवीं कक्षा के एग्जाम के बाद की छुट्टियों में मेरे पिता जी ने गेहूं कढ़ाई सीजन में हमारे यहां आई 20 बिहारी मजदूर भाईयों की टोली और मशीनों की निगरानी हेतु मेरी ड्यूटी लगा दी। हरयाणा में आने वाली ऐसी टोलियों का एक ठेकेदार यानी मैनेजर होता है जिसका काम पूरी टोली के खाने-पीने, रहन-सहन, दवा-दारू और टोली का फाइनेंस सम्भालना होता है। उसके अलावा बाकी हर कोई हाड-तोड़ काम करता है। हुआ यूँ कि उस साल हमारे यहां आई टोली में दो बन्दे ऐसे थे जो जब मर्जी आये काम करें और जब मर्जी आये बैठ जाएँ। उनके अलावा कोई बैठे तो ठेकेदार उसको हड़का के लेवे परन्तु उन दोनों को कुछ ना कहवे। मैंने यह देख ठेकेदार को कहा कि यह दो तुम्हारे रिश्तेदार हैं क्या जो इनको कुछ नहीं कहते? तो ठेकेदार बोला कि नहीं भैया जी असल में यह दोनों हमारे गाँव के ठाकुर और बाह्मन लोग हैं। अहम के कारण अपने खुद के खेतों में तो काम करते नहीं, इसलिए चोरी-छुपे यहां आ के मजदूरी कर रहे हैं। और हम ठहरे दलित और यह ठाकुर-बाह्मन, इनको अभी कुछ कहेंगे तो फिर वापिस गाँव में जाने पे हमारी खैर नहीं। मैंने विषयमित होते हुए पूछा चोरी-छुपे? वो बोला जी भैया जी, उन्हां बोल के आये हैं कि हम पिकनिक पे जा रहे हैं| मैंने ओहके टाइप फील करते हुए आगे पूछा कि क्या इनको पूरी दिहाड़ी दोगे? तो बोले नाहीं भैया जी, सबका घंटा नोट करत हूँ, जो दिन में जित्तो घंटा खटेगा उका उत्ता मजूरी; पर अगर बाकी को ना हड़काऊं तो काम कैसे पूरा होगा। मैंने कहा ओके ठीक है। उस दिन मुझे समझ आया कि उपजाऊ जमीन और नदियों की भरमार के बावजूद भी यह लोग यहाँ तक क्यों दौड़े आते हैं और शायद यही झूठे अहम के कारण बिहार आज भी पिछड़ा हुआ है।

अब इस मूलभूत फिलोसोफी के अंतर की वजह से समस्या यह आ रही है कि पूर्वोत्तर से खापलैंड पे आ के बसने वाला बुद्धिजीवी और लेखक वर्ग खापलैंड के कृषि मॉडल को भी उसी तरीके से सोचता है, उसी चश्मे से खापलैंड के किसान और मजदूर के रिश्ते को देखता है जैसा उसके वहाँ है| और बजाय खापलैंड की फिलॉसफी को समझे अपने वाली के चश्मे से लिखके किताबें और आर्टिकल पाथता है और मीडिया को उसी परिपाटी का मटेरियल सौंपता है, जिससे विशाल हरयाणा यानी तमाम खापलैंड की साख दिनों-दिन गिरते-गिरते इतनी गिर चुकी है कि इन लोगों की कही ही हरयाणा की तस्वीर मानी जाने लगी है ऐसा प्रतीत होने लगा है|

इसकी दूसरी वजह यह भी है कि पूर्वोत्तर से मध्यमवर्गीय इतना नहीं आ रहा जितना या तो बिलकुल मजदूर वर्ग का आ रहा है या गोलमेजों पर बुद्धिजीविता के बखान करने वाला कलम वाला आ रहा है। और इनमें से यह कलम वाला यहां क्या गुल खिला रहा है उसका नतीजा हरयाणा पर बनाये जा रहे आइडेंटिटी क्राइसिस के रूप में साफ़ महसूस किया जा सकता है। और यही आहट मेरी नींद उड़ाए हुए है।

वैसे सच कहूँ तो 1947 से ही हरयाणवियों ने ना ही तो अपनी शुद्ध संस्कृति जी के देखी है और ना ही इसकी डॉक्यूमेंटेशन पर इतना ध्यान दे पाये हैं। वजह साफ़ है कभी देश के बंटवारे के कारण से 1947 में आये शरणार्थी को अपने में समाहित करने में, तो कभी फिर पंजाब में आतंकवाद के चलते दूसरी बार फिर उसी शरणार्थी वर्ग के पंजाब वाले हिस्से को 1984-86 में अपने यहां समाहित करने में, तो अब पूर्वोत्तर से आ रहे को समाहित करते-करते हरयाणवी अपनी पहचान लुप्तराय सी बना बैठे हैं। शरणार्थियों को इसके सहयोग का आउटपुट भी हरयाणवी संस्कृति और मानुष की गिरती साख के रूप में नकारात्मक आया है| क्योंकि इन शरणार्थी समुदायों की सोच में शरणार्थी को अपने में समाहित करने की हरयाणवी की दरियादिली को उसकी कंधे से ऊपर की कमजोरी के रूप में लिया जा रहा है। जैसे ही यह लोग हरयाणवियों के बनाये इंफ्रा और समायोजन से समर्थ हो जाते हैं यह हरयाणवी संस्कृति को नकारात्मक तरीके से दूर हटाते जाते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे हरयाणा के पुरखों ने इनका क्या सहयोग किया उसको याद ही नहीं रखना चाहते हों। शायद महाराष्ट्रीयों की भांति हरयाणवियों ने कभी क्षेत्रवाद-जातिवाद-भाषावाद को नहीं छुआ, इसलिए। ख़ुशी-ख़ुशी अपने रोजगार और संसाधन बंटवाए परन्तु हाथ लगता दिख रहा है तो सिर्फ इनका बेगैरतपना|

पूर्वोत्तर के शरणार्थियों के आने से पहले खापलैंड का हर गाँव, गाँव नहीं अपितु नगरी बोला जाता था क्योंकि हर गाँव अपनी जरूरतें पूरी करने में स्वसमर्थ था। गाँव का कांसेप्ट तो पूर्वोत्तर वालों के यहां आने के बाद इधर आया है, वरना हमारे यहां अधिकतर या तो नगर होते आये हैं या नगरी। और यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वैसे तो आज भी, परन्तु एक दशक पहले तक तो पक्के से खापलैंड के हर गाँव में जब भी कोई बड़ा फंक्शन होता था तो उसमें सबसे बड़ा जयकारा उस नगरी और उस नगरी के खेड़े का लगता रहा है। जैसे मेरे गाँव का नाम निडाना है तो जयकारा लगता था "जय निडाना नगरी", "जय नगर/दादा खेड़ा या जय बड़ा बीर"। लेकिन हमने इसमें किसी की "जय माता दी" तो किसी की "काली कलकत्ते वाली” तक साफगोई से बेझिझक शामिल कर ली, परन्तु इसमें हमारी सहिषुणता और निष्पक्षता देखने की बजाये, यह लोग हमें ही कंधों से ऊपर कमजोर बताने लगे हैं वो भी बावजूद सीएम तक की कुर्सी पर इनको हंसी-हंसी स्वीकार करने के। यह इस अति भलाई का ही फल है कि हम नगरी से गिर के गाँव बन चुके हैं। अब इन पर ध्यान देने की बजाय खुद को सम्भालना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब हम गाँव से भी गिर के इनके यहां की "बस्ती" या "झुग्गी-झोंपड़ी" मॉडल में सिकुड़ जावेंगे।

सबसे पहले इन पर से अपना ध्यान हटावें और खापलैंड के ट्रेडिशनल इकनोमिक मॉडल को फिर से बहाल करने पे लगावें। इसके लिए सबसे जरूरी है कि:

1) हर हरयाणवी को यह बात अच्छे से पता हो कि पूर्वोत्तर में जिन बौद्धिक और आध्यात्मिक विचारों पर गोलमेज डिस्कशन भर होते हैं, उनपे हरयाणा और खापलैंड सदियों-सदियों से प्रैक्टिकल करता आया है। अत: हमें इनकी थ्योरियों में नहीं घुसना, अपितु अपनी प्रक्टिकल्स को डॉक्यूमेंट करना है।

2) प्राचीन समय से खापलैंड का हर गाँव एक "स्वतंत्र इकनोमिक मॉडल" होता आया है। हमें इस मॉडल को आज के अनुसार फिट बना के अपने यहां के हर गाँव में उतारना होगा।

3) मोदी जैसे नेता जब यह कहें कि पश्चिमोत्तर भारत के गाँव तो बहुत अग्रणी हैं, यहां का इंफ्रा बहुत मजबूत है इसलिए पैसा भारत के अन्य हिस्सों में ले जाने की जरूरत है तो कहा जाए कि जनाब हमें नगरी से गाँव नहीं नगर बनना है। देश के बाकी हिस्से को जो पैसा देना है दो, परन्तु हमें इतंजार क्यों? क्या जब तक वो झुग्गी-झोंपड़ी-बस्ती से गाँव और गाँव से नगरी बनेंगे तब तक हम इतंजार करेंगे? बिलकुल नहीं, ऐसे तो हम ही नगरी से गाँव और गाँव से झुग्गी-झोंपड़ी बन जाएंगे। हमें हमारा हिस्सा लगातार मिलना चाहिए ताकि हम नगरी से गाँव बनते जा रहे, वापिस नगरी और फिर उससे नगर बनें। अब हमें हमारे हर गाँव में शहर की भांति सीवरेज का इंफ्रा चाहिए।

4) धर्म-पाखंड के दिन-प्रतिदिन चादर से बाहर पसरते जा रहे पांवों को चादर में समेटना होगा और मंडी-फंडी के अधिनायकवाद से बाहर निकल शुद्ध खाप सोशल थ्योरी के सोशल इन्जिनीरिंग मॉडल पे वर्कआउट करना होगा। ताकि गाँव-नगरियों में किसान इतनी सूझ-बूझ बना सकें कि अपने गाँव के खाद्दान और फल-सब्जी की जरूरतें अपने ही गाँव से पूरी कर सकें। आखिर क्या नहीं है हमारे पास। हमारे पुरखों द्वारा हाड-तोड़ मेहनत से तैयार किये समतल खेत, सिंचाई के साधन और तमाम तरह का मित्र कलाइमेट। गाँवों को खुद को फिर से स्वतंत्र अर्थव्यवस्था घोषित कर आपस में आयत-निर्यात शुरू करना होगा।

5) किसानों को यह समझना होगा कि अगर आप एक दूसरे की जरूरत पूर्ती का जरिया नहीं बने तो फिर आपकी जरूरतें वो पूरी करेंगे जो आपसे आपकी फसल भी लेंगे और दाम भी मनमर्जी के देंगे।

6) एक ऐसे मॉडल के तहत जिसमें एक गाँव में हर प्रकार की जरूरत पूरी हो ऐसी लघु मार्किट (इकोनॉमी सेंटर) खड़ी करनी होंगी।

बिंदु और भी बहुत हैं, परन्तु फ़िलहाल इतना ही कहना है कि हरयाणा वालो जाट बनाम नॉन-जाट के कौतुक से बाहर निकल के इस हरयाणवी माँ की भी सुध ले लो| शरणार्थी यहां सिर्फ पैसा कमाता है, हद मार के वापिस अपनी ही संस्कृति में घुस जाता है। तुम्हारी तीज – सांझी – अहोई – संक्रांत - मेख(बैशाखी) - सीली सात्तम - हरयाणा शहीदी दिवस - बसंत पंचमी आदि ना कोई "जय माता दी" वाला मनाएगा और ना ही कोई "छट पूजा" या "काली कलकत्ते वाली" वाला| यह तो तुमको ही मनानी होंगी। इससे यह भी समझना होगा कि यह लोग तुम्हारी ही धरती पे आकर अपने त्यौहार तक मनाने लग जाते हैं परन्तु तुम्हारों में कभी नहीं घुलते-मिलते फिर तुम बेशक चाहे कितने ही इनके चौकी-चुबारे सर पे धरे बौराये फिरो।

विशेष: मैं उस धरती और सभ्यता का सपूत हूँ जो क्षेत्रवाद-जातिवाद-धर्मवाद-भाषावाद पर ना ही तो लड़ना सिखाती और ना ही उलझना, इसलिए इस लेख को कोई भी इस तरीके से ना लेवे कि यह मैंने क्या कह दिया। कहीं कोई ठाकरे/पेशवा तो नहीं हरयाणा पर उतर आया, बिलकुल भी नहीं क्योंकि हम मरहमपट्टी/फर्स्ट-ऐड (पानीपत की तीसरी लड़ाई) करने वाले लोग हैं, इसलिए हम इनकी तरह उत्तरी भारतियों की पिटाई वाले रंडी-रोणों में यकीन नहीं किया करते। परन्तु इससे भी आगे नरम और सीधा बने रह के कटना नहीं है हमें, क्योंकि सीधे पेड़ ही सबसे पहले काटे जाया करते हैं। और यकीन मानिए हरयाणवी काटे जा रहे हैं। आशा करता हूँ कि इस लेख को हर कोई सिर्फ इस मंशा लेगा कि हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत को कैसे बचाना है, उस बारे इसमें लिखा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 18 November 2015

आरएसएस और बीजेपी, 'जाट-समाज' 'हिन्दू-धर्म' का 'चार्ली-हेब्दो' है इससे नफरत मत करो!

'चार्ली-हेब्दो' पेरिस-फ्रांस से निकलने वाली ऐसी मैगज़ीन है जो पॉप से ले के पैगंबर मुहम्मद तक पर व्यंग्य कसती है। यह कोई पचास-सौ लोगों का समूह है।

पेरिस में हाल ही में हुए आतंकी हमले में इस मैगज़ीन द्वारा पैगंबर मुहम्मद का एक व्यंग्यात्मक कार्टून मुख्य वजह बताया जा रहा है।

एक ऐसा ही समूह भारत में भी है जिसको 'जाट-समाज' बोलते हैं जो हिन्दू धर्म में पैदा होने वाले ढोंग-पाखंड की आलोचना करने में सदियों से अग्रणी रहा है। परन्तु विडंबना देखो कि भारत के जो लोग 'चार्ली-हेब्दो' की प्रशंसा करते हैं, वो भारत में जाट-समाज के खिलाफ होते हैं। जाट की इस 'चार्ली-हेब्दो' गट की वजह से वो जाट को अधार्मिक और एंटी-ब्राह्मण तक ठहराने लग जाते हैं।

आरएसएस और बीजेपी, यह दोहरे मापदंड मत अपनाओ और भारत के इस 'चार्ली-हेब्दो' समूह को गले लगाओ। याद रखना जाट ना रहे तो तुम्हें कोई नहीं बता पायेगा कि वाकई में धर्म की राह पर चलते हो या ढोंग-पाखंड की राह पर।

मैंने जिंदगी में महसूस किया है कि जो समाज में वाकई में धर्म और मानवता का पक्षधर है वो जाट से जुड़ के चलता है परन्तु धर्म के नाम पर पाखंड और ढोंग कर जिसको सत्ता और पैसा बटोरना है वो जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीति करते हैं।

इसलिए अंधभक्त बने जाट भी अपनी कौम की ख़ूबसूरती के इस नायाब गट को समझें और खूबसूरत बने रहें। और धर्म में घुसे ढोंग-पाखंड की पोल खोलने में यह ना सोचें कि आप अधार्मिक हो गए या धर्म के गद्दार हो गए।
सनद रहे कि जैसे घर से कूड़े की सफाई जरूरी होती है उसी तरह धर्म को साफ़-सुथरा रखने के लिए इसके अंदर छुपे ढोंग-पाखंड के कूड़े को झाड़ना जाट का फर्ज होता है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 17 November 2015

धर्मभक्त और देशभक्त बिलकुल भिन्न परिभाषाएं हैं!

धर्मभक्त और देशभक्त में कंफ्यूज ना हों, दोनों एक दम भिन्न परिभाषाएं हैं, आपस में दूर-दूर तक कोई कनेक्शन नहीं| भिन्न-भिन्न धर्म के लोग एक ही देश में रहते हुए देश के लिए देशभक्त हो सकते हैं, परन्तु सभी देशभक्त किसी एक धर्म के धर्मभक्त हों यह कदापि सम्भव नहीं|

ऐसे धर्म के लिए भक्ति करने वाले ही देशभक्त कहलाने लगे तो फिर फौजी और किसान कहाँ जायेंगे? फौजी सीमा पर खड़ा हो देश के अंदर के हर धर्म को मानने वाले के लिए गोली खाता है और किसान हर धर्म को मानने वाले के लिए अन्न पैदा करता है| जबकि धर्मभक्त सिर्फ अपने धर्म के लिए जीता-मरता है, देश के लिए नहीं|

अत: इन छद्द्म राष्ट्रभक्तों की मनमर्जी की बनाई परिभाषाओं को बिना विवेचना और विवेक के स्वीकार करने से बचना चाहिए वरना एक दिन भाषा के शब्दकोश की खिचड़ी बना के धर देंगे यह लोग|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

भारत में बढ़ती सब्जियों के दामों और बढ़ती जमाखोरी की यह है असली वजह!

मोदी की रैली में अधिकतर मेरे जैसे कॉर्पोरेट वर्ल्ड में काम करने वाले एम्प्लोयी थे, जिनमें अधिकतर को ठीक उसी तरीके से रैली में हाजिर होने के आदेश दिए गए थे जैसे भारत में जब कोई रैली हो तो प्राइवेट स्कूलों की बसों को जबरन आदेश होते हैं कि उस दिन वो रैली की भीड़ ढोयेंगी और सरकारी कर्मचारी सपरिवार-जानकार रैली में उपस्थित होंगे|

रयूटर न्यूज़ एजेंसी के अनुसार इस रैली पर 2.5 मिलियन पाउंड्स यानी 250 करोड़ रूपये खर्च हुए, जो कि कॉर्पोरेट घरानों ने प्रायोजित किये थे| इससे साफ़ है कि यह कार्यक्रम स्थानीय ब्रिटिश नागरिकों या सरकार द्वारा प्रायोजित नहीं था| यह भारतीय कॉर्पोरेट की रैली थी, जिसकी 6 महीने पहले से तैयारी की गई थी|

और इन प्रायोजित रैलियों के लिए कॉर्पोरेट को पैसा चाहिए, जो कभी प्याज, कभी दाल, कभी टमाटर महंगे बेच-बेच के तो कभी अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की आधी कीमत होने पर भी उसको अपने यहां महंगा बेच-बेच के आम भारतीय की जेबों से ही वसूला जा रहा है| इसीलिए सटोरियों, जमाखोरों को मनचाहा अवैध भण्डारण करने की छूट से ले के, हर प्रकार के कॉर्पोरेट कर्जे से मुक्ति मिली हुई है|

और यहीं तक सिमित है इनके अच्छे दिन की परिभाषा! कोई भगत या अंधभक्त इस कड़वी सच्चाई को पढ़ के सुलगे तो सौ बार सुलगे| - फूल मलिक

Monday, 16 November 2015

ताकि आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैलेंस बना रहे!

1) क्यों व्यापार और धर्मदार का कार्य आदरमान से देखा जाता है?
2) क्यों व्यापार और धर्मदार की बुनियादों को हिलाना इतना आसान नहीं होता?
3) क्यों किसान अपने कार्य का सम्मान कायम नहीं रख पाता?
4) क्यों किसान धर्म-व्यापार और मजदूर (दिहाड़ी/नौकरी/बंधुआ) की भांति अपनी मेहनत का न्यूनतम सुरक्षित नहीं रख पाता?
5) क्यों किसान की मेहनत बीच चौराहे लावारिस पड़ी किसी वस्तु की भांति होती है?

जब से यह दुनिया बनी है तब से इस जगत में धन कमाने की 4 मुख्य धाराएं रही हैं, एक धर्म, दो व्यापार, तीन खेती और चौथा मजदूरी (दिहाड़ी/नौकरी/बंधुआ)। ऊपर उठाये सवालों के जवाब समझने के लिए जरूरी है कि इनके कुछ पहलुओं को समझें:

1) धर्म-व्यापार-मजदूरी तीनों अपनी मेहनत खुद तय करते आये हैं सिवाय मजदूरी की एक प्रकार बंधुआ को छोड़ के| आधुनिक काल में बंधुआ तो कम होती जा रही है परन्तु भारतीय खेती में इसका अभी कोई अंत नजर नहीं आता|
2) धर्म-व्यापार-मजदूरी, खेती के परजीवी हैं| इनकी आमदन मुद्रा में चाहे कितनी भी हो अंत में उसका प्रथम और मुख्या हिस्सा होता खेती से कपड़ा और अन्न (रॉ और प्रोसेस्ड मटेरियल दोनों) खरीदने हेतु ही है|
3) इंसान की मूलभूत सुविधाओं रोटी-कपडा और मकान में से धर्म-व्यापार-मजदूरी सिर्फ मकान बिना किसान की मदद के बना सकते हैं जबकि रोटी-कपड़ा के लिए इनको किसान का मुंह ताकना ही पड़ता है| हालाँकि किसान मकान भी बिना इनकी मदद के बना सकता है|
4) इन आमदनी कमाने की चारों धाराओं की सर्विसों में धर्म ही एक इकलौती ऐसी सर्विस है जो बिना गारंटी एवं वारंटी के होती है| अन्यथा व्यापारी का प्रोडक्ट हो तो वो आपको रिटर्न की गारंटी देता है, किसान का प्रोडक्ट 'अन्न' आपको पेट की भूख शांत होने की गारंटी देता है, मजदूरी की मजदूरी आपके पैसे के ऐवज के काम की गारंटी देती है|

मतलब कुल मिला के देखा जाये तो व्यवहारिकता और उपयोगिता के हिसाब से किसान का कार्यक्षेत्र और महत्व इन बाकी तीनों से सर्वोत्तम और पवित्र है| तो फिर ऐसा क्या है जिसकी वजह से भारतीय किसान इन बाकी तीनों में और खुद में भी:

1) अपने कार्य के प्रति सार्वजनिक व् सार्वभौमिक सम्मान नहीं बना पाता या इनके बीच हासिल नहीं कर पाता?
2) समाज के लिए इतना महत्वरूपर्ण किरदार और फर्ज अदा करने पर भी इनके स्तर तक का अपना गुणगान नहीं करा पाता या करवा पाता?
3) इतना महत्वरूपर्ण किरदार और फर्ज अदा करने पर भी लाचार, असहाय और बेबस रह जाता है?
4) अपने उत्पाद के प्रति इनकी तरह रक्षात्मक रवैया नहीं बना पाता?

धर्म वाला धर्म के साथ-साथ धर्मस्थल का भी मालिक होता है, व्यापार वाला व्यापार के साथ व्यापार-स्थल का भी मालिक होता है, खेती वाला खेत के साथ-साथ खेती का भी मालिक होता है परन्तु हकीकत में है नहीं क्योंकि उसका भाव कोई और निर्धारित करता है| हालाँकि मजदूर सिर्फ दिहाड़ी का हकदारी होता है|

सुना है फ़्रांसिसी क्रांति में औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ किसानी के इन पहलुओं को लेकर भी क्रन्तिकारी लड़ाई हुई थी| एक जमाना था जब फ्रांस में धर्म और व्यापार मिलकर किसान को ठीक इसी तरह खाए जा रहे थे जैसे आज भारत में खा रहे हैं| परन्तु जब इनकी लूट-खसोट और मनमानी की इंतहा हो गई थी तो फ्रांस का किसान उठ खड़ा हुआ था और ऐसा उठ खड़ा हुआ था कि धर्म को तो हमेशा के लिए चर्चों के अंदर तक सिमित रहने का समझौता तो धर्म के साथ किया ही किया और व्यापार को भी यह समझा दिया गया कि अगर हमारे उत्पाद और मेहनत का जायज दाम हमें नहीं मिला तो तुम्हारी गतिविधियों पर ताले जड़ दिए जायेंगे|

और इसीलिए आज फ्रांस विश्व में जितना धर्म-व्यापार और मजदूरी को लेकर संवेदनशील जाना जाता है उतना ही संवेदनशील कृषि और इसके कृषकों को लेकर जाना जाता है| यहां किसान इतने ताकतवर हैं कि जरूरत पड़े तो व्यापारियों के बड़े-से-बड़े शॉपिंग मॉल में भी जानवर बाँधने से नहीं कतराते| और ना ही सरकार किसान के इस गुस्से पर कोई कार्यवाही करती अपितु जब-जब फ़्रांसिसी किसान की तरफ से ऐसा गुस्सा आता है तो वो समझ जाती है कि किसान का बेस मूल्य रिसेट करने का टाइम और इशारा आ गया है|

अब भारत को भी एक फ़्रांसिसी क्रांति की दरकार आन पड़ी है| धर्म इतना दम्भी हो चुका है कि वो इस तरह जताने लगा है कि जैसे देश का पेट भी किसान नहीं वो ही भर रहा हो| व्यापार इतना घमंडी होता जा रहा है कि किसान को उसकी मेहनत की लागत तक नहीं छोड़ना चाहता, खेती में फायदा होना शब्द तो जैसे गायब ही हो चला है| निसंदेह किसान को यह समझना होगा कि:

1) माँ नौ महीने बच्चे को पेट में पाल के, एक दम से पेट से निकाल के ही समाज को नहीं सौंप दिया करती, वो उसको बड़ा करने में भी वक्त और मेहनत लगाती है| ऐसे ही किसान समझें इस बात को कि उनका खेत उनके लिए माँ का पेट है और उस खेत से पक के निकलने वाली उपज उनका नवजात शिशु और नवजात शिशु को मंडी को तुरंत ही नहीं सौंपा जाया करता| पहले आपस में बैठ के अपने उत्पाद की लागत और मजदूरी खुद धरो, उसपे अपना बचत का मार्जिन धरो और फिर इनको दो| ऐसा करते हुए किसान को घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि परजीवी आप नहीं, धर्म-व्यापार और मजदूर हैं| कितना ही माथा पटक लेवें हार फिर के आवेंगे आपके ही पास| इसलिए इस पहलु को ले के किसान को संजीदा होना होगा|
2) पंडित फेरे करवाता है तो 500-1000 न्यूनतम लेता है, झाड़-फूंक-पूछा वाला 100 से 1000 तक की पत्ती आपसे पहले रखवा लेता है, मंदिर में कम रूपये चढ़ाओ और पुजारी की नजर पड़ जाए तो मुंह सिकोड़ने लगता है, कई मंदिरों में तो न्यूनतम 100-200 से नीचे दिया तो पर्ची भी नहीं मिलती यानी वो आपके दान से खुश नहीं हुए| इनके द्वारा आपको दी गई भाषा में दान परन्तु इनकी खुद की भाषा में वो इनका सर्विस चार्ज होता है|
3) व्यापारी का तो सीधा सा सटीक फार्मूला है, 'कॉस्ट ऑफ़ प्रोडक्शन + प्रॉफिट मार्जिन = विक्रय मूल्य
4) मजदूर की दिहाड़ी, नौकर की नौकरी का न्यूनतम निर्धारित करने के लिए भी विभिन्न मजदूर संगठन तो रहते ही रहते हैं, जहां यह नहीं हैं वहाँ भी यह लोग अपनी न्यूनतम दिहाड़ी पहले सुनिश्चित करते हैं उसके बाद काम पर जाते हैं|
5) तो दिखती सी बात है धर्म हो, व्यापार हो या मजदूर, जब यह तीनों अपनी मेहनत की दिहाड़ी के न्यूनतम को ले के इतने संजीदा और सचेत हैं तो फिर किसान क्यों यह हक अपने पास नहीं रखता? इस पहलु पर आज के भारतीय किसान को कालजयी आंदोलन छेड़ना होगा|
6) मंदिर में आप पुजारी से हर वक्त नहीं मिल सकते, व्यापारी से आप हर वक्त तो क्या कई बार अपॉइंटमेंट ले के भी नहीं मिल सकते, मजदूर/नौकर से भी आपको अपॉइंटमेंट लेनी होती है, परन्तु यह तीनों ही जब चाहें किसान को डिस्टर्ब कर सकते हैं? यह क्या तुक हुआ? निसंदेह फ्रांस की तरह इनको भी चर्चों के अंदर तक सिमित करना होगा, गलियों-घरों में वक्त-बेवक्त किसान की प्राइवेसी डिस्टर्ब करने के इनके हठ को लगाम लगानी होगी| यानि इतना प्रोफेशनलिज्म एटीच्यूड किसान को भी लाना होगा|
7) धर्माधीस का बेटा/बेटी धर्म छोड़ के व्यापार में घुसता है तो कभी धर्म की बुराई ना तो वो खुद करता, ना उसके माँ-बाप करते| व्यापारी का बेटा/बेटी जब मजदूर या नौकर बने तो वो भी कभी व्यापार की बुराई नहीं करते, ना वो बच्चा करता| तो फिर जब किसान के बच्चे को अपना कार्यक्षेत्र बदलना होता है तो किसान क्यों उसको किसानी के सिर्फ दुःख दिखा के ही प्रेरित करता है कि यहां बहुत दुःख हैं, यह कार्य बड़ा तुच्छ है इसलिए इसको छोड़ के नौकरी पे चढ़ो या व्यापार करो| किसान को अपने बच्चों को अपना पुश्तैनी कार्यक्षेत्र छोड़ने के ऐसे प्रेरणास्त्रोत देने होंगे जिससे कि किसानी का स्वाभिमान भी उनमें कायम रहे और वो कार्यक्षेत्र भी बदल लेवें| यह इतना गंभीर और बड़ा कारण है कि गाँवों से शहरों को गए किसानों के 90% बच्चे वापिस मुड़कर गाँव और अपनी जड़ों की तरफ देखते ही नहीं हैं| कार्यक्षेत्र बदलते या बदलवाते वक्त उनमें अपने पुश्तैनी कार्य के स्वाभिमान को छोड़ा हो तो मुड़ेंगे ना?
8) और यह लोग नहीं मुड़ रहे इसीलिए किसानी सभ्यता, संस्कृति और हेरिटेज पीढ़ी-दर-पीढ़ी दम तोड़ता जाता है| और यह स्थाई ना रहे, इसी से धर्म और व्यापार का अँधा-मनचाहा और यहां तक अवैध रोजगार चलता है| इसलिए इन चीजों को ले के किसान संजीदा हो, वर्ना आप सभ्यता बनाते जायेंगे, धर्म और व्यापार उसको मिटाते जायेंगे और जायेंगे और जायेंगे और आपपे हावी बने रहेंगे|

इस लेख के अंत के सार में लिखने को कोई एक लाइन नहीं बन रही, बस जो बन रहा है वो यह ऊपर लिखा एक-दूसरे से गुंथा पहलुओं का झुरमुट| किसी भी सिरे से पकड़ लो, इसको संभालने पर चलोगे तो बाकी अपने आप सम्भलते जावेंगे और दरकिनार करोगे तो बाकी के भी दरकिनार हो बिखर जावेंगे| और इसी बिखराव को समेटने हेतु लाजिमी है कि किसान भी धर्म, व्यापारी और मजदूर की तरह प्रोफेशनल हो और फ़्रांसिसी क्रांति जैसी एक लड़ाई को तैयार हो, ताकि इन आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैलेंस बना रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

9 अप्रैल 1944 को चौधरी छोटूराम ने जाट महासभा के लायलपुर अधिवेशन मे!

9 अप्रैल 1944 को चौधरी छोटूराम ने जाट महासभा के लायलपुर अधिवेशन मे इन धर्मों के ठेकेदारों इन शहरी लोगो के इस खेल पर जो आज भी ज्यों का त्यों चल रहा हैं बोलते हुए कहा था :

" हमारी जाट कौम गहरी नींद मे थी , उन्नति प्राप्त वर्ग खास तौर पर शहरी शिक्षित वर्ग और व्यापारी वर्ग हमारे अधिकारों को चट कर जाते थे | जब उन्होने देखा कि जाट संगठित हो रहे हैं और अपने अधिकारों पर दावा जताने लगे हैं तो ये शहरी बेचैन हो उठे ! उन ने सोचा धार्मिक मुद्दे सहायक हो सकते हैं | वे जाटों को मूर्ख और असभ्य मानते रहे थे ; वे जाटों कि सादगी और अज्ञानता का मज़ाक उड़ाते रहे थे ; जाटों कि साफ़गोई को उन में सभ्यता और संस्कृति का आभाव माना जाता था | ये शहरी लोग अब भोले-भाले गूंगे-बहरे अशिक्षित गरीब जाटों के जाग जाने के कारण दुखी हैं , चिन्तित हैं ; और उन लोगो ने इन्हे नींद मे बनाए रखने के लिए षड्यंत्र रचा हैं ; इन के साथ भेड़-बकरियों कि तरह बर्ताव करते रहने और इन कि जुंबानों और दिमागों को धर्म की नशीली खुराक दे कर बंद कर देने का षड्यंत्र रचा हैं , वे डरे हुए हैं कि जाट यदि जाग गए तो उन मे बदले कि भावना आ सकती हैं..... वे हमारी कष्ट कमाई पर डाका डालने कि योजनाए बना रहे हैं .... वे हम पर दोषारोपण कर के और अपने पापो और कुकृत्यों पर पर्दा डालने कि कोशिश करते हैं ; वे बहुत चालाक बनने की कोशिश करते हैं ; जैसे की वे हमारे भाग्य विधाता हों, हमारे जीवन-दाता हों और हमारे भविष्य के निर्माता हो ! वे हमारी उन्नति को पचा नहीं पा रहे हैं ... हमारी जागृति को वे अपनी मौत का संकेत मान रहे हैं ; भगवान का मुखौटा लगाए हुए ये शैतान बेचैन हैं ....... "

हम आधुनिक और विकसित विश्व के साथ चल रहे हैं या उसके उल्टा बह रहे हैं?

आस्ट्रेलिया में एक नया कानून बनाया गया है जिसके अनुसार स्कूलों में धर्म की पढ़ाई को पूरी तरह से रोका जा रहा है, अगर स्कूलों में कोई धर्म पढ़ाते हुए मिलेगा/मिलेगी तो उन्हें जेल भेजा जाएगा| ब्रिटेन में स्कूलों में धार्मिक प्रार्थनाएं बन्द करने पर विचार किया जा रहा है। अमेरिका और फ्रांस में पहले से ही स्कूलों में हर प्रकार की धार्मिक शिक्षा बंद है|

और अपने यहाँ भारत में इन चीजों को कहीं पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है तो कहीं इसकी मांग उठ रही हैं। फिर भी कौन कहता है कि हम विकसित व् आधुनिक विश्व से ताल-पे-ताल मिला के चल रहे हैं| इससे तो लगता है कि हम विकसित विश्व के उल्टा जा रहे हैं|

फूल मलिक

जाति-कौम का प्यार, स्वाभिमान, अभिमान और उसकी प्रकाष्ठा!

अपने आपको यदाकदा जाट जाति से होने पर, उसपे अभिमान होने पर इतराने वाले नादान जाट उस दिन खुद को जाति-प्रेमी या स्वाभिमानी कहना जिस दिन ब्राह्मणों की तरह देश की कोर्ट द्वारा देशद्रोही साबित होने पर फांसी तोड़ दिए जाने वाले नत्थूराम गोडसे की तरह अपनी कौम के अपराधी लोगों को भी राष्ट्रभक्त बना के पेश करना सीख जाओ।

अब कोई जाट मुझे यह मत बोलना कि देशद्रोही हमारे लिए देशद्रोही है फिर वो चाहे जिस कौम का हो। यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि बहुत से अंधभक्त जाट भी बने हुए हैं और देश की कोर्ट में साबित हो के कबके फांसी तोड़े दिए जा चुके देश के अपराधी को देशभक्त ठहराने वालों के साथ लगे हुए हैं।

फिर अगर ऐसी ही बात है तो देश की तमाम पुरानी रियासतों और उनके राजाओं को भी अंग्रेजों का साथ देने की शिकायत से मुक्त कर दिया जाना चाहिए, और उनका आदर-मान वापिस स्थापित किया जाना चाहिए, नहीं?

विशेष: कोई ब्राह्मण भाई मेरी इस पोस्ट को अन्यथा ना लेवे, क्योंकि मैं आपके अंदर कौम के प्रति अभिमान और प्रतिष्ठा का जो अनूठा जज्बा है उसका उदाहरण जाट समाज के समक्ष रख रहा हूँ।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 15 November 2015

Natthuram versus Yakub

जब कुछ लोग याकूब मेमन की funeral को attend कर रहे थे तो उसी वक्त कुछ अवसरवादी व तथाकथित देशभक्त लोग भोंक रहे थे कि इन लोगों को पाकिस्तान भेज दिया जाना चाहिए| इस पर उनका तर्क था कि इन लोगों को भारत की न्यायप्रणाली पर विश्वास नहीं है| यानि कि जिस आदमीं को हमारी न्याय-प्रणाली ने आतंकवादी करार देकर फांसी दे दी हो, उससे कैसी हमदर्दी? ........आदि-आदि!

पर पिछले दो-तीन दिन से वही लोग उसी नयाय-प्रणाली को मजाक बना नाथूराम गोंडसे को माँ भारती का पुत्र व देशभक्त कहते-गाते फिर रहे हैं| .........

क्या इन तथाकथित देशभक्तों के लिए किसी दूसरे देश (क्योंकि पाकिस्तान तो यह इनके उधर साइड वालों को भेजते हैं, तो खुद क्या जायेंगे वहाँ) के visa का प्रबंध भी है या नहीं .......... क्योंकि नत्थूराम गोडसे को भी हमारी न्यायप्रणाली ने ही देशद्रोही ठहराते हुए फांसी दी थी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गंगा गए गंगादास, जमुना गए जमुनादास!

शायद इसी को कहते हैं कि गंगा गए गंगादास, जमुना गए जमुनादास, ना गंगा मिली और ना रही जमुना की आस|

सत्ता में आते ही केंद्र से जाट आरक्षण रद्द किया, सिर्फ इसलिए कि इससे बिहार के यादव को यह कह के खुश कर लेंगे कि देखो जो तुम्हारी सबसे ज्यादा नौकरियां बँटवाते हमने उन जाटों को ओबीसी लिस्ट से बाहर कर दिया है| और ऐसे इनको यादव वोट मिल जाता| राव इंद्रजीत को वहाँ इसी बात को फैलाने के लिए ले जाने वाले थे, परन्तु राजनीति के "भाग़ड बिल्ले" लालू यादव के आगे इनकी एक ना चली| गंगा की आस सा यादव वोट भी गया और इधर जाट को रूष्ट करके उसके वापिस आने की जमुना रुपी आस खुद अपने ही हाथों खो ली|

सुगबुगाहट है कि बीजेपी और आरएसएस, हरयाणा को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाड़ा बना के अब पछता रहे हैं| परन्तु इसका यकीन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक राजकुमार सैनी और मनोहर लाल खट्टर जैसों के एंटी-जाट इरादों को यह पब्लिकली बंद नहीं करवाते|

सुनने में आ रहा है कि अब जाट लोस का डैमेज कंट्रोल करने के लिए नई कवर-अप स्ट्रेटेजी आने वाली है, जिसका टैग होगा कि बीजेपी और आरएसएस ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा+खत्री के साथ-साथ राजपूत और जाट को जनरल में रख के देश की सबसे सक्षम और बड़ी कौमों को एक रखना चाहती थी इसलिए जाट का आरक्षण रद्द करके उनको ओबीसी नहीं बनने दिया|

खैर जो भी होने वाला है फ़िलहाल जिस तरीके से हरयाणा में इनके नुमाइंदे दिन-प्रतिदिन जाट समाज पर जहर उगलने में मसगूल हैं, उससे नहीं लगता कि जल्दी ही इसपे कुछ एक्शन दिखेगा| जाटों की नाराजगी का आलम इतना बढ़ चूका है कि आरक्षण रद्द होने से जो नाराजगी पूरे भारत के जाट की बढ़ी थी उसमें इधर हरयाणा में इनके नुमाईन्दों द्वारा जाट बनाम नॉन-जाट के खड़े किये अखाड़े के चलते और इजाफा होता जा रहा है और इसको ले के पश्चिमी यूपी और पंजाब तक का जाट भी इनसे क्रुद्ध और उबलता देखा जा रहा है|

तो क्या ऐसे में पंजाब और यूपी के 2017 में आने वाले चुनावों के वक्त कुछ ऐसा ही सगूफा फेंका जाने वाला है जिसकी सुगबुगाहट सुनी गई है?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक नोबल पुरस्कार वीजेता पाकिस्तानी की सर छोटूराम को श्रद्धांजलि

'किसान - कल्याण - कोष ' के उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए यह कहा गया था के इस के मुख्य उद्देश्यों में से एक उद्देश्य देहात के योग्य छात्रों को उन की आगे की पढ़ाई में सहायता देना हैं | इस से लाभान्वित होने वालों में एक मुसलमान लड़का भी था , जो आगे जाकर विश्वभर के वैज्ञानिको में सर्व प्रसिद्ध हुआ | इस विषय का एक समाचार 14 अगस्त 1995 को पाकिस्तान के एक प्रमुख समाचार पत्र " दी डॉन " में छपा था | जो समाचार शब्दशः इस प्रकार हैं :-
 

" छोटूराम की बहुत बड़ी मदद "

अन्य बहुत से परोपकारी कार्यकर्मों के अतिरिक्त छोटूराम ने '' किसान - कल्याण - कोष " भी स्थापित किया था , जिस में से 25 रुपए या इस से कम मालिया देने वाले छोटे जमींदार के बच्चों को छात्रवृतियाँ दी जाती थी | लाभान्वित होने वालों में पाकिस्तान के ' नोबल पुरस्कार ' प्राप्त डॉ अब्दुस सलाम भी थे | उन के भाई अब्दुल हमीद ने ' दी डॉन ' मे लिखा : " इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि मेरा बड़ा भाई अब्दुस सलाम बुजुर्गों कि दुआओं और सर छोटूराम के किसान - कल्याण - कोष , जिस में से उसे कैम्बरिज विश्व विध्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु 550 रुपए माहवार वजीफा मिलता था , की वजह से इस सदी के दुनिया के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों की गिनती में आ पाया था और सन 1979 में भौतिकी में नोबल पुरस्कार प्राप्त कर पाया था | सन 1946 में 550 रुपए एक बहुत बड़ी राशि होती थी |
 

"सन 1946 में पंजाब यूनिवेर्सिटी से प्रथम दर्जे में स्नाकोत्तर परीक्षा पास करने के बाद डॉ अब्दुस सलाम आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता था | लेकिन पिताजी के पास उसे विदेश भेजने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे | पिताजी का नाम चौधरी मोहम्म्द हुसैन था जो मूलतान के ' सम्भागीय इंसपैक्टर ऑफ स्कूल्ज़ ' के कार्यालय में कार्यरत थे | उन्हे किसान-कल्याण-कोष , जिसका उपयोग नहीं हुआ था , की जानकारी थी | उन्होने छोटे जमींदार की हैसियत में अपने बेटे के लिए तीन वर्ष तक वजीफा दिये जाने के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया |
फिर अब्दुस सलाम सैंट जोन्स कॉलेज कैम्बरीज़ ( इंगलैंड , अक्टूबर 1946) में प्रविष्ट हो गया और 1948 में एप्लाइड मैथेमेटिक्स में मास्टरज डिग्री प्रथम दर्जे में सर्वप्रथम रह कर प्राप्त कर ली और प्रथम पाकिस्तानी रैंगलर बन गया | कहा जाता हैं कि सलाम ने मास्टर डिग्री दो वर्ष में ही कर ली थी , जबकि वजीफा तीन वर्ष के लिए था | अपने मैंटर की सलाह पर वह रुका रहा और एक और मास्टर डिग्री ले ली - इस बार भौतिकी में ! अंत में अब्दुस हमीद लिखता हैं ; " कठोर परिश्रम के कारण अब्दुस सलाम ने दो वर्ष का कोर्स एक वर्ष में ही पूरा कर लिया और सफल छात्रों की सूची में सब से ऊपर रहा | इसी से फिजिक्स में डोकटरेट और एलेमैंटरी के क्षेत्र में आगे खोज - जिस के लिए अंततः उसे नोबल पुरस्कार मिला - का मार्ग प्रशस्त हुआ | यदि सर छोटूराम ने ' किसान - कल्याण - कोष ' की स्थापना न की होती तो अब्दुस सलाम इतनी ऊंचाइयों तक कभी न पहुँच पता !

राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य, लोकराज लोकलाज से चलता है इसको ना भूलें!

जाटों को आरक्षण चाहिए तो जमीन छोड़ दो! - राजकुमार सैनी

आप माली समाज से आते हैं, जमीनें तो आपके भी पास हैं तो क्या आपने छोड़ दी जमीनें आरक्षण की ऐवज में? रोशनलाल आर्य के समाज के पास भी हैं जमीनें या उन्होंने छोड़ दी?

बाकी जमीनें किसी से जाटों ने खैरात में नहीं ली हैं, जब जाटलैंड एक जंगल हुआ करती थी तो हमारे पुरखों ने अथक परिश्रम से समतल बनाई थी|

वैसे राजकुमार सैनी आप एक बार यह क्यों नहीं कह देते कि व्यापारियों को कर्जा माफ़ी चाहिए तो वो फैक्टरियां छोड़ दें? या फंडियों को आदर-मान चाहिए तो दलित-पिछड़ों को नीच-अछूत कहना छोड़ दें? उनको मंदिरों-कुओं पे चढ़ने दे?

अरे बावले जिस जाट चौधरी छोटूराम की वजह से आज जमींदार कहलाता है कम से कम उसी की लाज रख ले| मंडी-फंडी के हाथों ऐसा भी क्या बिकना कि लोकलाज सब बेच खाई है|

रोशनलाल आर्य साथ ही यह भी बता देते कि जाट कब किस हिन्दू के डंडों से डरे? और किसके सहन करे? हमेशा पाखंड और मंडी-फंडी के विरुद्ध हमने नेतृत्व वाली लड़ाईयां लड़ी हैं और हमें ही डंडे से डराने की घुर्खी घालते हो?
मतलब कुछ भी क्या?

लगता है बेचारे बिहार की हार से बोखला गए हैं और बीजेपी और आरएसएस ने छोड़ दिए हैं जाटों पे भोंकने को खुल्ले| जाट समाज सावधान, सेंटर में बैठे लोग अब बिहार का गुस्सा इधर निकालना चाहते हैं और जाट समाज को दूसरे 1984 में धकेलना चाहते हैं| इससे अपना धैर्य और संयम मत खोना| अपनी ऊर्जा को अपनी कौम को सहेज के रखने में लगाना| हाँ, कानूनी तरीके से जो लड़ाई हो सके इनके खिलाफ वो लड़ना| ज्यादा जरूरत पड़े तो मंडी-फंडी से असहयोग शुरू कर लेना परन्तु इन दो नादानों की वजह से बाकी पिछड़ा समाज से बैर मत बांधना| क्योंकि देर-सवेर यह भटके हुए भी वापिस आएंगे|

इन दोनों जैसे लोगों के लिए बस इतना ही कहूँगा कि तुम लोग आरक्षण मिलने के बाद, नौकरियों से तुम्हारी आमदनी और रोजगार बेशक बढ़ गया हो परन्तु सोच से वहीँ के वहीँ खड़े हो, दोनों के दोनों आज भी पिछड़े ही पड़े हो| तुम जैसे लोगों को मंडी-फंडी पहले भी प्रयोग करता रहा है और आज भी हो रहे हो| और जब तक होते रहोगे तब तक पिछड़े ही कहलाओगे| किसान-कमेरे को साथ ले के चलने की कूबत सिर्फ जाटों में रही और रहेगी, वो तुम यह रवैया बदले बिना कभी हासिल नहीं कर सकते, चाहे जितने तो थोथे धान पिछोड़ लो और जितने बड़े बोल बोल लो|

फिर भी किसी पल लोकलाज आये तो अपने गिरेबान में झाँक के देख लेना कि इस मंडी-फंडी की दी हुई चिंगारी को जाटों पे फेंकते-फेंकते कहीं अपने ही हाथ ना जला बैठो|

विशेष: अंधभक्त बने जाट अब तो आँखें खोलेंगे या अब भी इन्हीं की पीपनी बनके डोलेंगे? निकल आओ इस धर्म के कीड़े से बाहर और कौम की सुध ले लो कुछ| कल को जाट समाज बाकी जाटों से ज्यादा तुमपे थू-थू करा करेगा, जो बीजेपी और आरएसएस में बैठ के भी ना तो इन लोगों के मुंह बंद करवा पा रहे और ना ही इनको छोड़ पा रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 14 November 2015

जाट उलाहना देने की आदत ना डालें, किसी को कोसने पर अपनी ऊर्जा व्यय ना करें!

कल यूँ ही विकिपीडिया पर जा के हरयाणा के पेज पर झाँकनेँ का मौका मिला| देश-राज्यों में जैसे सरकारें बदलते ही उनके रवैये भी बदल जाते हैं ऐसे ही विकिपीडिया पेज पर जब देखा तो करीब 30% जनसंख्या का हिस्सा रखने वाले, शहादत-शौर्य-खेती-खेल-बिज़नेस में 70% से 30% तक की पैठ रखने वाले जाट समाज का नगण्य जिक्र है| पिछली सरकार थी तो इस पेज पर सब कुछ भिन्न था, ऐसा लगता है यह सरकार आते ही ना सिर्फ धरातल पर जाट से भेदभाव हुआ अपितु विकिपीडिया को आदेश दिया गया कि हरयाणा के पेज से और खासकर इसके "इतिहास और ऐतिहासिक हीरो" सेक्शन से जाटों का नाम तो बिलकुल ही मिटा दो| और वही हुआ पड़ा है, गूगल पे जाएँ विकिपीडिया हरयाणा डाल के देखें और पढ़ें|

सोच में पड़ गया कि जब मुझे इसको पढ़के धक्का लगा तो आम जाट युवा इसको पढ़ेगा तो बिफरेगा| तो ऐसे में जो सबसे बढ़िया समझ आया वो यही कि हमें किसी को उलाहना नहीं देना, किसी को नहीं कोसना अपितु हमें अपनी कौम के भीतर इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन नेटवर्क को खुद ही मजबूत रखना होगा| वैसे भी भारत में पैदा हुए उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश मूल के नरवैज्ञानिक (anthropoligist) आर. सी. टेम्पल के अनुसार बाकी भारत में सिर्फ "मंडी-फंडी अधिनायकवाद थ्योरी" चलती आई है, रही है जबकि हरयाणा में इसको "जाटू सोशल थ्योरी" ने टक्कर दी है| तो ऐसे में यह तो अपना फर्ज निभाएंगे ही, जहाँ मौका मिलेगा वहाँ से जाटू थ्योरी और जाट को मिटायेंगे ही|

स्वाभाविक है कि जब जाट-खाप की सोच और थ्योरी मंडी-फंडी से भिन्न रही है तो मंडी-फंडी वर्ग के लेखक व् बुद्धिजीवी उतना ही और उसी हिसाब से जाट-खाप का इतिहास लिखे होंगे या लिखेंगे, जितने से इनको फायदा रहा होगा या हो| और विकिपीडिया का हरयाणा पेज यह साबित करता है कि यह लोग आज भी इसी पथ पर अग्रसर हैं|

और ऐसे में जब जाट-युवा पीढ़ी यह देखती है कि हमारे समाज के इतिहास व् इतिहास के महापुरुषों को इनकी लेखनी में वो तवज्जो नहीं दी गई है, जिसके हम अधिकारी और दावेदार हैं तो जाट युवा-युवती में बेचैनी और किसी मौके पर कुंठा भी होती है कि हमारा इतिहास क्यों छुपाया जा रहा है| सही भी है इन लोगों को इनकी थ्योरी पे चल के महान बनने वालों का इतिहास लिखने और गुणगान करने से फुर्सत हो तो हमारी सुध लेवें| और वो कब और क्यों लेंगे उसके बारे ऊपर बताया| वैसे मैं इनसे इसकी अपेक्षा भी नहीं करना चाहूंगा परन्तु विकिपीडिया ऐसी जगह नहीं कि जिसपे हरयाणा के बारे लिखा गया हो और जाट को ऐसे सिरे से ख़ारिज कर दिया गया हो|
 
ऐसा होने का साफ़ स्पष्ट कारण है "मंडी-फंडी अधिनायकवाद थ्योरी" और "जाटू सोशल थ्योरी" में दिन-रात का अंतर| वाजिब है कि अगर यह "जाटू सोशल थ्योरी" के बारे व् इसकी वजह से बने इतिहास के बारे ईमानदारी से लिखेंगे तो फिर इनकी थ्योरी और हिस्ट्री ठहर ही नहीं पायेगी| या ठहरेगी तो उसका अलग स्थान और मकाम होगा और जाटू थ्योरी का अपना अलग| फ़िलहाल तो कोशिश यह है कि यह थ्योरी जाटू थ्योरी को इसका स्थान देने या छोड़ने की बजाय इसको खाने की फ़िराक में है|
 
इन दोनों थ्योरियों को आप उस कंपीटिशन की तरह ले के चलें जिसको जीतने के लिए प्रतिभागियों के बीच कोई रेस होती है अथवा परीक्षा होती है| सामान्य सी बात है एक प्रतिभागी थोड़े ही अपने प्रतिध्वंधी को आगे निकलने देगा|
शायद हमें एक ब्रिज की भी जरूरत है जो कि आजतक दोनों थ्योरियों के लोगों की तरफ से बनाने के नगण्य ही प्रयास हुए हैं| परन्तु ब्रिज से भी जरूरी है कि हम अपनी ऊर्जा को इनको कोसने व् उलाहना देने पर लगाने की बजाय अपने आध्यात्म, बौद्धिकता, इतिहास व् हेरिटेज को ज्यों-के-त्यों व् जहां संसोधन जरूरी हो वो आगे की पीढ़ियों को सौंपने के आधुनिक जरिये बना के अपने अंदर के अभिजात वर्ग को और सुदृढ़ व् सुनिश्चित करें| और इसको एक परम्परा में ढाल दें|

 
आपस में विचार और जानकारी का आदान-प्रदान करते रहें और उसको आधुनिक टेक्नोलॉजी से संकलित करते रहें| बेझिझक हो "जाटू सोशल थ्योरी" पर वर्कशॉप व् सेमिनार आयोजित करने की शुरुवात करें| हमें यह समझ के चलना होगा कि हमें इन मामलों बारे इनपे भरोसा करने की बजाये हमारे खुद के समाज के अभिजात वर्ग, इंटेलेक्चुअल वर्ग को आगे बढ़ाना होगा, उनका प्लेटफार्म बनाना होगा, अन्यथा यह लोग ना हमें छोड़ेंगे और ना ही हमारे इतिहास को|

इनको कभी धर्म के नाम पर, कभी दान के नाम पर दान देने बारे भी जाट समाज को सोचना होगा, क्योंकि इस दान दिए धन से यह लोग लेखन करते आये हैं| और जब धन दे के भी यह हमारे हिस्से का इतिहास नहीं संजो रहे हमारे लिए तो फिर इनको काहे का दान? बेहतर होगा कि जाट समाज अपने धन की दिशा इनको दान देने से पहले अपने इन कार्यों को पुख्ता करने और रखने में लगावे, जिनको यह हमसे धन ले के भी नहीं कर रहे|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 13 November 2015

जाटों को मंडी-फंडी से सीखना होगा कि अपनी कौम के लीडरों और हुतात्माओं को कैसे निर्विवाद सर्वोपरी रखना होता है!

"ब्रिटेन की संसद के बाहर महात्मा गाँधी की प्रतिमा गौरव की बात!" - नरेन्द्र मोदी

यह बात यह जनाब तब कहे हैं जब खुद आरएसएस और बीजेपी गांधी के हत्यारे नत्थूराम को अपना प्रेरणास्त्रोत मानती है| है ना कमाल की बात, इनको गांधी भी चाहिए और गोडसे भी?

जबकि जाट, जो अजित सिंह खेमे का हो गया, जो बंसीलाल खेमे का हो गया, जो देवीलाल खेमे का हो गया, जो बादल खेमे का हो गया, जो कप्तान अमरिंदर खेमे का हो गया, जो नाथूराम मिर्धा खेमे का हो गया या जो हुड्डा खेमे का हो गया; तो मजाल है जो आपस में एक-दूसरे खेमे वाले जाट लीडर की प्रशंसा कर लेवें? हाँ उल्टा पब्लिकली कोसते जरूर मिल जायेंगे| न्यूट्रल रहने का तो शायद स्कोप ही नहीं होता कि चलो भाई अगर तारीफ नहीं कर सकते तो अपनी ही कौम के लीडर के बारे बुरा बोलने की बजाय न्यूट्रल रह लो|

मेरे ख्याल से कौम के हीरो की और कौम के लीडर की दूसरे खेमे में होते हुए भी कैसे इज्जत बना के रखनी है वो कोई मोदी से सीखें| मोदी बनिया जाति से हैं और गांधी भी बनिया जाति से, राजनैतिक विचारधारा भिन्न होते हुए भी गांधी को इज्जत देने से नहीं कतराते| जबकि कोई हुड्डा खेमे का जाट देवीलाल को या अजित खेमे का जाट अगर चौटाला की प्रसंशा करता हुआ मिल जाए तो बवाल हो जाते हैं, अपने खेमे के प्रति उसकी निष्ठां संदेह में घेर दी जाती है|

झूठे हैं हमारे दावे कि हम जाट सबसे ज्यादा कौम के प्रति वफ़ादारी या कटटरता रखते हैं जबकि हमसे ज्यादा आपसी टांग खिंचाई कोई नहीं करता होगा|

मेरे ख्याल से यह एक ऐसा अध्याय है राजनीति का जिसको जाट जितना जल्दी सीख लेंगे, उतना जल्दी अपनी राजनैतिक ताकत को अप्रत्याशित रूप से बढ़ा लेंगे| राजनीति किसी के घर की नहीं, परन्तु कौम का नेता सबका होता है| मंडी-फंडी से और कुछ नहीं परन्तु इतना तो सीख ही सकते हैं|

वोट डालने की चॉइस और कौम के तमाम लीडरों और हुतात्माओं को सम्मान देने को अलग-अलग रखके चलना होगा, वर्ना राजनीति ही जाट-कौम को खा जाएगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक